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Monday, March 21, 2022

कनिष्क, मिहिर और गुर्जर

डॉ. सुशील भाटी

कुषाणों में सूर्य पूजा बड़े पैमाने में प्रचलित थी|वो सूर्य को मिहिर के रूप में जानते थे और अपनी आर्य नामक भाषा में मीरो बुलाते थे| प्रस्तुत लेख में मेरा मुख्य तर्क यह हैं कि भारत में सूर्य देवता तथा किसी व्यक्ति के नाम के रूप में ‘मिहिर’ शब्द का प्रयोग कुषाण काल में प्रारम्भ हुआ हैं|

भारत में मिहिर शब्द का सबसे प्राचीन पुरातात्विक प्रमाण कुषाण वंश से सम्बंधित सम्राट कनिष्क (78-101 ई.) का रबाटक अभिलेख हैं| यह अभिलेख सम्राट कनिष्क के शासनकाल के आरम्भिक वर्षो  में लिखा गया था| रबाटक अभिलेख में उन देवी- देवताओ के नाम अंकित हैं जिनकी मूर्तियाँ रबाटक स्थित देवकुल (बागोलग्गो) में स्थापित की गई थी| उनमे एक नाम मिहिर देवता का भी हैं| रबाटक अभिलेख की सम्बंधित 8-11 पंक्तियों को रोबर्ट ब्रेसी (Robert Bracey) ने इस प्रकार प्रस्तुत किया हैं|

 ... for these gods, whose service here the ... glorious Umma (οµµα) leads (namely:) the above mentioned Nana (Νανα) and the above-mentioned Umma, Aurmuzd (αοροµοζδο), the Gracious One (µοζοοανο), Sroshard (σροþαρδο), Narasa (ναρασαο) (and) Mihr (µιρο) and he gave orders to make images of the same. [ Source- Robert Bracey, Chapter7, POLICY, PATRONAGE, AND THE SHRINKING PANTHEON OF THE KUSHANS, 2012]

भारत में मिहिर शब्द का सबसे प्राचीन पुरातात्विक प्रमाण कुषाण वंश से सम्बंधित सम्राट कनिष्क (78-101 ई.) के सिक्के हैं, जिनमे एक तरफ सम्राट कनिष्क को हवन में आहुति डालते हुए उत्कीर्ण किया गया हैं, और आर्य (बाख्त्री) भाषा में शाओ-नानो-शा कनिष्क कोशानो लिखा हैं, वही सिक्के के दूसरी तरफ सूर्य देवता को उत्कीर्ण किया गया हैं और कुषाणों की आर्य नामक भाषा में मीरो (मिहिर) लिखा हैं| इसी प्रकार के सिक्के उसके पुत्र हुविष्क के प्राप्त हुए हैंकनिष्क के सिक्को के प्राप्त कुल साँचो में 18 प्रतिशत मीरो ‘मिहिर’ देवता के हैं| हुविष्क के सिक्को के प्राप्त कुल साँचो में 20 प्रतिशत मिहिर देवता के हैं| इस प्रकार प्रमाणित होता हैं कि शिव, नाना (दुर्गा) के अतरिक्त कनिष्क प्रमुखतः मिहिर देवता का उपासक था|

कुषाणों के सुर्खकोटल अभिलेख में मिहिरामान और बुर्ज़मिहिरपुर्रह व्यक्तिगत नाम के रूप में प्रयोग किये गए हैं| यह भारत में मिहिर नाम के प्रयोग के प्राचीनतम उधारण हैं|

कनिष्क के पुत्र हुविष्क के शासन काल से सम्बंधित ऐरतम (Airtam) अभिलेख में इसके लेखक का नाम मीरोजादा (Miirozada) अंकित हैं| जनोस हरमट (Janos Harmatta) के अनुसार उक्त अभिलेख के अनुवाद इस प्रकार हौं-  

King [is] Ooesko, the Era year is 30 when the lord king presented and had the Ardoxso Farro image set up here. At that time when the stronghold was completed then Sodila ... the treasurer was sent to the sanctuary. There upon Sodila had this image prepared, then he [is] who had [it] set up in the stronghold. Afterwards when the water moved farther away, then the divinities were led from the waterless stronghold. Just therefore, Sodila had a well dug, then Sodila had a waterconduit dug in the stronghold. Thereupon both divinities returned back here to the sanctuary. This was written by Miirozada by the order of Sodila [ Source- Robert Bracey, Chapter7, POLICY, PATRONAGE, AND THE SHRINKING PANTHEON OF THE KUSHANS, 2012]

उक्त दोनों उदाहरणों से स्पष्ट हैं कि कुषाणों में मिहिर / मीरो  नाम का प्रचलन था|  

कुषाणों के सिक्को पर उत्कीर्ण देवी-देवताओ को देखने से पता चलता हैं कि कुषाण सम्राट कनिष्क  के सिक्को पर उत्कीर्ण मिहिर देवता की वेश-भूषा कुशाण सम्राटो जैसी हैं| सुर्खकोटल और मथुरा के कंकालीटीला से प्राप्त मिहिर देवता की मूर्ती कुषाण कला शैली और कुषाण सम्राट कनिष्क और हुविश्क वेश-भूषा से पूर्ण रूप से प्रभावित हैंनिष्कर्षतः कनिष्क और मिहिर देवता के अंकन अत्यधिक समनता हैं|

कुषाणों के बाद भारत में मिहिर देवता का नाम हूण सम्राट मिहिरकुल (502-542 ई.) के सिक्को पर अंकित किया गया| हूण सम्राटो के सिक्को में सूर्य का प्रतीक चक्र भी उत्कीर्ण किया गया हैं| सम्राट मिहिरकुल के नाम में भी मिहिर शब्द का प्रयोग किया गया हैं| अलखान हूणों ने कई मायनों में कुषाण विरासत को आगे बढाया हैं|

मिहिरकुल के बाद मिहिर नाम गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज (836-885 ई.) के नाम में भी किया गया हैंमिहिर भोज की आदि वराह मुद्रा पर भी सूर्य का प्रतीक चक्र भी उत्कीर्ण किया गया हैंगुर्जर प्रतिहारो की एक हूण विरासत रही हैं|

एलेग्जेंडर कनिंघम ने कुषाणों की पहचान गुर्जरों से की हैंउसके अनुसार गुर्जरों का कसाना गोत्र ही प्राचीन कुषाण हैं|  डॉ. सुशील भाटी ने इस मत का अत्यधिक विकास किया हैं और इस विषय पर अनेक शोध पत्र लिखे हैंजिसमे “गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिद्धांत” काफी चर्चित हैंउनका कहना हैं कि ऐतिहासिक तोर पर कनिष्क द्वारा स्थापित कुषाण साम्राज्य गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हैं| इसी प्रकार रुडोल्फ होर्नले, बुह्लर, विलियम क्रुक, वी.ए. स्मिथ आदि  इतिहासकार गुर्जरों को हूणों से सम्बंधित मानते हुए और प्रतिहारो को गुर्जर मानते हैं| प्रतिहारो को गुर्जर मानने वाले इतिहासकारों में ए. एम. टी. जैक्सन, कैम्पबेल, डी. आर. भंडारकर, बी. एन. पुरी और रमाशंकर त्रिपाठी प्रमुख हैं| कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों को हूणों की खज़र शाखा से उत्पन्न मानते हैं|

यह एक महत्वपूर्ण तथ्य हैं कि गुर्जरों से जुड़े सबसे प्राचीन राजवंश कुषाण, अलखान हूण और गुर्जर प्रतिहार का जुड़ाव मिहिर उपासना अथवा मिहिर नाम/उपाधि से हमेशा बना रहा हैं| मिहिर आज भी अजमेर और पंजाब में गुर्जरों की उपाधि हैं|

सन्दर्भ-

Robert Bracey, Chapter7, POLICY, PATRONAGE, AND THE SHRINKING PANTHEON OF THE KUSHANS, 2012

 भगवत शरण उपाध्यायभारतीय संस्कृति के स्त्रोतनई दिल्ली, 1991, 

 रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिकाखंड-मेरठ, 2006

 ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864

 के. सी.ओझादी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डियाइलाहाबाद, 1968  

 डी. आर. भण्डारकरफारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख)इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्ड X L 1911

 जे.एमकैम्पबैलभिनमाल (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड भाग 1, बोम्बे, 1896

 विन्सेंट ए. स्मिथ, दी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडिया, चोथा संस्करण, दिल्ली1990

 सुशील भाटी, सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क

 

 

 

 

 

Wednesday, March 16, 2022

सम्राट कनिष्क और 22 मार्च: अंतराष्ट्रीय गुर्जर दिवस

डॉ. सुशील भाटी

गुर्जर एक वैश्विक समुदाय हैं जोकि प्राचीन काल से भारतीय उपमहाद्वीप, ईरान और कुछ मध्य एशियाई देशो में रह रहा हैं| एलेग्जेंडर कनिंघम ने कुषाणों की पहचान गुर्जरों से की हैं| उसके अनुसार गुर्जरों का कसाना गोत्र ही प्राचीन कुषाण हैंडॉ. सुशील भाटी ने इस मत का अत्यधिक विकास किया हैं और इस विषय पर अनेक शोध पत्र लिखे हैं, जिसमे “गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिद्धांत” काफी चर्चित हैं| उनका कहना हैं कि ऐतिहासिक तोर पर कनिष्क द्वारा स्थापित कुषाण साम्राज्य गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हैं| कनिष्क का साम्राज्य भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि उन सभी देशो में फैला हुआ था जहाँ आज गुर्जर रहते हैं| कनिष्क के साम्राज्य की एक राजधानी मथुरा, भारत में तथा दूसरी पेशावर, पाकिस्तान में थी| कनिष्क के साम्राज्य का एक वैश्विक महत्व हैं, दुनिया भर के इतिहासकार इसमें रूचि रखते हैं| कनिष्क के साम्राज्य के अतरिक्त गुर्जरों से सम्बंधित ऐसा  कोई अन्य साम्राज्य नहीं हैं जोकि पूरे दक्षिणी एशिया में फैले गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए इससे अधिक उपयुक्त हो| यहाँ तक की मिहिर भोज द्वारा स्थापित प्रतिहार साम्राज्य केवल उत्तर भारत तक सीमित था तथा पश्चिमिओत्तर में करनाल इसकी बाहरी सीमा थी|

कनिष्क के राज्य काल में भारत में व्यापार और उद्योगों में अभूतपूर्व तरक्की हुई क्योकि मध्य एशिया स्थित रेशम मार्ग, जोकि समकालीन अंतराष्ट्रीय व्यापार मार्ग था तथा जिससे यूरोप और चीन के बीच रेशम का व्यापार होता था, पर कनिष्क का नियंत्रण था| भारत के बढते व्यापार और आर्थिक उन्नति के इस काल में तेजी के साथ नगरीकरण हुआ| इस समय पश्चिमिओत्तर भारत में करीब 60  नए नगर बसे| इन नगरो में एक कश्मीर स्थित कनिष्कपुर था| बारहवी शताब्दी के इतिहासकार कल्हण ने अपनी राजतरंगिनी में कनिष्क द्वारा कश्मीर पर शासन किया जाने और उसके द्वारा कनिष्कपुर नामक नगर बसाने का उल्लेख किया गया हैं|  सातवी शताब्दी कालीन गुर्जर देश (आधुनिक राजस्थान क्षेत्र) की राजधानी भीनमाल थी| भीनमाल नगर के विकास में भी कनिष्क का बहुत बड़ा योगदान था| प्राचीन भीनमाल नगर में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण कश्मीर के राजा कनक (सम्राट कनिष्क) ने कराया था। कनिष्क ने वहाँ ‘करडा’ नामक झील का निर्माण भी कराया था। भीनमाल से सात कोस पूर्व ने कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है। कहते है कि भीनमाल के वर्तमान निवासी देवडा लोग एवं श्रीमाली ब्राहमण कनक (कनिष्क) के साथ ही काश्मीर से आए थे। कनिष्क ने ही पहली बार भारत में कनिष्क ने ही बड़े पैमाने सोने के सिक्के चलवाए|

कनिष्क के दरबार में अश्वघोष, वसुबंधु और नागार्जुन जैसे विद्वान थे| आयुर्विज्ञानी चरक और श्रुश्रत कनिष्क के दरबार में आश्रय पाते थे| कनिष्क के राज्यकाल में संस्कृत सहित्य का विशेष रूप से विकास हुआ| भारत में पहली बार बोद्ध साहित्य की रचना भी संस्कृत में हुई| गांधार एवं मथुरा मूर्तिकला का विकास कनिष्क महान के शासनकाल की ही देन हैं|

अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार कनिष्क ने अपने राज्य रोहण के अवसर पर 78 ईस्वी में शक संवत प्रारम्भ किया| शक संवत भारत का राष्ट्रीय संवत हैं| शक संवत भारतीय संवतो में सबसे ज्यादा वैज्ञानिक, सही तथा त्रुटिहीन हैं| शक संवत भारत सरकार द्वारा कार्यलीय उपयोग लाया जाना वाला अधिकारिक संवत हैं| शक संवत का प्रयोग भारत के ‘गज़ट’ प्रकाशन और ‘आल इंडिया रेडियो’ के समाचार प्रसारण में किया जाता हैं| भारत सरकार द्वारा ज़ारी कैलेंडर, सूचनाओ और संचार हेतु भी शक संवत का ही प्रयोग किया जाता हैं|

भारत सरकार द्वारा 1954 में गठित प्रसिद्ध अंतरिक्ष वैज्ञानिक मेघनाथ साहा की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय संवत सुधार समिति के अनुसार शक संवत प्रत्येक वर्ष 22 मार्च को आरम्भ होता हैं| डॉ सुशील भाटी का मत हैं कि क्योकि शक संवत 22 मार्च को शुरू होता हैं अतः 22 मार्च कनिष्क के राज्य रोहण की तिथि हैं| उनका कहना हैं कि यह दिन भारतीय विशेषकर गुर्जर इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, इसलिए यह दिन अन्तराष्ट्रीय गुर्जर दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए| यह तिथि अन्तराष्ट्रीय गुर्जर दिवस मनाने के लिए इसलिए भी उचित हैं गुर्जरों के के प्राचीन इतिहास में यह एक मात्र तिथि हैं, जिसे अंतराष्ट्रीय रूप से मान्य पूरी दुनिया में प्रचलित कलेंडर के अनुसार निश्चित किया जा सकता हैं| अतः अन्य पंचांगों पर आधारित तिथियों की विपरीत यह भारत, पाकिस्तान अफगानिस्तान अथवा अन्य जगह जहा भी गुर्जर निवास करते हैं यह एक ही रहेगी, प्रत्येक वर्ष बदलेगी नहीं|

कनिष्क द्वारा अपने राज्य रोहण पर प्रचलित किया गया शक संवत प्राचीन काल में भारत में सबसे अधिक प्रयोग किया जाता था| भारत में शक संवत का व्यापक प्रयोग अपने प्रिय सम्राटकनिष्क के प्रति प्रेम और सम्मानका सूचक हैं और उसकी कीर्ति को अमर करने वाला हैं| प्राचीन भारत के महानतम ज्योतिषाचार्य वाराहमिहिर (500 इस्वी) और इतिहासकार कल्हण (1200 इस्वी) अपने कार्यों में शक संवत का प्रयोग करते थे| प्राचीन काल में उत्तर भारत में कुषाणों और शको के अलावा गुप्त सम्राट भी मथुरा के इलाके में शक संवत का प्रयोग करते थे| दक्षिण के चालुक्य और राष्ट्रकूट और राजा भी अपने अभिलेखों और राजकार्यो में शक संवत का प्रयोग करते थे|

सम्राट कनिष्क के सिक्को पर पाए जाने वाले राजसी चिन्ह को कनिष्क का तमगा भी कहते है, तथा इसे आज अधिकांश गुर्जर समाज अपने प्रतीक चिन्ह के रूप में देखता हैं| कनिष्क के तमगे में ऊपर की तरफ चार नुकीले काटे के आकार की रेखाए हैं तथा नीचे एक खुला हुआ गोला हैं इसलिए इसे चार शूल वाला ‘चतुर्शूल तमगा” भी कहते हैं| कनिष्क का ‘चतुर्शूल तमगा” सम्राट और उसके वंश / ‘कबीले’ का प्रतीक हैं| कुछ इतिहासकारों का मानना हैं कि चतुर्शूल तमगा शिव की सवारी ‘नंदी बैल के पैर के निशान’ और शिव के हथियार ‘त्रिशूल’ का ‘मिश्रण’ हैं, अतः इस चिन्ह को शैव चिन्ह के रूप में स्वीकार करते हैं| डॉ. सुशील भाटी, जिन्होंने इस चिन्ह को गुर्जर प्रतीक चिन्ह के रूप में प्रस्तावित किया हैं, इसे शिव के पाशुपतास्त्र और नंदी के खुर (पैर के निशान) का समिश्रण मानते हैं, क्योकि शिव के पाशुपतास्त्र में चार शूल होते हैं| गुर्जर प्रतीक के रूप में कनिष्क के राजसी चिन्ह को अधिकांश गुर्जरों द्वारा अपनाये जाने से 22 मार्च: अन्तराष्ट्रीय गुर्जर दिवस और अधिक प्रसांगिक ho गया हैं|

सन्दर्भ-

1. भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय संस्कृति के स्त्रोत, नई दिल्ली, 1991, 

2. रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिका, खंड-1 मेरठ, 2006

3. ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864

4. के. सी.ओझा, दी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डिया, इलाहाबाद, 1968  

5. डी. आर. भण्डारकर, फारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख), इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्ड X L 1911

6. जे.एम. कैम्पबैल, भिनमाल (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896

7. विन्सेंट ए. स्मिथ, दी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडिया, चोथा संस्करण, दिल्ली, 1990

8. सुशील भाटी, गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिधांत, जनइतिहास ब्लॉग, 2016

https://janitihas.blogspot.com/2016/06/blog-post.html

9. सुशील भाटी, भारतीय राष्ट्रीय संवत- शक संवत, जनइतिहास ब्लॉग, 2012

https://janitihas.blogspot.com/2012/10/surya-upasak-samrat-kanishka.html