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Sunday, May 24, 2020

मिहिर भोज का सैन्य संगठन

डॉ. सुशील भाटी


851 ई. में सुलेमान नाम का अरब भूगोलवेत्ता और व्यापारी भारत आया| उसने अपने ग्रन्थ सिलसिलात-उत तवारीखमें मिहिरभोज की सैन्य शक्ति और प्रशासन की प्रसंशा की हैं, वह लिखता हैं कि हिन्द के शासको में एक गुर्जर हैं जिसके पास विशाल सेना हैं, हिन्द के किसी अन्य शासक के पास उसके जितनी अच्छी घुड़सवार सेना नहीं हैं| वह बहुत धनवान हैं, उसके पास असख्य ऊट और घोड़े हैं| 

बगदाद के रहने वाले अल मसूदी (900-940 ई.) ने कई बार हिन्द की यात्रा की| अल मसूदी अपने ग्रन्थ मुरुज़ उत ज़हबकहता हैं कि बौरा (वराह, मिहिरभोज का बिरुद आदि वराह) उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम चारो दिशाओ में चार विशाल सेनाए तैनात रखता हैं, क्योकि उसका राज्य लडाकू राजाओ से घिरा हुआ हैं| कन्नौज का राजा बल्हर (राष्ट्रकूट राजाओ की उपाधी) का शत्रु हैं| वह कहता हैं कि कन्नौज के शासक बौरा (वराह) के पास चार सेनाए हैं, प्रत्येक सेना में 7 से 9 लाख सैनिक हैं| उत्तर की सेना मुल्तान के अरब राजा और मुसलमानों के विरुद्ध लडती हैं, दक्षिण की सेना मनकीर (राष्ट्रकूट राजधानी मान्यखेट) के राजा बल्हर (वल्लभ) के विरुद्ध लडती हैं| उसके अनुसार बल्हर हमेशा गुर्जर राजा से युद्धरत रहता हैं| गुर्जर राजा ऊट और घोड़ो के मामले में बहुत धनवान हैं और उसके पास विशाल सेना हैं|| हालाकि अल मसूदी की भारत यात्रा मिहिरभोज के शासनकाल के कुछ बाद की हैं, परन्तु प्रतिहार शासको की सेना और उनकी सामारिक नीतियों पर की गई उसकी टिप्पणी मिहिरभोज पर भी लागू होती हैं क्योकि मिहिर भोज ही इस सैन्य शक्ति का वह वास्तविक निर्माता था तथा इस के बल पर ही उसने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की और विदेशी अरब अक्रान्ताओ से भारत की रक्षा की|

अल मसूदी के बात को यदि सत्य माना जाये तो उसकी चारो सेनाओ में कुल 28 से 32 लाख सैनिक थे| इसमें स्थायी सेना कितनी थी, कुछ ज्ञात नहीं होता|  इस सेना में उनकी शाही सेना, सामन्तो और उप सामन्तो की सेनाए तथा क्षेत्रीय जमीदारो के सैनिक शामिल थे| गुर्जर प्रतिहारो की सेना संख्या बल में मुग़ल बादशाह अकबर कि सेना के लगभग बराबर थी| अबुल फज़ल की आइने अकबरी ग्रन्थ (1590 ई.) के अनुसार मुग़ल सेना में 342696 घुड़सवार तथा 4039097 पैदल सैनिक थे| डिर्क एच. ए. कोल्फ के अनुसार ये मुग़ल सेना की वास्तविक संख्या नहीं बल्कि यह उत्तर भारत के असख्य जमींदार के सैनिको की संख्या थी, जोकि सक्रिय पुरुष आबादी का कम से कम दस प्रतिशत थी| अतः ऐसा प्रतीत होता हैं कि गुर्जर प्रतिहारो की यह विशाल सेना भी उनकी अपनी स्थायी सेना के अतिरिक्त उनके सामन्तो और असंख्य सैन्य सरदार की जागीरो से प्राप्त सैनिको की संख्या हैं|

गोरखपुर के कलचुरी वंश का गुमानबोधिदेव (कहला अभिलेख), धोलपुर के चौहान वंश का चन्द महासेन (धोलपुर अभिलेख), प्रतापगढ़ के चौहान वंश का गोविन्दराज (प्रतापगढ़ अभिलेख) और शाकुम्भरी के चौहान का गूवक II, मंडोर के प्रतिहार वंश के बौक (जोधपुर अभिलेख) और कक्कुक (घटियाला अभिलेख), मेवाड़ के गुहिल वंश के हर्षराज और गुहिल II (चाटसू अभिलेख) , कच्छ – कठियावाड़ के चालुक्य का बलवर्मन (ऊना ग्रांट अभिलेख), पेहोवा के तोमर (पेहोवा अभिलेख) मिहिरभोज के प्रमुख सामंत थे| ये सामंत अपनी सेनाओ सहित अपने अधिपति मिहिर भोज के सैन्य अभियानों में साथ रहते थे तथा खुद को मिहिरभोज की विजयो में हिस्सेदार मानते थे| वे अपने योगदान और युद्ध उपलब्धियों को अपने अभिलेखों और प्रशस्तियों में उत्कीर्ण कराते थे| गुर्जर प्रतिहार सम्राट, उनके सामंत और सैन्य सरदार आपस में विवाह सम्बंधो पर आधारित नातेदारी समूह में एक रक्त की भावना से आपस में बंधे थे|

आर. एस . शर्मा के अनुसार प्रतिहारो और उनके सामन्त अपने विजेता सेनाओ के सरदारों को नवविजित क्षेत्रो में 12 या 12 के गुणांक 24, 60, 84, 360 आदि संख्यो में ‘पहले से ही बसे हुए गाँव’ जागीर के तौर पर दिया करते थे, ये जागीरे क्रमश बारहा, चौबीसी, साठा, चौरासी, और तीन सौ साठा कहलाती थी| इन सैन्य सरदारों के सैनिक इनके कुल / नख / गोत के लोग ही होते थे, अतः इन नव प्राप्त जागीरो में ये अपने कुल / नख / गोत के लोगो को गाँवो में बसा देते थे| | इस प्रकार के एक ही कुल / नख / गोत्र के लोगो की जत्थेवार बसावट गंग-यमुना की ऊपरी दोआब में, इससे सटे हुए हरयाणा में यमुना के किनारे, दिल्ली क्षेत्र में, मध्य प्रदेश के मोरेना जिले में तथा उत्तर पूर्वी राजस्थान क्षेत्र में विशेष रूप से देखे जा सकती हैं| गुर्जर प्रतिहारो की विजेता सेना की तैनाती और बसावट को समझने के लिय कुछ कुछ बारहा, चौबीसी, चौरासी तीन सौ साठा का विवरण निम्नवत हैं-

गंगा-यमुना का ऊपरी दोआब

1. खूबड ‘पंवार’ गोत के गुर्जरों की चौरासी, सहारनपुर
2. बुटार गोत के गुर्जरों की बावनी, सहारनपुर
3. छोक्कर गोत के गुर्जरों की चौबीसी, सहारनपुर
4. राठी गोत के गुर्जरों की चौबीसी, सहारनपुर
5. धूलि गोत के गुर्जरों का बारहा, सहारनपुर
6. कल्शियान चौहान गोत के गुर्जरों की चौरासी, कैराना-कांधला 
7. बालियान गोत के जाटों की चौरासी, शामली
8. मालिक गोत के जाटों की 45 गाँव, बघरा
9. राजपूत चौबीसी, सरधना
10. तोमर गोत के राजपूतो का बारहा, मेरठ 
11. भडाना गोत के गुर्जरों का बारहा, मेरठ 
12. चपराना- डाहलिया गोत्रो का बारहा, बागपत-मेरठ
13. भडाना गोत के गुर्जरों का बारहा, मेरठ
14. बैंसला गोत के गुर्जरों का बारहा, मेरठ    
15. हूण गोत के गुर्जरों का बारहा, मेरठ-हापुड़
16. सलकलैन ‘तोमर’ गोत के जाटों की चौरासी, बागपत 
17. बैंसला गोत के गुर्जरों का बारहा, लोनी 
18. कसाना गोत के गुर्जरों का बारहा, लोनी 
19. भाटी गोत के गुर्जरों का तीन सौ साठा गौतम बुद्ध नगर
20. अहीरों की चौबीसी, बुलंदशहर
21. नांगडी गोत के गुर्जरों की चौबीसी, गौतम बुद्ध नगर
22. राजपूतो की चौबीसी, धौलाना
23. कपसिया गोत के गुर्जरों का बारहा, शिवाली-बुलंदशहर
24 डेढा गोत के गुर्जरों की चौबीसी, यमुना पार पूर्वी दिल्ली   

हरयाणा

1. छोक्कर गोत के गुर्जरों की चौबीसी, पानीपत-करनाल
2. रावल गोत के गुर्जरों का सत्ताईसा, पानीपत-करनाल  
3. चमैन गोत के गुर्जरों का बारहा, करनाल  
3. जाटों की चौबीसी, मेहम
4. खटाना गोत के गुर्जरों का बारहा, गुडगाँव
6. भामला गोत के गुर्जरों का बारहा, गुडगाँव  
7. भडाना गोत के गुर्जरों का बारहा, फरीदाबाद  
8. नांगडी गोत के गुर्जरों की चौरासी,फरीदाबाद
9. बैंसला गोत के गुर्जरों की चौबीसी, पलवल

दिल्ली

1. तंवर गोत के गुर्जरों का बारहा, महरौली


राजस्थान

1. खारी गुर्जरों की चौरासी, बयाना, भरतपुर, सवाई माधोपुर, जयपुर
2. खटाना गोत के गुर्जरों का बारहा, करौली
3 बैंसला गोत के गुर्जरों का बारहा, करौली
4. बिडरवास गोत के गुर्जरों का बारहा, करौली
5. तंवर गोत के गुर्जरों का बारहा, बयाना
6. कांवर गोत के गुर्जरों का बारहा, बयाना
7. मावई गोत के गुर्जरों का बारहा, करौली-बयाना
8. मावई गोत के गुर्जरों का बारहा बयाना
9. कसाना गोत के गुर्जरों का बारहा, बाड़ी-धौलपुर
10. कसाना गोत के गुर्जरों का बारहा, भरतपुर
11. कसाना गोत के गुर्जरों का बारहा, सिकंदरा, दौसा
12. कसाना गोत के गुर्जरों का अट्ठाईसा, धोलपुर
13 घुरैय्या गोत के गुर्जरों का अट्ठाईसा
14. पोशवाल गोत के गुर्जरों का बारहा, सवाई माधोपुर
15. रावत गोत के गुर्जरों का बारहा, कोटपूतली, जयपुर
16 धडान्दिया गोत के गुर्जरों का बारहा, बड्नोर-आसीन्द

मध्य प्रदेश

1. मावई गोत के गुर्जरों का बारहा, मुरैना
2. छावई गोत के गुर्जरों की चौबीसी, मुरैना
3. रियाना गोत के गुर्जरों का बारहा, मुरैना,
4. हरषाना गोत के गुर्जरों का बारहा, मुरैना
5. कसाना गोत के गुर्जरों की चौबीसी, मुरैना 

उपरोक्त विवरण से कुछ तथ्य और निष्कर्ष प्रकट होते हैं|

1.  इस बात के स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि गुर्जर प्रतिहारो और उनके सामन्तो की सेना में गुर्जरों के अतिरिक्त जाट, अहीर आदि भी सम्मिलित थे| गुर्जर प्रतिहारो की सेना की 28-35 लाख की विशाल संख्या भी यही संकेत करते हैं कि इसमें गुर्जरों के अतिरिक्त अन्य यौद्धा और लड़ाकू कबीले और जातियां शामिल थी|

2. यह आश्चर्यजनक तथ्य हैं कि पश्चिमिओत्तर भारत में गुर्जरों के संगठित बारहा और चौबीसी करनाल जिले तक मिलते हैं, जोकि मिहिरभोज के साम्राज्य की पश्चिमिओत्तर सीमा थी| अतः यह सत्य प्रतीत होता हैं कि बारहा, चौबीसी, चौरासी आदि गुर्जर प्रतिहारो और उनके सामन्तो द्वारा प्रदत्त जागीरे हैं|

3. मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में स्थित गुर्जरों के बारहा और चौबीसी के बीच ही मितावली, पड़ावली, बटेश्वर स्थित हैं जहाँ गुर्जर प्रतिहारो के बनवाए हुए 200 से अधिक मंदिर हैं|

4. पूर्वोत्तर राज़स्थान में गुर्जरों के अनेक बारहा देखने को मिलते हैं| अलबिरुनी ने दसवी ग्यारहवी शताब्दी के आरम्भ में भारत की यात्रा की थी, उसने इसी क्षेत्र में ‘गुजरात’ राज्य को स्थित बताया था| पूर्वोत्तर राजस्थान स्थित इस गुजरात की राजधानी उसने ‘बजान’ बताई थी, जिसकी पहचान बयाना से की जाती हैं| बयाना क्षेत्र में आज भी गुर्जरों के 80 गाँव हैं, जिन्हें स्थानीय बोलचाल में नेहडा कहते हैं| गुर्जरों प्रतिहारो  के आरंभिक शक्ति केंद्र भीनमाल और उज्जैन क्षेत्र में गुर्जरों के कुल/गोत/नख की जत्थेवार जनसख्या के बारहा, चौबीसी आदि कम हैं| ऐसा प्रतीत होता हैं कि कन्नौज से अपनी विजय और विस्तार के क्रम में, प्रतिहारो और उनके सामंत तोमर, चौहान आदि द्वारा अपनी विजेता कबीलाई सेनाओ के कुल/गोत/नखो के सरदारों को, नए विजित क्षेत्रो में सैन्य आधिपत्य स्थापित करने के लिए बराहा, चौबीसी, चौरासी गाँवो की जागीरदारी दी गई|

5. इन बराहा, चौबीसी, चौरासी के विवरण से यह भी स्पष्ट हैं कि गुर्जर प्रतिहारो उनके सामन्तो और सैनिक सरदारों के वंशज आज भी बड़ी संख्या में गुर्जरों में विधमान हैं| ऊपरी दोआब में गुर्जरों के भाटी गोत का तीन सौ साठा, खूबड़ पंवारो चौरासी और कलसियान चौहानों की चौरासी तथा दिल्ली क्षेत्र तंवर गोत का बारहा इसके प्रमाण हैं| अतः विलियम क्रूक जैसे इतिहासकारों के यह निष्कर्ष कि गुर्जरों के सभी बड़े परिवार राजपूत बन गए उचित नहीं हैं|

6. इस विवरण से गुर्जर-प्रतिहारो और उनके सामंतो तोमर और चौहानों के शासन काल में गुर्जरों के गुर्जर देश (वर्तमान राजस्थान) से हरयाणा, दिल्ली और ऊपरी दोआब में अपनी भाषा ‘गूजरी’ के साथ आना भी प्रमाणित होता हैं| 1000 ई. के लगभग भोज परमार ने सरस्वती कंठाभरन नामक ग्रन्थ में बताता हैं कि गुर्जर अपनी गूजरी अपभ्रंश भाषा ही पसंद करते हैं| प्राकृत व्याकरण के विद्वान मार्कंडेय (1450 ई.) ने भी गूजरी अपभ्रंश का उल्लेख किया हैं| तुर्कों द्वारा दिल्ली सल्तनत की स्थापना से पूर्व सभवतः गूजरी ही दिल्ली और आस-पास के क्षेत्रो के राजनैतिक सभ्रांत वर्ग की भाषा थी, दरबारी काव्यो में भी इस भाषा के प्रयोग की संभावना हैं| गुर्जर प्रतिहारो के शासनकाल में गुर्जर देश (वर्तमान राजस्थान) से आकार इस बड़ी जनसख्या का दिल्ली के आस-पास बस जाने से क्षेत्रीय भाषा विकास किस प्रकार प्रभवित हुआ यह शौध का विषय हैं| डिंगल भाषा, गूजरी भाषा और खड़ी बोली के तुलनात्मक अध्ययन से स्थिति स्पष्ट हो जायेगी|

.अपने नख गोत के बारहा, चौबीसी, साठा, चौरासी और तीन सौ साठा में बसे गए इन सैनिको का व्यवसायिक सैनिक का चरित्र अवश्य ही विपरीत रूप से प्रभावित हुआ होगा तथा बदलते वक्त के साथ वे किसान-सैनिक में परिवर्तित हो गए होंगे| यह भी संभव हैं कि वे आरम्भ से ही चरवाहा-सैनिक अथवा किसान-सैनिक रहे हो| आगे चलकर भारतीयों का कबायली - सामंती सैन्य संगठन और सैनिको का यह गैर व्यावसायिक चरित्र तुर्कों के समक्ष हमारी हार के प्रमुख कारण बने|

गुर्जर प्रतिहारो के सेना के वंशजो का सैनिक चरित्र उनके साम्राज्य के पतन के 1000 साल बाद भी बना रहा| 1891 की भारतीय जनगणना व्यवसाय के आधार पर की गई एक मात्र जनगणना हैं, जिसके अनुसार देश की तीस प्रतिशत जनता किसान के रूप में वर्गीकृत की गई थी| उसमे से एक तिहाई अर्थात कुल जनसख्या की 10 प्रतिशत आबादी को सैनिक और प्रभुत्वशालीउपवर्ग में रखा गया था, ज़िसमें गूजर, राजपूत, जाट आदि 14 जातियां शामिल थी|

सन्दर्भ –

1. R S Sharma, Indian Feudalism, AD 300-1200, Delhi, 2006, P 88-89 https://books.google.co.in/books?isbn=1403928630
2. B.N. Puri, History of the Gurjara Pratiharas, Bombay, 1957
3. V. A. Smith, The Gurjaras of Rajputana and Kanauj, Journal of the Royal Asiatic Society of            Great Britain and Ireland, (Jan., 1909), pp.53-75
4. V A Smith, The Oford History of India, IV Edition, Delhi, 1990
5. P C Bagchi, India and Central Asia, Calcutta, 1965
6. Romila Thapar, A History of India, Vol. I., U.K. 1966.
7. R S Tripathi, History of Kannauj,Delhi,1960
8. K. M. Munshi, The Glory That Was Gurjara Desha (A.D. 550-1300), Bombay, 1955
9.  Sushil Bhati, Khaps in upper doab of Ganga and Yamuna
10. Sushil Bhati, Khaps of Haryana
11. Sushil Bhati, Gurjara Khaps of Rajasthan
12.सुशील भाटी, गुर्जरों का सैनिक चरित्र
13.सुशील भाटी, भडाना देश एवं वंश
14.सुशील भाटी, विदेशी आक्रान्ता और गुर्जर प्रतिरोध (पूर्व मध्यकाल)
15. Dirk H A Kolff, Naukar Rajput Aur Sepoy, CUP, Cambridge, 1990


Saturday, March 21, 2020

कनिष्क तथा शैव धर्म


डॉ सुशील भाटी

कनिष्क के प्राप्त कुल सोने के सिक्को पर सबसे अधिक शिव को अंकित किया गया हैं| कनिष्क के लगभग 25 प्रतिशत सोने के सिक्को पर शिव को अंकित किया गया| उसके पश्चात मिहिर ‘सूर्य’ को 23 प्रतिशत सिक्को पर अंकित किया गया हैं| महात्मा बुद्ध को केवल 1 प्रतिशत सोने के सिक्को पर अंकित किया गया हैं|

बौद्ध साहित्य में कनिष्क का बहुधा उल्लेख हुआ हैं जिससे उसके बौद्ध होने के संकेत प्राप्त होते हैं| किन्तु सोने के सिक्को पर महात्मा बुद्ध का ‘शिव’ और ‘मिहिर’ की तुलना में बहुत कम प्रतिनिधित्व कनिष्क प्रथम के बौद्ध हो जाने की बात की पुष्ठी नहीं करता| सोने के सिक्को पर अंकित देवताओ का प्रतिनिधित्व कनिष्क के शिव और मिहिर ‘सूर्य’ का उपासक होने का प्रमाण हैं|

सम्राट कनिष्क के सिक्को पर पाए जाने वाले राजकीय चिन्ह को कनिष्क का तमगा भी कहते है| कनिष्क के तमगे में ऊपर की तरफ चार नुकीले काटे के आकार की रेखाए हैं तथा नीचे एक खुला हुआ गोला हैं इसलिए इसे चार शूल वाला चतुर्शूल तमगा’ भी कहते हैं| कनिष्क का चतुर्शूल तमगा’ सम्राट और उसके वंश / कबीलेका प्रतीक हैं| इसे राजकार्य में शाही मोहर के रूप में भी प्रयोग किया जाता था| कनिष्क के पिता विम कडफिस ने सबसे पहले चतुर्शूल तमगा’ अपने सिक्को पर राजकीय चिन्ह के रूप में प्रयोग किया था| जैसा कि कहा जा चुका हैं विम कडफिस शिव का उपासक था तथा उसने माहेश्वर की उपाधि धारण की थी| माहेश्वर का अर्थ हैं- शिव भक्त| इतिहासकारों का मानना हैं कि चतुर्शूल तमगा शिव के हथियार त्रिशूलऔर शिव की सवारी नंदी बैल के पैर के निशानका मिश्रणहैं||  यह सही हैं की तमगे का नीचे वाला भाग नंदीपद जैसा हैं, परन्तु इसमें त्रिशूल के तीन शूलो के स्थान पर चार शूल हैं? मैंने पूर्व में ‘सम्राट कनिष्क का शाही निशान’ लेख में इसे शिव के अन्य हथियार पाशुपतास्त्र और नंदी के खुर के निशान का मिश्रण दर्शाया हैं| कनिष्क का राजकीय चिन्ह एक शैव चिन्ह हैं, यह तथ्य कनिष्क और कुषाण राज्य के शैव धर्म की तरफ उनके झुकाव का स्पष्ट प्रमाण हैं|

रबाटक अभिलेख से ज्ञात होता हैं कि कनिष्क ने उक्त स्थान पर एक बागोलग्गो (देवकुल) का निर्माण करवाया था, जिसके अवशेष प्राप्त नहीं हो सके हैं| रबाटक अभिलेख से पता चलता हैं कि इस बागोलग्गो की प्रमुख देवी उमा (ओम्मो) थी, जिन्हें इस अभिलेख में अन्य देवताओ का नेतृत्वकर्ता बताया गया हैं| उक्त अभिलेख से यह भी पता चलता हैं कि कनिष्क को राज्य मुख्य रूप से नाना देवी से प्राप्त हुआ| नाना सिंहवाहिनी देवी हैं| उमा और नाना देवी दोनों को कनिष्क के उत्तराधिकारी हुविष्क के सिक्को शिव की पत्नी के रूप में शिव के साथ अंकित किया गया हैं| प्राचीन मध्य एशियाई सुंग्द राज्य में नाना को ‘नाना देवी अम्बा’ कहा गया हैं|  अम्बा दुर्गा का नाम हैं जोकि शिव की पत्नी हैं| 

कनिष्क प्रथम ने सुर्खकोटल में एक अन्य बागोलग्गो (देवकुल) का निर्माण करवाया| यह मुख्य रूप से शिव को समर्पित था| यहाँ मंदिर में शिव, पार्वती, नंदी और त्रिशूल का अंकन किया गया हैं|  इस मंदिर के भग्नावेश प्राप्त हैं| ये अब तक प्राप्त सनातन धर्म से सम्बंधित किसी भी मंदिर के ये प्राचीनतम भग्नावेश हैं|

कनिष्क का कश्मीर के साथ एक ऐतिहासिक जुडाव हैं| कल्हण के अनुसार कनिष्क ने कश्मीर में कनिष्कपुर नगर बसाया था| वर्तमान में, यह स्थान बारामूला जिले में स्थित ‘कनिसपुर’ के नाम से जाना जाता हैं| कश्मीर में भी कनिष्क ने शिव मंदिर का निर्माण करवाया था| कश्मीर के राजौरी जिले में जिला मुख्यालय से लगभग 66 किलोमीटर दूर वास्तविक नियंत्रण रेखा के नज़दीक प्राचीन ‘वीर भद्रेश्वर शिव मंदिर’ स्थित हैं| आस-पास के क्षेत्रो में प्रचलित लोक मान्यता के अनुसार इस शिव मंदिर का निर्माण संवत 141 अर्थात 87 ई. में कनिष्क ने करवाया था| भद्रेश्वर शिव मंदिर की दीवार से प्राप्त अभिलेख के अनुसार भी इस मंदिर निर्माण संवत 141 में कनिष्क ने करवाया था|
जम्मू से 64 किलोमीटर तथा उधमपुर से 9 किलोमीटर दूर किरमाची गाँव हैं, जोकि पूर्व में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थल था| यहाँ गंधार शैली में निर्मित चार प्राचीन मंदिर स्थित हैं| कुछ विद्वानों के अनुसार इस स्थान की स्थापना कनिष्क ने की थी| बड़े मंदिर से त्रिमुख शिव और वराह अवतार की मूर्तिया प्राप्त हुई हैं|

उपरोक्त ऐतिहासिक तथ्य यह स्पष्ट होता हैं कि कनिष्क महान का शिव और मिहिर ‘सूर्य’ उपासना की तरफ विशेष झुकाव था| इतिहासकारों का एक वर्ग अब यह मानने लगा हैं कि बौद्ध साहित्य में कनिष्क I नहीं कनिष्क II की चर्चा और उल्लेख हैं|

संदर्भ- .
  
 1. J. Harmatta, B. N. Puri, L. Lelekov, S. Humayun and D. C. Sircar, Religion In The Kushana Empire https://en.unesco.org/silkroad/sites/silkroad/files/knowledge-bank-article/vol_II%20silk%20road_religions%20in%20the%20kushan%20empire.pdf
2. सुशील भाटी, सम्राट कनिष्क का शाही निशान, जनइतिहास ब्लॉग, 2017
3. सुशील भाटी, कनिष्क और कश्मीर, जनइतिहास ब्लॉग, 2018
4. सुशील भाटी, सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क, जनइतिहास ब्लॉग, 2012 
5.     Bhaskar Chattopadhyay, The Age Of The Kushanas- A Numismatic Study, Calcutta, 1967
6.     Bharat Bhushan, Shiva-The Amazing Archer, Lonavala, 2011
7.     Sree Padma, Vicissitudes of the Godess: Reconstruction of the Gramadevata , 2013
8.     John M Rosenfield, The Dynastic Arts Of Kushans
9.     J. A. B. van Buitenen (Editor), The Mahabharata, Vol. I, Chicago, 1973
10.     Maggi Lidchi-Grassi, The Great Golden Sacrifice Of The Mahabharata, NOIDA, 2011
11.     B N Mukherjee, Nana on Lion: A Study In Kushana Numismatic arts, Asiatic Society, 1969
12.    B N Mukherjee, Kushana studies: new perspective, 2004
13. Hary Falk, Kushan religion and politics, Bulletin of The Asia Institute, Vol. 29, Berlin, p 1-56
14. Osmund Bopearachchi, Emergence of Vishnu and Shiva images in India: Numismatic and Scriptural Evidence
15. Suchandra Ghosh, Revisiting Kushana Dynastic Sanctuaries, Proceedings of the Indian History Congress, 72nd Session, Patiala, Delhi, 2012, p 212-219
16. Upinder Singh, Cults and Shrines in Early Historical Mathura (c. 200 BC-AD 200), World Archaeology, Vol. 36, No. 3, The Archaeology of Hinduism (Sep., 2004), pp. 378- 398
17. Oldest Hindu Temples of the World- https://www.templepurohit.com/15-oldest-hindu-temples-world/
19. Vir Bhadreshwar Temple, Daily Excelsior, 1 June 2014-  https://www.dailyexcelsior.com/vir-bhadreshwar-temple/
20. Virendera Bangroo, Ancient Temples of  Jammu- http://ignca.gov.in/PDF_data/Ancient_Temples_Jammu.pdf
22. Kalpana Dasgupta, Women on the Indian scene: An Annoted Bibliography, New Delhi, 1976

कनिष्क की राष्ट्रीयता – भारतीय

डॉ. सुशील भाटी   

हेन सांग (629-645 ई.) ने कनिष्क को जम्बूदीप का सम्राट कहा हैं| कुषाण साम्राज्य का उद्गम स्थल वाह्लीक माना जाता हैं| प्रो. बैल्ली के अनुसार प्राचीन खोटानी ग्रन्थ में वाह्लीक राज्य के शासक चन्द्र कनिष्क का उल्लेख किया गया हैं| खोटानी ग्रन्थ में लिखा हैं कि वाह्लीक राज्य स्थित तोखारिस्तान के राजसी परिवार में एक बहादुर, प्रतिभाशाली और बुद्धिमान ‘चन्द्र कनिष्क’ नामक जम्बूदीप का सम्राट हुआ| फाहियान (399-412 ई.) के अनुसार कनिष्क द्वारा निर्मित स्तूप जम्बूदीप का सबसे बड़ा स्तूप था|

वस्तुतः जम्बूदीप प्राचीन ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन ग्रंथो में वर्णित एक वृहत्तर भोगोलिक- सांस्कृतिक इकाई हैं तथा भारत जम्बूदीप में समाहित माना जाता रहा हैं| प्राचीन भारतीय समस्त जम्बूदीप के साथ एक भोगोलिक एवं सांस्कृतिक एकता मानते थे| आज भी हवन यज्ञ से पहले ब्राह्मण पुरोहित यजमान से संकल्प कराते समय ‘जम्बूद्वीपे भरत खण्डे भारत वर्षे’ का उच्चारण करते हैं| अतः स्पष्ट हैं कि जम्बूदीप भारतीयों के लिए उनकी पहचान का मसला हैं तथा भारतीय जम्बूदीप से अपने को पहचानते रहे है| प्राचीन ग्रंथो के अनुसार जम्बूदीप के मध्य में सुमेरु पर्वत हैं जोकि इलावृत वर्ष के मध्य में स्थित हैं| इलावृत के दक्षिण में कैलाश पर्वत के पास भारत वर्ष, उत्तर में रम्यक वर्ष, हिरण्यमय वर्ष तथा उत्तर कुरु वर्ष, पश्चिम में केतुमाल तथा पूर्व में हरि वर्ष हैं| भद्राश्व वर्ष और किम्पुरुष वर्ष अन्य वर्ष हैं| यह स्पष्ट हैं कि कनिष्क के साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले मध्य एशिया के तत्कालीन बैक्ट्रिया (वाहलिक, बल्ख) क्षेत्र, यारकंद, खोटन एवं कश्गर क्षेत्र, आधुनिक अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और उत्तर भारत के क्षेत्र जम्बूदीप का हिस्सा थे| इतिहासकार जम्बूदीप स्थित ‘उत्तर कुरु वर्ष’ की पहचान तारीम घाटी क्षेत्र से करते हैं, जहाँ से यूची कुषाणों की आरंभिक उपस्थिति और इतिहास की जानकारी हमें प्राप्त होती हैं| अतः कुषाण आरम्भ से ही जम्बूदीप के निवासी थे| इसी कारण से कुषाणों को हमेशा भारतीय समाज का हिस्सा माना गया तथा प्राचीन भारतीय ग्रंथो में कुषाण और हूणों को (व्रात्य) क्षत्रिय कहा गया हैं|

प्राचीन भारतीय ग्रंथो के अनुसार उत्तर कुरु वर्ष (यूची कुषाणों के आदि क्षेत्र) में वराह की पूजा होती थी| यह उल्लेखनीय हैं कि गुर्जर प्रतिहार शासक (725-1018 ई.) भी वराह के उपासक थे तथा कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की गई हैं|

कुछ ऐतिहासिक स्त्रोतों में कनिष्क गांधार का राजा कहा गया हैं| गांधार आधुनिक पेशावर और स्वात घाटी का क्षेत्र हैं| गांधार भारत की एक भोगोलिक प्रांतीय इकाई रहा हैं| महाभारत ग्रन्थ में धृतराष्ट्र की पत्नी गांधार की राजकुमारी थी तथा गांधारी कहलाती थी|

सातवी शताब्दी में गुर्जर देश की राजधानी रहे भीनमाल में प्रचलित मान्यताओ के अनुसार कनिष्क कश्मीर का शासक था| इतिहासकार ए. एम. टी. जैक्सन ने ‘बॉम्बे गजेटियर’ में भीनमाल का इतिहास विस्तार से लिखा हैंजिसमे उन्होंने भीनमाल में प्रचलित ऐसी अनेक लोक परम्पराओ और मिथको का वर्णन किया है जिनसे गुर्जरों की राजधानी भीनमाल को आबाद करने मेंकुषाण सम्राट कनिष्क की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका का पता चलता हैंऐसे ही एक मिथक के अनुसार भीनमाल  में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण काश्मीर के राजा कनक (सम्राट कनिष्क) ने कराया था। भीनमाल में प्रचलित मौखिक परम्परा के अनुसार राजा कनक (कनिष्क) ने वहाँ ‘करडा’ नामक झील का निर्माण भी कराया था। भीनमाल से सात कोस पूर्व में कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनक (कनिष्क) को दिया जाता है। ऐसी मान्यता हैं कि भीनमाल के  देवड़ा गोत्र के लोगश्रीमाली ब्राहमण तथा भीनमाल से जाकर गुजरात में बसे, ओसवाल बनिए राजा कनक (कनिष्क) के साथ ही काश्मीर से भीनमाल आए थे। राजस्थान में गुर्जर ‘लौर’ और ‘खारी’ नामक दो अंतर्विवाही समूहों में विभाजित हैंकेम्पबेल के अनुसार मारवाड के लौर गुर्जरों में मान्यता हैं कि वो राजा कनक (कनिष्क कुषाण) के साथ लोह्कोट से आये थे तथा लोह्कोट से आने के कारण लौर कहलाये

कनिष्क ने रबाटक अभिलेख में कनिष्क के साम्राज्य को वर्णन करते वक्त केवल एक ही देश भारत (इंडिया) का नाम-सन्दर्भ लिया गया हैं| रबाटक अभिलेख में कनिष्क के साम्राज्य अंतर्गत उज्जैन, साकेत, कोसम्बी, चंपा की उल्लेख किया गया हैं| यह कनिष्क के राष्ट्रीय सरोकार को प्रदर्शित करता हैं| रबाटक अभिलेख में चीन और ईरान का ज़िक्र तक नहीं किया गया हैं| पुरुषपुर (आधुनिक पेशावर) उसकी मुख्य राजधानी थीमथुरातक्षशिला और कपिशा उसकी अन्य राजधानिया थीये सभी नगर भारतीय उपमहादीप में स्थित हैं| अतः कनिष्क की भोगोलिक चेतना पूर्णतय भारतीय हैं|

अतः यह स्पष्ट हैं कि कनिष्क सभी ऐतिहासिक संदर्भो में एक भारतीय सम्राट हैं|

कुषाण और चीन- ज़म्बूदीप के उत्तर कुरुवर्ष स्थित तारिम घाटी के निवासी यूची (कुषाण) कबीलों को चीन अपना शत्रु मानता था| वह उनके निवास स्थल तारिम घाटी को भी चीन का हिस्सा नहीं मानता था| यूची भारोपीय आर्य भाषी नोर्डिक (आर्य) नस्ल के, पतली-खडी नाक वाले, लम्बे गोरी नस्ल के लोग थे| ज़बकि चीनी मंगोली नस्ल और भाषा समूह से सम्बन्धित थे| यूची (कुषाण) चीन पर छापामार हमले करते रहते थे| अतः यूचीयो और हिंगनू कबीलों से चीन की रक्षा के लिए वहाँ के राजा शी हांग ती ने चीन की सीमा पर एक विशाल दीवार का निर्माण करवाया था| यूचीयो का निवास तारिम घाटी चीन की सीमा रेखा विशाल दीवार के परे पश्चिम में था| अतः खुद चीन भी तारिम घाटी को अपना हिस्सा नहीं मानता था, तथा वहाँ के निवासी यूचियो को अपना परम शत्रु मानता था|

कनिष्क के चीन से कटु सम्बन्ध थे| कनिष्क ने चीन के सम्राट की पुत्री से विवाह का प्रस्ताव रखा| परन्तु चीन के सेनापति पान चाओ ने इस चीन के सम्राट की प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझा| फलस्वरूप दोनों में युद्ध हुआ, जिसमे कनिष्क की विजय हुई, कनिष्क यारकंद, खोतान और काशगर अपने साम्राज्य में मिला लिये| चीन के सम्राट को संधि करने के लिए विवश कर दिया तथा दो चीनी राजकुमारों को अगवा कर लिया और अपने दरबार में बंधक रखा| हेन सांग ने खुद कपिशा में उस महल को देखा था, ज़हाँ चीनी राजकुमारों को नज़रबंद कर रखा गया था| हेन सांग कनिष्क का राज्य मध्य एशिया के सुंग लिंग पर्वत तक मानता हैं|

कुषाण और ईरान- भारतीय उपमहाद्वीप के वाह्लीक राज्य के हिन्दुकुश क्षेत्र से जिस प्रकार कुषाणों ने यूनानियो की सत्ता का अंत किया था उसी प्रकार उन्होंने कपिशा तथा गांधार क्षेत्र से ईरानी पह्लवो को पराजित कर उन्हें उखाड़ फेका था| अतः प्राचीन भारत में विदेशी यूनानियो और ईरानी पहलवो की सत्ता का अंत करने का श्रेय कुषाणों को जाता हैं| प्राचीन ईरान के लोग असुर (अहुर) की उपासना करते थे तथा बुरी पराप्राकृतिक शक्तियों को देव कहते थे| ईरानियो के उलट कुषाण देव पूजा करते थे, वे अपने पूर्वजों को देव अथवा देवता कहते थे| कुषाण सम्राट विम तक्तु ने मथुरा में अपने पूर्वजों के लिए देवकुल की स्थापना की थी| कनिष्क और अन्य कुषाण सम्राट देवपुत्र उपाधी धारण करते थे| अतः देवपुत्र कुषाणों ने केवल अपने शत्रु ईरानी पहलवो की सत्ता का भारत में अंत किया बल्कि उन्होंने ईरान में नकारात्मक भाव से देखो जाने वाले देवो की उपासना को प्रोत्साहित किया| अधिकांश कुषाण सम्राट देवो के देव कहे जाने वाले महादेव ‘महेश’ शिव के उपासक थे| कुषाण सम्राट विम कड़फिसेस स्वयं को ‘परम माहेश्वर’ अर्थात ‘शिव का अनन्य भक्त’ कहता था| आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भगवान शिव का ऐसा प्राचीनतम मंदिर जो वर्तमान में भी अस्तित्व में हैं, सम्राट कनिष्क ने बनवाया था, जोकि अफगानिस्तान के सुर्ख कोटल, बगलान क्षेत्र में स्थित हैं|

अतः उपरोक्त सभी ऐतिहासिक स्त्रोतों से स्पष्ट हैं कि कुषाण और उनका नेता कनिष्क भारतीय थे तथा उन्हें भारत को यूनानियो और ईरानियो के विदेशी शासन से मुक्त कराने का श्रेय जाता हैं| कनिष्क एक मात्र भारतीय सम्राट जिसने चीन को पराजित किया था|

सन्दर्भ:

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3. सुशील भाटी, जंबूदीप का सम्राट कनिष्क कोशानो, जनइतिहास ब्लॉग, 2018 
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11. Bob Bridle (Project Editor),Explorers: Great Tale of Endurance and Exploration, London, 2010
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27. T Burrow, The Language of the Kharoṣṭhi Documents from Chinese Turkestan, Cambridge, 1937
 28. B N Mukherjee, Kushana studies: new perspective, 2004
29. D. C. Sircar, Studies in the Religious Life of Ancient and Medieval India, 1971, Page 108- 109, https://books.google.co.in/books?isbn=8120827902
30. R.S. Sharma, Indian Feudalism, p.106-107
31. P. C. Bagchi, India And Central Asia, Calcutta, 1955
32. सुशील भाटी, सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क, जनइतिहास ब्लॉग, 2012 

Sunday, March 15, 2020

कुजुल कड़फिसेस का वास्तविक नाम ‘गुजुर कपिशिया’ हैं|


डॉ सुशील भाटी

Key Words- Kadphises, Kapisa, Kapasiya Gusura, Gujur, Gujar, Gurjar

135 ईसा पूर्व में कुषाण हिन्दू कुश पर्वत क्षेत्र में वक्षु नदी (आधुनिक आमू दरिया) के उत्तरी और दक्षिणी हिन्दू कुश पर्वत क्षेत्रो पर काबिज़ थे| 327 ई.पू में सिकंदर के भारत आक्रमण के पश्चात यहाँ यूनानी बस गए थे तथा वे इस क्षेत्र को बैक्ट्रिया के नाम से पुकारते थे| महाभारत (अंतिम संपादन गुप्त काल) के अनुसार यह क्षेत्र बाह्लीक कहलाता था| बाह्लीक राज्य की राजसत्ता कुषाणों ने इन यूनानियो को पराजित कर छीनी थी| अतः प्राचीन भारत में यूनानियो की सत्ता का अंत करने का श्रेय कुषाणों को जाता हैं| चीन के ऐतिहासिक ग्रन्थ होऊ हंशु (Hou Hanshu) के अनुसार कुषाणों के सरदार कुजुल कड़फिस ने बाह्लीक प्रदेश के दक्षिण में स्थित कपिशा और गंधार राज्यों को जीत लिया| कपिशा एक प्रतिष्ठित राज्य था| कपिशा राज्य का नाम उसके प्रसिद्ध नगर और राजधानी ‘कपिशा’ के नाम पर पडा था| यह नगर काबुल से 50 मील दूर उत्तर में स्थित था| कपिशा की विजय से कुषाणों की प्रतिष्ठा भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई| कुजुल कड़फिस ने ‘कपिशा’ को अपने नवनिर्मित साम्राज्य की राजधानी बनाया तथा कुषाण शासक के रूप में यही से उसने अपना पहला सिक्का जारी किया|

पुरातत्वेताओ ने घोरबंद और पंजशीर नदी के मिलन स्थल पर स्थित ‘बेग्राम’ नामक स्थान पर प्राचीन कपिशा नगर के अवशेषों को खोज निकाला हैं| यह आधुनिक काबुल और बामियान के बीच रेशम मार्ग पर काबुल के 50 मील उत्तर में स्थित था| यहाँ कुषाण शासको का गर्मी ऋतु का महल तथा एक सुसज्जित बाज़ार था| कपिशा ईंटो से बनी ऊँची दीवारों से सुरक्षित किया गया था| कनिष्क (78-101 ई.) द्वारा पेशावर को कुषाण साम्राज्य की राजधानी बनाने से पूर्व कपिशा कुषाणों की मुख्य राजधानी थी तथा उसके बाद भी यह उनकी ग्रीष्म ऋतु की राजधानी बनी रही| हेन सांग के ग्रन्थ सी यू की के अनुसार कनिष्क ने यहाँ पर अपने शत्रु देश चीन को पराजित कर उसके राजकुमारों को कपिशा के महल में बंधक बना कर रखा था| यहाँ से कुषाण कालीन ‘बेग्राम ट्रेजर’ बेग्राम खज़ाना की प्राप्ति हुई हैं|

कुजुल कडफिस तथा तथा उसके पौत्र विम कडफिस के नाम में कडफिस एक उपाधि हैं| कडफिस को भिन्न-भिन्न रूप से लिखा गया हैं, जैसे- कुजुल कडफिस के सिक्को पर खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में कप्शा, कप्सा, कफ्सा, कफसा आदि| प्रथम शताब्दी के रोमन विद्वान प्लिनी की पुस्तक नेचुरल हिस्ट्री की नक़ल तैयार करने वाले विद्वान सोलिनुस (Solinus) ने ‘कपिशा’ को काफुसा (Caphusa) लिखा हैं| कडफिस का खरोष्ठी रूप कप्शा इनकी राजधानी के नाम कपिशा के अत्यधिक नज़दीक हैं|

कुजुल को कपिशा का शासक होने का बड़ा गर्व था| अतः उसने कपिशा पर अपना शासन प्रदर्शित करने वाली एक उपाधि धारण की| लेवी के अनुसार ‘कड़फिसेस’ का अर्थ ‘कपिशा मैन’ (Kapisha man) हैं| कुजुल और विम के नाम में कडफिस कपिशा से सम्बंधित शब्द हैं, जिसका अर्थ ‘कपिशा का शासक’ हैं| यही कारण कि जब कनिष्क ने पुरुषपुर (पेशावर) को अपनी राजधानी बनाया तो उसने और उसके उत्तराधिकारियो ने परम्परगत कडफिस’ शब्द अपने नाम के साथ प्रयोग करना बंद कर दिया|

कुजुल कड़फिस कुषाण शासक के नाम का सही रूप नहीं, बल्कि यह उसके वास्तविक नाम का अपभ्रंश प्राकृत रूपान्तरण हैं, जिसे सिक्को पर कुशानी लिपि में लिखा गया हैं| ऍफ़ डब्ल्यू थॉमस के अनुसार कुजुल वास्तव में गुशुर हैं| कुषाण काल में कुषाणों के राजसी वर्ग के लिए गुशुर शब्द के प्रयोग के उदहारण मौजूद हैं| कुजुल कड़फिसेस के काल में ही उसके अधीनस्थ क्षेत्रीय शासक सेनवर्मन के स्वात घाटी अभिलेख में गुशुर शब्द का प्रयोग सेना के अधिकारियो के लिए किया गया हैं| ऍफ़ डब्ल्यू थॉमस के मत का समर्थन टी. बरो नामक विद्वान ने किया हैं| भारत में कुषाण अध्ययन के विशेषज्ञ माने जाने वाले बी एन मुख़र्जी ने भी इस बात का समर्थन किया हैं कि कुजुल को वास्तव में गुशुर ही पढ़ा जाना चाहिए|  इसी क्रम में सुशील भाटी ने अपने लेख गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिधांत में कहा था कि क्योकि कुषाण ‘श’ वर्ण को ‘ज’ बोलते थे अतः वे गुशुर को गुजुर पुकारते थे तथा उनके अनुसार कुजुल वास्तव में ‘गुजुर’ शब्द  का प्राकृत रूप हैं| निष्कर्षतः कुजुल गुजुर हैं और कड़फिसेस कपिशा’ अथवा कपिशिया हैं, अतः कुजुल कड़फिसेस का वास्तविक नाम ‘गुजुर कपिशिया’ हैं|

कुजुल कड़फिसेस के ‘गुजुर कपिशिया’ के रूप में पहचान के समर्थन में यह भी सूच्य हैं कि कुषाण कालीन अबोटाबाद अभिलेख का विश्लेषण करते हुए डी. सी. सरकार ने गुर्जर शब्द को गुशुर का परिवर्तित रूप बताया हैं| उनके इस मत का समर्थन आर. एस शर्मा अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ भारतीय सामंतवाद में किया हैं| गुर्जर कबीले का आज भी अफगानिस्तान में गुजुर पुकारा जाता हैं|
एक संस्कृत -चीनी शब्दकोष में कपिशा को कपिशिया कहा गया हैं| पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण  पर अपनी पुस्तक अष्टाध्यायी में कपिशा में निर्मित शराब को स्थान सम्बन्ध के कारण ‘कापिशायां मधु’ अर्थात कपिशा की शराब कहा हैं| इसी प्रकार गुर्जर जाति का एक प्रमुख गोत्र का नाम कपासिया हैं| सभवतः कपासिया गुर्जरों का स्थान सम्बन्ध कुषाण सम्राट कुजुल कड़फिसेस अर्थात ‘गुजुर कपिशिया’ की राजधानी कपिशा से हैं|

सन्दर्भ

1. सुशील भाटी, गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिधांत, जनइतिहास ब्लॉग, 2016 
2. Samual Beal, Buddhist record of the western words, https://books.google.co.in/books?isbn=1136376577
3. T. Burrow, Iranian Words in the Kharosthi Documents from ChineseTurkestanII. Bulletin of the School of Oriental and African Studies, 7, 1935, Page 779-790
4. T Burrow, The Language of the Kharoṣṭhi Documents from Chinese Turkestan, Cambridge, 1937
 5. B N Mukherjee, Kushana studies: new perspective, 2004
6. D. C. Sircar, Studies in the Religious Life of Ancient and Medieval India, 1971, Page 108- 109, https://books.google.co.in/books?isbn=8120827902
7. R.S. Sharma, Indian Feudalism, p.106-107
8. P. C. Bagchi, India And Central Asia, Calcutta, 1955, p. 17, 138-39
9. H. C. Raychaudhary, Political History of Ancient India,
10. The legend on the obverse in Greek characters refers to OOEMO KADPHISES and the Kharoshthi inscription on the reverse refers to VIMA KAPISA.- Satya Shrava, The Kushana Numismatics, 1985, p 59

11. Harry Falk, Names and Titles from Kusana Times to the Hunas, Coins, Art and Chronology II, 2010, Page 75
M. Sylvain Levi, JA, ciii, 1923, p. 52 is right in explaining the name Kadphises as ‘the Kapisa man’, one might even infer, that Kushana hi-hou was considered by his people as entitled to the throne of Kapisa. i.e. in this connection perhaps Ki-pin.  - Sten Konow, Corpvs Inscriptionvm indicarvm Vol.2, part 1, Kharosthi Inscriptions, p footnote lxvi
12. The name is spelt, in Kharoshthi, Kaphasa or Kapasa on coins of his found at Taxila,1 and LeVi interpreted the name Kadphises to mean 'the Kapisa man' – William Woodthorpe Tarn, The Greeks in Bactria and India, 1951, p 505
13. Yen-kao-chen of this statement of the Hoi Han-shu has been identified with Ooemo Kad- phises or V'ima Kapphisa or Kapisa mentioned in the legends of a great number- B N Mukherjee, The rise and fall of the Kushana Empire, 1988, p 43