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Sunday, December 23, 2018

अजगर : सामाजिक ऐतिहासिक परिपेक्ष्य

डॉ सुशील भाटी

Key words - Ajgar, Ahir, Jat, Gujar, Rajput, Dominant Caste, Jajmani system, Martial Race, Kshatriya

भारत के प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम. एन. श्रीनिवास (1916- 1999) भारत की मुख्य प्रभुत्वशाली जातियों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि उत्तर भारत के ग्रामीण अजगर के विषय में बात करते हैं| अजगर उत्तर भारत की चार प्रभुत्वशाली जातियों के नाम का पहला अक्षर लेकर बना हैं, ये है- अहीर, जाट, गूजर और राजपूत| उत्तर भारत की इन चार प्रभुत्वशाली जातियों का संक्षिप्त नाम अजगर अन्य जातियों में इनके प्रभाव का सूचक हैं| इनके अतरिक्त पश्चिमी बंगाल में सदगोप, गुजरात में पाटीदार, महाराष्ट्र में मराठा, आन्ध्र प्रदेश में कम्मा तथा रेड्डी, कर्णाटक में वोक्कालिग और लिंगायत, केरल में नायर, तमिलनाडु में वेल्ल्लास और कल्लर आदि प्रभुत्वशाली जातियां हैं|

एम. एन. श्रीनिवास द्वारा प्रस्तुत ‘प्रभुत्वशाली जाति’ तथा ‘संस्कृतीकरण’ की अवधारणाओं का समाजशास्त्रियों और इतिहासकारों ने अपने अध्ययन में व्यापक प्रयोग किया गया है।  भारत के ग्रामीण जीवन की एक खासियत प्रभूतासम्पन्न भूमिपति जातियों की मौजूदगी हैं| प्रभुत्वशाली जाति संस्कृतिकरण का आदर्श सन्दर्भ के रूप कार्य करते हैं| प्रभुत्वशाली जाति होने के लिए किसी भी जाति में निम्न लिखित विशेषताए होनी चाहिये-

1 उपलब्ध स्थानीय खेतीलायक भूमि में से एक बड़े हिस्से पर उसका मालिकाना हक़ हो|
2 उस जाति कि सदस्य-संख्या का पर्याप्त बाहुल्य हो|
3 स्थानीय जातीय सोपानक्रम में उस जाति का उच्च स्थान हो
विगत शताब्दी में प्रभूता पर प्रभाव डालने वाले अन्य कारक प्रकट हुए है, जैसे- पश्चिमी शिक्षा, प्रशासन में नौकरिया, शहरी आमदनी के स्त्रोत आदि|

उत्तर भारत में गांवों की पहचान अक्सर वहाँ निवास करने वाली प्रभुत्वशाली भूमिपति जाति से की जाति हैं, जैसे- राजपूतो का गाँव, जाटो का गाँव या अहीरों का गाँव आदि| प्राख्यात मानवशास्त्री ग्लोरिया गुडविन रहेजा अपनी पुस्तक ‘पोईजन इन दी गिफ्ट’ में लिखती हैं कि उत्तर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जब दो अनजान लोग बस, तीर्थस्थान या कस्बे के बाज़ार में मिलते हैं तो अक्सर पूछा जाने वाला प्रश्न होता हैं- कौन सा गाम हैं तेरा? गाँव का नाम बताने के बाद टिप्पणी होती हैं जाटो का गाम हैं या गूजरों का गाम हैं या फिर राजपूतो का गाम हैं| यहाँ तक ब्राह्मण तथा अन्य जातियां भी गाँवो को वहां रहने वाली भूमिपति प्रभुत्वशाली जाती के नाम से पहचानती हैं| वे कहती हैं कि “When two stranger meet on a bus, or at pilgrimage place or at a market town in North Western Uttar Pradesh, the question often asked first is Kaun sa gam he tera  (“what is your village?”) and the comment that will often follow, when the name of village is given, is jato ka gam hain (“ It’s a village of Jats”) or gujaro ka gam hain It’s a village of Gujars”) or perhaps rajputo ka gam hain It’s a village of Rajputs”).

कृषि आधारित देहात में प्रभुत्वशाली भूमिपति अजगर जातियां अपने गाँव में क्षत्रिय और जजमान की भूमिका निभाती हैं तथा ब्राह्मणों सहित आश्रित सामाजिक समूहों को बारम्बार दिए जाने वाले दान से निर्मित सामाजिक-अनुष्ठानिक औपचारिक तंत्र के केंद्र में रहती हैं| इस विषय में ग्लोरिया गुडविन रहेजा का सहारनपुर के पहाँसू गाँव में किया गया क्षेत्र का उक्त अध्ययन पठनीय हैं| रहेजा के अध्ययन से निष्कर्ष निकलते हुए मार्को गेसलानी (Marko Geslani) कहते हैं कि “Raheja’s central thesis, to the contrary, is that purity based caste hierarchy is not the primary principal of social organization in the North Indian Village of Pahansu, the site of her field work in the late 1970s. Instead dominant landholding group (Gujars) playing the role of ksatriya and Jajman (landowning sponsor), occupies the centre of socio-ritual network constituted by recurring gifts or prestations -(dan/Dana)- given by these landholders to dependent groups including Brahmins. Since these ritual gifts are media for transfer of inauspiciousness, such nonreciprocal exchanges and sustains the dominance of the central group

उत्तर भारत में प्राचीन काल से ही अजगर जाति समूह की स्थिति प्रबल रही है| तुर्कों और मुगलों के शासन काल में भी देहाती क्षेत्रो में इनका प्रभुत्व कायम रहा| शताब्दियों के मुस्लिम शासन के बावजूद अकबर के अधिकारियो ने  राज्य के समेकन को अधूरा पाया| राजपूत, जाट और गूजर वंशो के सरदारों और उनके नातेदारो ने, अपने संख्या बल, सशस्त्र युद्धकारी भावनाओ और लम्बी परम्पराओ के बल पर अपनी शक्ति को बनाये रखा|  मुग़ल काल के विशेषज्ञ इतिहासकार जॉन ऍफ़ रिचर्ड्स (John F Richards) कहते कि “Despite the centuries of Muslim dominance of Indo- Gangetic plains Akbar’s officials found consolidation of state power incomplete. In the second half of the sixteenth century both force and diplomacy were needed to subdue and pacify rural society..........The Rajput, Jat, Gujar lineage heads and their kinsmen or Afghan or the other Indian Muslim lineage retained their power partly by weight of number, partly by armed belligerence, partly by inertia of long custom. In majority of villages the most powerful and wealthiest peasants were member of the same caste and shared the lineage ties with the lineage head at the headquarters town. These village elites cultivated the largest and most fertile tracts within the village landless laborers, craftsmen, traders and the priest served the dominant caste in an intricate network of hereditary service and exchange relationships.

अजगर जातियों में हमेशा ही एक सामजिक एकता और सामूहिक चेतना रही हैं| उत्तर भारत के देहात में अजगर जाति समूह भूमिपति हैं तथा जजमान और क्षत्रिय की भूमिका में रहे हैं| ब्रिटिश भारत में चारो ‘मार्शल रेस’ माने जाते थे तथा बड़ी मात्रा में सेना में भर्ती किये जाते थे|  डॉ जे पी शर्मा के अनुसार 1924 में आजमगढ़ जिले में अनौपचारिक रूप से अजगर नामक संगठन बना जिसमे अहीर, जाट. गूजर. और राजपूत शामिल थे| डॉ सुनीता सिंह के अनुसार शाहपुरा के राजा हुकुम सिंह के निर्देशन में भी एक अजगर सभा का गठन किया गया| कहा गया कि हम सभी क्षत्रिय हैं| आपस में परस्पर भेद नहीं होना चाहिये|

20 जुलाई 2015 के दैनिक जागरण में छपी एक खबर के अनुसार अजगर जातियों की एक पंचायत गाजियाबाद जिले के डासना स्थित सिद्धपीठ देवी मंदिर में संपन्न हुई, जिसकी अध्यक्षता श्री नरेंद्र सिसोदिया ने की| श्री राकेश टिकैत एवं श्री वीरेंदर गुर्जर मुख्य रूप से उपस्थित थे| अहीर, जाट, गूजर और राजपूत (अजगर) जातियों की पंचायत में समाज से जुड़ी मूल समस्याओं पर चर्चा की गई। पंचायत में देश, धर्म और समाज की रक्षा के लिए क्षत्रिय एकता पर बल दिया| सहमति बनी कि अहीर, जाट, गूजर और राजपूत युवक-युवतियों के विवाह को अंतरजातीय नहीं माना जाएगा और लोगो के इस सम्बंध में जागरूक किया जायेगा| हालाकि इस प्रकार कि पंचायतो का समाज पर प्रभाव समाजशास्त्रियों के अध्ययन का विषय हैं पर ये ‘सामुहिक चेतना’ की अभिव्यक्ति ज़रूर हैं|

आधुनिक भारत में भिन्न राजनेताओ और राजनैतिक दलों ने प्रभुत्वशाली जाति समूह अजगर को अपना सामाजिक आधार बनाया हैं, जिसका पृथक विस्तृत अध्ययन किया जा सकता हैं| 1989 के आम चुनाव इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय हैं|
भारत के सकल घरेलु उत्पाद में कृषि का अनुपात लगातार कम हो रहा हैं| कृषि व्यापार और ऊद्योग की तुलना में बहुत ही कम लाभकारी रह गई हैं| इसके अतरिक्त व्यापार और उद्योग के निरंतर विकास और बढ़ते शहरीकरण और शहरो की तरफ आम पलायन के कारण कृषि-पशुपालन पर आश्रित देहात में रहने वाली सभी भूमिपति प्रभुत्वशाली जातियों का प्रभाव काफी कम हुआ हैं| सार्वभोमिक व्यस्क मताधिकार ने शहर और देहात सभी जगह समता का मार्ग प्रशस्त किया हैं| देहात में जानकारी और शिक्षा आदि सुविधाओ का अभाव हैं, अतः अपनी पुश्तैनी सैनिक अभिवृति के कारण अजगर समूह के अधिकांश युवा रोज़गार के लिए सेना और पुलिस की तरफ रूख किये हुए हैं| 

सन्दर्भ-

1. M N Srinivas, Social Change in Modern India, University of California Press, Berkeley and Los Angeles, 1966 https://books.google.co.in/books?isbn=812500422X

2. M N Srinivas, Dominant Caste and Other Essays, Oxford University Press, 1994 https://books.google.co.in/books?isbn=0195634659

3. M. N. Srinivas, “The Dominant Caste in Rampura”, American Anthropologist, New Series, Vol. 61, No. 1 (Feb., 1959), pp. 1-16

4. Marko Geslani, Rites of the God-king: Santi, Orthopraxy and Ritual Change in Early Hinduism, New York, 2018, p 156-157 https://books.google.co.in/books?isbn=0190862882

5. Gloria Goodwin Raheja, The Poison in the Gift: Ritual, Prestation, and the Dominant Caste in North Indian Village, Chicago, 1988, P 1  https://books.google.co.in/books?isbn=0226707296

6. A. H. Bingley, History, Caste & Cultures of Jats and Gujars, https://books.google.co.in/books?id=1B4dAAAAMAAJ
7. Aditya Malik, Nectar Gaze and Poison Breath: An Analysis and Translation of the Rajasthani Oral Narrative of Devenarayan, Oxford University Press, New York, 2005 https://books.google.co.in/books?isbn=0198034202

8. रामनाथ शर्मा & राजेंदर कुमार शर्मा, भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक समस्याये, नई दिल्ली, 2007, प 151-164 https://books.google.co.in/books?isbn=8171565913

9. पंचायत: अब अहीर, जाट, गूजर और राजपूतो में वैवाहिक सम्बन्ध अंतरजातीय नहीं, दैनिक जागरण, 19 जुलाई 2015, https://www.jagran.com/uttar-pradesh/lucknow-city-jat-gurjar-ahir-and-rajput-marriage-is-not-intercast-12619709.html

10. जे पी शर्मा, आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन: 21 वी सदी में भारत, नई दिल्ली, 2016, प 200 https://books.google.co.in/books?isbn=8120352327

11.  सुनीता सिंह, राजस्थान सामान्य ज्ञान, https://books.google.co.in/books?isbn=9352667875

12.  John F Richards, The Mughal Empire, Part 1, Vol. 5, Cambridge University Press, 1995, p 80-81 https://books.google.co.in/books?isbn=0521566037

 13. A. M. Hocart, Caste: A Comparative Study, London, 1050

14. A. M. Hocart, Kings and Councilors, Chicago University Press, Chicago, 1970

15. J. C. Heesterman, The Inner Conflict of Tradition, Chicago University Press, Chicago, 1985

16. Prem Chowdhry, “Customs in Peasant Economy: Women in colonial Haryana”(Article), Sumit Sarkar and Tanika Sarkar (Editors), Women and Social Reforms in Modern India, Indiana  University Press, Bloomington, Indiana, 2008, https://books.google.co.in/books?isbn=025335269X

  

Sunday, December 2, 2018

गुर्जरों का सैनिक चरित्र


डॉ सुशील भाटी

गुर्जरों का एक सैनिक चरित्र रहा हैं आधुनिक भारत में इसे राज्य और समाज ने भी कई मायनो में स्वीकार किया हैं| इस सन्दर्भ में 1891 की भारतीय जनगणना  तथा ब्रिटिश भारत काल में प्रचलित ‘यौद्धा जाति सिद्धांत’ ‘मार्शल रेस थ्योरी’ काफी महतवपूर्ण हैं|
                               i
1891 भारतीय जनगणना खास बात यह थी की इसमें व्यवसाय के आधार जनसख्या की गिनती की गई थी | 1891 की भारतीय जनगणना के उच्च आयुक्त ए. एच. बैंस ने भारतीय जनसख्या को कृषक, पशुपालक, पेशेवर, व्यापारी, कारीगर, घुमंतू आदि 21 वर्गों में विभाजित किया हैं| इसमें प्रथम कृषक वर्ग (Agricultural Class) को पुनः तीन भाग में विभाजित किया गया हैं- 1. सैनिक एवं प्रभू जाति  (Military and Dominant) 2. अन्य कृषक (Other Cultivators) 3. खेत मजदूर (Field Labourers). ए. एच. बैंस लिखते हैं कि जनसख्या का 30% भाग कृषक वर्ग के अंतर्गत आता हैं, जिसके प्रथम सैनिक भाग में वो जातियां और कबीले आते हैं जो इतिहास के विभिन्न कालो में अपने प्रान्तों में शासन किया हैं|1891 की भारतीय जनगणना में  सैनिक एवं प्रभू जातियां जनसख्या का लगभग 10 % थी|
1891 की भारतीय जनगणना की जनरल रिपोर्ट के अनुसार भारत में चौदह सैनिक जातियां और कबीले हैं|

1.      राजपूत  (Rajput)
2.      जाट (Jat) )
3.      गूजर (Gujar)
4.      मराठा (Maratha) 
5.      बब्बन (Babban)
6.      नायर (Nair)
7.      कल्ला (Kalla)
8.      मारवा (Marwa)
9.      वेल्लमा (Vellama)
10.  खंडैत (khandait)
11.  अवान (Awan)
12.  काठी (Kathi)
13.  मेव (Meo)
14. कोडगु (Kodagu)

इस प्रकार हम देखते हैं कि 1891 की भारतीय जनगणना में गूजर जाति को भारत की मात्र चौदह सैनिक जातियों में तीसरे क्रम पर अंकित किया गया हैं| गूजर एक उत्तरी कबीला हैं सतपुड़ा और उत्तरी दक्कन के बहुत से पुराने किले इस नृवंश के शासको से सम्बंधित हैं| इस सम्बन्ध में 1891 की भारतीय जनगणना के उच्च आयुक्त ए. एच. बैंस लिखते हैं कि “ The Gujar is another northern tribe, but more like Rajputs than Jats; it is composed of varied elements. In the Panjab it is mainly agricultural, though it tends toward cattle grazing in southern planes. Elsewhere in India the title implies the latter occupation. Going further south, we meet the division of Bombay Presidency, to which it gives its name ........……It is undoubtedly a relic of one of the later Skythian waves which flooded the upper and western India, and many of the Satpura and north Deccan old forts and caves are attributed to the rulers of this race.”

                              ii

उन्नीसवी शताब्दी के अंतिम तथा बीसवी शताब्दी के आरभिक दशको में भारतीय सेना के उच्च अधिकारियो का एक वर्ग यह मानता था कि भारत में कुछ जातियां और कबीले अन्यो से अधिक लडाकू योद्धा हैं तथा वो इन्हें ही सेना में भर्ती करने के समर्थक थे| भारतीय सेना के प्रमुख कमांडर फ़ील्ड मार्शल रोबर्ट्स (1885- 1893 ई.) तथा लार्ड किचेनेर (Lord Kitchener) (1902- 1909 ई.) सेना के भर्ती मामलो में इसी योद्धा जाति सिधांत  ‘मार्शल रेस थ्योरी’ के समर्थक थे अतः इनके कार्यकाल में लडाकू योद्धा जातियों की खोजबीन की गई|

इसी क्रम में मेजर ए. एच. बिंगले ने भारत सरकार के आदेश पर जाट और गूजर जातियों का सर्वेक्षण किया और 1899 में “हिस्ट्री, कास्ट्स एंड कल्चर ऑफ़ जाट्स एंड गूजर्स” नामक एक पुस्तक लिखी जिसमे उसने जाट और और गूजरों के भोगोलिक वितरण, धर्म, रीति-रिवाज़, इतिहास और उनके सैनिक चरित्र पर प्रकाश डालते हुए उसने इन्हें बहादुर और श्रेष्ठ सैनिक बताया हैं| भारत सरकार द्वारा मेजर ए. एच. बिंगले से इस पुस्तक को लिखवाने का उद्देश्य जाटो और गूजरों की भर्ती से सम्बंधित सैन्य अधिकारियो के लिए हस्तपुस्तक (Handbook) उपलब्ध कराना था, जिसके आधार पर इन जातियों से सम्बंधित उच्च कोटि के सैनिक भर्ती  किये जा सके| इस पुस्तक के आधार पर ब्रिटिश भारत में जाट और गूजरों को सेना में भर्ती किया गया| मेजर ए. एच. बिंगले ने अपने इस अध्ययन का दायरा बढ़ाते हुए अहीरों को भी इसमें सम्मिलित किया तथा 1904 में “कास्ट हैंडबुक्स फॉर दी इंडियन आर्मी : जाट्स, गूजर्स एंड अहीर्स” पुस्तक लिखी| इसी क्रम में बी. एल. कोले ( B L Cole) ने 1924 में “हैंडबुक्स फॉर दी इंडियन आर्मी : राजपूताना क्लासेज लिखी| इसी प्रकार आर. सी. क्रिस्टी (R C Christie) ने 1937 में हैंडबुक्स फॉर दी इंडियन आर्मी : जाट्स, गूजर्स एंड अहीर्स” पुस्तक का संपादन किया| भारत सरकार के आदेश पर सैन्य अधिकारियो ने इसी प्रकार की हैंडबुक्स राजपूत, डोगरा, मराठा, गोरखा आदि जातियों पर भी लिखी थी|

आज़ादी से पहले गूजर मुख्य रूप से पंजाब रेजिमेंट, राजपूताना राइफल्स तथा ग्रेनेडियर रेजिमेंट में भर्ती किये जाते थे|

1857 की जनक्रांति में गूजर, रांघड, बंजारा, लोध समुदायों ने आदि बड़े पैमाने पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष किया था| ब्रिटिशराज के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले इन समुदायों को भी अपराधी जाति अधिनियम, 1871 में निरुद्ध किया गया तथा उनकी अपराधिक छवि प्रस्तुत की गई| ब्रिटिश काल में, इसका विपरीत प्रभाव गूजरों की सैन्य भर्ती पर भी पड़ा|

                             III      
वर्तमान काल में गूजर मुख्य रूप से राजपूत रेजिमेंट में भर्ती किये जाते हैं| 1947 में राजपूत रेजिमेंट में राजपूत और मुस्लिमो का अनुपात पचास-पचास प्रतिशत था| किन्तु आज़ादी के समय राजपूत रेजिमेंट के 50% मुस्लिम सैनिक पाकिस्तानी सेना में चले गए| इनका स्थान तब पंजाब रेजिमेंट के गूजरो ने ले लिया| इन नव आगुन्तको में विक्टोरिया क्रॉस विजेता हवालदार कमल राम भी थे| वर्तमान में राजपूत रेजिमेंट में राजपूत सैनिक 51 प्रतिशत हैं| संख्या बल की दृष्टी से फिर गूजर सैनिक हैं| राजपूत रेजिमेंट की अधिकांश बटालियनो में राजपूत और गूजर बराबर अनुपात में हैं| कुछ बटालियनो में ब्राह्मण, बंगाली, मुस्लिम आदि भी हैं|

राजपूत रेजिमेंट के अतरिक्त गूजर राजपूताना राइफल्स, जाट रेजिमेंट तथा ग्रेनेडियर रेजिमेंट में भी भर्ती किये जाते हैं| राजपूताना राइफल्स में राजपूताना क्षेत्र (वर्तमान राजस्थान) क्षेत्र से सैनिक भर्ती किये जाते हैं| राजपूताना राइफल्स में राजपूत, जाट, गूजर, अहीर और मुस्लिम बहुसख्या में हैं| जाट रेजिमेंट में भी सीमित सख्या में गूजर सैनिक हैं| ग्रेनेडियर रेजिमेंट में राजपूत, जाट, गूजर, अहीर, मीणा आदि हैं|

आज के चकाचौंध भरे युग में भी, दूर-दराज़ के ग्रामीण और पहाड़ी अंचलो में बसने वाले कृषक, कई क्षेत्रो में  अर्धघुमंतू पशुपालक गूजर समुदाय के नौज़वान के अन्दर सैनिक बन देश की सेवा करने की की चाह आज भी बरकरार हैं|

सन्दर्भ-

1 ए. एच. बैंस, 1891 की भारतीय जनगणना (जनरल रिपोर्ट), लन्दन, 1893, पृष्ठ 182-208
2. सर जॉर्ज मैकमुन्न (Sir George Macmunn), दी मार्शल रेसिज ऑफ़ इंडिया, लन्दन,
3. विद्या प्रकाश त्यागी, मार्शल रेसिज ऑफ़ अनडिवाइडेड इंडिया, 2009
4. मेजर ए. एच. बिंगले, हिस्ट्री कास्ट्स एंड कल्चर ऑफ़ जाट्स एंड गूजर्स, 1899,
5. मेजर ए. एच. बिंगले, कास्ट हैंडबुक्स फॉर दी इंडियन आर्मी : जाट्स, गूजर्स एंड अहीर्स, कलकत्ता, 1904
6. बी. एल. कोले ( B L Cole), “हैंडबुक्स फॉर दी इंडियन आर्मी : राजपूताना क्लासेज, जाट्स, गूजर्स एंड अहीर्स”, शिमला : गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया, 1924
7. आर. सी. क्रिस्टी (R C Christie), हैंडबुक्स फॉर दी इंडियन आर्मी : जाट्स, गूजर्स एंड अहीर्स, कलकत्ता: गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया, 1937
8. गौतम शर्मा, वैलौर एंड सैक्रिफाइस: फेमस रेजिमेंट्स ऑफ़ दी इंडियन आर्मी, नई दिल्ली, 1989, पृष्ठ 137-138 https://books.google.co.in/books?isbn=817023140X
9. पी. डी. बोनर्जी,  ए हैंडबुक ऑफ़ दी फाइटिंग रेसिज ऑफ़ इंडिया, कलकत्ता, 1899


Friday, August 24, 2018

गूजरघार गौरव – गढ़ी खेडा जवाहर का इतिहास


डॉ सुशील भाटी

आगरा जिले की फतेहाबाद के निकट खेडा जवाहर सिंह नामका एक गाँव हैं, जो ब्रिटिश काल में आगरा के फतेहाबाद और फिरोजाबाद परगनो के ताल्लुकेदार चौधरी लक्ष्मण सिंह का मुख्यालय हुआ करता था| उन्नीसवी शताब्दी के उत्तरार्ध में चौधरी लक्ष्मण सिंह यहाँ मिट्टी की एक विशाल गढ़ी में राजसी ठाट-बाट से रहते थे| गढ़ी लगभग 50 बीघा ज़मीन में निर्मित थी| गढ़ी की विशाल दीवारे थी जिसके चारो कोनो पर चार बुर्ज़ थे| गढ़ी की सुरक्षा के लिए बुर्जो पर तोपे लगी रहती थी| गढ़ी की सुरक्षा के लिए इसकी दीवारों के साथ गहरी खाइयो का निर्माण किया गया था| आज गढ़ी की दीवारे और बुर्ज़ गिर चुके हैं पर इनके अवशेष अभी भी विधमान हैं| उन्नीसवी शताब्दी के पूर्वार्ध में फतेहाबाद में मराठा शासक दौलत राव सिंधिया (1794-1827 ई.) के सैन्य घोड़ो का अस्तबल था| फतेहाबाद तहसील के तारौली गाँव के निवासी कर्नल आर. एस. कांदिल का कहना हैं कि खेडा गाँव में भी पहले मराठो का सैन्य ठिकाना था| जब चौ. लक्ष्मण सिंह फिरोजाबाद और फतेहाबाद के ताल्लुकेदार बने, तब उन्होंने इस स्थान को अपने आधिपत्य में ले लिया और यहाँ वर्तमान गढ़ी का निर्माण करवाया था|

गढ़ी के अवशेषों के बीचो-बीच पक्की लखोरी ईटो से निर्मित चौधरी लक्ष्मण सिंह की महलनुमा हवेली आज भी बुलंदियों के साथ खड़ी हैं, यहाँ आज इनके वंशज चौधरी राघवेन्द्र सिंह अपने परिवार के साथ रहते हैं| लखोरी ईटो से बनी हवेली लाल पत्थर से बने परकोटो से सुसज्जित हैं| परकोटो के स्तम्भ और रेलिंग शानदार नक्काशी से युक्त हैं| हवेली के मेहराबदार मुख्य प्रवेश द्वार की नक्काशी उत्कृष्ट किस्म की हैं|

चौधरी लक्ष्मण सिंह के विषय में बताते हुए, उनके वर्तमान वंशज चौ. राघवेन्द्र सिंह ने उनके समय की एक पीतल निर्मित चपरास प्रस्तुत की| ये देखने में और उपयोग में बेल्ट के बकल जैसी हैं| उन्होंने बताया की चौधरी लक्ष्मण सिंह के चपरासी इन्हें तहसील, कचहरी आदि में लगा कर रखते थे| इन पर ‘चौधरी लक्ष्मण सिंह ताल्लुकेदार परगने फतेहाबाद व फिरोजाबाद सांकिमोनेपैडा 1874’ लिखा हैं|  अतः स्पष्ट हैं कि सन 1874 में फतेहाबाद और फिरोजाबाद परगनों के ताल्लुकेदार थे| वर्तमान फतेहाबाद तथा फिरोजाबाद तहसील में यमुना के दोनों तरफ लगभग गुर्जरों के 60 गाँव हैं, तथा स्थानीय बोलचाल में इस 60 गाँव के क्षेत्र को गूजरघार कहा जाता हैं, जिसका अर्थ हैं - गूजरों का घर| फतेहाबाद कस्बे के पश्चिम में भरापुर गूजराघार का पहला गाँव हैं, इसके पूर्व में यमुना किनारे तक करीब 21 गाँव हैं तथा यमुना पार फिरोजाबाद तहसील में  करीब 38 गाँव गुर्जरों के हैं| फतेहबाद तथा फिरोजाबाद की ताल्लुकेदार होने के नाते ये सभी गाँव चौधरी लक्ष्मण सिंह की ताल्लुकेदारी में आते थे|

चौ. लक्ष्मण सिंह के पूर्वज इस क्षेत्र में दिल्ली से आये थे| फिरोजाबाद क्षेत्र के प्रेमपुर आनंदीपुर गाँव के यतिंदर अवाना अपने बुजुर्गो के हवाले से बताते हैं कि 1192 में तराइन के दूसरे युद्ध में दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद दिल्ली से काफी लोग उजड़ कर फिरोजाबाद और फतेहाबाद क्षेत्र में बस गए| चौ. लक्ष्मण सिंह रियाना गोत्र के गुर्जर थे, उनके पूर्वज भी सभवतः उक्त प्रव्रजन में दिल्ली क्षेत्र के दौलताबाद गाँव से फिरोजाबाद-फतेहाबाद क्षेत्र में आये थे| वर्तमान में फतेहाबाद क्षेत्र में रियाना गुर्जरों के खेडा जवाहर, सारंगपुर, भरापुर, बाबरपुर, हुमायुपुर तथा हाजी नंगला आदि गाँव हैं| आरम्भ में चौ. लक्ष्मण सिंह के साथी भारामल का फतेहाबाद क्षेत्र में उत्थान हुआ| भारामल किसी मेव राजा के सेनापति थे| भारामल ने फतेहाबाद के पश्चिम में भरापुर गाँव बसाया| भारामल की मृत्यु के उपरांत, ब्रिटिश काल में चौ. लक्षण सिंह फिरोजाबाद और फतेहाबाद परगनों के तालुकेदार बन गए|

1857 के विद्रोह में चौधरी लक्ष्मण सिंह ने फतेहाबाद के निकट बादशाही बाग किले में स्थित तहसील मुख्यालय को अपने अधिकार में ले लिया था तथा क्षेत्र में कानून और शांति व्यवस्था बनाये रखी| अराजकता का लाभ उठाते हुए, उन्होंने पिनाहट क्षेत्र को भी अपने अधिकार में ले लिया था| चौ. लक्ष्मण सिंह के अधिकार में सात गढ़ी थी, जिनके माध्यम से वे अपनी ताल्लुकेदारी के प्रबंधन और रख-रखाव करते थे| ये गढ़ियां खेडा, चार बिस्वा, सिलावली, सारंगपुर (गढ़ी जोमदार), मुरावल, ज़रारी और महरा चौधरी गाँवो में स्थित थी| चौ. लक्ष्मण सिंह ने जरारी की गढ़ी का निर्माण यमुना पार से डाकुओ और असामाजिक तत्वों की रोकथाम के लिए करवाया था|

चौ. लक्ष्मण सिंह बहुत से सामाजिक कल्याण के लिए बहुत से कार्य किये| अपने साथी भारामल के देहांत के बाद चौ. लक्ष्मण सिंह ने भरापुर में एक बाग़ लगवाया तथा एक शिव मंदिर का निर्माण करावाया जो आज भी विधमान हैं| चौ. लक्ष्मण सिंह ने फतेहाबाद में तत्कालीन सरकारी अस्पताल तथा थाने के लिए जगह दान में दी थी| इसके अतिरिक्त मौजा स्वार में यमुना नदी पर घाट का निर्माण करवाया तथा हाजी नंगला गाँव में कृष्ण मंदिर का निर्माण करवाया|

कालांतर में चौ. लक्ष्मण सिंह के पौत्र चौ. जवाहर सिंह के समय खेडा गाँव उनके नाम से खेडा जवाहर मशहूर हो गया| चौ. जवाहर सिंह के पुत्र चौ. ऐदल सिंह राज़स्व विभाग में उच्च अधिकारी थे| उनका विवाह बुंदेलखंड के प्रतिष्ठित समथर राजपरिवार में हुआ था| वर्तमान में चौ. राघवेन्द्र सिंह गढ़ी परिसर में अपने स्वर्गवासी पिता चौ. करतार सिंह और माता श्रीमती ललित के याद में ‘चौ. करतार ललित मेमोरियल इन्टर कॉलेज’ चलाते हैं|

                               चौ. लक्ष्मण सिंह की वंशावली

चौ. लक्ष्मण सिंह
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चौ. दौलत सिंह
            |           
चौ देवी सिंह
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                   चौ. जवाहर सिंह  तथा चौ सौवरन सिंह
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चौ. ऐदल सिंह
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चौ. करतार सिंह
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चौ. राघवेन्द्र सिंह 

सन्दर्भ

1. Rosie Llewelln-Jones, The Great Uprising in India, 1857-58 : Untold Stories, Indian and British, Woodbridge, 2007, p 29  https://books.google.co.in/books?isbn=1843833042

2.  S. B. Chaudhuri, Civil Rebellion In Indian Mutinies (1857-1859), Calcutta, 1957, p 83

3. H. R. Nevill, Agra A Gazetteer, Vol VIII, Allahbad, 1905

4. साक्षात्कार- दिनांक: 30/10/2017, चौ. राघवेन्द्र सिंह,  निवासी ग्राम - खेड़ा जवाहर, तहसील-फतेहाबाद, आगरा|

5. दूरभाष वार्ता दिनांक: 30/10/2017, कर्नल आर. एस. कांदिल, निवासी ग्राम –तारौली, तहसील-फतेहाबाद, आगरा|

6. दूरभाष वार्ता दिनांक: 20/8/2018, श्री यतीन्द्र अवाना, निवासी ग्राम – प्रेमपुर, तहसील तथा जिला  फिरोजाबाद|












Saturday, August 11, 2018

तह्कीके हिन्द में प्रतिबिंबित गुप्त संवत एवं गुप्त काल


डॉ सुशील भाटी

अलबिरुनी (1031 ई.) की पुस्तक तह्कीके हिन्द के अनुसार भारत के लोग ग्यारहवी शताब्दी में श्री हर्ष, बिक्रमादित्य, शक, गुप्त या बल्लब का संवत प्रयोग करते थे|

अलबिरुनी लिखता हैं कि जहाँ तक गुप्त काल संवतका सम्बन्ध हैं, वे लोग (गुप्त शासक), जैसा कि कहा जाता हैं, दुष्ट और शक्तिशाली थे और जब वे ख़त्म हो गए, तब जनता ने इसे चलाया| अलबिरुनी के अनुसार गुप्त और बल्लभ संवत (वल्लभी संवत) एक ही हैं, क्योकि प्राप्त सूचना के अनुसार बल्लभ गुप्त वंश का अंतिम शासक था| बल्लभ अन्हिलवाडा के 30 योज़न दक्षिण में स्थित बल्लभ (वल्लभी) नगर का स्वामी था| अलबिरुनी के अनुसार जो लोग बल्लभ के संवत को प्रयोग करते हैं, वो शक संवत से 241 वर्ष घटा कर इसे प्राप्त करते हैं| बल्लभ गुप्तो में अंतिम शासक था, इसलिए इसलिए गुप्त संवत का आरम्भ भी शक संवत के 241 वर्ष बाद होता हैं|

अलबिरुनी ने 632 ई. में प्रारम्भ होने वाले ईरानी यज्दजिर्द संवत वर्ष 400 के अनुरूप भारतीय संवतो के आगामी वर्षो का उल्लेख इस प्रकार किया हैं बिक्रमादित्य के संवत का वर्ष 1088, शक संवत का वर्ष 953 तथा बल्लभ का संवत, जोकि गुप्त संवत भी हैं, उसका वर्ष 712 |

अलबिरुनी ने तह्कीके हिन्द पुस्तक यज्दजिर्द संवत वर्ष 400 से एक वर्ष पूर्व अर्थात 632+399 = 1031 ई. में लिखी थी| अतः 1031 से 712 घटा कर गुप्त संवत का आरंभिक वर्ष 319 ई. प्राप्त होता हैं| इसी प्रकार 1031 से 953 घटा कर शक संवत का आरंभिक वर्ष 78 ई. प्राप्त होता हैं|

अलबिरुनी के अनुसार गुप्त शासक भारतीय आम जन में अलोकप्रिय थेछठी शताब्दी के पूर्वार्ध में  गुप्तो का पतन हो गया| इनके पतन के लगभग 500 वर्ष बाद अलबिरुनी भारत आया तथा भारत में प्रचलित संवतो के विषय में जानकारी जुटाते वक्त लोगो ने, उसे गुप्तो के विषय में प्रचलित धारणा के विषय में, बताया कि गुप्त शासक दुष्ट और शक्तिशाली थे, उनके शासन का अंत होने पर आमजन ने प्रसन्नता में गुप्त संवत चलाया| अतः अलबिरुनी के अनुसार गुप्तो के साम्राज्य के अंत से जनता को उनके उत्पीडन से मुक्ति मिल गई तथा इस घटना को एक समय विभाजक रेखा तथा नए युग की शुरुआत मानते हुए भारतीय जनमानस ने प्रसन्नता में गुप्त संवत आरम्भ किया| अलबिरुनी की गुप्तो की अलोकप्रियता के विषय में दी गई जानकारी को इस तथ्य से भी बल मिलता हैं कि हर्षवर्धन (606-647 ई.) के दरबारी कवि बाणभट्ट ने भी अपनी हर्षचरित नामक पुस्तक में मालवा के एक दुष्ट गुप्त राजा (दुरात्मा मालवराजेन) का उल्लेख किया हैं| गुप्तो के शासन के 500 वर्ष बाद भी प्रचलित उनकी अलोकप्रियता सम्बंधित, यह नकरात्मक जनधारणा, जिसका उल्लेख अलबिरुनी ने किया है, इतिहासकार वी. ए. स्मिथ द्वारा प्रतिपादित इस संकल्पना का खंडन करती हैं कि गुप्त काल प्राचीन भारत का स्वर्ण युग हैं’ |
सन्दर्भ

1.       जॉन ऍफ़ फ्लीट, कोर्पुस इनस्क्रिप्टशनम इन्डिकेरम खंड III, कलकत्ता, 1888 प 17-40

2.       डॉ शिवस्वरुप सहाय, भारतीय पुरालेखो का अध्ययन, प 321

3.       अपर्णा शर्मा, भारतीय संवतो का इतिहास,1994

4.       उदय नारायण रॉय, गुप्त राजवंश तथा उनका युग, 1977  

5.       शिव कुमार गुप्ता, भारत का राजनैतिक इतिहास, 1999,

6.       रामवृक्ष सिन्हा, गुप्तोत्तर कालीन राजवंश, 1982