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Friday, August 30, 2019

विदेशी आक्रान्ता और गुर्जर प्रतिरोध (पूर्व मध्य काल)


डॉ सुशील भाटी

अरब साम्राज्यवाद की भारत को चुनौती- खलीफा उमर (634-44 ई) के समय अरबी साम्राज्य का तीव्र गति से विकास हुआ| 637-647 ई. के बीच हुए सैनिक अभियानों में सीरिया, इराक, ईरान और मिश्र पर मदीना का नियंत्रण स्थापित हो गया| उसके पश्चात खलीफा उस्मान (644-656 ई.) ने मध्य एशिया पर नियंत्रण के लिए सैनिक अभियान भेजे| खलीफा उस्मान के शासन काल में मिश्र और ईरान में अरब साम्राज्य का विस्तार होता रहा| इस प्रकार कुछ ही दशक में अरबी साम्राज्य मिश्र स्थित नील नदी से लेकर भारत की सीमा तक फ़ैल गया| अरबो ने भारत विजय के प्रयास सातवी शताब्दी के मध्य में ही आरम्भ कर दिए थे किन्तु आंधी तूफ़ान की गति से बढ़ रहे अरब भारत की सीमा पर ठहर गए|

अरबो द्वारा पश्चिमीओत्तर भारत विजय अभियान तथा काबुल शाही द्वारा प्रतिरोध- अरबो ने पूर्वी ईरान स्थित सीस्तान को 650 ई. के लगभग जीत लिया था| सीस्तान को सैनिक ठिकाना बनाकर, अरबो ने सर्व प्रथम, पश्चिमीओत्तर भारत में काबुल-कपिशा तथा गंधार क्षेत्र को जीतने का प्रयास किया| काबुल-कपिशा के शाही राजाओ ने 666 के लगभग अरबो के काबुल जीतने के प्रयासों को असफल कर दिया| अतः अरब साम्राज्यवाद की आंधी को पहला झटका भारत में काबुल-कपिशा के शाही राजाओ से प्राप्त हुआ|

डी. बी. पाण्डेय आदि इतिहासकार काबुल-कपिशा के शाही वंश को हूणों से सम्बंधित करते हैं| अल बिरूनी (1030 ई.) के अनुसार इस वंश का पहला शासक बरहतकिन (बराह तेगिन) था तथा वह इन्हें कनिक (कनिष्क कुषाण) से सम्बंधित करता हैं|  इस बात के अन्य प्रमाण भी हैं कि भारत में हूणों ने, किदार हूण तथा अलखान हूणों ने, अपने को कुषाणों का वारिस माना हैं| किदार और अलखान हूण दोनों ही कुषाणों की उपाधि ‘शाही’ धारण करते थे| किदार हूण तो अपने सिक्को पर कुषाण ‘कोशानो’ अंकित कराते थे इसलिए कुछ इतिहासकार इन्हें किदार कुषाण कहते हैं| कनिक (कनिष्क) के वंशज पुकारे जाने वाले काबुल-कपिशा के शाही शासको को हेन सांग (645 ई) क्षत्रिय कहता हैं तथा इनका निवास उदभांडपुर बताता हैं| कल्हण के अनुसार भी शाही क्षत्रिय थे तथा इनकी राजधानी उदभांडपुर थी| इस राज्य का दक्षिण भाग (गजनी क्षेत्र) जाबुल कहलाता था तथा यहाँ का प्रान्त पति काबुल शाह के परिवार का सदस्य होता था| अरबी स्त्रोतों में इसे ‘रतबिल’ कहा गया हैं| शाही वंश ने आगामी शताब्दियों में एक दीवार की तरह अरबो से भारत की रक्षा की|  यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय हैं कि एलेग्जेंडर कनिंघम ने कुषाणों की पहचान गुर्जरों से की हैं तथा वी. ए. स्मिथ, विलियम क्रुक आदि इतिहासकारों ने गुर्जरों को हूणों से सम्बंधित किया हैं|

697 – 98 में अरबो ने जाबुल को पुनः जीतने का प्रयास किया| परन्तु एक निर्णायक युद्ध में शाही शासको अरबो को पराजित कर दिया जिसमे अरबी सेनापति याज़िद ज़ियाद मारा गया|

अरबो द्वारा सिंध मुल्तान की विजय - मुल्तान के दक्षिण में स्थित निचला सिन्धु घाटी क्षेत्र सिंध कहलाता हैं| चचनामा के अनुसार आठवी शताब्दी के आरम्भ राजा दाहिर राजधानी ब्राह्मणाबाद से सिंध पर शासन कर रहा था| देबल सिंध उसका मुख्य शहर था|

सीलोन (श्री लंका) के राजा ने कुछ कीमती उपहार समुन्द्र के रास्ते एक जहाज़ से ईरान के अरबी गवर्नर हज्जाज के लिए भिजवाए थे| जिन्हें रास्ते में ही देबल में लूट लिया गया| अरबो के कहने पर भी राजा दाहिर ने लुटेरो पर कोई कारवाही नहीं की| अतः इस बहाने से ईरान के गवर्नर हज्जाज के सेनापति मोहम्मद बिन कासिम ने 712 ई. में सिंध स्थित देबल बंदरगाह  पर आक्रमण कर दिया| अरबो के सेनापति मोहम्मद बिन कासिम राजा दाहिर को परास्त कर देबल और ब्रह्मणाबाद जीत लिया| उसके बाद अरबो ने 723 ई. में मुल्तान पर विजय प्राप्त कर अपनी सिंध विजय पूर्ण कर ली| इस प्रकार अरबी साम्राज्यवाद के समक्ष एक भारतीय राज्य ढेर हो गया|

जुनैद का भारत पर आक्रमण तथा गुर्जर परिसंघ द्वारा प्रतिरोध - सिंध विजय के पश्चात् अरबो ने उत्तर भारत की विजय के लिए अभियान आरम्भ कर दिए| अरब खलीफा हिशाम (724-743 ई.) ने जुनैद को सिंध का गवर्नर नियुक्त किया| जुनैद ने सिंध में अरब शक्ति को मज़बूत किया तथा विस्तारवादी नीति को अपनाया| बिलादुरी के अनुसार उसने अपने सैन्य अधिकारियो को मरमद (मरू-मार), मंडल (वल्ल मंडल), दहनाज, बरुस (भड़ोच), उजैन (उज्जैन) और मालिबा (मालवा) पर आक्रमण करने के लिए भेजा| जुनैद ने स्वयं अल बैलमान (भीनमाल) और जुर्ज़ (गुर्जर) को जीता| नवसारी अभिलेख से भी हमें इस अरब आक्रमण का पता चलता हैं| पुल्केशी जनाश्रय के नवसारी अभिलेख (738 ई.) के अनुसार “ताज़िको (अरबो) ने तलवार के बल पर सैन्धव (सिंध), कच्छेल्ल (कच्छ), सौराष्ट्र, चावोटक (चापोत्कट, चप, चावडा), मौर्य (मोरी), गुर्जर आदि को नष्ट कर दिया था|

जुनैद ने नेतृत्व में, 724 ई. में पश्चिमी भारत पर हुए अरब आक्रमण ने एक अभूतपूर्व संकट उत्पन्न कर दिया| इस संकट के समय भी हूण-गुर्जर समूह के राज्य एक साथ उठ खड़े हुए| इस बार इनका नेतृत्व गुर्जर-प्रतीहार शासक नाग भट I ने किया| मिहिरभोज के ग्वालियर अभिलेख के अनुसार प्रताड़ित जनता की प्रार्थना पर नाग भट नारायण के अवतार के रूप में प्रकट हुआ तथा उसने मलेच्छो (अरबो) की सेना को पराजित किया| यह कहना कठिन कि अरब आक्रमण के समय नाग भट I किस स्थान का शासक था अथवा उसकी राजनैतिक स्थिति क्या थी| परन्तु ऐसा प्रतीत होता हैं कि उस समय उज्जैन उसके राज्य का हिस्सा था| जैन ग्रन्थ हरिवंश में गुर्जर प्रतीहार शासक वत्सराज को अवन्तीनाथ कहा गया हैं| अमोघवर्ष के संजान प्लेट अभिलेख से पता चलता हैं कि राष्ट्रकूट शासक दन्तिदुर्ग (753-756 ई.) के समय उज्जैन का शासक गुर्जर था|

बिलादुरी ने अरब सैन्य अधिकारियो द्वारा  मरमद (मरू-मार), मंडल (वल्ल मंडल), दहनाज, बरुस (भड़ोच), उजैन (उज्जैन) और मालिबा (मालवा) पर आक्रमण का उल्लेख मात्र किया हैं, इन सैन्य अभियानों के परिणामो के विषय में वह मौन हैं| केवल जुनैद द्वारा जुर्ज़ (गुर्जर) और उसकी राजधानी अल बैलमान (भीनमाल) को जीतने का उसने वर्णन किया हैं| अतः ऐसा प्रतीत होता हैं कि बढ़ते हुए अरब आक्रमण को नाग भट | ने उज्जैन से पीछे धकेल दिया था और अरबो को सिंध तक सीमित कर दिया|

प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम प्लेट अभिलेख के अनुसार भड़ोच के गुर्जर शासक जय भट IV ने वर्ष 735-36  ई में वल्लभी में ताज्जिको (अरबो) को पराजित किया|

वह नवसारी प्लेट अभिलेख (738-739 ई.) के अनुसार ज़ब अरबो ने दक्षिणपथ (दक्कन) में प्रवेश करने का प्रयास किया तो वातापी के चालुक्यो के सामंत पुल्केशीराज जनाश्रय ने भी नवसारी के पास अरबो को पराजित किया था| पुल्केशीराज सभवतः दक्षिण गुजरात, कोंकण एक हिस्से तथा नासिक क्षेत्र का प्रान्त पति था| इतिहासकार वी. ए. स्मिथ, डी. आर. भंडारकर चालुक्यो को गुर्जर मानते हैं|

ऐसा प्रतीत होता हैं कि कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार, भड़ोच के गुर्जर तथा वातापी के चालुक्य ने अरबो के विरूद्ध एक परिसंघ बना कर इस विदेशी आक्रमण को विफल कर भारतीय समाज और संस्कृति की रक्षा की| इसी समय से उज्जैन के गुर्जर शासक नाग भट और उसके वंशजो ने लगभग तीन सों वर्ष तक भारत की अरब साम्राज्यवाद से रक्षा की |

गुर्जर साम्राज्य का उदय तथा अरब साम्राज्यवाद से भारत की रक्षा- कालांतर में नाग भट II के नेतृत्व में उज्जैन के गुर्जर-प्रतिहारो ने कन्नौज को जीतकर उसे अपनी राजधानी बनाया| अल इदरीसी (1154 ई,) के अनुसार के अनुसार गुर्जर प्रतिहार शासको उपाधि गुर्जर थी तथा उनके साम्राज्य का नाम भी ‘गुर्जर’ था| गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य उत्तर भारत में विस्तृत था| भोज महान (836-886 ई.) और उसके पुत्र महेंद्रपाल (886-915 ई.) के समय यह हर्ष वर्धन के राज्य से अधिक बड़ा था तथा गुप्त साम्राज्य से कम नहीं था| के. एम. मुंशी ने गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य को ‘गुर्जर देश’ की संज्ञा दी हैं| आधुनिक इतिहासकारों में होर्नले ने इसे “गुर्जर साम्राज्य’ की संज्ञा दी हैं|

मिहिर भोज (836-885 ई.) के शासन सभालने के एक वर्ष के भीतर ही सिंध के अरबी सूबेदार ने आस-पास के क्षेत्रो को जीतने का प्रयास किया | लेकिन 833-843 के मध्य अरबो को परास्त कर कच्छ से भगा दिया| कुछ ही वर्षो में गुर्जर प्रतीहारो ने अरबो से सिंध का एक बड़ा भाग जीत लिया| अरबी लेखक अल मसूदी (900-940 ई.) के अनुसार सिन्धु नदी गुर्जर साम्राज्य के एक शहर के बीच से बहती थी| अरबो के पास दो छोटे-छोटे राज्य रह गए थे जिनकी राजधानी अल मंसूरा और मुल्तान थी| अरबी लेखक बिलादुरी कहता हैं कि अल-हाकिम इब्न-अवान्हा के समय ‘अल हिन्द’ में मुसलमानों को ऐसा कोई स्थान ढूंढे से भी नहीं मिलता था ज़हा भागकर वो अपनी जान बचा ले| इसलिए उसने अल हिन्द की सीमा के बाहर झील के दूसरी तरफ मुसलमानों की पनाहगाह के रूप में अल मह्फूज़ा नाम का शहर बसाया जहा मुसलमान सुरक्षित रह सके और उसे अपनी राजधानी बना सके| मिहिर भोज ने अरबो को को शेष सिंध और मुल्तान से निकालने के प्रयास किये किन्तु अरब शासको द्वारा मुल्तान के सूर्य मंदिर को तोड़ने की धमकी देने पर वह पीछे हटने पर मजबूर हो जाता था| प्रसिद्ध इतिहासकार आर. सी. मजुमदार के अनुसार मिहिर भोज “मुस्लिम आक्रमणों के सामने वह अभेद दीवार की भाति था| अपना यह गुण वह अपने उत्तराधिकारियों को विरासत में दे गया”|

851 ई. में सुलेमान नाम का अरब भूगोलवेत्ता और व्यापारी भारत आया| उसने अपने ग्रन्थ ‘सिलसिलात-उत तवारीख’ में गुर्जर साम्राज्य की समृधि और सैन्य शक्ति का शानदार विवरण प्रस्तुत किया हैं| वह लिखता हैं कि हिन्द के शासको में एक गुर्जर हैं जिसके पास विशाल सेना हैं, हिन्द के किसी अन्य शासक के पास उसके जितनी अच्छी घुड़सवार सेना नहीं हैं| वह अरबो का दुश्मन हैं| हिन्द के शासको में उससे से बढ़कर कोई इस्लाम का शत्रु नहीं हैं| वह बहुत धनवान हैं, उसके पास असख्य ऊट और घोड़े हैं| उसके राज्य में लेन-देन चांदी और सोने के सिक्को में होता हैं| ऐसा कहा जाता हैं कि उसके राज्य में इन धातुओ की खाने हैं| भारत में कोई भी राज्य लुटेरो से अधिक सुरक्षित नहीं हैं, जितना की गुर्जर साम्राज्य हैं|

बगदाद के रहने वाले अल मसूदी (900-940 ई.) ने कई बार हिन्द की यात्रा की| अल मसूदी अपने ग्रन्थ ‘मुरुज़ उत ज़हब’ कहता हैं कि बौरा उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम चारो दिशाओ में चार विशाल सेनाए तैनात रखता हैं, क्योकि उसका राज्य लडाकू राजाओ से घिरा हैं| कन्नौज का राजा बल्हर (राष्ट्रकूट राजाओ की उपाधि वल्लभ) का शत्रु हैं| वह कहता हैं कि कन्नौज के शासक बौरा के पास चार सेनाए हैं, प्रत्येक सेना में 7 से 9 लाख सैनिक हैं| उत्तर की सेना मुल्तान के अरब राजा और मुसलमानों के विरुद्ध लडती हैं, दक्षिण की सेना मनकीर (राष्ट्रकूट राजधानी मान्यखेट) के राजा बल्हर (वल्लभ) के विरुद्ध लडती हैं| उसके अनुसार बल्हर हमेशा गुर्जर राजा से युद्धरत रहता हैं| गुर्जर राजा ऊट और घोड़ो के मामले में बहुत धनवान हैं और उसके पास विशाल सेना हैं||

अरब साम्राज्वाद के विरोध में गुर्जर-शाही गटबंधन- कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार शासको के विरोध में सिंध के अरब शासको और दक्कन के राष्ट्रकूट शासको ने गठजोड़ कर लिया| बंगाल के पाल भी यदा-कदा इनके पीछे ही खड़े नजर आये| अतः इसके ज़वाब में कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार शासक मिहिर भोज ने पंजाब के अलखान गुर्जर तथा अरबो के शत्रु उदभांडपुर के शाही शासक लल्लिया के साथ  गटबंधन कर लिया| चंबा राज्य का साहिल वर्मा (920-940 ई.) गुर्जर प्रतिहारो का सामंत था और वह भी इस गटबंधन का अहम् हिस्सा था|

सीस्तान के अरब शासक याकूब बिन लेथ ने 870 ई में काबुल जीत लिया| इतिहासकार हरमट ने तोची घाटी अभिलेख के आधार पर निष्कर्ष निकला हैं कि मिहिर भोज (836-885 ई.)ने पश्चिम की तरफ अपने राज्य का विस्तार किया तथा लल्लिया शाही (875-90 ई.) को काबुल और कंधार प्राप्त करने में उसकी मदद की| हरमट के अनुसार मिहिर भोज ने लल्लिया शाही को याकूब बिन लेथ के विरुद्ध तैनात किया|

कल्हण ने भीम देव शाही के बाद एक ठक्कन नाम के शाही शासक का ज़िक्र किया हैं| जिसका झुकाव कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार शासक की तरफ था| यह संभवतः जयपाल शाही का दादा था| मशहूर एथ्नोलोजिस्ट एच. ए. रोज के अनुसार पंजाब के खटाना गुर्जर जयपाल शाही और उसके पुत्र आनन्दपाल को अपना पूर्वज मानते हैं| फ़रिश्ता (1560-1620 ई.) के अनुसार महमूद गजनवी के आक्रमण के समय जयपाल शाही वंश का शासक था| उसके पिता का नाम इश्तपाल था| उसका राज्य लमघान से सरहिन्द तथा कश्मीर से मुल्तान तक विस्तृत था| वह वाई हिन्द के किले में रहता था| 982-83 में लिखे गए एक अरबी ग्रन्थ हुदूद-उल-आलम के अनुसार जयपाल शाही (965-1001 ई.) कन्नौज के शासक (राय) का सामंत था| ऐसा प्रतीत होता हैं कि अभी तक भी कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारो की उत्तर भारत के सम्राट के रूप में प्रतिष्ठा शेष थी| सभवतः इसी प्रतिष्ठा के आधार पर कन्नौज के शासको ने शाही राज्य के विरुद्ध महमूद गजनवी के संभावित आक्रमण को देखते हुए उत्तर भारत के शासको का एक परिसंघ बनने का प्रयास किया था| फ़रिश्ता के अनुसार जयपाल शाही ने महमूद गजनवी के विरुद्ध कुर्रम घाटी में लडे गए युद्ध में दिल्ली, कन्नौज और कालिंजर के राजाओ से आर्थिक और सैनिक सहायता प्राप्त की थी| परन्तु ऐसा प्रतीत होता हैं कि केवल कन्नौज के प्रतिहार शासक ने ही अपनी सेना भेजी थी|

शाही राज्य को जीतने के बाद महमूद गजनवी ने 1018 ई. में कन्नौज को भी जीत लिया| प्रतिहार शासक राज्यपाल ने गंगा पार बारी में शरण ली|

गुर्जर प्रतिहारो, काबुल और जाबुल के शाही वंश, भड़ोच के गुर्जरों तथा वातापी के चालुक्यो के पराक्रम के कारण अरब भारत के आंतरिक हिस्सों को तीन सों वर्षो तक नहीं जीत सके, तुर्कों को भी भारत में तभी सफलता मिल सकी, जब दसवी शताब्दी के उत्तरार्ध में गुर्जर प्रतिहारो और शाही वंश का पतन प्रारम्भ हो गया|

सन्दर्भ

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3.       ह्यून जिन किम, दी हूंस, https://books.google.co.in/books?isbn=1317340914
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5.     वी. ए. स्मिथ, “दी गुर्जर्स ऑफ़ राजपूताना एंड कन्नौज, जर्नल ऑफ़ दी रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड, 1909, प. 53-75 
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12.   के. बी. पाठक, न्यू लाइट ऑन गुप्त इरा एंड मिहिरकुल”, कोमेमोरेटिव एस्से प्रेजेंटीड टू सर रामकृष्ण गोपाल भंडारकर, पूना,1909, प.195-222 
13.  हरमन गोएत्ज़, स्टडीज इन हिस्ट्री एंड आर्ट ऑफ़ कश्मीर एंड दी इंडियन हिमालयाज, 1969
14.   रामशरण शर्मा, इंडियन फ्यूडलइस्म, दिल्ली, 2009
15.  रमाशंकर त्रिपाठी, हिस्ट्री ऑफ़ कन्नौज: टू दी मोस्लेम कोनक्वेस्ट, 1989 https://books.google.co.in/books?isbn=8120804783
16.  सी. ई. बोस्वर्थ, हिस्ट्री ऑफ़ अल ताबारी, खंड V, न्यूयोर्क,1999
17.   ए. कुर्बनोव, दी हेप्थालाइटस: आरकिओलोजिकल एंड हिस्टोरिकल एनालिसिस ( पी.एच.डी थीसिस) बर्लिन 2010,
18.   डी. बी. पाण्डेय, दी शाहीज़ ऑफ़ अफगानिस्तान एंड दी पंजाब, दिल्ली, 1973
19. बी. एन. पुरी, हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहारनई दिल्ली, 1986
20.  आर. सी. मजुमदार तथा ए. एस.अल्तेकर, वाकाटक-गुप्त ऐज सिरका 200-550 A.D, दिल्ली 1986
21.  डी. आर. भण्डारकरफारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन”, इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्ड X L, 1911,
22.  .वी. ए. स्मिथ, “व्हाइट हूण कोइन ऑफ़ व्याघ्रमुख ऑफ़ दी चप (गुर्जर) डायनेस्टी ऑफ़ भीनमाल”, जर्नल ऑफ़ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड, 1907, प 923-928
23.  एम. ए स्टीन (अनु.), राजतरंगिणी, खंड II
24. भगवत शरण उपाध्यायभारतीय संस्कृति के स्त्रोतनई दिल्ली, 1991, 
25.  ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, खंड II, 1864
26.  के. सी.ओझादी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डियाइलाहाबाद, 1968  
27.  ए. एम. टी. जैक्सनभीनमाल (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड I भाग Iबोम्बे, 1896
28. विन्सेंट ए. स्मिथ, दी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडिया, चोथा संस्करण, दिल्ली,
29.  के. सी. ओझा, ओझा निबंध संग्रह, भाग-I, उदयपुर, 1954
30.  सुशील भाटी, गुर्जर प्रतिहारो की हूण विरासत, जनइतिहास ब्लॉग,
31.  ए. के. चतुर्वेदी, इतिहास, आगरा, पृष्ट 103
32.  एच. ए. रोज, ए ग्लोसरी ऑफ़ ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ़ पंजाब एंड नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस, खंड 2, लाहौर, 1911
33.  सुशील भाटी, कल्कि अवतार और मिहिरकुल हूण, जनइतिहास ब्लॉग, 2013
34.  सुशील भाटी, गुर्जर इतिहास चेतना के सूत्र, जनइतिहास ब्लॉग, 2017
35.  भाटी, वराह उपासक मिहिर पर्याय हूण, जनइतिहास ब्लॉग, 2013

Friday, August 23, 2019

‘मिहिर’ उपाधि, गुर्जर और मिहिरोत्सव

डॉ. सुशील भाटी

गुर्जरों की मिहिर उपाधि की परंपरा ने इनकी ऐतिहासिक विरासत को संरक्षित रखा हैं| मिहिर शब्द का गुर्जरों के इतिहास के साथ गहरा सम्बंध हैं| हालाकि गुर्जर चौधरी, पधान प्रधान’, आदि उपाधि धारण करते हैं, किन्तु मिहिरगुर्जरों की विशेष उपाधि हैं| राजस्थान के अजमेर क्षेत्र और पंजाब में गुर्जर मिहिर उपाधि धारण करते हैं|

मिहिर सूर्यको कहते हैं| भारत में सर्व प्रथम सम्राट कनिष्क कोशानो ने मिहिरदेवता का चित्र और नाम अपने सिक्को पर उत्कीर्ण करवाया था| सम्राट कनिष्क के रबाटक अभिलेख में उल्लेखित उसकी अपनी आर्य भाषामें उसने अपने सिक्को पर मीरोअंकित करवाया था| कनिष्क मिहिर सूर्यका उपासक था|

सम्राट मिहिरकुल हूण ने मिहिर शब्द उपाधि के रूप में धारण किया था| मिहिरकुल का वास्तविक नाम गुल था तथा मिहिर इसकी उपाधि थी| मिहिरगुल को ही राजतरंगिणी सहित अन्य संस्कृत ग्रंथो में मिहिरकुल लिखा गया हैं| सम्राट मिहिरकुल हूण परम शिवभक्त था और सनातन धर्म का संरक्षक था| उसने 1000 गाँव ब्राह्मणों को दान में दिए थे| कैम्पबैल आदि इतिहासकारों के अनुसार हूणों को मिहिरनाम से भी पुकारा जाता था| मिहिरकुल का पिता सम्राट तोरमाण वराह देवताका उपासक था|

भारतीय इतिहास में, सम्राट मिहिरकुल हूण के पश्चात, मिहिर उपाधि धारण करने का एक अन्य उदाहरण गुर्जर प्रतिहार सम्राट भोज महान द्वारा प्रस्तुत होता हैं| भोज महान ने भी मिहिरउपाधि धारण की थी| इसीलिए आधुनिक इतिहासकार इन्हें मिहिर भोज भी कहते हैं| भोज भी वराह देवता का उपासक था, उसने अपने सिक्को पर वराह देवता का चित्र तथा अपनी उपाधि आदि वराहअंकित करवाया थी| आदि शब्द आदित्य का संछिप्त रूप हैं, जिसका अर्थ मिहिर 'सूर्य' हैं|

इस प्रकार मिहिर भोज के सिक्को पर उत्कीर्ण 'आदि वराह' सूर्य से संबंधित देवता हैं| वराह देवता इस मायने में भी सूर्य से सम्बंधित हैं कि वे भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं, जोकि वेदों में सौर देवता के रूप में प्रतिष्ठित हैं| विष्णु भगवान को सूर्य नारायण भी कहते हैं| 'आदि वराह' के अतिरिक्त वराह और सूर्य देवता के नाम की संयुक्तता कुछ प्राचीन स्थानो और ऐतिहासिक व्यक्तियों के नामो में भी दिखाई देती हैं, जैसे- उत्तर प्रदेश के बहराइच नगर का नाम वराह और आदित्य शब्दों से वराह+आदित्य= वराहदिच्च/ वराहइच्/ बहराइच होकर बना हैं| कश्मीर में बारामूला नगर हैं, जिसका नाम वराह+मूल = वराहमूल शब्द का अपभ्रंश हैं| आदित्य और मिहिर की भाति मूलशब्द भी सूर्य का पर्यायवाची हैं| प्राचीन मुल्तान नगर का नाम भी मूलस्थान शब्द का अपभ्रंश हैं| भारतीय नक्षत्र विज्ञानी वराहमिहिर (505-587 ई.) के नाम में तो दोनों शब्द एक दम साफ़ तौर पर देखे जा सकते हैं|

भादो के शुक्ल पक्ष की तीज को वराह जयंती होती हैं| वराहमिहिर, वराहमूल (बारामूला), वराहदित्य (बहराइच) आदि नामो से मिहिर और वराह देवता की संयुक्तता प्रमाणित हैं| वराह जयंती के अवसर पर आदि वराहउपाधि धारक सम्राट मिहिर भोज को भी हम याद करते हैं| मिहिर और 'आदि वराह' दोनों ही गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज की उपाधि हैं| अतः "मिहिर भोज स्मृति दिवस" कोमिहिरोत्सव”- मिहिर का उत्सव के रूप में भी मना सकते हैं|

सन्दर्भ:

1. भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय संस्कृति के स्त्रोत, नई दिल्ली, 1991,
2. रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिका, खंड-1 मेरठ, 2006
3. सुशील भाटी, वराह उपासक मिहिर पर्याय हूण, जनइतिहास ब्लॉग, 2013
4. सुशील भाटी, शिव भक्त सम्राट मिहिरकुल हूण, जनइतिहास ब्लॉग, 2012
5. सुशील भाटी, गुर्जर प्रतिहारो की हूण विरासत, जनइतिहास ब्लॉग, 2013
6. ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
7. ए. एम. टी. जैक्सन, भिनमाल (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896
8. विन्सेंट ए. स्मिथ, दी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडिया, चोथा संस्करण, दिल्ली,
9. Sushil Bhati, Huna origin of Gurjara clans, Janitihas Blog, 2015
10. जे.एम. कैम्पबैल, दी गूजर (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2, बोम्बे, 1899
11. सुशील भाटी, कल्कि अवतार और मिहिरकुल हूण, जनइतिहास ब्लॉग, 2013
12. सुशील भाटी, गुर्जर इतिहास चेतना के सूत्र, जनइतिहास ब्लॉग, 2017
13. के. सी. ओझा, ओझा निबंध संग्रह, भाग-1 उदयपुर, 1954
14. बी. एन. पुरी. हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहार, नई दिल्ली, 1986
15. डी. आर. भण्डारकर, गुर्जर (लेख), जे.बी.बी.आर.एस. खंड 21, 1903
16. सुशील भाटी, सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क (लेख)

Tuesday, March 19, 2019

हम थे.... हम हैं.... हम रहेंगे

डॉ सुशील भाटी
साथियों, IGD 2018 के मौके पर ग्रेटर नॉएडा में, हमारे ऐतिहासिक वजूद पर प्रश्न चिन्ह लगाने वालो के लिए मैंने कहा था कि ‘हम थे....हम हैं....हम रहेंगे..
भारत के विधिवत इतिहास लेखन की शुरुआत ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेज इतिहासकार जेम्स मिल, विलियम जॉन, वी ए स्मिथ आदि ने की थी| इन विदेशी इतिहासकारों के इतिहास लेखन का एक मकसद विदेशी अंग्रेजी शासन के लिए भारतीय जनता में सामाजिक आधार खोजना था| अतः इन्होने भारत के इतिहास को विदेशी आक्रमणों का इतिहास बना कर प्रस्तुत किया| शक, कुषाण, हूण सभी को विदेशी आक्रमणकारी के रूप में पेश किया| यहाँ तक कि वेदों के रचयिता वैदिक आर्यों को मूल भी मध्य एशिया में खोजा गया| तुर्क और मुग़ल तो प्रमाणित विदेशी थे ही| अतः अंग्रेजी इतिहास लेखन में निहित तर्क यह था कि भारत पर विदेशी अंग्रेजी शासन स्वाभाविक हैं क्योकि भारत पर सदा ही विदेशियों का शासन रहा हैं तथा भारतीयों में शासन करने के गुणों का अभाव हैं|
विलियम जॉन के 'इंडो-यूरोपियन जाति सिधांत' से प्रभावित अंग्रेज इतिहासकारों और विद्वानों ने वैदिक परंपरा को भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा मानते  हैं|
किन्तु उन्होंने शक, कुषाण, हूणों को मध्य एशिया की विदेशी बर्बर जातिया लिखकर, इन्हें भारतीय इतिहास में बदनाम कर, इनकी ऐतिहासिक भूमिका को ही उलट दिया| जबकि सच ये हैं कि किसी भी समकालीन भारतीय ग्रन्थ में इन्हें विदेशी नहीं कहा गया हैं| चीनी यात्री फाहियान ने कनिष्क को जम्बूदीप का सम्राट कहा हैं| कुषाणों का आरंभिक इतिहास जम्बूदीप के उत्तर कुरुवर्ष (तारिम घाटी) से मिलता हैं| जम्बूदीप वृहतर भारत के समान था| प्राचीन भारतीयों की भोगोलिक चेतना जम्बूदीप से जुड़ी थी| आज भी हवन आदि से पूर्व पुरोहित जम्बूदीप स्थित भरत खंड का उच्चारण करते हैं| स्मृति साहित्य और पुराणों में इन्हें ‘व्रात्य क्षत्रिय’ कहा गया हैं| भगवान महावीर के लिच्छवी कुल को भी व्रात्य क्षत्रिय कहा गया हैं| कनिष्क कोशानो के रबाटक अभिलेख में उसने अपने राजसी वर्ग और अधीन सामंतो को क्षत्रिय कहकर पुकारा हैं| अतः प्राचीन समकालीन साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्य इनके क्षत्रिय होने का संकेत करते हैं| संस्कृत भाषा का, जूनागढ़ से प्राप्त प्राचीनतम अभिलेख, शक शासक रूद्रदमन का हैं| रबाटक अभिलेख के अनुसार कनिष्क कुषाण ने राजकार्य में ‘आर्य भाषा’ को प्राथमिकता दी तथा उसके शासन काल में संस्कृत सहित्य का विशेष रूप से विकास हुआ| यहाँ तक, कनिष्क के राज्यकाल में, बौद्ध साहित्य भी संस्कृत भाषा में रचा गया| कनिष्क के दरबार में अश्वघोष, वसुबंधु और नागार्जुन जैसे दार्शनिक और विद्वान थे| प्राचीन भारत के प्रसिद्ध आयुर्विज्ञानी चरक और श्रुश्रत कनिष्क के दरबार में आश्रय पाते थे| गांधार एवं मथुरा मूर्तिकला का विकास कनिष्क महान की ही देन हैं|
कनिष्क ने अपने राज्य रोहण को यादगार बनाने के लिए 78 इस्वी में शक संवत चलाया था| आज़ादी के समय शक संवत भारत का सबसे प्रचलित था तथा आज भी भारत का राष्ट्रीय संवत हैं| शक संवत प्रत्येक साल 22 मार्च को शुरू होता हैं अतः यह दिन कनिष्क के राज्य रोहण की वर्ष गाँठ भी हैं|
आज़ादी के बाद राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने वैदिक आर्यों के विदेशी मध्य एशियाई मूल के सिधांत को चुनौती दी और उसे अस्वीकार कर दिया| वोट बैंक की राजनीती ने तुर्क और मुगलों को भी विदेशी होने के तमगे से बरी कर दिया| लेकिन शक कुषाण और हूण भारतीय इतिहास लेखन में कोरे विदेशी बर्बर ही लिखे जाते रहे हैं| भारतीय इतिहास लेखन की पथभ्रष्ट परम्परा द्वारा भारतीय सभ्यता के लिए इनके योगदान को यह कह कर झुटलाया जाता रहा कि इन्हें भारतीय समाज और संस्कृति ने पचा लिया और विलीन कर लिया गया|
किन्तु कुषाण, कुषाणों की आर्य भाषा (बाख्त्री) में कोशानो, आज भी गुर्जरों के कसाना गोत्र के रूप में उपस्थित हैं, जिसका विस्तार लगभग पूरे भारतीय उप महादीप में हैं| इतिहासकार कनिंघम, भगवान लाल इंद्र जी, एथ्नोलोजिस्ट डेंजिल इबटसन तथा एच ए बिंगले ने गुर्जरों को कुषाण स्वीकार किया हैं| इसी प्रकार हूण भी गुर्जरों का एक प्रमुख गोत्र हैं| विलियम क्रुक, होर्नले और वी. ए. स्मिथ ने गुर्जरों के हूण सम्बंध को स्वीकार किया हैं| (कुषाण/कोशानो) और हूण न पचे हैं ना विलीन हुए हैं बल्कि आज भी ये गुर्जरों के गौत्र हैं, वास्तव में य ये गुर्जरों के इतिहास के जीते-जागते उदाहरण हैं|
विदेशी अंग्रेजी इतिहासकारों ने सभी भारतीयों को विदेशी साबित करने की जिस परिपाटी को आरम्भ किया, उसका अनुसरण उनके कुछ पिछलग्गू भारतीय इतिहासकारों ने भी किया| इन अंग्रेज इतिहासकारों और उनके पिछलग्गूओ के इतिहास लेखन और प्रचार से घबरा कर कुषाण और हूण जैसे बहादुर और पराक्रमी यौधाओ के कुछ बुद्धिजीवी वंशज भी उनसे कतराते फिर रहे हैं, कुषाणों और हूणों को विलीन कर लेने की बात करने वालो के दामन में छुपकर, ये मिथकों को इतिहास बनाने पर तुले हैं और वास्तविक इतिहास से समाज को विमुख कर रहे हैं|
यह बेहद आश्चर्यजनक हैं कि तुर्क और मुग़ल को विदेशी कहने में लोगो को संकोच हैं, किन्तु प्राचीन परम्पराओ के पोषको को विदेशी ठहराए जाने से कोई गुरेज़ नहीं हैं| साथियों कनिष्क कुषाण/ कोशानो, मिहिरकुल हूण और मिहिर भोज के इतिहास से गुर्जर समाज के जुड़ाव ने ब्रिटिशशासन काल के विदेशी अंग्रेज इतिहासकारों और उनके कुछ वर्तमान पिछलग्गू इतिहासकारों के सामने चुनौती उपस्थित कर दी हैं| ब्रिटिशशासन काल के विदेशी अंग्रेज इतिहासकारों के वर्तमान पिछलग्गू इतिहासकारों को हमारा साफ़ सन्देश हैं - हम थे.. हम हैं....हम रहेंगे !
जय कनिष्क, जय मिहिरकुल, जय मिहिर भोज
जय हिन्द, जय भारत !
सन्दर्भ
1. Alexander, Cunningham, Archeological survey India, Four reports made during 1862-63-64-65, Vol . II, Simla, 1871, Page 70-73
2. Pandit Bhagwanlal Indraji, Early History of Gujarat (art.), Gazetteer of the Bombay Presidency, Vol I Part I, , Bombay 1896,
3. Denzil Ibbetson, Panjab Castes, Lahore 1916
4. H A Rose, A Glossary Of The Tribes and Castes Of The Punjab And North-Western Provinces, Vol II, Lahore, 1911,
5. Edwin T Atkinson, Statistical, Descriptive and Historical Account of The North- Western Provinces Of India, Vol II, Meerut Division: Part I, Allahabad, !875, Page 185-186 https://books.google.co.in/books?id=rJ0IAAAAQAAJ
6. A H Bingley, History, Caste And Cultures of Jats and Gujarshttps://books.google.co.in/books?id=1B4dAAAAMAAJ
7. D R Bhandarkar, Gurjaras (Art.), J B B R S, Vol. XXI,1903
8. G A Grierson, Linguistic Survey of India, Volume IX, Part IV, Calcutta, 1916
9. सुशील भाटी, गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिधांत, जनइतिहास ब्लॉग, 2016
10. सुशील भाटी, जम्बूदीप,का सम्राट कनिष्क कोशानो,जनइतिहास ब्लॉग, 2018