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Friday, August 24, 2018

गूजरघार गौरव – गढ़ी खेडा जवाहर का इतिहास


डॉ सुशील भाटी

आगरा जिले की फतेहाबाद के निकट खेडा जवाहर सिंह नामका एक गाँव हैं, जो ब्रिटिश काल में आगरा के फतेहाबाद और फिरोजाबाद परगनो के ताल्लुकेदार चौधरी लक्ष्मण सिंह का मुख्यालय हुआ करता था| उन्नीसवी शताब्दी के उत्तरार्ध में चौधरी लक्ष्मण सिंह यहाँ मिट्टी की एक विशाल गढ़ी में राजसी ठाट-बाट से रहते थे| गढ़ी लगभग 50 बीघा ज़मीन में निर्मित थी| गढ़ी की विशाल दीवारे थी जिसके चारो कोनो पर चार बुर्ज़ थे| गढ़ी की सुरक्षा के लिए बुर्जो पर तोपे लगी रहती थी| गढ़ी की सुरक्षा के लिए इसकी दीवारों के साथ गहरी खाइयो का निर्माण किया गया था| आज गढ़ी की दीवारे और बुर्ज़ गिर चुके हैं पर इनके अवशेष अभी भी विधमान हैं| उन्नीसवी शताब्दी के पूर्वार्ध में फतेहाबाद में मराठा शासक दौलत राव सिंधिया (1794-1827 ई.) के सैन्य घोड़ो का अस्तबल था| फतेहाबाद तहसील के तारौली गाँव के निवासी कर्नल आर. एस. कांदिल का कहना हैं कि खेडा गाँव में भी पहले मराठो का सैन्य ठिकाना था| जब चौ. लक्ष्मण सिंह फिरोजाबाद और फतेहाबाद के ताल्लुकेदार बने, तब उन्होंने इस स्थान को अपने आधिपत्य में ले लिया और यहाँ वर्तमान गढ़ी का निर्माण करवाया था|

गढ़ी के अवशेषों के बीचो-बीच पक्की लखोरी ईटो से निर्मित चौधरी लक्ष्मण सिंह की महलनुमा हवेली आज भी बुलंदियों के साथ खड़ी हैं, यहाँ आज इनके वंशज चौधरी राघवेन्द्र सिंह अपने परिवार के साथ रहते हैं| लखोरी ईटो से बनी हवेली लाल पत्थर से बने परकोटो से सुसज्जित हैं| परकोटो के स्तम्भ और रेलिंग शानदार नक्काशी से युक्त हैं| हवेली के मेहराबदार मुख्य प्रवेश द्वार की नक्काशी उत्कृष्ट किस्म की हैं|

चौधरी लक्ष्मण सिंह के विषय में बताते हुए, उनके वर्तमान वंशज चौ. राघवेन्द्र सिंह ने उनके समय की एक पीतल निर्मित चपरास प्रस्तुत की| ये देखने में और उपयोग में बेल्ट के बकल जैसी हैं| उन्होंने बताया की चौधरी लक्ष्मण सिंह के चपरासी इन्हें तहसील, कचहरी आदि में लगा कर रखते थे| इन पर ‘चौधरी लक्ष्मण सिंह ताल्लुकेदार परगने फतेहाबाद व फिरोजाबाद सांकिमोनेपैडा 1874’ लिखा हैं|  अतः स्पष्ट हैं कि सन 1874 में फतेहाबाद और फिरोजाबाद परगनों के ताल्लुकेदार थे| वर्तमान फतेहाबाद तथा फिरोजाबाद तहसील में यमुना के दोनों तरफ लगभग गुर्जरों के 60 गाँव हैं, तथा स्थानीय बोलचाल में इस 60 गाँव के क्षेत्र को गूजरघार कहा जाता हैं, जिसका अर्थ हैं - गूजरों का घर| फतेहाबाद कस्बे के पश्चिम में भरापुर गूजराघार का पहला गाँव हैं, इसके पूर्व में यमुना किनारे तक करीब 21 गाँव हैं तथा यमुना पार फिरोजाबाद तहसील में  करीब 38 गाँव गुर्जरों के हैं| फतेहबाद तथा फिरोजाबाद की ताल्लुकेदार होने के नाते ये सभी गाँव चौधरी लक्ष्मण सिंह की ताल्लुकेदारी में आते थे|

चौ. लक्ष्मण सिंह के पूर्वज इस क्षेत्र में दिल्ली से आये थे| फिरोजाबाद क्षेत्र के प्रेमपुर आनंदीपुर गाँव के यतिंदर अवाना अपने बुजुर्गो के हवाले से बताते हैं कि 1192 में तराइन के दूसरे युद्ध में दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद दिल्ली से काफी लोग उजड़ कर फिरोजाबाद और फतेहाबाद क्षेत्र में बस गए| चौ. लक्ष्मण सिंह रियाना गोत्र के गुर्जर थे, उनके पूर्वज भी सभवतः उक्त प्रव्रजन में दिल्ली क्षेत्र के दौलताबाद गाँव से फिरोजाबाद-फतेहाबाद क्षेत्र में आये थे| वर्तमान में फतेहाबाद क्षेत्र में रियाना गुर्जरों के खेडा जवाहर, सारंगपुर, भरापुर, बाबरपुर, हुमायुपुर तथा हाजी नंगला आदि गाँव हैं| आरम्भ में चौ. लक्ष्मण सिंह के साथी भारामल का फतेहाबाद क्षेत्र में उत्थान हुआ| भारामल किसी मेव राजा के सेनापति थे| भारामल ने फतेहाबाद के पश्चिम में भरापुर गाँव बसाया| भारामल की मृत्यु के उपरांत, ब्रिटिश काल में चौ. लक्षण सिंह फिरोजाबाद और फतेहाबाद परगनों के तालुकेदार बन गए|

1857 के विद्रोह में चौधरी लक्ष्मण सिंह ने फतेहाबाद के निकट बादशाही बाग किले में स्थित तहसील मुख्यालय को अपने अधिकार में ले लिया था तथा क्षेत्र में कानून और शांति व्यवस्था बनाये रखी| अराजकता का लाभ उठाते हुए, उन्होंने पिनाहट क्षेत्र को भी अपने अधिकार में ले लिया था| चौ. लक्ष्मण सिंह के अधिकार में सात गढ़ी थी, जिनके माध्यम से वे अपनी ताल्लुकेदारी के प्रबंधन और रख-रखाव करते थे| ये गढ़ियां खेडा, चार बिस्वा, सिलावली, सारंगपुर (गढ़ी जोमदार), मुरावल, ज़रारी और महरा चौधरी गाँवो में स्थित थी| चौ. लक्ष्मण सिंह ने जरारी की गढ़ी का निर्माण यमुना पार से डाकुओ और असामाजिक तत्वों की रोकथाम के लिए करवाया था|

चौ. लक्ष्मण सिंह बहुत से सामाजिक कल्याण के लिए बहुत से कार्य किये| अपने साथी भारामल के देहांत के बाद चौ. लक्ष्मण सिंह ने भरापुर में एक बाग़ लगवाया तथा एक शिव मंदिर का निर्माण करावाया जो आज भी विधमान हैं| चौ. लक्ष्मण सिंह ने फतेहाबाद में तत्कालीन सरकारी अस्पताल तथा थाने के लिए जगह दान में दी थी| इसके अतिरिक्त मौजा स्वार में यमुना नदी पर घाट का निर्माण करवाया तथा हाजी नंगला गाँव में कृष्ण मंदिर का निर्माण करवाया|

कालांतर में चौ. लक्ष्मण सिंह के पौत्र चौ. जवाहर सिंह के समय खेडा गाँव उनके नाम से खेडा जवाहर मशहूर हो गया| चौ. जवाहर सिंह के पुत्र चौ. ऐदल सिंह राज़स्व विभाग में उच्च अधिकारी थे| उनका विवाह बुंदेलखंड के प्रतिष्ठित समथर राजपरिवार में हुआ था| वर्तमान में चौ. राघवेन्द्र सिंह गढ़ी परिसर में अपने स्वर्गवासी पिता चौ. करतार सिंह और माता श्रीमती ललित के याद में ‘चौ. करतार ललित मेमोरियल इन्टर कॉलेज’ चलाते हैं|

                               चौ. लक्ष्मण सिंह की वंशावली

चौ. लक्ष्मण सिंह
 |
चौ. दौलत सिंह
            |           
चौ देवी सिंह
 |
                   चौ. जवाहर सिंह  तथा चौ सौवरन सिंह
 |
चौ. ऐदल सिंह
 |
चौ. करतार सिंह
 |
चौ. राघवेन्द्र सिंह 

सन्दर्भ

1. Rosie Llewelln-Jones, The Great Uprising in India, 1857-58 : Untold Stories, Indian and British, Woodbridge, 2007, p 29  https://books.google.co.in/books?isbn=1843833042

2.  S. B. Chaudhuri, Civil Rebellion In Indian Mutinies (1857-1859), Calcutta, 1957, p 83

3. H. R. Nevill, Agra A Gazetteer, Vol VIII, Allahbad, 1905

4. साक्षात्कार- दिनांक: 30/10/2017, चौ. राघवेन्द्र सिंह,  निवासी ग्राम - खेड़ा जवाहर, तहसील-फतेहाबाद, आगरा|

5. दूरभाष वार्ता दिनांक: 30/10/2017, कर्नल आर. एस. कांदिल, निवासी ग्राम –तारौली, तहसील-फतेहाबाद, आगरा|

6. दूरभाष वार्ता दिनांक: 20/8/2018, श्री यतीन्द्र अवाना, निवासी ग्राम – प्रेमपुर, तहसील तथा जिला  फिरोजाबाद|












Saturday, August 11, 2018

तह्कीके हिन्द में प्रतिबिंबित गुप्त संवत एवं गुप्त काल


डॉ सुशील भाटी

अलबिरुनी (1031 ई.) की पुस्तक तह्कीके हिन्द के अनुसार भारत के लोग ग्यारहवी शताब्दी में श्री हर्ष, बिक्रमादित्य, शक, गुप्त या बल्लब का संवत प्रयोग करते थे|

अलबिरुनी लिखता हैं कि जहाँ तक गुप्त काल संवतका सम्बन्ध हैं, वे लोग (गुप्त शासक), जैसा कि कहा जाता हैं, दुष्ट और शक्तिशाली थे और जब वे ख़त्म हो गए, तब जनता ने इसे चलाया| अलबिरुनी के अनुसार गुप्त और बल्लभ संवत (वल्लभी संवत) एक ही हैं, क्योकि प्राप्त सूचना के अनुसार बल्लभ गुप्त वंश का अंतिम शासक था| बल्लभ अन्हिलवाडा के 30 योज़न दक्षिण में स्थित बल्लभ (वल्लभी) नगर का स्वामी था| अलबिरुनी के अनुसार जो लोग बल्लभ के संवत को प्रयोग करते हैं, वो शक संवत से 241 वर्ष घटा कर इसे प्राप्त करते हैं| बल्लभ गुप्तो में अंतिम शासक था, इसलिए इसलिए गुप्त संवत का आरम्भ भी शक संवत के 241 वर्ष बाद होता हैं|

अलबिरुनी ने 632 ई. में प्रारम्भ होने वाले ईरानी यज्दजिर्द संवत वर्ष 400 के अनुरूप भारतीय संवतो के आगामी वर्षो का उल्लेख इस प्रकार किया हैं बिक्रमादित्य के संवत का वर्ष 1088, शक संवत का वर्ष 953 तथा बल्लभ का संवत, जोकि गुप्त संवत भी हैं, उसका वर्ष 712 |

अलबिरुनी ने तह्कीके हिन्द पुस्तक यज्दजिर्द संवत वर्ष 400 से एक वर्ष पूर्व अर्थात 632+399 = 1031 ई. में लिखी थी| अतः 1031 से 712 घटा कर गुप्त संवत का आरंभिक वर्ष 319 ई. प्राप्त होता हैं| इसी प्रकार 1031 से 953 घटा कर शक संवत का आरंभिक वर्ष 78 ई. प्राप्त होता हैं|

अलबिरुनी के अनुसार गुप्त शासक भारतीय आम जन में अलोकप्रिय थेछठी शताब्दी के पूर्वार्ध में  गुप्तो का पतन हो गया| इनके पतन के लगभग 500 वर्ष बाद अलबिरुनी भारत आया तथा भारत में प्रचलित संवतो के विषय में जानकारी जुटाते वक्त लोगो ने, उसे गुप्तो के विषय में प्रचलित धारणा के विषय में, बताया कि गुप्त शासक दुष्ट और शक्तिशाली थे, उनके शासन का अंत होने पर आमजन ने प्रसन्नता में गुप्त संवत चलाया| अतः अलबिरुनी के अनुसार गुप्तो के साम्राज्य के अंत से जनता को उनके उत्पीडन से मुक्ति मिल गई तथा इस घटना को एक समय विभाजक रेखा तथा नए युग की शुरुआत मानते हुए भारतीय जनमानस ने प्रसन्नता में गुप्त संवत आरम्भ किया| अलबिरुनी की गुप्तो की अलोकप्रियता के विषय में दी गई जानकारी को इस तथ्य से भी बल मिलता हैं कि हर्षवर्धन (606-647 ई.) के दरबारी कवि बाणभट्ट ने भी अपनी हर्षचरित नामक पुस्तक में मालवा के एक दुष्ट गुप्त राजा (दुरात्मा मालवराजेन) का उल्लेख किया हैं| गुप्तो के शासन के 500 वर्ष बाद भी प्रचलित उनकी अलोकप्रियता सम्बंधित, यह नकरात्मक जनधारणा, जिसका उल्लेख अलबिरुनी ने किया है, इतिहासकार वी. ए. स्मिथ द्वारा प्रतिपादित इस संकल्पना का खंडन करती हैं कि गुप्त काल प्राचीन भारत का स्वर्ण युग हैं’ |
सन्दर्भ

1.       जॉन ऍफ़ फ्लीट, कोर्पुस इनस्क्रिप्टशनम इन्डिकेरम खंड III, कलकत्ता, 1888 प 17-40

2.       डॉ शिवस्वरुप सहाय, भारतीय पुरालेखो का अध्ययन, प 321

3.       अपर्णा शर्मा, भारतीय संवतो का इतिहास,1994

4.       उदय नारायण रॉय, गुप्त राजवंश तथा उनका युग, 1977  

5.       शिव कुमार गुप्ता, भारत का राजनैतिक इतिहास, 1999,

6.       रामवृक्ष सिन्हा, गुप्तोत्तर कालीन राजवंश, 1982 


Sunday, June 24, 2018

गुप्त राजवंश और बौद्ध धर्म

डॉ सुशील भाटी


चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री ईत्सिंग (672 ई.) के अनुसार महाराज श्रीगुप्त (240-380 ई.) ने चीनी बौद्ध तीर्थ यात्रियों के लिए, मृगशिखावान नामक स्थान पर एक मंदिर का निर्माण करवाया था, तथा इसके रख-रखाव के लिए 24 गाँव भी दान में दिए थे| इस मंदिर के अवशेष ईत्सिंग ने अपनी भारत यात्रा के दौरान स्वयं देखे थे| इत्सिंग ने मगध देश में श्रीगुप्त के विषय में ये सभी बाते सुनी थी| श्रीगुप्त को गुप्त वंश का संस्थापक माना जाता हैं|

गुप्त सम्राट समुन्द्रगुप्त (335- 380 ई.) के शासनकाल में श्री लंका के शासक मेघवार्मन ने बौद्ध गया में एक बौद्ध मठ का निर्माण करवाया था|

चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री फाहियान (405-11 ई.) गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (380-415 ई.) के समय भारत आया था, तथा उसने आर्यवृत (उत्तर भारत) के सभी राजाओ को सद्धर्म (बौद्ध धर्म) का श्रद्धालु बताया थ| चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य उत्तर भारत का सम्राट था|

हेन सांग (629-45 ई.) के अनुसार पांच राजाओ ने नालंदा में पांच (बौद्ध) संघारामो का निर्माण करवाया| ये सम्राट शक्रादित्य, बुद्धगुप्त, तथागत गुप्त, बालादित्य और वज्र थे|  हेन सांग के अनुसार शक्रादित्य ने सबसे पहले नालंदा में एक संघाराम का निर्माण करवाया था| उसके पश्चात उसके पुत्र बुध गुप्त तथा पौत्र तथागत गुप्त ने भी संघाराम का निर्माण कराया| शक्र को महेंदर भी कहते हैं, तथा गुप्त सम्राट कुमारगुप्त I (415-55 ई.) की उपाधी महेंदर थी, इसलिए बहुत से इतिहासकारों ने उपरोक्त शक्रादित्य की पहचान कुमारगुप्त प्रथम के रूप में की हैं, तथा उसे नालंदा के प्रसिद्ध बौद्ध विश्विद्यालय की स्थापना का श्रेय दिया हैं| हेन सांग द्वारा उल्लेखित, नालंदा विश्विद्यालय के संरक्षक शासक बुद्धगुप्त, बालादित्य आदि का नाम गुप्त राजाओ की सूची में भी आता हैं| हेन सांग के अनुसार हूण सम्राट मिहिरकुल (502-42 ई.) का युद्ध जिस (गुप्त सम्राट) बालादित्य से हुआ वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था| यह बालादित्य वस्तुतः गुप्त शासक नरसिंह बालादित्य हैं| मंजूश्रीमूलकल्प (800 ई.) के अनुसार भी नरसिंह गुप्त बौद्ध धर्म का अनुयायी था तथा वह बाद बौद्ध साधु बन गया था| हेन सांग के अनुसार उसका पुत्र वज्र के ह्रदय में बौद्ध धर्म के लिए गहरी आस्था थी तथा उसने भी एक संघाराम का निर्माण करवाया था|

अतः चीनी बौद्ध तीर्थ यात्रियों के विवरण के अनुसार गुप्त सम्राट बौद्ध धर्म के समर्थक थे तथा उन्होंने नालंदा में बौद्ध विश्वविद्यालय की स्थापना में अतिशय सहयोग प्रदान किया| गुप्त काल में बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ तथा बुध की अनेक मूर्तिया स्थापित हुई| गुप्त काल में बुद्ध की प्रतिमा बनाने वाले मथुरा कला और सारनाथ कला केन्द्रों का भी अभूतपूर्व विकास हुआ| गुप्तकालीन सारनाथ में बुध की सर्वश्रेष्ठ मूर्तिया का निर्माण हुआ| गुप्तकाल में उनके साम्राज्य के अंतर्गत स्थित कुशीनगर में बुद्ध के निर्वाण स्तूप का विस्तार किया गया तथा वहां एक ‘बुद्ध का निर्वाण मंदिर’ भी स्थापित किया गया| गुप्त काल में पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया में बौद्ध कला का व्यापक प्रसार हुआ|

चीनी बौद्ध तीर्थ यात्रियों के विवरणों के अतरिक्त अन्य साक्ष्यो पर दृष्टी डालने पर ऐसा प्रतीत होता हैं कि आरम्भिक गुप्त सम्राट वैदिक तथा पौराणिक-वैष्णव धर्म के अनुयायी थे| किन्तु जैसा चीनी बौद्ध तीर्थ यात्रियों के विवरणों से स्पष्ट हैं कि बौद्ध धर्म से भी उन्हें लगाव और सहानुभूति थी| कुमारगुप्त प्रथम के समय से उन पर बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा| तोरमाण और मिहिकुल द्वारा हूण साम्राज्य की स्थापना के समय वो बौद्ध धर्म के अनुयायी थे|

गुप्त काल के बाद बौद्ध धर्म ने एक विशिष्ट और संगठित धर्म के रूप में प्रभावी नहीं रहा| हेन् सांग बताता हैं कि हूण सम्राट मिहिरकुल ने भारत में बौद्ध धर्म को बहुत भारी नुकसान पहुँचाया|  कल्हण ने बारहवी शताब्दी में राजतरंगिणी” नामक ग्रन्थ में कश्मीर का इतिहास लिखा हैं| कल्हण मिहिरकुल हूण को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं| वह कहता हैं कि मिहिरकुल ने 1000 गाँव ब्राह्मणों को दान में दिए तथा कश्मीर में मिहिरेश्वर शिव मंदिर का निर्माण करवाया|
सन्दर्भ

1. राधाकुमुद मुख़र्जी, गुप्त साम्राज्य, 1997

2. दी गुप्त पोलिटी,

3 रोशन दलाल, दी रिलिजन ऑफ़ इंडिया: ए कनसाइज़ गाइड तो नाइन मेजर फैथ्स, 2010https://books.google.co.in/books?isbn=0143415174

4. सुकुमार दत्त, बुद्धिस्ट मोंक्स एंड मोनास्ट्रीज ऑफ़ इंडिया

 5. हू फूओक, बुद्धिस्ट आर्किटेक्चर

6. फ्रेड एस क्लेंएर , गार्डनरस आर्ट्स थ्रू दी एजिस: नॉन वेस्टर्न पर्सपेक्टिव्सhttps://books.google.co.in/books?isbn=0495573671


Friday, June 22, 2018

गुर्जिस्तान

डॉ सुशील भाटी

विश्व में अनेक स्थानों के नाम गुर्जिस्तान रहे हैं| इतिहाकर कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर इन गुर्जिस्तानो को गुर्जरों की उत्पत्ति, आधिपत्य और प्रव्रजन से जोड़कर देखते हैं| विद्वानों ने इस प्रसंग में चार गुर्जिस्तानो का उल्लेख किया हैं|

1. मध्य एशिया में श्वेत हूणों की राजधानी बादेघिज़ (Badeghiz) के समीप स्थित गुर्जिस्तान| ताबारी ने लिखा हैं कि सासानी शासक नौशेरवान ( 537- 79 ई.) बल्ख की तरफ बढ़ा और उसने तुखारिस्तान और गुर्जिस्तान को जीत लिया| उसके अनुसार गुर्जिस्तान के उत्तर में मर्व (Merv) पूर्व में गोर पश्चिम में हेरात और दक्षिण में ग़ज़नी थे| यह स्थान हेन सांग (630 ई.) द्वारा वर्णित जुज़गन (Juzgana) हो सकता हैं| इब्न खुर्ददब (912 ई.) ने बादेघिज़ (Badeghiz) के बाद गुर्जिस्तान का उल्लेख किया हैं|

2. अविभाजित पंजाब के स्वात जिले में स्थित गुर्जिस्तान| वर्तमान में यह उजरिस्तान कहलाता हैं| 

3 ग़ज़नी के समीप स्थित गुर्जिस्तान

वर्तमान में दक्षिण पश्चिम अफगानिस्तान में हेलमंद नदी के किनारे एक गुजरिस्तान हैं| तथा यहाँ एक गूजरी खाशी गाँव भी हैं| एलेग्जेंडर कनिंघम ने इस गुजरिस्तान नगर की संगति हेन सांग द्वारा उल्लेखित हो सों लो नगर से की हैं, जोकि गजनी (हो सी ना) के साथ-साथ उस समय दक्षिण पश्चिम अफगानिस्तान क्षेत्र की दूसरी राजधानी था| हेन सांग ने दक्षिण पश्चिम अफगानिस्तान स्थित अरकोसिया राज्य का वर्णन किया हैं| उसके अनुसार हेलमंद नदी इस राज्य से बहती थी| इसकी दो राजधानी थी, हो सी ना और हो सों लो| कनिंघम ने हो सी ना की पहचान गजनी से तथा हो सों लो की पहचान गूजर अथवा गुर्जिस्तान से की हैं| इस से भी आगे बढ़कर वह हो सों लो की पहचान टोलेमी (100-170 ई.) द्वारा वर्णित अरकोसिया के पश्चिमिओत्तर में स्थित ओज़ल नगर से की हैं जोकि लगभग वही स्थान हैं जहाँ आधुनिक गुजरिस्तान हैं| अतः कनिंघम के अनुसार हेलमंद किनारे स्थित आधुनिक गुजरिस्तान (गूजर) हेन सांग का हो सों लो और टोलेमी का ओज़ल हैं|

भारतीय जनगणना, 1911 के अनुसार हजारा के पश्चिम तथा गजनी के निकट स्थित दोनों गुर्जिस्तानो में अभी भी गुर्जरों की आबादिया हैं|

4. वर्तमान यूरोप स्थित जोर्जिया देश को उसके पडोसी देश तुर्की और ईरान में गुर्जिस्तान बोला जाता रहा हैं| ग्यारहवी-बारहवी शताब्दी में सीरियाई भाषा में गुर्जानी/ गुर्जियान कहा जाता था| रुस के लोग इसे ग्रुजिया कहते हैं| जोर्जिया के लोग गुर्जी कहलाते हैं| जॉर्जियन अकैडमी ऑफ़ साइंस के प्रो. जोर्जी चोगोशविली ( Prof. Georgi Chogoshvili ) तथा जॉर्जियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ जियोग्राफी के प्रो. लेवन मरुअशविली  (Prof Levan Maruashvili) के अनुसार गुर्जरों और जोर्जिया निवासियों के बीच उल्लेखनीय समानताये हैं| ये समानताए दोनों की समान उत्पत्ति या सांझी सांस्कृतिक विरासत की तरफ इशारा कर रही हैं|

गुर्जरों के गुर्जिस्तान सम्बन्ध पर और अधिक शोध की जरुरत हैं| सांग (629-$5) द्वारा वर्णित गुर्जर देश से पहले 537- 79 ई में गजनी के उत्तर और गोर के पूर्व में आधुनिक अफगानिस्तान में  एक गुर्जिस्तान विधमान था| 

सन्दर्भ

1 डी. आर. भण्डारकरफारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख)इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्डX L 1911
2 जे.एम. कैम्पबैलदी गूजर (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2, बोम्बे, 1899
3 डी. आर. भण्डारकरगुर्जर (लेख)जे.बी.बी.आर.एस. खंड 21, 1903
4 राम शरण शर्माइंडियन फ्यूडलिज्मदिल्ली, 1980
5 जी. ए. ग्रीयरसनलिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडियाखंड IX  भाग IV, कलकत्ता, 1916
6 डी. आर. भण्डारकर, सम आस्पेक्ट्स ऑफ़ ऐनशिएन्ट इंडियन कल्चर,1989
7. सेन्सस ऑफ़ इंडिया 1911, खंड 29, इशू 1
8. ओ सी हांडा, टेक्सटाइल, कोसट्यूम एंड ओर्नामेंट ऑफ़ वेस्टर्न हिमाल्यास, 1998
https://books.google.co.in/books?isbn=8173870764
9 लुडविग डब्लू. ऐडामेक(संपादक), हिस्टोरिकल एंड पोलिटिकल गजेटियर ऑफ़ अफगानिस्तान, खंड 2, ऑस्ट्रिया, १९७३,.प 98
https://books.google.co.in/books?id=qPVtAAAAMAAJ





Monday, March 19, 2018

“मेरे इतिहास लेखन का एक लक्ष्य उनके सिर लगवाना हैं जिनके सिर तोड़ दिए गए हैं|”


डॉ सुशील भाटी


2016 IGD के अवसर पर जावली में मैंने कहा था कि “मेरे इतिहास लेखन का एक लक्ष्य उनके सिर लगवाना हैं जिनके सिर तोड़ दिए गए हैं|” साथियो इतिहास अधिकतर सभ्रांत और अभिजात्य मानसिकता से लिखा जाता हैं| इस कारण से वर्तमान में गैर-अभिजात वर्ग में गिने वाले जाट, अहीर, गुर्जर, लोध, कुर्मी, जाटव, भील, मुंडा संथाल, मेव, मीणा लुहार, बढई आदि भारत की लगभग पांच हज़ार जातियों और कबीलों को भारतीय इतिहास में उचित स्थान नहीं मिल पाया हैं| नस्लीय तथा जातिगत पूर्वाग्रह से ग्रस्त अभिजात्य मानसिकता की वज़ह से, बहुधा इनकी ऐतिहासिक उपलब्धियों की उपेक्षा की गई हैं, या फिर इनके इतिहास को तोड मरोड़ कर अभिजात्य जातियों का इतिहास बना दिया गया हैं| गुर्जर शब्द स्थान वाचक हैं या कबीले का नाम? इस प्रश्न को खड़ा करके, गुर्जरों को उनके इतिहास से वंचित करने के प्रयासों से सभी परिचित हैं| वर्तमान इतिहास लेखन की इस परिपाटी से गैर-अभिजात्य कबीलों और जातियों का  इतिहास और उनकी पहचान मिटती जा रही हैं|

इस सब के बावजूद, समाज में अपनी सम्मान जनक पहचान पाने के लिए आतुर, ये गैर-अभिजात्य कबीले और जातियां अपना सही इतिहास लिखने के स्थान पर, अपने को मिथकीय पात्रो से जोड़कर देखने का औचित्यहीन प्रयास कर रहे हैं|


कुषाण/कसाना वंश के कनिष्क महान (78-101 ई.) और उसके पिता विम कडफिस भारत के मात्र ऐसे सम्राट हैं, जिनकी समकालीन मूर्तिया, हमें उनकी राजधानी मथुरा से, प्राप्त हुई हैं| लेकिन सभी मूर्तिया सिरविहीन हैं| हमारे पूर्वजों की ये सिरविहीन मूर्तिया हमारे मिटे हुए इतिहास और पहचान का प्रतीक हैं|


अपने ब्लॉग जनइतिहास पर, “गैर अभिजात्य कबीलों और जातियों के इतिहास लेखन” के माध्यम से, मैंने अपने पूर्वजों के चेहरों को पहचाने का प्रयास किया हैं| गुर्जरों के पूर्वज कनिष्क और और उसके वंश पर भी अनेक लेख इस ब्लॉग पर है| सम्राट कनिष्क का ‘राज्य रोहण दिवस’ ‘22 मार्च: अन्तराष्ट्रीय गुर्जर दिवस’ अपने पूर्वजों के इतिहास से जुड़ने और अपनी पहचान को पुनः कायम करने का एक साधन हैं|


भाई नरेन्दर कसाना (ग्राफ़िक डिज़ाइनर) साधुवाद के पात्र हैं, जिन्होने मेरे आग्रह पर सम्राट कनिष्क का ऐतिहासिक लक्षणों से युक्त एक सुंदर चित्र हमारे बीच रखा| ‘गुर्जर सम्राट कनिष्क महान ट्रस्ट’ और उससे जुड़े भाई संजू वीर गुर्जर, भाई अमित वीर कपासिया गुर्जर आदि भी साधुवाद के पात्र जिन्होने सम्राट कनिष्क की मूर्ति स्थापित करने के ऐतिहासिक कार्य का बीड़ा उठाया हैं| सम्राट कनिष्क के चित्र और मूर्ति का निर्माण हमारी प्रतीकात्मक विजय का उद्घोष हैं|


अन्य सन्दर्भ

1.सुशील भाटी, गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिधांत, जनइतिहास ब्लॉग, 2016
2.सुशील भाटी, प्राचीन भारत के इतिहास में नस्लीय पूर्वग्रह, जनइतिहास ब्लॉग. 2013
3.सुशील भाटी, भारतीय इतिहास लेखन में सभ्रांतवादी दृष्टिकोण , जनइतिहास ब्लॉग. 2014 
4.सुशील भाटी, भारत में जनइतिहास लेखन की चुनौती, जनइतिहास ब्लॉग. 2014 




Monday, March 5, 2018

जम्बूदीप का सम्राट कनिष्क कोशानो


डॉ सुशील भाटी

Key words- Kanishka, Koshano, Jambudweep, Bharata, Gurjara, Varaha

कनिष्क कोशानो (कुषाण) वंश का महानतम सम्राट था| कनिष्क महान एक बहुत विशाल साम्राज्य का स्वामी थाउसका साम्राज्य मध्य एशिया स्थित काला सागर से लेकर पूर्व में उडीसा तक तथा उत्तर में चीनी तुर्केस्तान से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक फैला हुआ थाउसके साम्राज्य में वर्तमान उत्तर भारतपाकिस्तानअफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान का  हिस्सातजाकिस्तान का हिस्सा और चीन के यारकंदकाशगर और खोतान के इलाके थे| कनिष्क भारतीय इतिहास का एक मात्र सम्राट हैं जिसका राज्य दक्षिणी एशिया के बाहर मध्य एशिया और चीन के हिस्सों को समाये थावह इस साम्राज्य पर चार राजधानियो से शासन करता थापुरुषपुर (आधुनिक पेशावर) उसकी मुख्य राजधानी थीमथुरातक्षशिला और कपिशा (बेग्राम) उसकी अन्य राजधानिया थीकनिष्क कोशानो का साम्राज्य (78-101 ई.) समकालीन विश्व के चार महानतम एवं विशालतम साम्राज्यों में से एक था| यूरोप का रोमन साम्राज्य, ईरान का सासानी साम्राज्य तथा चीन का साम्राज्य अन्य तीन साम्राज्य थे|

कोशानो साम्राज्य का उद्गम स्थल बैक्ट्रिया (वाहलिक, बल्ख) माना जाता हैं| प्रो. बैल्ली के अनुसार प्राचीन खोटानी ग्रन्थ में बाह्लक राज्य के शासक चन्द्र कनिष्क का उल्लेख किया गया हैं| खोटानी ग्रन्थ में लिखा हैं कि बाह्लक राज्य स्थित तोखारिस्तान के राजसी परिवार में एक बहादुर, प्रतिभाशाली और बुद्धिमान ‘चन्द्र कनिष्क’ नामक जम्बूदीप का सम्राट हुआ| फाहियान (399-412 ई.) के अनुसार कनिष्क द्वारा निर्मित स्तूप जम्बूदीप का सबसे बड़ा स्तूप था| चीनी तीर्थ यात्री हेन सांग (629-645 ई.) ने भी कनिष्क का जंबूदीप का सम्राट कहा गया हैं|

वस्तुतः जम्बूदीप प्राचीन ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन ग्रंथो में वर्णित एक वृहत्तर भोगोलिक- सांस्कृतिक इकाई हैं तथा भारत जम्बूदीप में समाहित माना जाता रहा हैं| प्राचीन भारतीय समस्त जम्बूदीप के साथ एक भोगोलिक एवं सांस्कृतिक एकता मानते थे| आज भी हवन यज्ञ से पहले ब्राह्मण पुरोहित यजमान से संकल्प कराते समय ‘जम्बूद्वीपे भरत खण्डे भारत वर्षे’ का उच्चारण करते हैं| अतः स्पष्ट हैं कि जम्बूदीप भारतीयों के लिए उनकी पहचान का मसला हैं तथा भारतीय जम्बूदीप से अपने को पहचानते रहे है| प्राचीन ग्रंथो के अनुसार जम्बूदीप के मध्य में सुमेरु पर्वत हैं जोकि इलावृत वर्ष के मध्य में स्थित हैं| इलावृत के दक्षिण में कैलाश पर्वत के पास भारत वर्ष, उत्तर में रम्यक वर्ष, हिरण्यमय वर्ष तथा उत्तर कुरु वर्ष, पश्चिम में केतुमाल तथा पूर्व में हरि वर्ष हैं| भद्राश्व वर्ष और किम्पुरुष वर्ष अन्य वर्ष हैं| यह स्पष्ट हैं कि कनिष्क के साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले मध्य एशिया के तत्कालीन बैक्ट्रिया (वाहलिक, बल्ख) क्षेत्र, यारकंद, खोटन एवं कश्गर क्षेत्र, आधुनिक अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और उत्तर भारत के क्षेत्र जम्बूदीप को समाये थे| कुषाणों के इतिहास के लिहाज़ से यह बात अति महतवपूर्ण हैं कि इतिहासकार जम्बूदीप स्थित ‘उत्तर कुरु वर्ष’ की पहचान तारीम घाटी क्षेत्र से करते हैं, जहाँ से यूची कुषाणों की आरंभिक उपस्थिति और इतिहास की जानकारी हमें प्राप्त होती हैं| अतः कुषाण आरम्भ से ही जम्बूदीप के निवासी थे| इसी कारण से कुषाणों को हमेशा भारतीय समाज का हिस्सा माना गया तथा प्राचीन भारतीय ग्रंथो में कुषाण और हूणों को (व्रात्य) क्षत्रिय कहा गया हैं|

प्राचीन भारतीय ग्रंथो के अनुसार उत्तर कुरु वर्ष (यूची कुषाणों के आदि क्षेत्र) में वराह की पूजा होती थी| यह उल्लेखनीय हैं कि गुर्जर प्रतिहार शासक (725-1018 ई.) भी वराह के उपासक थे तथा  कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की गई हैं|

सन्दर्भ

1ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
2. के. सी.ओझादी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डियाइलाहाबाद, 1968 
3. डी. आर. भण्डारकरफारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख)इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्डX L 1911
4. ए. एम. टी. जैक्सनभिनमाल (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896
5. विन्सेंट ए. स्मिथदी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडियाचोथा संस्करणदिल्ली,
6. जे.एम. कैम्पबैलदी गूजर (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2, बोम्बे, 1899
7.बी. एन. पुरी. हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहारनई दिल्ली, 1986
8. सुशील भाटी, गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिधांत, जनइतिहास ब्लॉग, 2016 
9. सुशील भाटी, मिहिर उपासक वराह पर्याय हूण, जनइतिहास ब्लॉग, 2013