डॉ सुशील भाटी
अरब साम्राज्यवाद की भारत को चुनौती- खलीफा उमर (634-44 ई) के समय अरबी साम्राज्य का
तीव्र गति से विकास हुआ| 637-647 ई. के बीच हुए सैनिक अभियानों में सीरिया, इराक,
ईरान और मिश्र पर मदीना का नियंत्रण स्थापित हो गया| उसके पश्चात खलीफा उस्मान
(644-656 ई.) ने मध्य एशिया पर नियंत्रण के लिए सैनिक अभियान भेजे| खलीफा उस्मान
के शासन काल में मिश्र और ईरान में अरब साम्राज्य का विस्तार होता रहा| इस प्रकार
कुछ ही दशक में अरबी साम्राज्य मिश्र स्थित नील नदी से लेकर भारत की सीमा तक फ़ैल
गया| अरबो ने भारत विजय के प्रयास सातवी शताब्दी के मध्य में ही आरम्भ कर दिए थे
किन्तु आंधी तूफ़ान की गति से बढ़ रहे अरब भारत की सीमा पर ठहर गए|
अरबो द्वारा पश्चिमीओत्तर भारत विजय अभियान तथा
काबुल शाही द्वारा प्रतिरोध- अरबो
ने पूर्वी ईरान स्थित सीस्तान को 650 ई. के लगभग जीत लिया था| सीस्तान को सैनिक
ठिकाना बनाकर, अरबो ने सर्व प्रथम, पश्चिमीओत्तर भारत में काबुल-कपिशा तथा गंधार
क्षेत्र को जीतने का प्रयास किया| काबुल-कपिशा के शाही राजाओ ने 666 के लगभग अरबो
के काबुल जीतने के प्रयासों को असफल कर दिया| अतः अरब साम्राज्यवाद की आंधी को
पहला झटका भारत में काबुल-कपिशा के शाही राजाओ से प्राप्त हुआ|
डी. बी. पाण्डेय आदि इतिहासकार काबुल-कपिशा के
शाही वंश को हूणों से सम्बंधित करते हैं| अल बिरूनी (1030 ई.) के अनुसार इस वंश का
पहला शासक बरहतकिन (बराह तेगिन) था तथा वह इन्हें कनिक (कनिष्क कुषाण) से सम्बंधित
करता हैं| इस बात के अन्य प्रमाण भी हैं
कि भारत में हूणों ने, किदार हूण तथा अलखान हूणों ने, अपने को कुषाणों का वारिस
माना हैं| किदार और अलखान हूण दोनों ही कुषाणों की उपाधि ‘शाही’ धारण करते थे|
किदार हूण तो अपने सिक्को पर कुषाण ‘कोशानो’ अंकित कराते थे इसलिए कुछ इतिहासकार
इन्हें किदार कुषाण कहते हैं| कनिक (कनिष्क) के वंशज पुकारे जाने वाले काबुल-कपिशा
के शाही शासको को हेन सांग (645 ई) क्षत्रिय कहता हैं तथा इनका निवास उदभांडपुर
बताता हैं| कल्हण के अनुसार भी शाही क्षत्रिय थे तथा इनकी राजधानी उदभांडपुर थी|
इस राज्य का दक्षिण भाग (गजनी क्षेत्र) जाबुल कहलाता था तथा यहाँ का प्रान्त पति
काबुल शाह के परिवार का सदस्य होता था| अरबी स्त्रोतों में इसे ‘रतबिल’ कहा गया
हैं| शाही वंश ने आगामी शताब्दियों में एक दीवार की तरह अरबो से भारत की रक्षा
की| यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय हैं कि
एलेग्जेंडर कनिंघम ने कुषाणों की पहचान गुर्जरों से की हैं तथा वी. ए. स्मिथ,
विलियम क्रुक आदि इतिहासकारों ने गुर्जरों को हूणों से सम्बंधित किया हैं|
697 – 98 में अरबो ने जाबुल को पुनः जीतने का
प्रयास किया| परन्तु एक निर्णायक युद्ध में शाही शासको अरबो को पराजित कर दिया
जिसमे अरबी सेनापति याज़िद ज़ियाद मारा गया|
अरबो द्वारा सिंध मुल्तान की विजय - मुल्तान के दक्षिण में स्थित निचला सिन्धु घाटी
क्षेत्र सिंध कहलाता हैं| चचनामा के अनुसार आठवी शताब्दी के आरम्भ राजा दाहिर
राजधानी ब्राह्मणाबाद से सिंध पर शासन कर रहा था| देबल सिंध उसका मुख्य शहर था|
सीलोन (श्री लंका) के राजा ने कुछ कीमती उपहार समुन्द्र के रास्ते एक
जहाज़ से ईरान के अरबी गवर्नर हज्जाज के लिए भिजवाए थे| जिन्हें रास्ते में ही देबल
में लूट लिया गया| अरबो के कहने पर भी राजा दाहिर ने लुटेरो पर कोई कारवाही नहीं
की| अतः इस बहाने से ईरान के गवर्नर हज्जाज के सेनापति मोहम्मद बिन कासिम ने 712
ई. में सिंध स्थित देबल बंदरगाह पर आक्रमण
कर दिया| अरबो के सेनापति मोहम्मद बिन कासिम राजा दाहिर को परास्त कर देबल और
ब्रह्मणाबाद जीत लिया| उसके बाद अरबो ने 723 ई. में मुल्तान पर विजय प्राप्त कर
अपनी सिंध विजय पूर्ण कर ली| इस प्रकार अरबी साम्राज्यवाद के समक्ष एक भारतीय
राज्य ढेर हो गया|
जुनैद का भारत पर आक्रमण तथा गुर्जर परिसंघ
द्वारा प्रतिरोध - सिंध विजय के पश्चात् अरबो ने उत्तर भारत की विजय के
लिए अभियान आरम्भ कर दिए| अरब खलीफा हिशाम (724-743 ई.) ने जुनैद को सिंध का
गवर्नर नियुक्त किया| जुनैद ने सिंध में अरब शक्ति को मज़बूत किया तथा विस्तारवादी
नीति को अपनाया| बिलादुरी के अनुसार उसने अपने सैन्य अधिकारियो को मरमद (मरू-मार),
मंडल (वल्ल मंडल), दहनाज, बरुस (भड़ोच), उजैन (उज्जैन) और मालिबा (मालवा) पर आक्रमण
करने के लिए भेजा| जुनैद ने स्वयं अल बैलमान (भीनमाल) और जुर्ज़ (गुर्जर) को जीता|
नवसारी अभिलेख से भी हमें इस अरब आक्रमण का पता चलता हैं| पुल्केशी जनाश्रय के
नवसारी अभिलेख (738 ई.) के अनुसार “ताज़िको
(अरबो) ने तलवार के बल पर सैन्धव (सिंध), कच्छेल्ल (कच्छ),
सौराष्ट्र, चावोटक (चापोत्कट, चप, चावडा), मौर्य (मोरी),
गुर्जर आदि को नष्ट कर दिया था|
जुनैद
ने नेतृत्व में, 724 ई. में पश्चिमी भारत पर हुए अरब
आक्रमण ने एक अभूतपूर्व संकट उत्पन्न कर दिया| इस संकट के
समय भी हूण-गुर्जर समूह के राज्य एक साथ उठ खड़े हुए| इस बार
इनका नेतृत्व गुर्जर-प्रतीहार शासक नाग भट I ने
किया| मिहिरभोज के ग्वालियर अभिलेख के अनुसार प्रताड़ित जनता
की प्रार्थना पर नाग भट नारायण के अवतार के रूप में प्रकट हुआ तथा उसने मलेच्छो
(अरबो) की सेना को पराजित किया| यह कहना कठिन कि अरब आक्रमण
के समय नाग भट I किस स्थान का शासक था अथवा उसकी राजनैतिक स्थिति क्या थी| परन्तु
ऐसा प्रतीत होता हैं कि उस समय उज्जैन उसके राज्य का हिस्सा था| जैन ग्रन्थ हरिवंश
में गुर्जर प्रतीहार शासक वत्सराज को अवन्तीनाथ कहा गया हैं| अमोघवर्ष के संजान
प्लेट अभिलेख से पता चलता हैं कि राष्ट्रकूट शासक दन्तिदुर्ग (753-756 ई.) के समय
उज्जैन का शासक गुर्जर था|
बिलादुरी
ने अरब सैन्य अधिकारियो द्वारा मरमद
(मरू-मार), मंडल (वल्ल मंडल), दहनाज, बरुस (भड़ोच), उजैन (उज्जैन) और मालिबा
(मालवा) पर आक्रमण का उल्लेख मात्र किया हैं, इन सैन्य अभियानों के परिणामो के
विषय में वह मौन हैं| केवल जुनैद द्वारा जुर्ज़ (गुर्जर) और उसकी राजधानी अल बैलमान
(भीनमाल) को जीतने का उसने वर्णन किया हैं| अतः ऐसा प्रतीत होता हैं कि बढ़ते हुए
अरब आक्रमण को नाग भट | ने उज्जैन से पीछे धकेल दिया था और अरबो को सिंध तक सीमित
कर दिया|
प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम प्लेट अभिलेख के अनुसार
भड़ोच के गुर्जर शासक जय भट IV ने वर्ष 735-36
ई में वल्लभी में ताज्जिको (अरबो) को पराजित किया|
वह
नवसारी प्लेट अभिलेख (738-739 ई.) के अनुसार ज़ब अरबो ने दक्षिणपथ (दक्कन) में
प्रवेश करने का प्रयास किया तो वातापी के चालुक्यो के सामंत पुल्केशीराज जनाश्रय
ने भी नवसारी के पास अरबो को पराजित किया था| पुल्केशीराज सभवतः दक्षिण गुजरात, कोंकण एक हिस्से तथा नासिक क्षेत्र
का प्रान्त पति था| इतिहासकार वी. ए. स्मिथ, डी. आर. भंडारकर चालुक्यो को गुर्जर
मानते हैं|
ऐसा प्रतीत होता हैं कि कन्नौज के गुर्जर
प्रतिहार, भड़ोच के गुर्जर तथा वातापी के चालुक्य ने अरबो के विरूद्ध एक परिसंघ बना
कर इस विदेशी आक्रमण को विफल कर भारतीय समाज और संस्कृति की रक्षा की| इसी समय से
उज्जैन के गुर्जर शासक नाग भट और उसके वंशजो ने लगभग तीन सों वर्ष तक भारत की अरब
साम्राज्यवाद से रक्षा की |
गुर्जर साम्राज्य का उदय तथा अरब साम्राज्यवाद से
भारत की रक्षा- कालांतर में नाग भट II के नेतृत्व में उज्जैन के
गुर्जर-प्रतिहारो ने कन्नौज को जीतकर उसे अपनी राजधानी बनाया| अल इदरीसी (1154 ई,) के अनुसार के अनुसार गुर्जर
प्रतिहार शासको उपाधि गुर्जर थी तथा उनके साम्राज्य का नाम भी ‘गुर्जर’ था| गुर्जर
प्रतिहार साम्राज्य उत्तर भारत में विस्तृत था| भोज महान (836-886 ई.) और उसके
पुत्र महेंद्रपाल (886-915 ई.) के समय यह हर्ष वर्धन के राज्य से अधिक बड़ा था तथा
गुप्त साम्राज्य से कम नहीं था| के. एम. मुंशी ने गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य को
‘गुर्जर देश’ की संज्ञा दी हैं| आधुनिक इतिहासकारों में होर्नले ने इसे “गुर्जर
साम्राज्य’ की संज्ञा दी हैं|
मिहिर भोज (836-885 ई.) के शासन सभालने के एक
वर्ष के भीतर ही सिंध के अरबी सूबेदार ने आस-पास के क्षेत्रो को जीतने का प्रयास
किया | लेकिन 833-843 के मध्य अरबो को परास्त कर कच्छ से भगा दिया| कुछ ही वर्षो
में गुर्जर प्रतीहारो ने अरबो से सिंध का एक बड़ा भाग जीत लिया| अरबी लेखक अल मसूदी
(900-940 ई.) के अनुसार सिन्धु नदी गुर्जर साम्राज्य के एक शहर के बीच से बहती थी|
अरबो के पास दो छोटे-छोटे राज्य रह गए थे जिनकी राजधानी अल मंसूरा और मुल्तान थी|
अरबी लेखक बिलादुरी कहता हैं कि अल-हाकिम इब्न-अवान्हा के समय ‘अल हिन्द’ में
मुसलमानों को ऐसा कोई स्थान ढूंढे से भी नहीं मिलता था ज़हा भागकर वो अपनी जान बचा
ले| इसलिए उसने अल हिन्द की सीमा के बाहर झील के दूसरी तरफ मुसलमानों की पनाहगाह
के रूप में अल मह्फूज़ा नाम का शहर बसाया जहा मुसलमान सुरक्षित रह सके और उसे अपनी
राजधानी बना सके| मिहिर भोज ने अरबो को को शेष सिंध और मुल्तान से निकालने के
प्रयास किये किन्तु अरब शासको द्वारा मुल्तान के सूर्य मंदिर को तोड़ने की धमकी
देने पर वह पीछे हटने पर मजबूर हो जाता था| प्रसिद्ध इतिहासकार आर. सी. मजुमदार के
अनुसार मिहिर भोज “मुस्लिम आक्रमणों के सामने वह अभेद दीवार की भाति था| अपना यह
गुण वह अपने उत्तराधिकारियों को विरासत में दे गया”|
851 ई. में सुलेमान नाम का अरब भूगोलवेत्ता और
व्यापारी भारत आया| उसने अपने ग्रन्थ ‘सिलसिलात-उत तवारीख’ में गुर्जर साम्राज्य
की समृधि और सैन्य शक्ति का शानदार विवरण प्रस्तुत किया हैं| वह लिखता हैं कि
हिन्द के शासको में एक गुर्जर हैं जिसके पास विशाल सेना हैं, हिन्द के किसी अन्य
शासक के पास उसके जितनी अच्छी घुड़सवार सेना नहीं हैं| वह अरबो का दुश्मन हैं|
हिन्द के शासको में उससे से बढ़कर कोई इस्लाम का शत्रु नहीं हैं| वह बहुत धनवान
हैं, उसके पास असख्य ऊट और घोड़े हैं| उसके राज्य में लेन-देन चांदी और सोने के
सिक्को में होता हैं| ऐसा कहा जाता हैं कि उसके राज्य में इन धातुओ की खाने हैं|
भारत में कोई भी राज्य लुटेरो से अधिक सुरक्षित नहीं हैं, जितना की गुर्जर
साम्राज्य हैं|
बगदाद के रहने वाले अल मसूदी (900-940 ई.) ने कई
बार हिन्द की यात्रा की| अल मसूदी अपने ग्रन्थ ‘मुरुज़ उत ज़हब’ कहता हैं कि बौरा
उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम चारो दिशाओ में चार विशाल सेनाए तैनात रखता हैं,
क्योकि उसका राज्य लडाकू राजाओ से घिरा हैं| कन्नौज का राजा बल्हर (राष्ट्रकूट
राजाओ की उपाधि वल्लभ) का शत्रु हैं| वह कहता हैं कि कन्नौज के शासक बौरा के पास
चार सेनाए हैं, प्रत्येक सेना में 7 से 9 लाख सैनिक हैं| उत्तर की सेना मुल्तान के
अरब राजा और मुसलमानों के विरुद्ध लडती हैं, दक्षिण की सेना मनकीर (राष्ट्रकूट
राजधानी मान्यखेट) के राजा बल्हर (वल्लभ) के विरुद्ध लडती हैं| उसके अनुसार बल्हर
हमेशा गुर्जर राजा से युद्धरत रहता हैं| गुर्जर राजा ऊट और घोड़ो के मामले में बहुत
धनवान हैं और उसके पास विशाल सेना हैं||
अरब साम्राज्वाद के विरोध में गुर्जर-शाही
गटबंधन- कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार शासको के
विरोध में सिंध के अरब शासको और दक्कन के राष्ट्रकूट शासको ने गठजोड़ कर लिया|
बंगाल के पाल भी यदा-कदा इनके पीछे ही खड़े नजर आये| अतः इसके ज़वाब में कन्नौज के
गुर्जर प्रतिहार शासक मिहिर भोज ने पंजाब के अलखान गुर्जर तथा अरबो के शत्रु
उदभांडपुर के शाही शासक लल्लिया के साथ
गटबंधन कर लिया| चंबा राज्य का साहिल वर्मा (920-940 ई.) गुर्जर प्रतिहारो
का सामंत था और वह भी इस गटबंधन का अहम् हिस्सा था|
सीस्तान के अरब शासक याकूब बिन लेथ ने 870 ई में
काबुल जीत लिया| इतिहासकार हरमट ने तोची घाटी अभिलेख के आधार पर निष्कर्ष निकला
हैं कि मिहिर भोज (836-885 ई.)ने पश्चिम की तरफ अपने राज्य का विस्तार किया तथा
लल्लिया शाही (875-90 ई.) को काबुल और कंधार प्राप्त करने में उसकी मदद की| हरमट
के अनुसार मिहिर भोज ने लल्लिया शाही को याकूब बिन लेथ के विरुद्ध तैनात किया|
कल्हण ने भीम देव शाही के बाद एक ठक्कन नाम के शाही
शासक का ज़िक्र किया हैं| जिसका झुकाव कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार शासक की तरफ था|
यह संभवतः जयपाल शाही का दादा था| मशहूर एथ्नोलोजिस्ट एच. ए. रोज के अनुसार पंजाब
के खटाना गुर्जर जयपाल शाही और उसके पुत्र आनन्दपाल को अपना पूर्वज मानते हैं| फ़रिश्ता
(1560-1620 ई.) के अनुसार महमूद गजनवी के आक्रमण के समय जयपाल शाही वंश का शासक
था| उसके पिता का नाम इश्तपाल था| उसका राज्य लमघान से सरहिन्द तथा कश्मीर से
मुल्तान तक विस्तृत था| वह वाई हिन्द के किले में रहता था| 982-83 में लिखे गए एक
अरबी ग्रन्थ हुदूद-उल-आलम के अनुसार जयपाल शाही (965-1001 ई.) कन्नौज के शासक
(राय) का सामंत था| ऐसा प्रतीत होता हैं कि अभी तक भी कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारो
की उत्तर भारत के सम्राट के रूप में प्रतिष्ठा शेष थी| सभवतः इसी प्रतिष्ठा के
आधार पर कन्नौज के शासको ने शाही राज्य के विरुद्ध महमूद गजनवी के संभावित आक्रमण
को देखते हुए उत्तर भारत के शासको का एक परिसंघ बनने का प्रयास किया था| फ़रिश्ता
के अनुसार जयपाल शाही ने महमूद गजनवी के विरुद्ध कुर्रम घाटी में लडे गए युद्ध में
दिल्ली, कन्नौज और कालिंजर के राजाओ से आर्थिक और सैनिक सहायता प्राप्त की थी| परन्तु
ऐसा प्रतीत होता हैं कि केवल कन्नौज के प्रतिहार शासक ने ही अपनी सेना भेजी थी|
शाही राज्य को जीतने के बाद महमूद गजनवी ने 1018
ई. में कन्नौज को भी जीत लिया| प्रतिहार शासक राज्यपाल ने गंगा पार बारी में शरण
ली|
गुर्जर प्रतिहारो,
काबुल और जाबुल के शाही वंश, भड़ोच के गुर्जरों तथा वातापी के चालुक्यो के पराक्रम
के कारण अरब भारत के आंतरिक हिस्सों को तीन सों वर्षो तक नहीं जीत सके, तुर्कों को
भी भारत में तभी सफलता मिल सकी, जब दसवी शताब्दी के उत्तरार्ध में गुर्जर
प्रतिहारो और शाही वंश का पतन प्रारम्भ हो गया|
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