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Wednesday, May 26, 2021

शाक्य कुल

डॉ. सुशील भाटी

गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व में नेपाल की तराई स्थित लुम्बिनी वन में हुआ था| उनके पिता का नाम शुद्रोधन और माता का नाम महामाया था| शुद्रोधन शाक्य गणसंघ  के मुखिया था तथा राजा कहलाते थे| पाली भाषा में शाक्य के स्थान पर सक्य अथवा सक्क शब्द आया हैं|

गौतम बुद्ध के समय आधुनिक उत्तरी बिहार में कपिलवस्त के शाक्य, पावापुरी और कुसिनारा के मल्ल, वैशाली के लिच्छवी, मिथिला के विदेह, रामगाम के कोलिये, पीपलवन के मोरिये आदि गणसंघ अस्तित्व में थे| पाली भाषा में गण का अर्थ कबीला होता हैं| इस प्रकार ये गणसंघ कबीलाई संघ थे, जिनका शासन कबीले के प्रमुख लोगो (गणमान्यो) की आपसी सहमति या बहुमत के आधार पर चलता था| इन्ही गणसंघो में से एक शाक्य था, जिसमे गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था| कौशल नरेश विरुधक जिसकी माँ शाक्य कुल की थी, उसने कपिलवस्तु पर आक्रमण कर उनकी राजनैतिक शक्ति और पहचान को नष्ट कर दिया था|

भारत में लगभग 80 ईसा पूर्व से हमें शक जाति के राजाओ का इतिहास प्राप्त होता हैं, जोकि  भारत के उत्तर पश्चिम क्षेत्रो में चार सो वर्ष तक शक्तिशाली राजनैतिक तत्व के रूप में विधमान रहे, हालाकि शको ने कुषाणों की अधीनता स्वीकार कर ली थी| कनिष्क के रबाटक अभिलेख से ज्ञात होता हैं कि उसके शासन के पहले वर्ष में उज्जैन उसके साम्राज्य का हिस्सा था| उस समय वहां शक शासक चष्टन कनिष्क के क्षत्रप के रूप में तैनात था| कनिष्क कुषाण (कसाना) के सिक्को पर कुषाणों की आर्य नामक भाषा में  गौतम बुद्ध को ϷΑΚΑΜΑΝΟ ΒΟΔΔΟ (Shakamano Boddo, शकमनो बोददो) अंकित किया गया हैं| गौतम बुद्ध के शाक्य कुल से क्या इन शको का कोई सम्बन्ध था अथवा नहीं यह खोजबीन का विषय हैं| कुछ विद्वान जिनमे माइकल वितजेल ततः क्रिस्टोफर एल. बेकविथ मुख्य हैं गौतम बुद्ध के शाक्य कबीले को शक ही मानते हैं| अगर यह सच हैं तो शायद इसी कारण से शको ने अपने शासनकाल में बौद्ध धर्म का काफी समर्थन किया

वर्तमान उत्तर प्रदेश में शाक्य काछी जाति का एक घटक भी  हैं|

बौद्ध पाली  साहित्य में गौतम बुद्ध को खत्तिय बताया गया हैं| ऐसा प्रतीत होता हैं कि उस समय शासक वर्ग के लिए खत्तिय या क्षत्तिय शब्द काफी बड़े भूभाग पर प्रचलित था| बेहिस्तून अभिलेख के अनुसार ईरान के  शासक दारा (522-486) की उपाधी क्षत्तिय क्षत्तियानाम थी| अलग-अलग क्षेत्रो में बोलचाल की भाषा  में  क्ष ध्वनि ख में प्रवर्तित हो जाती हैं, जैसे क्षेत्र का खेत हो जाता हैं| पंजाब  में एक जाति का नाम खत्री हैं जोकि क्षत्री का एक रूप हैं| खत्तिय तथा क्षत्तिय का संस्कृत रूप क्षत्रिय हैं| इस प्रकार संभवतः बेहिस्तून अभिलेख क्षत्रिय शब्द के प्रयोग का प्राचीनतम पुरातात्विक प्रमाण हैं और पाली का खत्तिय शब्द प्राचीनतम साहित्यिक प्रमाण हैं| कनिष्क (78-101 ई,) ने भी रबाटक अभिलेख में अपने साम्राज्य के राजसी वर्ग के लिए क्षत्रिय शब्द प्रयोग किया हैं|

सन्दर्भ-

1. Attwood, Jayarava. (2012). Possible Iranian Origins for the Śākyas and Aspects of Buddhism.. Journal of the Oxford Centre for Buddhist Studies. 3. 47-69. https://www.researchgate.net/publication/280568234_Possible_Iranian_Origins_for_the_Sakyas_and_Aspects_of_Buddhism/link/55ba4cfb08aec0e5f43e995a/download

2.  Some scholars, including Michael  Witzel and Chritopher l Beckwith  suggested that the Shakyas, the clan of the historical Gautam Buddha  were originally Scythian from Central  Asia, and that the Indian ethnonym Śākya has the same origin as “Scythian”, called Sakas in India. This would also explain the strong support of the Sakas for the Buddhist faith in India. https://en.wikipedia.org/wiki/Indo-Scythians

3. https://socrethics.com/Folder2/Hellenism-Buddhism.htm

4. Darius and Xerexs called themselves Kshatiya = Skt. Kshatriya , Pali’s Khattiya.. Chandra Chakraberty, The cultural History of Hindus, Calcutta, p253

5. https://en.wikipedia.org/wiki/Shakya

Thursday, February 11, 2021

­­­­­­­­दनकौर का युद्ध और “बहादुर बे-बदल” चंदू गूजर

डॉ. सुशील भाटी

Key Words- Bharatpur, Jat Kingdom, Gujar General,  Dankour, Jats, Gujars 

चंदू गूजर भरतपुर के जाट राज्य अंतर्गत ­रामगढ़ किले का किलेदार और कोइल क्षेत्र (वर्तमान अलीगढ) का सूबेदार था| जे. एम. सिद्दीकी (1981) ने उसका वास्तविक नाम चंद्रभान बताया हैं जबकि के. आर. कानूनगो (1925) ने उसका वास्तविक नाम चन्दन बताया हैं| इतिहास में चंदू गूजर को उसकी अप्रतिम बहादुरी के लिए जाना जाता हैं| मुगल साम्राज्य और भरतपुर जाट राज्य के बीच 15 सितम्बर 1773 को हुए दनकौर युद्ध में उसके द्वारा प्रदर्शित की गई बहादुरी से प्रभावित होकर मुगलों के इतिहासकार खैर-उद-दीन ने अपने ग्रन्थ इबरतनामा (Ibratnama)  में उसे “बहादुर बे-बदल” कह कर पुकारा हैं| बहादुर बे-बदल का में अर्थ हैं-  बेजोड़ बहादुर अथवा अतुलनीय बहादुर|

उस समय भरतपुर राज्य के शासक राजा नवल सिंह (1771-76ई’) थे| राजा नवल सिंह राजा सूरजमल के ­­­तीसरे पुत्र तथा राजा जवाहर सिंह के भाई और उत्तराधिकारी थे| उस समय दिल्ली के मुग़ल दरबार में मिर्ज़ा नज़फ़ खान का बोलबाला था| वह मुग़ल दरबार में द्वितीय बख्शी के पद पर आसीन था तथा उसे मुग़ल बादशाह ने आमिर उल उमरा का ख़िताब दे रखा था| मिर्ज़ा नज़फ़ ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त कर मुगलों की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया|

आक्रमण को ही रक्षा की श्रेष्ठ नीति मानते हुए राजा नवल सिंह ने मुगलों की राजधानी दिल्ली पर हमला करने का निर्णय किया| नवल सिंह ने दिल्ली को एक साथ तीन तरफ से घेरने की योजना बनाई| उस समय दिल्ली के निकट भरतपुर जाट राज्य के तीन केंद्र थे, दिल्ली के पश्चिम में फर्रुखनगर, दक्षिण-पूर्व में कोइल (अलीगढ) क्षेत्र तथा दक्षिण में बल्लमगढ़| अतः इन तीनो जगहों को सैन्य आधार बना कर दिल्ली पर आक्रमण की योज़ना बनाई गई|  एक सेना को फर्रुखनगर से आक्रमण करना था, दूसरी सेना को अलीगढ से दोआब को तहस-नहस करना था तथा मुख्य सेना को राजा नवल सिंह के नेतृत्व में दक्षिण में बल्लमगढ़ से दिल्ली पर हमला करना था| योज़नानुसार युद्ध बरसात ख़त्म होने के बाद प्रारम्भ करना था तथा पंजाब के सिक्खों को हरयाणा और दोआब में मुगलों के खिलाफ भरतपुर का साथ देना था| इस योज़ना के जवाब में मुगलों के सेनापति मिर्ज़ा नज़फ़ खान ने राजा नवल सिंह का रास्ता रोकने के उद्देश्य से दिल्ली और बल्लमगढ़ के बीच बदरपुर में अपनी सेना के साथ डेरा डाल दिया|

बदरपुर से 6 मील पश्चिम में स्थित मैदानगढ़ी में एक किला था, जो कभी राजा सूरजमल ने बनवया था, यह किला अभी भी जाटो के नियंत्रण में था| इस किले से जाट छापा मारकर मुगलों के मवेशी और घोड़े ले गए| नजफ़ खान ने तुरंत मैदानगढ़ी पर हमला करने का आदेश दे दिया| कई घंटो के घमासान युद्ध के पश्चात मुगलों ने मैदानगढ़ी को जीत लिया|

इस प्रकार बरसात ख़त्म होने से पहले ही मुगलों और भरतपुर जाट राज्य की दुश्मनी बढ़ गई| ये सितम्बर की शुरुआत थी तथा सिक्ख अभी युद्ध के लिए तैय्यार नहीं थे| लेकिन प्रतिशोध की अग्नि में जल रहे राजा नवल सिंह ने मैदानगढ़ी में हुई अपनी हार के बदला लेने के कोई देरी नहीं की|

राजा नवल सिंह ने अपने रिश्तेदार दान साही के नेतृत्व में एक मज़बूत सेना को अतरौली और रामगढ़ भेज दिया, जहाँ दुर्जन सिंह गूजर और चंदू गूजर भरतपुर जाट राज्य के सूबेदार और किलेदार थे| चंदू गूजर, दान साही और दुर्जन सिंह गूजर ने 20,000 सैनिको की एक सेना को संगठित किया और दोआब पर आक्रमण कर दिया| इन्होने सिकन्द्राबाद को जीत लिया और दिल्ली तक के परगनों पर अधिकार कर लिया| अपने आदेश का उल्लघन करने वाले मुग़ल कर्मचारियों को फांसी पर लटका दिया| दूसरी तरफ फर्रुखनगर से शंकर जाट के नेतृत्व में भरतपुर की सेना ने दिल्ली के पश्चिम में घमासान मचा दिया और गढ़ी हरसरू (Garhi Harsaru) का घेरा डाल दिया| मुगलों की स्थिति की गम्भीर हो गई, बादशाह को बंगाल के सूबेदार से मदद मागनी पड़ी|

राजा नवल सिंह का सेना के साथ बल्लमगढ़ में मोजूद होने के कारण मिर्ज़ा नजफ़ खान बदरपुर में ही बना रहा, उसने नियाज़ बेग खान और ताज मौहम्मद खान बलोच के नेतृत्व में पांच हज़ार घुड़सवार चंदू गूजर, दान साही, और दुर्जन सिंह गूजर से मुकाबला करने के लिए भेज दिए| मुग़ल बादशाह ने भी लाल पठानों की एक सेना और तोपखाने की टुकडिया भरतपुर जाट राज्य के इन यौधाओ के विरुद्ध भेज दी| भरतपुर की सेना ने पीछे हटकर दनकौर में मोर्चा लगाया और चंदू गूजर के नेतृत्व में 15 सितम्बर 1773 को शाही मुग़ल सेना से एक भीषण  युद्ध लड़ा| दनकौर के इस भीषण युद्ध में चंदू गूजर भरतपुर जाट राज्य का प्रधान सेनापति था| उसने सेना का नेतृत्व करते हुए मुग़ल सेना के तोपखाना पर निर्भीकतापूर्वक जबरदस्त हमला बोल दिया|  इस हमले में चंदू गूजर की निर्भीकता ने मुग़ल के पुराने अनुभवी और रणकुशल सेनानियों को भी हैरत में डाल दिया| बहादुर गूजर सरदार चंदू ने पूरे वेग से दुश्मन के तोपखाने पर आक्रमण कर दिया, उसके सैनिक उसकी इस वीरता से प्रभावित होकर उत्तेजना और जीवन्तता से भर उठे और उसके पीछे-पीछे दुश्मन सेना पर टूट पड़े| चंदू गूजर के इस अंदाज़ से भयभीत मुग़ल बरकंदाजो ने गोलियों और और तोपचियों ने गोलों की बरसात कर दी| चंदू गूजर घायल हो गया और उसका आक्रमण छिन्न-भिन्न होने लगा परन्तु घायल होने के बावजूद वो अपने बहादुर सैनिको के साथ बरसती गोलियों में तोपो के गरजते गोलों का सामना करते हुए लगातार आगे बढ़ता गया| अपने घायल नेता के नेतृत्व में भरतपुर के सैनिक आगे बढ़ते गए और खपते गए, मात्र कुछ सैनिक ही मुग़ल सेना तक पहुँच सके| घायल चंदू गूजर और उसके उसके सैनिक तब तक नहीं रुके जब तक दुश्मन की संगीनों से मार कर गिरा नहीं दिए गए| के. आर. कानूनगो ने अपनी पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ़ जाट्स” में दनकौर के युद्ध में चंदू गूजर के साहस और बहादुरी का वर्णन इस प्रकार किया हैं-

Chandu  Gujar, who was the commander-in-chief of the Jat army, led the Van and attacked the sepoy regiments and the artillery of the Mughals With an intrepidity which astonished even the veteran Mughal cavaliers, the valiant Gujar  chief charged the enemy’s artillery at full gallop, animating his brave followers. But the volleys of musketry and artillery fearfully shattered the attacking column; only a small body of troopers headed by their wounded leader succeeded in penetrating the lines of the sepoys and fell there pierced by bayonets after performing prodigies of valour. The battle raged furiously for two or three hours ; it was an awul struggle of native valour of man against science and discipline.

चंदू गूजर के मारे जाने के बाद अतरौली के सूबेदार राव दुर्जन सिंह गूजर ने भी अपनी घुड़सवार सेना के साथ मुगलों को मुकाबला किया, परन्तु सफल नहीं हो सका| दान साही भी युद्ध में घायल हो गया और दो दिन बाद उसकी भी मृत्यु हो गई|

भरतपुर जाट राज्य के प्रधान सेनापति चंदू गूजर और उसके सैनिक दनकोर के युद्ध में खेत रहे परन्तु दुश्मन भी उनकी बे-मिसाल बहादुरी देखकर दंग रह गया, वह भी उनकी दिलेरी की प्रशंषा किये बिना नहीं रह सका| खैर-उद-दीन ने इबरतनामा पुस्तक में दनकौर के युद्ध का वर्णन करते हुए चंदू गूजर की वीरता की प्रशंषा की हैं, उसने उसे “बहादुर बे-बदल” अर्थात बेजोड़ यौद्धा अतुलनीय वीर कहा हैं| के. आर. कानूनगो ने अपनी पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ़ जाट्स” में  लिखते हैं कि

He Calls Chandu Gujar “Bahadur Be-Badal” [Unequalled in Bravery], and says that he was killed within the ranks of sepoys pierced by their bayonets [Ibratnama, MS., p 214]”

दनकौर युद्ध में चंदू गूजर का वीरगति को प्राप्त होना भरतपुर राज्य के लिए एक बड़ा झटका था, इसके परिणाम स्वरूप पडला मुग़ल सेनापति मिर्ज़ा नजफ़ खान के पक्ष में झुक गया, राजा नवल सिंह ने बल्लमगढ़ से डेरा उठा लिया और भरतपुर के तरफ लौट गए|   

सन्दर्भ ग्रन्थ -

1. Kalika-Ranjan Qanungo, History Of The Jats, Vol. I, M C Sarkar & Sons, Calcutta, 1925, p 250-57

2. Jadunath Sarkar, Fall Of The Mughal Empire, Vol. III, M C Sarkar & Sons, Calcutta, 1952, p 66-67

3. Uma Shankar Pandey, European Adventurers in Northern India 1750-1803, Taylor & Francis, 2019, P

4. J. M. Siddiqi, Aligarh District: A Historical Survey, from Ancient Times to 1803 A.D.. India: Munshiram Manoharlal, 1981,

5. Persian Records of Maratha History, 1952, p 73

6. D. H. Kolff,  Grass in Their Mouths: The Upper Doab of India Under the Company's Magna Charta, 1793-1830. Netherlands: Brill, 2010, p 149 

 

 

  

 

 

 

Monday, June 22, 2020

भारतीय साहित्य में प्रतिबिंबित हूण : विदेशी नहीं भारतीय


डॉ सशील भाटी 

भारतीय इतिहास में हूणों को विदेशी जाति कहने की परंपरा अंग्रेज इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड, विलियम क्रुक, वी. ए स्मिथ आदि ने शुरू की थी, जिसे फिर भारतीय इतिहासकारों ने अपना लिया| यह परिपाटी आज भी जीवित हैं| परन्तु समकालीन भारतीय ग्रंथो में आये हूणों के वर्णन में कही भी उन्हें विदेशी संबोधित नहीं किया गया हैं| भारतीय ग्रंथो में उन्हें कही भी विदेशी चित्रित नहीं किया गया हैं| भारतीय ग्रंथो में हूण शब्द एक भारतीय प्रदेश और समुदाय के लिए प्रयूक्त हुआ हैं| कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता हैं, आइये देखते हैं कि समकालीन भारतीय ग्रन्थ हूणों की उत्पत्ति के विषय में में क्या कहते हैं?

महाभारत- महाभारत के आदि पर्व, अध्याय 177 में ऋषि वशिस्ठ की कामधेनु गाय पर अधिकार के प्रश्न पर उनके और विश्वामित्र के बीच हुए युद्ध का उल्लेख हैं| आदि पर्व के उक्त अध्याय में बताया गया हैं कि वशिस्ठ की कामधेनु गाय की रक्षा के लिए हूण, पुलिंद, केरल आदि यौद्धा सैनिक कामधेनु गाय के विभिन्न अंगो से उत्पन्न हुए|

भारतीय समाज में हजारो वर्षो से प्रतिष्ठित ग्रन्थ महाभारत में नंदिनी गाय को लेकर हुए ऋषि वशिस्ठ और विश्वामित्र के युद्ध की घटना के वर्णन से स्पष्ट हैं कि प्राचीन भारतीय मानस हूणों की उत्पत्ति विदेश से नहीं अपितु पवित्रतम नंदिनी गाय से मानता था| इस कथा से यह भी स्पष्ट हैं कि प्राचीन भारत में हूणों को गाय और ब्राह्मण के रक्षक के रूप में देखा जा रहा था| नंदिनी गाय से हूण उत्पत्ति की वैज्ञानिक सच्चाई कुछ भी हो किन्तु भारतीय इतिहास में हूणों को विदेशी के रूप में देखना ब्रिटिश भारत के उपरोक्त अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा स्थापित आधुनिक अवधारणा हैं, जिसका अंधा अनुसरण कुछ भारतीय इतिहासकार भी कर रहे हैं| 

अपने इस मत की स्पष्टता के लिए यह बता देना भी उचित हैं कि भारतीय ग्रंथो के अनुसार ऋषि वशिस्ठ द्वारा किये गए यज्ञो से अन्य प्रतिष्ठित क्षत्रिय वंशो की उत्पत्ति भी हुई हैं| ग्यारहवी शताब्दी में पदमगुप्त द्वारा लिखित नवसाहासांकचरित के अनुसार ऋषि वशिस्ठ ने विश्वामित्र से कामधेनु गाय को वापिस पाने के लिए आबू पर्वत पर एक यज्ञ का आयोजन किया| यज्ञ की अग्नि से एक महामानव प्रकट हुआ, जिसने बलपूर्वक विश्वामित्र से गाय को छीन लिया| ऋषि वशिस्ठ ने इस यौद्धा का नाम परमार (शत्रु को मारने वाला) रखा और उसे राजा बना दिया| इसी प्रकार चन्द्र बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो के अनुसार ऋषि वशिस्ठ द्वारा आबू पर्वत पर यज किया गया जिसकी अग्नि से प्रतिहार, चालुक्य, परमार और चौहान नामक यौद्धा उत्पन्न हुए| ये चारो भारत के प्रसिद्द राजसी वंश हैं| इन अग्निवंशी यौद्धा कुलो को भी कुछ अंग्रेज इतिहासकारों ने हूणों की तरह विदेशी बताया हैं| जबकि भारतीय मानस का प्रतिनिधित्व नवसाहासांकचरित और पृथ्वीराज रासो में वर्णित अग्निकुल की अवधारणा करती हैं| 

महाभारत के सभापर्व के अनुसार पांडु पुत्र नकुल का युद्ध पश्चिम दिशा में हाराहूणों से हुआ था| सभा पर्व में ही यह भी बताया गया हैं कि युधिस्ठिर द्वारा इन्द्रप्रस्थ में किये गए राजसूय यज में हाराहूण भी उपहार लेकर आये थे| भीष्म पर्व में भारत की राज्यों और समुदायों में हूणों का उल्लेख हुआ हैं|
  
रघुवंश- पांचवी शताब्दी के लेखक कालिदास द्वारा लिखित संस्कृत महाकाव्य ‘रघुवंश’ में प्राचीन रघुवंश के संस्थापक राजा रघु की दिग्विजय का वर्णन हैं| इसी रघुवंश में महाराज दशरथ और भगवान राम का जन्म हुआ था| संस्कृत के विद्वान मल्लिनाथ के अनुसार रघुवंश ग्रन्थ में बताया गया हैं कि अपनी दिग्विजय अभियान के अंतर्गत रघु ने सिन्धु नदी के किनारे रहने वाले हूणों को पराजित किया| कुछ इतिहासकार सिन्धु के स्थान पर वक्षु पढ़े जाने के पक्ष में हैं| हूणों से यूद्ध के पश्चात रघु ने कम्बोज समुदाय को पराजित किया| इतिहासकार सिन्धु क्षेत्र में हूणों के निवास की इस स्थिति को कालिदास के समय से सम्बन्धित मानते हैं| किन्तु कालिदास की जानकारी और विश्वास में रघुवंश के संस्थापक राजा रघु के शासनकाल में हूण भारत में सिन्धु नदी के क्षेत्र के निवासी थे, विदेशी नहीं|

विष्णु पुराण- पाराशर तथा वराहमिहिर आदि प्राचीन नक्षत्र वैज्ञानिकों ने भारत के नौ खंड बताये हैं| बहुधा पुराणों में भी भारत के नौ खंडो का उल्लेख हैं| विष्णु पुराण के अनुसार भारतवर्ष के मध्य में कुरु पंचाल, पूर्व में कामरूप (आसाम), दक्षिण में पंडूआ, कलिंग और मगध, पश्चिम में सौराष्ट्र, सूर, आभीर, अर्बुद, करुष, मालव, सौवीर और सैन्धव तथा उत्तर में हूण, साल्व, शाकल, अम्बष्ट और पारसीक स्थित हैं| इस प्रकार प्राचीन पुराणों के अनुसार हूण प्रदेश भारत के उत्तर खण्ड में पड़ता था|

हर्षचरित-  सातवी शताब्दी के पूर्वार्ध में बाणभट्ट द्वारा लिखित हर्षचरित के अनुसार थानेश्वर के शासक प्रभाकरवर्धन का युद्ध हूण, गुर्जर, सिन्धु, गंधार, लाट, मालव शासको के साथ हुआ| यह हूण राज्य थानेश्वर (हरयाणा) राज्य के उत्तर में स्थित था क्योकि प्रभाकरवर्धन ने अपनी मृत्यु से ठीक कुछ समय पहले अपने बड़े पुत्र राज्यवर्धन को हूणों से युद्ध करने उत्तर दिशा में भेजा था|

कुवलयमाला-  उदयोतन सूरी के प्राचीन ग्रन्थ कुवलयमाला में हूण शासक तोरमाण का वर्णन हैं| इस ग्रन्थ के अनुसार तोरमाण चंद्रभागा (चम्बल) नदी के तट पर स्थित पवैय्या नगरी से दुनिया पर शासन करता था| कुछ इतिहासकार चंद्रभागा नदी को पंजाब की चेनाब नदी मानते हैं| कुवलयमाला के अनुसार हरिगुप्त तोरमाण का गुरु था|

नीतिवाक्यमृत- सोमदेव सूरी के ग्रन्थ नीतिवाक्यमृत (959 ई.) के अनुसार चित्रकूट में हूणों की उपस्थिति का उल्लेख हैं|

राजतरंगिणी-  ग्वालियर और मंदसोर अभिलेख से हमें हूण सम्राट मिहिरकुल के विषय में जानकारी प्राप्त होती हैं| मिहिरकुल हूण के बहुत से सिक्के भी उसके इतिहास की पुष्टि करते हैं| हेन सांग के ग्रन्थ सी यू की में भी हमें मिहिरकुल हूण का वर्णन मिलता हैं| कल्हण ने भी अपने ग्रन्थ राजतरंगणी (1149 ई.) में मिहिरकुल का ऐतिहासिक वर्णन दिया हैं| राजतरंगिणी के अनुसार मिहिरकुल का जन्म कश्मीर के गौनंद क्षत्रिय वंश में हुआ था| इस वंश का संस्थापक गोनंद महाभारत में वर्णित राजा जरासंध का सम्बंधी था| मिहिरकुल संकट के समय राजगद्दी पर बैठा| राजतरंगिणी के अनुसार उस समय दरदो, भौतो और मलेच्छो ने कश्मीर को रौंद डाला था| इस अवस्था में कश्मीर में धर्म नष्ट हो गया था| मिहिरकुल ने कश्मीर की रक्षा कर उसने वहाँ शांति स्थापित की| उसके पश्चात उसने आर्यों की भूमि से लोगो को कश्मीर में बसा कर धर्माचरण का पालन सुनिश्चित करवाया| राज्तारंगिणी के अनुसार मिहिरकुल के जीवन की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना सिंघल (लंका) पर विजय थी| कल्हण की दृष्टी में मिहिरकुल लंका पर चढ़ाई करने वाला भगवान राम के बाद दूसरा उत्तर भारतीय सम्राट था| उसने श्रीनगरी में मिहिरेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया तथा होलड में मिहिरपुर नाम का बड़ा नगर बसाया| मिहिरकुल ने भी 1000 अग्रहार (ग्राम) ब्राह्मणों को दान में दिए थे| प्रजा की भलाई के लिए उसने सिचाई व्यवस्था को मज़बूत किया| इस कार्य के लिए चंद्रकुल्या नदी को रूख मोड़ने का प्रयास भी किया| अतः कल्हण की राजतरंगणी के अनुसार मिहिरकुल एक भारतीय क्षत्रिय शासक था विदशी नहीं|
कल्हण ने अपनी पुस्तक राजतरंगिनी में नवी शताब्दी में पंजाब के शासक अलखान गुर्जर का उल्लेख किया हैं| हूणराज तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरकुल के सिक्को पर उनके वंश का नाम अलखान (अलखोनो) लिखा हैं| इसलिए इन्हें अलखान हूण भी कहते हैं| अतः नवी शताब्दी में हूणों का राजसी कुल अलखान गुर्जर कहलाता था| कश्मीर के इतिहास की पुस्तक राजतरंगिनी और अलखान हूणों के सिक्को से प्राप्त सूचना के आधार पर हम कह सकते हैं कि नवी शताब्दी में अलखान हूण गुर्जर (क्षत्रिय) माने जा रहे थे| ग्वालियर अभिलेख के अनुसार नवी शताब्दी में कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार क्षत्रिय माने जाते थे|  

कर्नल टॉड मेवाड़ के अनुसार मेवाड़ के वर्षक्रमिक इतिहास (Annals) में हूण शासक उन्गुत्सी का नाम उन राजाओ की सूची में शामिल हैं जिन्होने चित्तोड़ पर पहले मुस्लिम आक्रमण के विरुद्ध साँझा मोर्चा गठित किया था| हूण शासक उन्गुत्सी ने इस अवसर पर अपनी सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व किया था| हाड़ोती स्थित कोटा जिले में के बडोली में हूणों द्वारा बनवाया मंदिर आज भी हैं| मेवाड़ में प्रचलित मान्यताओ के अनुसार हूण भयसोर  (Bhynsor) के राजा थे| मालवा, हाडौती और मेवाड़ क्षेत्रो में हूण आज भी गुर्जरों का प्रमुख गोत्र हैं|

हूण राजसी क्षत्रिय माने जाते थे और उनके विवाह सम्बन्ध क्षत्रिय राज़परिवारों में होते थे| उज्जैन के उत्तर में एक ‘हूण मण्डल’ राज्य था| कलचुरी शासको की राजधानी महिष्मति हूण मण्डल के नज़दीक थी| कलचुरी शासको के हूणों के साथ राजनैतिक और वैवाहिक सम्बन्ध थे| खैर (रेवा) प्लेट अभिलेख (1072 ई.) के अनुसार कलचुरी शासक लक्ष्मीकर्ण का विवाह हूण राजकुमारी आवल्ल देवी से हुआ था| इस विवाह से उत्पन्न राजकुमार यशकर्ण बाद में कलचुरी वंश का राजा बना| गुहिल शासक शक्तिकुमार के अतपुर अभिलेख (977 ई.) के अनुसार गुहिलोत वंश के राजा अल्लट का विवाह हूण राजा की पुत्री हरिया देवी से हुआ था| अल्लट के उत्तराधिकारी नरवाहन की गोष्ठी का एक सदस्य हूण वंश का था| सभवतः गुहिलो और हूणों ने मालवा के परमारों के विरुद्ध संधि कर रखी थी| हेमचन्द्र सूरी के अनुसार नाडोल के शासक महेंद्र ने अपनी बहिन के विवाह के लिए एक स्वयंवर सभा का आयोजान किया गया था, जिसमे एक हूण राजा भी आया था| अतः स्पष्ट हैं कि हूण राजसी क्षत्रिय माने जाते थे और उनके विवाह-सम्बन्ध क्षत्रिय राज़परिवारों में होते थे|
मध्यकालीन भारतीय ग्रंथो में में हूण राजसी क्षत्रिय माने जाते थे| हेमचन्द्र (1145-1225 ई.) द्वारा लिखित कुमारपाल प्रबंध / कुमारपाल चरित में सबसे 36 राजकुलो का उल्लेख किया गया हैं| इस ग्रन्थ में हूण 36 राजकुलो की सूची में शामिल हैं| उसके पश्चात चन्द्र बरदाई कृत पृथ्वीराजराज रासो में 36 राजकुलो का उल्लेख हैं| इनके अतिरिक्त खीची वंश के भाट ने भी अपने ग्रन्थ में 36 राजकुलो की सूची दी हैं| इन सभी ग्रंथो में दी गई 36 राजकुलो की सूचियों के आधार पर कर्नल जेम्स टॉड ने अपनी पुस्तक एनाल्स एंड एंटीक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान (1829 ई.) में 36 राजकुलो की सूची तैयार की हैं, इस सूची में भी हूण 36 राजकुलो में शामिल हैं|

भारत में हूण पहचान की निरंतरता : हूण गुर्जरों के गाँवो का सर्वेक्षण- वर्तमान काल में हूण गुर्जरों का एक प्रमुख गोत्र हैं| सुशील भाटी ने इस सम्बन्ध में “भारत में हूण पहचान की निरंतरता : हूण गुर्जरों के गाँवो का सर्वेक्षण” नाम से एक शोध पत्र लिखा हैं| ग्वालियर किला स्थल से प्राप्त सबसे प्राचीन पुरातात्विक-ऐतिहासिक महत्व की वस्तु हूण सम्राट मिहिरकुल का अभिलेख हैं, जोकि छठी शताब्दी में इस क्षेत्र में हूणों के आधिपत्य का प्रमाण हैं| इस क्षेत्र में भी हूण गुर्जरों की अच्छी जनसख्या हैं| हूणों का अंतिम इतिहास मालवा, हाडौती और मेवाड़ क्षेत्र से मिलता हैं| इन क्षेत्रो में भी हूण गुर्जरों का एक प्रमुख गोत्र हैं| उत्तर प्रदेश स्थित मेरठ के समीपवर्ती हापुड जिले में हूण गोत्र के गुर्जरों का बारहा (12 गाँव की खाप) हैं| उत्तराखण्ड के जिला हरिद्वार के लक्सर क्षेत्र में हूण गुर्जरों का चौगामा (चार गाँव) हैं|

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट हैं कि प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय साहित्य में हूण वंश को विदेशी नहीं माना गया| महाभारत के आदि पर्व के अनुसार हूणों की उत्पत्ति ऋषि वशिस्ठ की नंदिनी गाय से उनकी रक्षा के लिए हुई थी| महाभारत और पुराणों में हूण शब्द एक भारतीय क्षेत्र और समुदाय के लिए प्रयुक्त हुआ हैं| कुवलयमाला और राजतरंगिणी में क्रमशः हूण सम्राट तोरमाण और मिहिरकुल को भारतीय चित्रित करते हैं| उपरोक्त उल्लेखित अभिलेखों और ग्रंथो से स्पष्ट हैं कि हूण राजसी क्षत्रिय माने जाते थे, उनके विवाह क्षत्रिय वंशो में होते थे तथा उनकी गणना प्रसिद्ध 36 राजकुलो में की जाती थी| 

संदर्भ-

1.  Krishna-Dwaipayana Vyasa, The Mahabharata (translated) Kisari Mohan Ganguli, 1883- 1896 https://www.sacred-texts.com/hin/maha/index.htm

2. The Mahabharata, Adi Parva, Section CLXXVII,                                                                          https://www.sacred-texts.com/hin/m01/m01178.htm

3.The Mahabharata, Sabha Parva, Section XXXI                                                                 https://www.sacred-texts.com/hin/m02/m02031.htm

 4. The Mahabharata, Bhism Parva, Section IX                                                                           https://www.sacred-texts.com/hin/m06/m06009.htm

5. The Mahabharata, Shanti Parva, Section CCCXXVI                           

6.हरिश्चंद्र बर्थवाल, भारत-परिचय प्रश्न-मंच, नई दिल्ली, 1999     https://books.google.co.in/books?id=XlA4DwAAQBAJ&pg=PA5&lpg=PA5&dq#v=onepage&q&f

7. Alexander Cunningham, The Ancient Geography of India, CUP, New York, 2013 (First published 1871), p 5, 16-17

8.Sabita Singh, The politics of Marriage in India: Gender and Alliance in Medieval India, OUP, Delhi, 2019, p

9. Edward Balfour, The Cyclopaedia of India and of Eastern and Southern Asia, Volume II, London, 1885, p 1069

10. Kalhana, Rajatarangini, tr. by M.A. Stein, 2 vols. London, 1900.

11. सुशील भाटी, “शिव भक्त सम्राट मिहिरकुल हूण”, आस्पेक्ट ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री, समादक- एन आर. फारुकी तथा एस. जेड. एच. जाफरी, नई दिल्ली, 2013, प. 715-717

12. सुशील भाटी, भारत में हूण पहचान की निरंतरता : हूण गुर्जरों के गाँवो का सर्वेक्षण, जनइतिहास ब्लॉग, 2017 https://janitihas.blogspot.com/2017/06/blog-post.html

13. सुशील भाटी, वराह उपासक मिहिर पर्याय हूण, जनइतिहास ब्लॉग, 2013

14. Aurel Stein, White Huns and kindred tribes in the history of the North West frontier, IA XXXIV, 1905

15.Atreyi Biswas, The Political History of the Hunas in India, Delhi, 1973.

16. Upendra Thakur, The Hunas in India, Varanasi, 1967.

17. P C Bagchi, India and Central Asia, Calcutta, 1965

18. Tod, Annals and Antiquities of Rajasthan, Edit. William Crooke, Vol. I, Introduction

19. Sri Adris Banerji, Hunas in  Mewar, Journal OF The Asiatic society Of Bengal, vol. IV, 1962, No.2, p 57-62

20. Nisar Ahmad, Harigupta- A Successor of Kumargpta I, Proceedings of the Indian History Congress, Vol. 45 (1984), pp. 892-900

21. Hans T Baker, The Alkhana: A Hunnic People in South Asia, 2020

Tuesday, June 9, 2020

मिहिर भोज की मुद्रा


डॉ. सुशील भाटी

सियादोनी अभिलेख, आहड अभिलेख और कमान अभिलेख से हमें पूर्व-मध्यकाल  (600-1000 ई) के दौरान उत्तर भारत में ‘दम्म्र’ नामक मुद्रा के प्रचलन के विषय में ज्ञात होता हैं| द्रम्म शब्द की उत्पत्ति मुद्रा के लिए प्रयुक्त यूनानी शब्द ‘द्रच्म’ से हुई हैं| द्रम्म शब्द चांदी की उस मुद्रा के लिए प्रयोग होता था, जिसका भार मानदंड यूनानी द्रच्म मुद्रा पर आधारित होता था|

सियादोनी अभिलेख (902-96 ई.) में ‘विग्रहपाल’ तथा ‘आदिवराह’ द्रम्म नामक मुद्राओ का उल्लेख हुआ हैं| वस्तुतः गुर्जर प्रतिहार काल में उत्तर भारत में ‘विग्रहपाल’, ‘आदिवराह’ तथा विनायकपाल अंकित द्रम्म मुद्रा प्रचलित थी| अलाउद्दीन खिलजी की दिल्ली टकसाल के अधिकारी ठक्कर फेरु (1291-1323 ई.) ने द्रव्य परीक्षा नामक एक ग्रन्थ लिखा, जिसमे उसने ‘वराहमुद्रा’ का उल्लेख किया हैं| इस आदिवराह अथवा वराह मुद्रा की पहचान उत्तर भारत से प्राप्त श्रीमदआदिवराहअंकित सिक्को से की जाती हैं| श्रीमद आदिवारह गुर्जर प्रतिहार शासक मिहिर भोज का बिरुद था अतः ऐसा माना जाता हैं कि ये सिक्के उसी के द्वारा ज़ारी किये गए थे|

मिहिरभोज के ग्वालियर अभिलेख में भी मुद्रा के लिए द्रम्म शब्द प्रयुक्त हुआ हैं| श्रीमदआदिवराह द्रम्म में ऊपर की तरफ वराह अवतार तथा सूर्य चक्र अंकित हैं| वराह अवतार का सिर वराह का और धड़ मनुष्य का हैं| सिक्को के दूसरी तरफ श्रीमदआदिवराहलिखा हैं तथा सासानी ढंग की वेदी उत्कीर्ण हैं|

‘आदिवराह’ द्रम्म को हिन्द-सासनी सिक्को में वर्गीकृत किया जाता रहा हैं, क्योकि इन सिक्को का डिजाईन ईरान के सासानी वंश के शासको के सिक्को जैसा हैं| 484 ई. में हूणों ने ईरान के सासानी वंश के शासक फ़िरोज़ को युद्ध में पराजित कर दिया| उसके पश्चात् छठी शताब्दी में  अलखान हूणों ने उत्तर और पश्चिम भारत में सासनी ढंग की वेदी वाले सिक्के प्रचलित किये| हूणों के इन्ही सिक्को का अनुसरण गुर्जर राज्यों ने किया| यह भी उल्लेखनीय हैं कि कल्हण कृत राजतरंगिणी ग्रन्थ (1149 ई.) में पंजाब के राजा का नाम अलखान गुर्जर बताया गया हैं अलखान गुर्जर का युद्ध कश्मीर के शासक शंकरवर्मन (885-902 ई.) के साथ हुआ था| स्पष्ट हैं कि नवी शताब्दी के अंत में अलखान हूण गुर्जर के रूप में जाने जा रहे थे, अतः गुर्जरों द्वारा हूणों की मुद्रा का अनुकरण स्वाभाविक था|  

प्रतिहारो के सामन्तो ने भी अपने सिक्के चलाये| मेवाड़ में चलने वाले सिक्के चौड़े और पतले हैं जोकि हूणों के सिक्को से अधिक मिलते हैं| इन सिक्को पर अग्निवेदिका की सेविकाए हीरो के मनको से निर्मित तीन श्रंखलाओ के रूप में दर्शायी गई हैं| के इन सिक्को का प्रचलन क्षेत्र भीलवाड़ा-मेवाड़ था| ये सिक्के गुहिलोत शासको ने चलाये थे| गुर्जर प्रतिहारो के शाही सिक्को की तुलना में इन सिक्को में चांदी की मात्रा कम हैं| इस प्रकार के 3000 सिक्को का ढेर भीलवाड़ा जिले से प्राप्त हुआ हैं| इस प्रकार के सिक्को का एक और पिपलांज से प्राप्त हुआ हैं| ये सिक्के अठारवी शताब्दी तक प्रचलन में रहे तथा फडिया/पड़िया कहलाते थे| जॉन एस. ड़ेयेल्ल (John S Deyell) के अनुसार चौदहवी शताब्दी के आरम्भ दिल्ली टकसाल के अधिकारी फेरु ठक्कर ने पड़िया मुद्रा को ‘गुर्जर सिक्का’ कहा हैं|

गुजरात का चाप सामन्तो ने भी चांदी के सिक्के चलाये| अपने डिजाईन के कारण ये सिक्के भी हिन्द-सासानी श्रेणी के अंतर्गत आते हैं| के इन सिक्को में चांदी की मात्रा गुर्जर प्रतिहारो के सिक्को से भी अधिक थी|

उज्जैन-कन्नौज के प्रतिहारो से पूर्व में भी गुर्जरों ने सासानी ढंग के सिक्के जारी किये थे|  सातवी शताब्दी में गुर्जर देश की राजधानी भीनमाल से भी सासानी ढंग की अग्निवेदिका वाले सिक्के जारी किये गए थे| उस समय गुर्जर देश पर चाप (चावड़ा) वंश के व्याघ्रमुख का शासन था| इन सिक्को को गदहिया सिक्के भी कहते हैं| एक जैन लेखक के विवरण से यह तथ्य ज्ञात होता हैं कि गदहिया सिक्केभीनमाल से ज़ारी किये गए थे| भीनमाल से ज़ारी किये गए गदहिया सिक्के हूणों के सिक्को का अनुकरण हैं| हूणों के सिक्को पर भी सासानी ढंग की अग्निवेदिका उत्कीर्ण हैं| गदहिया सिक्को का सम्बन्ध गुर्जरों से रहा हैं तथा इनके द्वारा शासित पश्चिमी भारत में सातवी से लेकर दसवी शताब्दी तक भारी प्रचलन में रहे हैं| चाप (चावड़ा) वंश के गुजरात में प्रबल होने पर गदहिया सिक्को का प्रचलन गुजरात में बढ़ गया|

इब्न खोर्दाद्बेह (Ibn Khordadbeh) जिसकी मृत्यु 912 में हुई थी, उसके अनुसार हज़र (गुर्जर) राज्य में तातारिया सिक्के भी प्रचलन में थे|

छोटे व्यापारिक लेनदेन के लिए कौड़ियो का प्रचलन भी था| ऊपरी गंगा घाटी के खजौसा (Khajausa) नामक स्थान से अदिवराह तथा विनायकपाल द्रम्म के साथ कौड़िया भी प्राप्त हुई हैं|

यह ज्ञात करना कि गुर्जर प्रतिहारो के शासनकाल में कितनी मात्रा में मुद्रा प्रचलित थी, काफी कठिन कार्य हैं| भू राजस्व व्यवस्था, सैन्य विभाग तथा स्थानीय और विदेशी व्यापार के सुचारू परिचालन के लिए एक स्थिर मुद्रा व्यवस्था की आवश्यकता थी| राज्य की आय का मुख्य स्त्रोत भू राज़स्व था, वही राजकोष का धन मुख्य रूप शाही परिवार और सेना पर से खर्च किया जाता था| स्थानीय और विदेशी व्यापारिक गतिविधियाँ और लेन-देन काफी मात्रा में किया जाता हैं| कन्नौज, अहिछत्र (बरेली), पुराना किला (दिल्ली), अतरंजीखेड़ा, राजघाट (वाराणसी), आदि प्राचीन नगर प्रतिहार काल में भी फलते-फूलते रहे| तत्तनन्दपुर (आहर), सियादोनी, जिला- झाँसी , गोपाद्री (ग्वालियर), पृथुदक (पेहोवा), नडुल्ल आदि नए नगरो का उदय गुर्जर प्रतिहार काल में हुआ| इन नगर में बाज़ार और व्यापारिक समुदाय अस्तित्व में थे| अल बिरूनी के ग्रन्थ किताब उल हिन्द (1030 ई.) से हम उत्तर भारत के व्यापारिक मार्गो की जानकारी प्राप्त होती हैं| विदेशो से घोड़ो का व्यापार किया जाता हैं| भारत में गुर्जर राज्य की घुड़सवार सेना सबसे अच्छी थी| पेहोवा अभिलेख (882 ई.) के अनुसार वहाँ घोड़ो की खरीद-फरोख्त की एक मंडी थी| अल मसूदी के अनुसार बौरा (वराह) के चार सेनाये थी, उत्तर की सेना मुल्तान के विरुद्ध, दक्षिण की सेना मनकीर (मान्यखेट) के बल्हर (वल्लभ) के विरुद्ध तैनात रहती थी| दो सेनाए हमेशा किसी भी आवश्यता पड़ने पर किसी भी दिशा में कूच के लिए तैयार रहती थी| सीमाओं पर तैनात सैनिको के लिए नकद वेतन की व्यवस्था की आवश्यकता रही होगी|  जॉन एस. डेयेल्ल (John S Deyell) ने अपने विश्लेषण में ए. के. श्रीवास्तव के अध्ययन को आधार बनाया हैं| इस विश्लेषण के अनुसार 1882-1979 तक उत्तर प्रदेश में गुप्त काल (300-500 ई.) के कुल 21 ढेरो से 159 सिक्के प्राप्त हुए हैं, जबकि पूर्व मध्काल (600-1000ई.) / गुर्जर प्रतिहार काल के 110 ढेरो से 16121 द्रम्म सिक्के प्राप्त हुए हैं| गुर्जर प्रतिहार काल में मुद्रा की कमी नहीं थी, वरन इस काल में गुप्त काल से अधिक मुद्रा प्रचलित थी| 

सन्दर्भ-

1. John S Deyell, The Gurjara Pratiharas, Trade in Early India (Edited) Ranabir  Chakravarti, OUP, New Delhi, 2001, p 396-415
2. A K Shrivastava, Coin Hoards of Uttar Pradesh 1882-1979, Lucknow, 1980
3. Surabhi Srivastava,  “Coins and Currency system under the Gurjara Pratiharas of kannauj” Proceedings of the Indian History Congress, vol. 65, 2004, pp. 111–120., www.jstor.org/stable/44144724. Accessed 15 May 2020.
4. B N Puri, History of Gurjara Pratihara, Bombay, 1957
5. Sushil Bhati, Huna origin of Gurjara clans, Janitihas blogspot.com, 2015 https://janitihas.blogspot.com/2015/01/huna-origin-of-gurjara-clans.html
6. Sushil Bhati, Gurjar Pratiharo ki Huna Virasat, Janitihas blogspot.com, 2016 https://janitihas.blogspot.com/2016/11/blog-post.html
7. K M Munshi, Glory That Was Gurjara Desha,
8. R S Tripathi, History of Ancient India, Delhi, 1960
9. R C Mazumdar, The age of Imperial Kannauj, Bombay, 1955
10. B.N. Mukherjee, ‘Gold Coin of Pratihara Bhoja I’, Numismatic Digest VII, (1983), pp.60-61
11. Lalallanji Gopal, Economic Life of Northern India, C.A.D. 700-1000, Delhi, 1965
12. V. A. Smith, The Gurjaras of Rajputana and Kanauj, Journal of the Royal Asiatic Society of Great Britain and Ireland, (Jan., 1909), pp.53-75

Friday, June 5, 2020

विमुक्त जातियों की पहचान

Key words- Idate Commission, De-Notified Tribes, Nomadic, Semi-Nomadic, 


विमुक्त जातियों पर अपने शोध और लेखन कार्य के चलते, 11-13 सितम्बर 2017 को श्री भीकूराम इदाते जी की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय विमुक्त, घुमंतू, अर्ध- घुमंतू जनजाति आयोग में 'विमुक्त जातियों के पहचान' के सम्बन्ध में गठित वर्किंग ग्रुप के सदस्य के रूप में कार्य करने का अवसर मिला| ईश्वर की कृपा से पूर्ण मनोयोग से भारत के राजस्थान, दिल्ली, उ. प्र, उत्तराखण्ड सहित सभी राज्यों की विमुक्त जातियों की पहचान और सूचीकरण में अपना सहयोग और योगदान किया|



 11 सितम्बर 2017 को राष्ट्रीय विमुक्त, घुमंतू, अर्ध- घुमंतू जनजाति आयोग में विमुक्त जातियों के पहचान के सम्बन्ध में गठित वर्किंग ग्रुप के सदस्य के रूप में कार्य करने का अवसर मिला| छाया चित्र में बाये से दाये- विषय विशेषज्ञ डॉ शिवानी रॉय जी, डॉ एच. एन रिज़वी जी, डॉ बी. के लोधी जी, डॉ सुशील भाटी, श्री मोहन नरवरिया जी

13 सितम्बर 2017, राष्ट्रीय विमुक्त, घुमंतू, अर्ध- घुमंतू जनजाति आयोग, नई दिल्लीें, विमुक्त जातियों के पहचान के सम्बन्ध में गठित वर्किंग ग्रुप के सदस्य के रूप में कार्य करने का अवसर मिला| छाया चित्र में मध्य में आयोग के अध्यक्ष माननीय श्री भीकू रामजी इदाते, उनके बायीं तरफ आयोग के सदस्य सचिव श्री बी. के. प्रसाद जी (आई. ए. एस.) तथा आयोग के सदस्य श्री श्रवण सिंह राठोर जी|

13 सितम्बर 2017, राष्ट्रीय विमुक्त, घुमंतू, अर्ध- घुमंतू जनजाति आयोग, नई दिल्लीें, विमुक्त जातियों के पहचान के सम्बन्ध में गठित वर्किंग ग्रुप के सदस्य के रूप में कार्य करने का अवसर मिला| छाया चित्र के मध्य में डॉ सुशील भाटी, बायीं तरफ डॉ बी. के लोधी जी, तथा श्री मोहन नरवरिया जी|



श्री भीकूराम जी इदाते की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय विमुक्त, घुमंतू, अर्ध- घुमंतू जनजाति आयोग ने दिसम्बर 2017 में अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौप दी| रिपोर्ट सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध हैं|-  http://socialjustice.nic.in/writereaddata/UploadFile/Idate%20Commission.pdf