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Friday, June 5, 2020

विमुक्त जातियों की पहचान

Key words- Idate Commission, De-Notified Tribes, Nomadic, Semi-Nomadic, 


विमुक्त जातियों पर अपने शोध और लेखन कार्य के चलते, 11-13 सितम्बर 2017 को श्री भीकूराम इदाते जी की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय विमुक्त, घुमंतू, अर्ध- घुमंतू जनजाति आयोग में 'विमुक्त जातियों के पहचान' के सम्बन्ध में गठित वर्किंग ग्रुप के सदस्य के रूप में कार्य करने का अवसर मिला| ईश्वर की कृपा से पूर्ण मनोयोग से भारत के राजस्थान, दिल्ली, उ. प्र, उत्तराखण्ड सहित सभी राज्यों की विमुक्त जातियों की पहचान और सूचीकरण में अपना सहयोग और योगदान किया|



 11 सितम्बर 2017 को राष्ट्रीय विमुक्त, घुमंतू, अर्ध- घुमंतू जनजाति आयोग में विमुक्त जातियों के पहचान के सम्बन्ध में गठित वर्किंग ग्रुप के सदस्य के रूप में कार्य करने का अवसर मिला| छाया चित्र में बाये से दाये- विषय विशेषज्ञ डॉ शिवानी रॉय जी, डॉ एच. एन रिज़वी जी, डॉ बी. के लोधी जी, डॉ सुशील भाटी, श्री मोहन नरवरिया जी

13 सितम्बर 2017, राष्ट्रीय विमुक्त, घुमंतू, अर्ध- घुमंतू जनजाति आयोग, नई दिल्लीें, विमुक्त जातियों के पहचान के सम्बन्ध में गठित वर्किंग ग्रुप के सदस्य के रूप में कार्य करने का अवसर मिला| छाया चित्र में मध्य में आयोग के अध्यक्ष माननीय श्री भीकू रामजी इदाते, उनके बायीं तरफ आयोग के सदस्य सचिव श्री बी. के. प्रसाद जी (आई. ए. एस.) तथा आयोग के सदस्य श्री श्रवण सिंह राठोर जी|

13 सितम्बर 2017, राष्ट्रीय विमुक्त, घुमंतू, अर्ध- घुमंतू जनजाति आयोग, नई दिल्लीें, विमुक्त जातियों के पहचान के सम्बन्ध में गठित वर्किंग ग्रुप के सदस्य के रूप में कार्य करने का अवसर मिला| छाया चित्र के मध्य में डॉ सुशील भाटी, बायीं तरफ डॉ बी. के लोधी जी, तथा श्री मोहन नरवरिया जी|



श्री भीकूराम जी इदाते की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय विमुक्त, घुमंतू, अर्ध- घुमंतू जनजाति आयोग ने दिसम्बर 2017 में अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौप दी| रिपोर्ट सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध हैं|-  http://socialjustice.nic.in/writereaddata/UploadFile/Idate%20Commission.pdf

गुर्जर आरक्षण आन्दोलन और चोपड़ा समिति

Key words- Gurjar Reservation Movement, Chopra Committee, Gurjar Tribe, Gurjar Culture


मई-जून  2007 में राजस्थान के गुर्जर समुदाय ने अनुसूचित जनजाति की सूची में अपना नाम दर्ज  कराने की मांग को लेकर आन्दोलन किया, जिसमे करीब 25 लोगो की मौत के बाद, भारत के 11 राज्यों में निवास कर रहा गुर्जर समुदाय भी आंदोलित हो गया था| आज़ादी के बाद किसी भी समुदाय विशेष द्वारा किया गया यह सबसे बड़ा आन्दोलन था| गुर्जर आन्दोलन में किये गए रोड जाम, रेल रोको, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र चक्का जाम आदि से जहाँ आम जन को अनेक परेशानियों का सामना करना पडा, वही दिल्ली और उससे सटे राज्यों की सरकारे मूक दर्शक बनी दिखी| सम्पूर्ण राष्ट्र इस घटनाक्रम को टकटकी लगाये देख रहा था| इन अभूतपूर्व हालातो में राजस्थान सरकार और गुर्जर आन्दोलनकारियों के बीच एक समझोता हुआ, जिसके फलस्वरूप जस्टिस जसराज चोपड़ा की अध्यक्षता में उच्च अधिकार प्राप्त  तीन सदस्यीय समिति का गठन किया गया, जिसे तीन महीने में यह रिपोर्ट देनी थी कि गुर्जर अनुसूचित जनजाति के पात्र हैं अथवा नहीं| चोपड़ा समिति को  भारत सरकार द्वारा अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के लिए स्थापित पांच मानदंडो के आधार पर अध्ययन कर अपनी सिफारिशे देनी थी| ये पांच मान दंड इस प्रकार हैं- 1. आदिम लक्षण, 2. भोगोलिक एकाकीपन, 3. आम समुदाय से मिलने में संकोच, 4.विशिष्ट संस्कृति, 5. पिछड़ापन| अतः चोपड़ा समिति ने गुर्जरों के मांग के विचारार्थ, उक्त मानदंडो के आधार पर इनके अनुरूप, आम जनता से प्रतिवेदन आमंत्रित किये|  गुर्जर आन्दोलन के शीर्ष नेता कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के नेतृत्व वाली राजस्थान गुर्जर आरक्षण समिति द्वारा अपना प्रतिवेदन/अभ्यावेदन लिखने का कार्य डॉ सुशील भाटी को सौपा गया| उनके द्वारा लिखित  अभ्यावेदन दिनांक 16 जुलाई 2007 को चोपड़ा समिति के समक्ष प्रस्तुत किया गया|  डॉ सुशील भाटी ने भारतीय जनगणना 1901, भारतीय जनगणना 1935, लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ़ इंडिया 1918, राजपूताना गज़ेटियर, बॉम्बे गज़ेटियर, इम्पीरियल गज़ेटियर, लोकुर समिति रिपोर्ट, पीपल्स ऑफ़ इंडिया आदि सरकारी सर्वेक्षणों और रिपोर्ट्स को अभ्यावेदन का आधार बनाया| जेम्स टॉड, विलियम डेलरिम्पल आदि इतिहासकारों तथा विलियम क्रुक, आर. वी. रसेल आदि एथ्नोलोजिस्ट के अध्ययनो का उल्लेख अभ्यावेदन में किया गया|  वर्ष 2008 में, यह अभ्यावेदन, सम्पादित रूप में, "दी जर्नल ऑफ़ मेरठ युनिवेर्सिटी हिस्ट्री एलुमनी" के खंड XII  में  "गुर्जरों का जनजातिय चरित्र" नामक शीर्षक से प्रकाशित भी किया गया|

25 सितम्बर 2007 को चोपड़ा समिति ने खासा कोठी, जयपुर में गुर्जरों की मांग के विचारार्थ  मुख्य सुनवाई की| जिसमे आन्दोलन के शीर्ष नेता कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला, डॉ सुशील भाटी, डॉ रूप सिंह, श्री मान सिंह, श्री महेंदर सिंह, श्री अतर सिंह, श्री मान्धाता सिंह आदि उपस्थित रहे| डॉ सुशील भाटी ने राजस्थान आरक्षण संघर्ष समिति के अभ्यावेदन के सन्दर्भ में मुख्य तर्कों और तथ्यों को चोपड़ा समिति के समक्ष रखा तथा समिति को यह समझाने का प्रयास किया किस प्रकार गुर्जर अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा प्राप्ति हेतु निर्धारित पांच मानदंडो को पूरा करते हैं| उन्होंने इस सम्बन्ध में 16 जुलाई 2007 के अभ्यावेदन का एक पूरक प्रतिवेदन (लिखित तर्क) भी समिति को सौपा|

25 September 2007, Khasa Kothi, Jaipur, Before Chopra Committee, From the left Dr. Roop Singh, Dr. Sushil Bhati, Col. Kirodi Singh Bainsla, Shri Mahender Singh, Shri Atar Singh and Shri Man Singh

 दैनिक भास्कर दिनांक 26 सितम्बर 2007 

चोपड़ा समिति ने 15 दिसम्बर 2007 को अपनी रिपोर्ट राजस्थान सरकार को सौप दी | समिति ने रिपोर्ट में कहा कि अनुसूचित जनजाति के दर्जे के लिए वर्तमान में निर्धारित उक्त पांच मानदंड वक्त के साथ पुराने पड़ चुके हैं अतः मानदंड बदले बिना जनजाति का दर्ज़ा देने का परीक्षण संभव नहीं हैं| समिति  ने दूरदराज़ के पिछड़े क्षेत्रो जैसे डांग, छिंद, वन, एवं पहाड़ी इलाको में रहने वाले लोगो के विकास के लिए एक बोर्ड का गठन करने तथा विशेष पैकेज का सुझाव दिए|  

अनुसूचित जनजाति के दर्जे के अपने  दावे के पक्ष राजस्थान गुर्जर आरक्षण समिति के द्वारा तमाम दस्तावेज़ और प्रमाण उपलब्ध कराये गए उसे देखते हुए कुछ अखबारों द्वारा इनकी मांग पर सकारात्मक रूख अपनाया गया| इस सम्बन्ध में नीचे दी गई रिपोर्ट भी खास मायने रखती हैं-

Tuesday, May 26, 2020

श्रीमद आदिवराह मिहिर भोज की राजनैतिक एवं सैन्य उपलब्धियां


डॉ सुशील भाटी

भोज गुर्जर प्रतिहार वंश का महानतम सम्राट था| भोज को भोजदेव भी पुकारा जाता था, ग्वालियर तथा दौलतपुर अभिलेखो में उसे ‘भोजदेव’ ही लिखा गया हैं| मिहिर, प्रभास और आदिवराह उसके बिरूद थे| दौलतपुर अभिलेख अभिलेख में उसके बिरुद ‘प्रभास’ का उल्लेख हैं| ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख में उसे श्रीमद ‘आदिवराह’ और ‘मिहिर’ पुकारा गया हैं| सागरताल प्रशस्ति में उसका मिहिर- जिसे भोज भी जाना जाता हैं, के रूप में उल्लेख हुआ हैं| अतः भोज परमार से भोज गुर्जर प्रतिहार की भिन्नता प्रकट करने के लिए आधुनिक इतिहासकार इसे मिहिर भोज भी कहते हैं|
मिहिर भोज के पिता का नाम रामभद्र तथा माता का नाम अप्पा देवी था| रामभद्र सूर्य का परम भक्त था| मान्यता थी कि सूर्य के आशीर्वाद से उसके घर भोज का जन्म हुआ था| मिहिर भोज का शासन काल 836 - 885 ई. माना जाता हैं, जिसमे इन्होने अपनी राजधानी कन्नौज (महोदय) से उत्तर भारत पर शासन किया| वह नवी शताब्दी का एक महान सेना नायक और साम्राज्य निर्माता था| ग्वालियर अभिलेख में उसे भगवती का परम भक्त कहा गया हैं|

मिहिरभोज की आरंभिक राजनैतिक परिस्थिति –
मिहिरभोज के दादा नागभट II (805-833 ई.) ने,  सम्राट हर्षवर्धन के समय से उत्तर भारत की शाही राजधानी और संप्रभुता की प्रतीक कन्नौज नगरी को जीत कर एक साम्राज्य की नीव रख दी थी| किन्तु मिहिरभोज का पिता रामभद्र (833 ई.) एक कमज़ोर शासक था, जिसके शासनकाल में प्रतिहारो के शासन की बागडोर शिथिल पड़ गई थी| सामंत सिर उठाने लगे तथा प्रतिहार साम्राज्य सिकुड़ गया था| हालाकि कन्नौज पर तब भी रामभद्र का अधिकार बना रहा, क्योकि हम देखते हैं कि मिहिरभोज के शासनकाल के पहले वर्ष का बराह तामपत्र अभिलेख (836 ई.)  उसने महोदय (कन्नौज) से ही जारी किया था| ग्वालियर क्षेत्र पर भी सभवतः रामभद्र के अधिकार में था| इन राजनैतिक परिस्थितियों में मिहिरभोज ने शासन की बागडोर संभाली|

गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य  का निर्माण - मिहिरभोज ने सबसे पहले उन राज्यों को वापिस लेने का प्रयास किया जो उसके पिता के नियंत्रण से बाहर निकल गए थे| बराह ताम्रपत्र अभिलेख (836 ई.) से ज्ञात होता हैं कि मिहिर भोज ने सर्वप्रथम कालंजर मंडल (बुंदेलखण्ड) में अपनी सर्वोच्चता स्थापित की तथा अपने दादा नागभट II के समय के उस भूमिदान का पुनः नवीनीकरण किया, जोकि उसके पिता रामभद्र के समय अप्रचलित हो गया था| बुन्देलखण्ड के झासी जिले में स्थित देवगढ़ नामक स्थान से प्राप्त अभिलेख (862 ई.) से ज्ञात होता हैं कि भोजदेव ने देवगढ भुक्ति में महासामंत विष्णुराम की तैनाती कर रखी थी| समीपवर्ती ग्वालियर क्षेत्र रामभद्र के समय में भी प्रतिहारो के अधिकार में था| ग्वालियर अभिलेखो (874,75 ई.) के अनुसार गोपाद्री (ग्वालियर) में रामदेव (रामभद्र) ने मर्यादा-धुर्यतथा आदिवराह भोजदेव ने कोट्टपाल (किलेदार) तैनात कर रखे थे|
कालंजर मंडल की विजय के बाद उसने अपने चाहमान सामंत की सहयता से अरबो को पराजित किया जो सभवतः चम्बल नदी तक घुस आये थे| चाहमान शासक चन्द महासेन के धोलपुर अभिलेख (842 ई.) के अनुसार चर्मनवती (चम्बल) नदी के तट पर म्लेच्छ (अरब) शासको ने उसकी आज्ञा का पालन किया| सभवतः चन्द महासेन मिहिरभोज का सामंत था और उसने यह विजय अपने स्मिहिर भोज की सहयता से प्राप्त की थी|

इसी संघर्ष के बाद मिहिर भोज ने  गुर्जरत्रा भूमि पर विजय प्राप्त की| दौलतपुर ताम्रपत्र अभिलेख (843 ई.) के अनुसार मिहिरभोज ने एक अन्य भूमिदान का गुर्जरत्रा-भूमि में पुनरुद्धार किया, जोकि उसके पड़-दादा वत्सराज के समय स्वीकृत और उसके दादा नाग भट के द्वारा अनुमोदित किया गया था| यह भूमिदान गुर्जरत्रा भूमि के डेडवानक विषय के सिवा ग्राम से सम्बंधित हैं| जोधपुर क्षेत्र में इस समय मंडोर का प्रतिहार वंश मिहिर भोज का सामंत था, सभवतः गुर्जरत्रा भूमि उनके शासन के अंतर्गत थी| मंडोर के प्रतिहार शासको में बौक का जोधपुर अभिलेख (837 ई.) तथा कक्कुक के घटियाला अभिलेख (867 ई.) प्राप्त हुआ हैं|

मेवाड़ क्षेत्र में गुहिल मिहिर भोज के सामंत थे| गुहिल राजवंश के शासक बालादित्य के चाटसू अभिलेख से ज्ञात होता हैं कि उसके पूर्वज हर्षराज ने उत्तर की विजय के बाद अपने स्वामी भोज को घोड़े भेट कियें|

धौलपुर के अतिरिक्त दक्षिण राजस्थान में भी चौहान मिहिर भोज के सामंत थे| दक्षिण राजस्थान से प्राप्त प्रतिहार शासक महेंदेरपाल II के प्रतापगढ़ अभिलेख (955 ई.) के अनुसार चाहमान राजाओ का परिवार सम्राट भोजदेव के लिए बहुत प्रसन्नता का स्त्रोत रहा हैं| अतः प्रतापगढ़ का चाहमान शासक गोविन्दराज मिहिर भोज का सामंत था| शाकुम्भरी के चाहमान शासक गूवक II ने अपनी बहन कलावती का विवाह मिहिरभोज के साथ कर अपने सम्बंधो को मज़बूत बना लिया था| इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक राजस्थान में मंडोर के प्रतिहार, मेवाड़ के गुहिलोत तथा प्रतापगढ़, धौलपुर और शाकुम्भरी के चौहान मिहिरभोज के सामंत थे|

इस प्रकार मिहिरभोज ने सबसे बुन्देलखण्ड और आधुनिक राजस्थान में गुर्जर प्रतिहारो की सत्ता को पुनर्स्थापित किया|

सौराष्ट्र पर मिहिरभोज के शासन की जानकारी हमें स्कन्दपुराण से प्राप्त होती हैं| स्कन्दपुराण के प्रभासखंड में वस्त्रापथ माहात्मय के अनुसार कन्नौज के शासक भोज ने सौराष्ट्र में वनपाल को तैनात किया और एक सेना भेजी| प्रतिहार शासक महेंदरपाल के सामंत अवनिवर्मन II चालुक्य द्वारा निर्गत ऊना प्लेट अभिलेख से भी मिहिरभोज के कच्छ और कठियावाड़ पर उसके अधिकार होने की बात पता चलती हैं| अवनिवर्मन II चालुक्य द्वारा निर्गत ऊना प्लेट अभिलेख के अनुसार उसके पूर्वज बलवर्मन, जोकि सभवतः मिहिरभोज का सामंत था, द्वारा विषाढ और जज्जप आदि हूण राजाओ को पराजित करने का उल्लेख हैं| अतः कच्छ और काठियावाड़ मिहिरभोज के साम्राज्य का एक हिस्सा थे|
उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल मिहिर भोज के अधिकार में था| गोरखपुर जिले के कहला नामक स्थान से प्राप्त अभिलेख (1077 ई.) से ज्ञात होता हैं कि उत्तर में मिहिर भोज आधिपत्य को हिमालय की तराई तक स्वीकार किया जाता था| कहला अभिलेख के अनुसार मिहिर भोज  ने गोरखपुर जिले में कुछ भूमि कलचुरी वंश के गुनामबोधिदेव को उपहार में दी थी| अतः स्पष्ट हैं कि मध्यदेश में मिहिरभोज की स्थिति सुदृढ़ थी|

दिल्ली क्षेत्र मिहिर भोज के साम्राज्य का अंग था| दिल्ली से भी श्री भोजदेव के समय का एक टूटा हुआ अभिलेख मिला हैं, जिसमे एक देवकुल के निर्माण का उल्लेख हैं|

उत्तर पश्चिम में मिहिरभोज का साम्राज्य हरयाणा के करनाल जिले तक विस्तृत होना प्रमाणित हैं| करनाल जिले में स्थित पेहोवा नामक स्थान से प्राप्त अभिलेख (883 ई.) में मिहिरभोज के राज्यकाल के अंतर्गत, पृथुद्रक (आधुनिक पेहोवा) के स्थानीय मेले में, घोड़ो के व्यापारियों के लेनदेनको अभिलेखित किया गया हैं| अतः स्पष्ट हैं कि उत्तर पश्चिम में हरयाणा के करनाल तक के क्षेत्र मिहिरभोज के साम्राज्य का हिस्सा थे|राजतरंगिनी के पुस्तक V , छंद 151 के अनुसार अधिराज भोज ने पंजाब में थक्कीय वंश के कुछ क्षेत्रो को अधिग्रहित कर लिया था|

मिहिर भोज और बंगाल के पाल- पूर्व की तरफ साम्राज्य विस्तार के प्रयास में मिहिरभोज का टकराव बंगाल के तत्कालीन पाल शासक देवपाल (815-855 ई.) तथा उसके उत्तराधिकारी नारयणपाल (855 908 ई.) के साथ होना स्वाभाविक था| नारायणपाल के बादल अभिलेख से ज्ञात होता हैं कि देवपाल ने ‘गुर्जरनाथ’ के दर्प को चूर कर दिया था| सभवतः उसने गुर्जर प्रतिहार वंश के मिहिरभोज के पिता रामभद्र (833-836 ई.) को पराजित किया था|

मिहिरभोज और बंगाल के पालो के संघर्ष में अंतिम विजय मिहिरभोज की हुई थी| मिहिर भोज की इस विजय में उसके गुहिलोत सामंत हर्षराज के पुत्र गुहिल उसके तथा गोरखपुर के कलचुरी सामंत गुनामबोधिदेव ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी| गुहिल वंशी बालादित्य के चाटसू अभिलेख के अनुसार उसके एक पूर्वज हर्षराज ने उत्तर में राजाओ पर विजय प्राप्त कर भोज को घोड़े भेंट किये| हर्षराज के पुत्र गुहिल II ने सुमंद्री किनारे से प्राप्त शानदार घोड़ो से गौड़ के राजा का पराजित किया और पूरब के राजाओ से नजराने वसूल किये| सभवतः गुहिल भी अपने पिता हर्षराज की भांति मिहिर भोज का सामंत था और उसने ये विजय अपने अधिपति भोज के लिए प्राप्त की थी| गोरखपुर जिले से प्राप्त 1077 ई. के कहला प्लेट अभिलेख के अनुसार कलचुरी वंश के गुनामबोधिदेव ने भोजदेव से एक भूमि क्षेत्र प्राप्त किया और उसने गौड़ के सौभाग्य को छीन लिया| गुहिल और गुमानबोधिदेव ने गौड़ शासक पर ये विजय अपने सम्राट मिहिरभोज के लिए उसके नेतृत्व में प्राप्त की थी|

ग्वालियर प्रशस्ति (874 ई.) के अठारहवे पद्य के आधार पर डॉ बी. एन. पूरी ने यह निष्कर्ष निकला हैं कि मिहिर भोज की ये विजय धर्मपाल के पुत्र (देवपाल) के समय में हुई थी| मिहिरभोज ने पालो को पराजित कर उनके राज्य के एक बड़े हिस्से को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था| बिहार मिहिर भोज के साम्राज्य के अंतर्गत ही था, क्योकि बिहार का पश्चिमी भाग आज भी उसके नाम पर भोजपुर कहलाता हैं| मिहिर भोज के उत्तराधिकारी महेन्द्रपाल (885-912 ई.) के पहाडपुर अभिलेख, जोकि उसके राज्यकाल के पांचवे वर्ष का हैं,  के अनुसार बिहार और उत्तरी बंगाल प्रतिहार साम्राज्य के अंग थे| सभवतः ये क्षेत्र मिहिर भोज के समय ही विजित कर लिए गए थे| मिहिरभोज की इस विजय के साथ ही उत्तर भारत की संप्रभुता लिए चले रहे संघर्ष में बंगाल के पालो की चुनौती का अंत हो गया|

मिहिर भोज और दक्कन के राष्ट्रकूट-  प्रतापगढ़ अभिलेख (955 ई.) के अनुसार चाहमान राजाओ का परिवार सम्राट भोजदेव के लिए बहुत प्रसन्नता का स्त्रोत रहा हैं| प्रतापगढ़ का चाहमान शासक गोविन्दराज मिहिर भोज का सामंत था| दक्षिणी राजस्थान और उज्जैन के आस-पास के क्षेत्रो पर अपना विजयी परचम लहराने के पश्चात मिहिर भोज ने अपने खानदानी शत्रु राष्ट्रकूट वंश से अपनी शक्ति अजमाने का निश्चय किया| राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष (814-878 ई.) तथा कृष्ण II (880-914 ई.) मिहिर भोज के समकालीन शासक थे| अमोघवर्ष के आरंभिक शासनकाल में उसे गंग वंश और वेंगी के चालुक्यो के विद्रोह का सामना करना पड़ा| लाट प्रदेश की राष्ट्रकूट शाखा ने भी उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया था, इस शाखा कि स्थापना गोविन्द III के भाई इंद्र ने 800 ई. में की थी|

मिहिरभोज का राष्ट्रकूटो की दोनों शाखाओ से युद्ध हुआ| सभवतः मिहिरभोज ने अमोघवर्ष और लाट शाखा के ध्रुव II के आपसी संघर्ष का लाभ उठाते हुए लाट को जीतने का प्रयास किया था, किन्तु आरम्भ में वह सफल नहीं हो सका| राष्ट्रकूटो की लाट शाखा के शासक ध्रुव II की बेगुम्रा प्लेट अभिलेख (867 ई.) के अनुसार उसके ऊपर दो तरफ़ा हमला हुआ एक तरफ शक्तिशाली ‘गुर्जर’ तो दूसरी तरफ श्री वल्लभराज था, परन्तु उसके चमचमाते इस्पात की धड़क के समक्ष सब शांत हो गए| इस अभिलेख में गुर्जर मिहिरभोज को तथा वल्लभराजअमोघवर्ष को कहा गया हैं|

मिहिरभोज की साम्राज्यवादी इरादों को समझते हुए राष्ट्रकूटो की दोनो शाखाओ में संधि हो गई| लाट के राष्ट्रकूट शासक कृष्णराज के बेगुमरा प्लेट अभिलेख (888 ई.) के अनुसार उसने मान्यखेट के राष्ट्रकूट शासक कृष्ण II के साथ मिलकर उज्जैन के गुर्जर राजा को पराजित किया| उज्जैन का यह गुर्जर राजाकौन हैं, सभवतः यह मिहिरभोज अथवा उसका कोई सामंत हैं|| राष्ट्रकूटो की लाट शाखा का यह अंतिम अभिलेख हैं, सभवतः इसके पश्चात मिहिरभोज ने इन्हें पराजित कर लाट को गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य में मिला लिया|

जैसा पूर्व में भी कहा जा चुका हैं कि सौराष्ट्र पर मिहिरभोज के शासन की जानकारी हमें स्कन्दपुराण से प्राप्त होती हैं| स्कन्दपुराण के प्रभासखंड में वस्त्रापथ माहात्मय के अनुसार कन्नौज के शासक भोज ने सौराष्ट्र में वनपाल को तैनात किया और एक सेना भेजी|

मिहिरभोज का युद्ध राष्ट्रकूटो की मान्यखेट शाखा से भी हुआ, जो अपने साहसिक प्रतिरोध के बावजूद मालवा और गुजरात क्षेत्र में उसके विजयी अभियानों को रोकने में अंततः सफल नहीं हो सकी| मान्यखेट शाखा के इंद्र III के बेगुमरा प्लेट अभिलेख (914 ई.) के अनुसार उसके पूर्वज कृष्ण II ने गर्जद गुर्जरके साथ युद्ध में साहस और पराक्रम का प्रदर्शन किया| बार्टन म्यूजियम, भावनगर में रखे एक टूटे हुए अभिलेख में (व) राह का उल्लेख हैं, यह हमें आदिवराह (मिहिरभोज) की याद दिलाता हैं| इसमें यह भी बताया गया कि कृष्णराज तेज़ी से अपने राज्य में लौट गया| इस कृष्णराज की पहचान राष्ट्रकूट शासक कृष्ण II से की जाती हैं| अतः इस संघर्ष में मिहिरभोज के भारी पड़ने के स्पष्ट संकेत दिखाई पड़ते हैं|

मिहिर भोज और अरब आक्रान्ता-  मिहिर भोज के शासन सभालने के एक वर्ष के भीतर ही सिंध के अरबी सूबेदार ने आस-पास के क्षेत्रो को जीतने का प्रयास किया | लेकिन 833-843 के मध्य अरबो को परास्त कर कच्छ से भगा दिया| कुछ ही वर्षो में गुर्जर प्रतीहारो ने अरबो से सिंध का एक बड़ा भाग जीत लिया| चाहमान शासक चन्द महासेन के धोलपुर अभिलेख (842 ई.) के अनुसार चर्मनवती नदी के तट पर म्लेच्छ (अरब) शासको ने उसकी आज्ञा का पालन किया| सभवतः वह मिहिरभोज का सामंत था और उसने यह विजय अपने अधिपति मिहिर भोज की सहयता से प्राप्त की थी|

851 ई. में सुलेमान नाम का अरब भूगोलवेत्ता और व्यापारी भारत आया| उसने अपने ग्रन्थ सिलसिलात-उत तवारीखमें मिहिरभोज की सैन्य शक्ति और प्रशासन की प्रसंशा की हैं तथा गुर्जर साम्राज्य की समृधि और सैन्य शक्ति का शानदार विवरण प्रस्तुत किया हैं| वह लिखता हैं कि हिन्द के शासको में एक गुर्जर हैं जिसके पास विशाल सेना हैं, हिन्द के किसी अन्य शासक के पास उसके जितनी अच्छी घुड़सवार सेना नहीं हैं| वह अरबो का दुश्मन हैं| हिन्द के शासको में उससे से बढ़कर कोई इस्लाम का शत्रु नहीं हैं| वह बहुत धनवान हैं, उसके पास असख्य ऊट और घोड़े हैं| उसके राज्य में लेन-देन चांदी और सोने के सिक्को में होता हैं| ऐसा कहा जाता हैं कि उसके राज्य में इन धातुओ की खाने हैं| भारत में कोई भी राज्य लुटेरो से अधिक सुरक्षित नहीं हैं, जितना की गुर्जर साम्राज्य हैं|

अरबी लेखक अल मसूदी (900-940 ई.) के अनुसार सिन्धु नदी गुर्जर साम्राज्य के एक शहर के बीच से बहती थी| अरबो के पास दो छोटे-छोटे राज्य रह गए थे जिनकी राजधानी अल मंसूरा और मुल्तान थी| अरबी लेखक बिलादुरी कहता हैं कि अल-हाकिम इब्न-अवान्हा के समय अल हिन्दमें मुसलमानों को ऐसा कोई स्थान ढूंढे से भी नहीं मिलता था ज़हा भागकर वो अपनी जान बचा ले| इसलिए उसने अल हिन्द की सीमा के बाहर झील के दूसरी तरफ मुसलमानों की पनाहगाह के रूप में अल मह्फूज़ा नाम का शहर बसाया जहा मुसलमान सुरक्षित रह सके और उसे अपनी राजधानी बना सके| मिहिर भोज ने अरबो को को शेष सिंध और मुल्तान से निकालने के प्रयास किये किन्तु अरब शासको द्वारा मुल्तान के सूर्य मंदिर को तोड़ने की धमकी देने पर वह पीछे हटने पर मजबूर हो जाता था|

कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार शासको के विरोध में सिंध के अरब शासको और दक्कन के राष्ट्रकूट शासको ने गठजोड़ कर लिया| बंगाल के पाल भी यदा-कदा इनके पीछे ही खड़े नजर आये| मिहिरभोज की शक्ति के समक्ष सिंध और मुल्तान के अरब शासक तो असहाय निशक्त निस्तेज हो गए थे| किन्तु इसी बीच  सीस्तान के अरब शासक याकूब बिन लेथ ने शाही शासको से 870 ई में काबुल जीत लिया और भारत की सुरक्षा के लिए एक नया संकट खड़ा हो गया| अतः इसके ज़वाब में कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार शासक मिहिर भोज ने पंजाब के अलखान गुर्जर तथा उदभांडपुर के शाही शासक लल्लिया के साथ  गटबंधन कर लिया| इतिहासकार हरमट ने तोची घाटी अभिलेख के आधार पर निष्कर्ष निकला हैं कि मिहिर भोज ने पश्चिम की तरफ अपने राज्य का विस्तार किया तथा लल्लिया शाही (875-90 ई.) को काबुल और कंधार प्राप्त करने में उसकी मदद की| हरमट के अनुसार मिहिर भोज ने लल्लिया शाही को याकूब बिन लेथ के विरुद्ध तैनात किया|

इस प्रकार बंगाल के पालो, दक्कन के राष्ट्रकूटो और सिंध-मुल्तान के अरबो मिहिरभोज ने विशाल साम्राज्य का निर्माण किया| उत्तर में हिमालय की तराई से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के तट तक तथा पश्चिम में सिंध से लेकर पूर्व में बंगाल तक| उत्तर-पश्चिम में करनाल जिले तक मिहिरभोज का साम्राज्य विस्तृत था| वर्तमान हरयाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल के कुछ हिस्से, राजस्थान, मध्य प्रदेश, सिंध और गुजरात मिहिरभोज के साम्राज्य के अंतर्गत आते थे| पंजाब का शासक अलखान गुर्जर तथा काबुल और पेशावर घाटी का शासक उदानभंड का लल्लीय शाही उसके मित्र थे| इन दोनों की अरबो और कश्मीर के शासक के विरुद्ध मिहिरभोज के साथ एक संधि थी| पशिमी-उत्तर भारत के ये सभी राज्य मिहिरभोज के प्रभाव-क्षेत्र के अंतर्गत थे|

इस प्रकार हम देखते हैं कि मिहिर भोज ने अपने पिता रामभद्र से एक कमज़ोर राज्य प्राप्त किया था, जिसे उसने अपने सैन्य विजयो से एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया| मिहिर के नेतृत्व में स्थापित गुर्जर साम्राज्य आकार में हर्षवर्धन के साम्राज्य से भी बड़ा तथा गुप्त साम्राज्य से किसी भी तरह कमतर नहीं था| उसने बंगाल के पाल शासको को पराजित कर तथा दक्कन के राष्ट्रकूटो को पीछे ठेल कर, सार्वभौमिक सत्ता का प्रतीक कन्नौज नगरी के लिए चल रहे ऐतिहासिक त्रिकोणीय संघर्ष का अंत कर दिया| मिहिर भोज और उसके वंश की सबसे बड़ी राजनैतिक सफलता उस अरब साम्राज्यवाद से भारत की रक्षा करना था, जिसने अल्पकाल में ही लगभग एक तिहाई पुरानी दुनिया को निगल, आठवी शताब्दी के आरम्भ में भारत की सीमा पर दस्तक दे दी थी| तीन शताब्दियों तक गुर्जर प्रतिहारो ने अरबो को भारत की सीमा पर रोक कर रखा| दक्कन के राष्ट्रकूट अपने राजनैतिक स्वार्थो के लिए जहाँ अरबो के साथ मिल गए, वही मिहिर भोज ने काबुल-पेशावर के हिन्दू शासक लल्लिया शाही और पंजाब के अलखान गुर्जर के साथ परिसंघ बनाकर अरबो का डट कर मुकाबला किया| आर. सी. मजुमदार के अनुसार मिहिर भोज मुस्लिम आक्रमणों के सामने वह अभेद दीवार की भाति था| अपना यह गुण वह अपने उत्तराधिकारियों को विरासत में दे गया”|

सन्दर्भ –

1. R S Sharma, Indian Feudalism, AD 300-1200, Delhi, 2006, P 88-89 https://books.google.co.in/books?isbn=1403928630
2. B.N. Puri, History of the Gurjara Pratiharas, Bombay, 1957
3. V. A. Smith, The Gurjaras of Rajputana and Kanauj, Journal of the Royal Asiatic Society of            Great Britain and Ireland, (Jan., 1909), pp.53-75
4. V A Smith, The Oford History of India, IV Edition, Delhi, 1990
5. P C Bagchi, India and Central Asia, Calcutta, 1965
6. Romila Thapar, A History of India, Vol. I., U.K. 1966.
7. R S Tripathi, History of Kannauj,Delhi,1960
8. K. M. Munshi, The Glory That Was Gurjara Desha (A.D. 550-1300), Bombay, 1955
9.सुशील भाटी, विदेशी आक्रान्ता और गुर्जर प्रतिरोध (पूर्व मध्यकाल)
10 . Dirk H A Kolff, Naukar Rajput Aur Sepoy, CUP, Cambridge, 1990