डा. सुशील भाटी
(Key Words- Huna, Gurjara, Pratihara, Boar, Varaha, Sun, Mihira, Alakhana, Sassnian fire altar, Gadhiya coin)
इतिहासकार वी ए. स्मिथ1, विलियम क्रुक2 एवं रुडोल्फ होर्नले3 गुर्जर प्रतिहारो को हूणों से सम्बंधित
मानते हैं| स्मिथ कहते हैं की इस सम्बन्ध में सिक्को पर आधारित प्रमाण बहुत अधिक
प्रबल हैं|4 वे कहते हैं कि हूणों तथा भीनमाल के गुर्जरों, दोनों ने ही
सासानी पद्धति के के सिक्के चलाये|5 होर्नले गुर्जर-प्रतिहारो को
‘तोमर’ मानते हैं तथा पेहोवा अभिलेख के आधार पर उन्हें जावुला ‘तोरमाण हूण’ का
वंशज बताते हैं|6 पांचवी शताब्दी के लगभग उत्तर भारत को विजय करने वाले
हूण ईरानी ज़ुर्थुस्थ धर्म और संस्कृति से प्रभावित थे|5 वो सूर्य और
अग्नि के उपासक थे जिन्हें वो क्रमश मिहिर और अतर कहते थे| वो वराह की सौर
(मिहिर) देवता के रूप में उपासना करते थे|7 हरमन गोएत्ज़
इस देवता को मात्र वराह न
कहकर ‘वराहमिहिर’ कहते हैं| मेरा मुख्य तर्क यह हैं कि हूण और
प्रतिहारो के इतिहास में बहुत सी समान्तर धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्पराए हैं, जोकि उनकी मूलभूत एकता का प्रमाण हैं| कई
मायनो में प्रतिहारो का इतिहास उनकी हूण विरासत को सजोये हुए हैं| प्रतिहार वंश की
उत्पत्ति हूणों से हुई थी तथा उन्होंने हूणों की विरासत को आगे बढाया इस बात के
बहुत से प्रमाण हैं|
सबसे पहले हम हूणों के सौर देवता वराह की प्रतिहारो
द्वारा उपासना के विषय में चर्चा करेंगे| भारत
में वराह पूजा की शुरुआत मालवा और ग्वालियर इलाके में लगभग 500 ई. में उस समय हुई,8 जब हूणों ने यहाँ
प्रवेश किया| यही पर हमें हूणों के प्रारभिक सिक्के और
अभिलेख मिलते हैं| भारत में हूण शक्ति को स्थापित करने वाले
उनके नेता तोरमाण के शासनकाल में इसी इलाके के एरण, जिला सागर, मध्य प्रदेश में वराह की विशालकाय मूर्ति
स्थापित कराई थी9 जोकि भारत में प्राप्त सबसे पहली वराह मूर्ति हैं| तोरमाण के शासन काल के प्रथम वर्ष का अभिलेख इसी मूर्ति से मिला हैं|10 जोकि इस बात का
प्रमाण हैं कि हूण और उनका नेता तोरमाण भारत प्रवेश के समय से ही वाराह के उपासक
थे|
पांचवी शातब्दी के अंत में भारत में
प्रवेश करने वाले श्वेत हूण ईरानी ज़ुर्थुस्थ धर्म से प्रभावित थे| भारत में प्रवेश के समय हूण वराह की सौर देवता के रूप में उपासना करते
थे| इतिहासकार हरमन गोएत्ज़ इस देवता को वराहमिहिर कहते हैं| गोएत्ज़ कहते हैं, क्योकि हूण मिहिर ‘सूर्य’ उपासक थे, इसलिए वाराह उनके लिए सूर्य के किसी आयाम
का प्रतिनिधित्व करता था|11 ईरानी ग्रन्थ ‘जेंदा अवेस्ता’ के ‘मिहिर यास्त’ में कहा गया हैं कि मिहिर ‘सूर्य’ जब चलता हैं तो वेरेत्रघ्न वराह रूप में
उसके साथ चलता हैं|12 ईरानी ज़ुर्थुस्थ धर्म में वेरेत्रघ्न ‘युद्ध में विजय’ का देवता हैं| अतः हूणों की वराह
पूजा के स्त्रोत ईरानी ग्रन्थ ‘जेंदा अवेस्ता’ के ‘मिहिर यस्त’ तक जाते है|
भारत में हूणों ने शैव धर्म अपना लिया और
वे ब्राह्मण धर्म के सबसे कट्टर समर्थक के रूप में उभरे|13 यहाँ तक की बौद्ध
चीनी यात्री हेन सांग (629-647 ई.) ने हूण सम्राट मिहिरकुल पर बौधो का क्रूरता
पूर्वक दमन करना का आरोप लगाया हैं|14 कल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार मिहिरकुल
हूण ने कश्मीर में मिहिरेश्वर शिव मंदिर का निर्माण कराया तथा गंधार क्षेत्र में
ब्राह्मणों को 1000 ग्राम दान में दिए|15 जे. एम. कैम्पबेल के अनुसार मिहिरकुल
से जुड़ी कहानिया उसे एक भगवान जैसे शक्ति और सफलता वाला, निर्मम, धार्मिक यौद्धा
दर्शाती हैं| राजतरंगिणी की प्रशंशा तथा हेन सांग की रंज भरी स्वीकारोक्तिया में
यह निहित हैं कि उसे भगवान माना जाता था|16 जैन ग्रंथो में महावीर की
मृत्यु के 1000 वर्ष बाद उत्तर भारत में शासन करने वाले ‘कल्किराज़’ के साथ
मिहिरकुल के इतिहास में समानता के आधार पर के. बी. पाठक मिहिरकुल को ब्राह्मण धर्म
के रक्षक ‘कल्कि अवतार’ के रूप में भी देखते हैं|17 ऐसा प्रतीत होता हैं
कि उत्तर भारत की विजय से पूर्व गंधार क्षेत्र में ही हूण ब्राह्मण धर्म के प्रभाव
में आ चुके थे क्योकि तोरमाणके सिक्के पर भी भारतीय देवता दिखाई पड़ते हैं| कालांतर
में हूणों के ईरानी प्रभाव वाले कबीलाई देवता वराहमिहिर को भगवान विष्णु के वराह
अवतार के रूप में अवशोषित कर लिया गया|18 अतः तोरमाण द्वारा एरण में स्थापित वाराह की
विशालकाय मूर्ति से प्राप्त उसके शासन काल के प्रथम वर्ष का अभिलेख वराह अवतार की
स्तुति से प्रारम्भ होता हैं|
हूणों के नेता
तोरमाण की भाति महानतम गुर्जर-प्रतिहार सम्राट भोज वराह का उपासक था| भोज के अनेक ऐसे सिक्के प्राप्त हुए हैं जिन पर वराह उत्कीर्ण है|19 भोज ने आदि वराह की उपाधि धारण की थी20,
संभवतः वह वराह अवतार माना जाता था | गुर्जर प्रतिहारों की राजधानी कन्नौज में
भी वराह की पूजा होती थी और वहा वराह मंदिर भी था| अधिकतर वराह मूर्तिया, विशेषकर वो जोकि विशुद्ध वाराह जानवर जैसी हैं, गुर्जर-प्रतिहारो के काल की हैं| 21 तोरमाण हूण द्वारा एरण में स्थापित वाराह
मूर्ति भी विशुद्ध जानवर जैसी हैं|
ब्राह्मणों के प्रभाव में हूण और उनके
वंशज गुर्जर-प्रतिहार वराह को विष्णु अवतार के रूप में देखने लगे| वराह अवतार को
मुख्य रूप से हूणों और गुर्जर-प्रतिहारो से जोड़ा जाना चाहिए|22 उत्तर भारत में
वाराह अवतार की अधिकतर मूर्तिया 500-900 ई. के मध्य की हैं, जोकि हूणों और गुर्जर प्रतिहारो का काल हैं|23
गुर्जर-प्रतिहारो द्वारा हूणों के उपनाम ‘वराह’
का प्रयोग एक अन्य परंपरा हैं जो उनके हूण सम्बंध की तरफ एक स्पष्ट संकेत हैं| वराह
जंगली सूअर को कहते हैं| पांचवी शताब्दी में मध्य एशियाई हूणों की
एक शाखा ने ज़हां यूरोप पर आक्रमण किया. वही अन्य शाखा ने ईरान को पराजित कर भारत
में प्रवेश किया| यूरोप में वाराह को हूणों का पर्याय माना
जाता हैं| यूरोप में वराह को हूणों की शक्ति और साहस का
प्रतीक समझा जाता हैं| 24 रोमानिया और हंगरी में वाराह की विशालकाय प्रजाति को आज भी “अटीला” पुकारते हैं|25 “अटीला” (434-455 ई.) हूणों
के उस दल का नेता था, जिसने पांचवी शताब्दी में रोमन साम्राज्य
को पराजित कर यूरोप में तहलका मचा दिया था|26 यूरोप के बोहेमिया देश में हूणों से
सम्बंधित एक प्राचीन राजपरिवार का नाम ‘बोयर’ हैं| 27 ‘बोयर’ का अर्थ हैं वराह जैसा आदमी| 28
तबारी ने श्वेत हूणों और तुर्कों के बीच
हुए युद्ध का वर्णन किया हैं| तबारी के अनुसार श्वेत हूणों के अंतिम शासक का नाम
वराज था|29 गफुरोव का मानना हैं कि ‘वराज़’ पूर्वी ईरान के शासको की
उपाधि थी|30 मेस्सोन ने ‘वराज’ का अनुवाद ईरानी भाषा में ‘जंगली सूअर’
किया हैं|31
भारत मे भी हूणों के लिए वराह शब्द का प्रयोग हुआ हैं| अलबरूनी ने काबुल
के तुर्क शाही वंश का संस्थापक बर्हतेकिन को बताया हैं|32 बर्हतेकिन बराह तेगिन का अरबी रूपांतरण प्रतीत होता हैं| छठी शताब्दी में
भारत आये चीनी यात्री सुंग युन के के विवरण के आधार पर पर कहा जा सकता हैं कि
तेगिन हूणों की एक उपाधि थी, तथा भारतीय सन्दर्भ में ‘तेगिन’ उपाधि पहले श्वेत हूण
शासक ने धारण की थी|33 यह उपाधि हूण उपशासक द्वारा धारण की जाती
थी जोकि प्रायः हूण शासक का भाई या पुत्र होता था|34 बराह हूण शासक का
नाम हैं या उपाधि कहना मुश्किल हैं| किन्तु भारत में हूणों शासक के लिए बराह नाम
के प्रयोग का यह एक उदहारण हैं|
काबुल में तुर्क शाही वंश के संस्थापक
बराह तेगिन के बाद भारत में गुर्जर-प्रतिहार सम्राटो को वराह
कहा गया हैं| गुर्जर-प्रतिहार सम्राट भोज की उपाधि “वराह” थी|
भोज महान के “वराह” चित्र वाले चांदी के सिक्के प्राप्त हुए
हैं, जिन पर वराह चित्र के साथ आदि वराह अंकित हैं|35 अरबी यात्री अल मसूदी (916 ई.) ने ‘मुरुज-उल-ज़हब’
नामक ग्रन्थ में गुर्जर-प्रतिहार सम्राटों
को “बौरा” यानि “वराह” कहा हैं36 अतः वराह हूणों की
भाति गुर्जर-प्रतिहारो का भी उपनाम था| अरबी इतिहासकारों द्वारा गुर्जर-प्रतिहारो
के लिए प्रयुक्त ‘बौरा’ तथा बोहेमिया मे हूण राजपरिवार के लिए
प्रयुक्त बोयर में भी एक साम्यता हैं|
हूण सम्राट मिहिर कुल, गुर्जर-प्रतिहार
सम्राट मिहिर भोज और आधुनिक गुर्जरों द्वारा मिहिर उपाधि का प्रयोग एक और इनके बीच
की सांझी परंपरा हैं जोकि इन सबकी मूल भूत एकता का प्रमाण हैं| मिहिर ईरानी शब्द
हैं जोकि सूर्य का पर्यायवाची हैं|37 हूण ‘मिहिर’ के
उपासक थे|38
हूणों की उपाधि ‘मिहिर’ थी| हूण सम्राट मिहिर कुल (502-542 ई.) का
वास्तविक नाम गुल था तथा मिहिर उसकी उपाधि थी| कास्मोस इंडिकोप्लेस्टस ने तत्कालीन ‘क्रिस्चन टोपोग्राफी’ नामक ग्रन्थ में उसे ‘गोल्लस’ लिखा गया हैं|39 अतः उसे मिहिर गुल
कहा जाना अधिक उचित हैं|40 कंधार क्षेत्र के ‘उरुजगन’ नामक स्थान से
प्राप्त एक शिलालेख पर मिहिरकुल हूण को सिर्फ ‘मिहिर’ लिखा गया हैं|41
गुर्जर-प्रतिहार सम्राट भोज महान (836-
885 ई.) की सागरताल एवं ग्वालियर अभिलेखों से ज्ञात होता हैं कि उसने ने ‘मिहिर’ उपाधि भी धारण की थी|42 , इसलिए उसे आधुनिक इतिहासकार मिहिर भोज कहते हैं, अन्यथा सामान्य तौर
पर उसे सिर्फ भोज कहा गया हैं|
‘मिहिर’ आज भी राजस्थान और पंजाब में गुर्जरों सम्मानसूचक उपाधि हैं|43 गुर्जरों ने मिहिर उपाधि अपने हूण
पूर्वजों से विरासत में प्राप्त की हैं|
गुर्जर प्रतिहारो की हूण विरासत का एक
अन्य प्रमाण हूण शासको के पारावारिक नाम ‘अलखान’ का नवी शताब्दी के गुर्जर शासको
द्वारा धारण करना हैं| राजतरंगिणी के अनुसार पंजाब के शासक ‘अलखान’ गुर्जर का
युद्ध कश्मीर के राजा शंकर वर्मन (883- 902 ई.) के साथ हुआ था| यह अलखान गुर्जर
कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य का मित्र अथवा सामंत था| खिंगिल, तोरमाण,
मिहिरकुल, आदि हूण शासको के सिक्को पर बाख्त्री भाषा ‘अलकोन्नो’ अंकित है|44
| हरमट के अनुसार इसे ‘अलखान’ पढ़ा जाना चाहिए| अलार्म के अनुसार ‘अलखान’ इन हूण
शासको की क्लेन का नाम हैं|45 बिवर के अनुसार मिहिरकुल का
उतराधिकारी ‘अलखान’ था| 46 हरमट
के अनुसार हूण के सिक्को पर बाख्त्री में ‘अलखान’ वही नाम हैं जोकि कल्हण की
राजतरंगिणी में उल्लेखित गुर्जर राजा का हैं|47 हूण सम्राट मिहिरकुल की
राजधानी ‘स्यालकोट’ तक्क देश आदि क्षेत्र अलखान गुर्जर के राज्य का अंग थे| ऐसा
प्रतीत होता हैं कि भारत में हूण साम्राज्य के पतन के बाद भी पंजाब में इस परिवार
की शक्ति बची रही तथा वहां का शासक अलखान गुर्जर तोरमाण और मिहिरकुल के परिवार से
सम्बंधित था| इस प्रकार गुर्जर प्रतिहारो का अप्रत्यक्ष सम्बंध तोरमाण और मिहिरकुल
के घराने से बना हुआ था|
अंत में गुर्जर प्रतिहारो और हूण सिक्को
में समानता पर चर्चा आवश्यक हैं क्योकि मुख्य रूप से इसी आधार पर गुर्जरों को
हूणों से जोड़ कर देखा गया| हूणों के बहुत से सिक्के हमें प्राप्त हुए हैं जिन पर
ईरानी ढंग की अग्निवेदिका उत्कीर्ण हैं|48 जोकि उनके ‘अतर”
यानि अग्नि उपासक होने का प्रमाण हैं| ‘सासानी’ ईरानी ढंग की
अग्निवेदिका लगभग दो से चार फुट ऊँची प्रतीत होती हैं, जिसके समीप खड़े होकर आहुति
दी जाती हैं| अग्निवेदिका के समक्ष उसकी रक्षा के लिए दो
अग्निसेविका खड़ी दर्शाई गई हैं|
मिहिर कुल हूण का सिक्का- ऊपर की तरफ मिहिर कुल का चित्र तथा दूसरी तरफ सासानी ढंग की अग्निवेदिका उत्कीर्ण हैं| |
प्रतिहार वंश को भीनमाल राज्य से सम्बंधित
मानते हैं|49 भीनमाल की चर्चा हेन सांग (629-645 ई.) ने सी. यू. की
नामक ग्रन्थ में ‘गुर्जर देश’ की राजधानी के रूप में की हैं|50 नक्षत्र
विज्ञानी ब्रह्मगुप्त की पुस्तक ब्रह्मस्फुत सिधांत के अनुसार भीनमाल चाप वंश के व्याघ्रमुख
का शासन था|51 व्याघ्रमुख का एक सिक्का प्राप्त हुआ हैं, इस पर भी ‘सासानी’ ईरानी ढंग की अग्निवेदिका उत्कीर्ण हैं| वी. ए स्मिथ ने इस
सिक्के की पहचान श्वेत हूणों के सिक्के के रूप में की थी, तथा इस विषय पर एक शोध पत्र लिखा जिसका शीर्षक हैं “व्हाइट
हूण कोइन ऑफ़ व्याघ्रमुख ऑफ़ दी चप (गुर्जर) डायनेस्टी ऑफ़ भीनमाल”|52
एक जैन लेखक के अनुसार ‘गदहिया सिक्के’ भीनमाल से ज़ारी किये गए थे|53 ये
सिक्के हूणों के सिक्को का अनुकरण हैं तथा उन पर भी ‘सासानी’ ईरानी ढंग की
अग्निवेदिका उत्कीर्ण हैं| गदहिया सिक्को का सम्बन्ध गुर्जरों से रहा हैं
तथा इनके द्वारा शासित पश्चिमी भारत में शताब्दियों, विशेषकर सातवी से लेकर दसवी
शताब्दी, तक भारी प्रचलन में रहे हैं|54
मिहिर भोज का सिक्का- ऊपर की तरफ मिहिर भोज वराह रूप में विजयी मुद्रा में तथा सूर्य चक्र, दूसरी तरफ ऊपर श्री मद आदि वराह लिखा हैं तथा नीचे सासानी ढंग की अग्निवेदिका उत्कीर्ण हैं| |
प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज के सिक्को पर
एक तरफ वराह अवतार का चित्र उत्कीर्ण हैं| इन सिक्को के दूसरी तरफ आदि वराह’ अंकित हैं55 तथा ‘सासानी’ ईरानी ढंग की अग्निवेदिका उत्कीर्ण हैं|56 ‘‘आदि वराह’ आदित्य वराह का संछिप्त रूप हैं| अतः स्पष्ट हैं कि सिक्को में
उत्कीर्ण वराह सौर देवता हैं तथा ‘आदि वराह’ ‘आदित्य वराह’ अर्थात ‘वराह मिहिर’ के
पर्यायवाची के रूप में प्रयोग किया गया हैं| गुर्जर प्रतिहारो द्वारा हूणों के सिक्को
पर उत्कीर्ण ईरानी ढंग की अग्निवेदिका का अनुकरण उनकी हूण उत्पत्ति का प्रबल
प्रमाण हैं|
उपरोक्त तथ्य गुर्जर प्रतिहारो की हूण
उत्पत्ति और विरासत की तरफ स्पष्ट संकेत हैं|
सन्दर्भ
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