डा. सुशील भाटी
ब्रिटिशराज के दौरान भारत में बहुत से लोगो ने अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचारों
और शोषण के खिलाफ संघर्ष किया और अपने प्राणों तक की आहुति दे दी| इनमे से बहुत से
बलिदानियो को तो इतिहास में जगह मिल गयी परन्तु कुछ के तो हम नाम भी नहीं जानते|
ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध आम आदमी की लड़ाई लड़ने वाले कुछ ऐसे भी बलिदानी हैं
जिन्हें भले ही इतिहास की पुस्तकों में स्थान नहीं मिला परन्तु ये जन आख्यानों और
लोक गीतों के नायक बन लोगो के दिलो पर राज करते हैं| ऐसा ही एक क्रांतिकारी और
बलिदानी का नाम हैं- झंडा
गूजर| मेरठ जिले के बूबकपुर गांव के रहने वाले झंडा की ब्रिटिशराज और साहूकार विरोधी
हथियारबंद मुहिम लगभग सौ साल तक लोक गीतों की विषय वस्तु बनी रही| आम आदमी की भाषा
में इन लोक गीतों को झंडा की चौक-चांदनी कहते थे, यह अब लुप्तप्राय हैं| अब इसके
कुछ अंश ही उपलब्ध हैं, जिनका उपयोग इस लेख में कई जगह किया गया हैं| झंडा की लोकप्रियता का आलम यह था कि 1970 के दशक तक ग्रामीण इलाके
में जूनियर हाई स्कूल तक के बच्चे झंडा की चौक-चांदनी घर-घर जाकर सुनाते थे और अपने
अध्यापको की सहायतार्थ अनाज आदि प्राप्त करते थे| झंडा की चौक-चांदनी की शुरुआत इस
प्रकार हैं-
गंग नहर के बायीं ओर बूबकपुर स्थान
जहाँ का झंडा गूजर हुआ सरनाम
झंडा का में करू बयान
सुन लीजो तुम धर के ध्यान.........
लगभग सन 1880 की
बात हैं मेरठ के इलाके में झंडा नाम का एक मशहूर बागी था| उस समय अंग्रेजो का राज
था और देहातो में साहूकारो ने लूट मचा रखी थी| अंग्रेजो ने किसानो पर भारी कर लगा
रखे थे, जिन्हें अदा करने के लिए किसान अक्सर साहूकारो से भारी ब्याज पर कर्ज
उठाने को मजबूर था| साहूकारो को अंग्रेजी पुलिस थानों, तहसीलो, और अदालतों का संरक्षण
प्राप्त था, जिनके दम पर साहूकार आम आदमी और किसानो को भरपूर शोषण कर रहे थे|
झंडा की बगावत की कहानी भी ऐसी ही साहूकार के शोषण के खिलाफ शुरू होती हैं|
झंडा मेरठ जिले की सरधना तहसील के बूबकपुर गांव का रहनेवाला था, यह गांव गंग नहर
के बायीं तरफ हैं| वह अंग्रेजो की फौज में सिपाही था| उसके भाई ने पास के गांव
दबथुवा के साहूकारो से क़र्ज़ ल रखा था| झंडा ने अपनी तनख्वाह से बहुत-सा धन चुकता
कर दिया, परन्तु साहुकारी हिसाब बढ़ता ही गया| एक दिन साहूकार झंडा के घर आ धमका और
उसने जमीन नीलम करने की धमकी देते हुए झंडा की भाभी से बतमीज़ी से बात की| झंडा उस
समय घर पर ही था, पर वह अपमान का घूंट पीकर रह गया| लेकिन यह घटना उसके मन को
कचोटती रही और वह विद्रोह की आग में जलने लगा|
कुछ ही दिन बाद गांव के पश्चिम में नहर के किनारे एक अंग्रेज शिकार खेलने के
लिए आया, उसका निशाना बार- बार चूक रहा था| झंडा हँस कर कहने लगा कि “मैं एक गोली में ही शिकार को गिरा
दूँगा”| अंग्रेज उसकी बातो में
आ गया और उसने चुनोती भरे लहजे में बंदूक झंडा को थमा दी| झंडा ने एक ही गोली से
शिकार को ढेर कर दिया और बंदूक अंग्रेज पर तान दी और उसे धमका कर बंदूक और घोडा
दोनों लेकर चला गया|
उसके बाद झंडा ने अपना गुट बना लिया| कहते हैं की उसने अंग्रेजी शासन-सत्ता को
चुनौती देकर दबथुवा के साहूकारों के घर धावा मारा| उसने पोस्टर चिपकवा कर अपने आने
का समय और तारीख बताई और तयशुदा दिन वह साहूकार के घर पर चढ आया| भारी-भरकम
अंग्रेजी पुलिस बल को हरा कर उसने साहूकार के धन-माल को ज़ब्त कर लिया और बही खातों
में आग लगा दी| साहूकार की बेटी ने कहा की सामान में उसके भी जेवर हैं, तो झंडा ने
कहा कि “बहन जो तेरे हैं
ईमानदारी से उठा ले”|
झंडा ने आम आदमी और किसानो को राहत पहुचानें के लिए साहूकारों के खिलाफ एक
मुहिम छेड दी| अंग्रेजी साम्राज्य और साहूकारों के शोषण के विरोध में हर धर्म और
जाति के लोग उसके गुट में शामिल होते गए जिसने एक छोटी सी फौज का रूप ले लिया| झंडा
के सहयोगी बन्दूको से लैस होकर घोडो पर चलते थे| उसके प्रमुख साथियों में बील गांव
का बलवंत जाट, बूबकपुर का मोमराज कुम्हार, मथुरापुर का गोविन्द गूजर, जानी-बलैनी
का एक वाल्मीकि और एक सक्का जाति का मुसलमान थे| रासना, बाडम और पथोली गांव झंडा
के विशेष समर्थक थे| रासना के पास ही उसने एक कुटी में अपना गुप्त ठिकाना बना रखा
था| इलाके में प्रचलित मिथकों के अनुसार झंडा ने पंजाब और राजस्थान तक धावे मारे
और अंग्रेजी सत्ता को हिला कर रख दिया| झंडा की चौक-चांदनी स्थिति कुछ ऐसे बयां
करती हैं-
गंग नहर के बायीं ओर
जहाँ रहता था झंडा अडीमोर
ज्यो-ज्यो झंडा डाका डाले
अंग्रेजो की गद्दी हाले.......
ज्यो-ज्यो झंडा चाले था
अंग्रेजो का दिल हाले था.........
झंडा को आज भी किसान श्रद्धा और सम्मान से याद करते हैं| उसने मुख्य रूप से
साहूकारों को निशाना बनाया, वह उनके बही खाते जला देता था| जिनके जेवर साहूकारो ने गिरवी रख रखे थे उन्हें छीन कर वापिस कर देता
था और पैसा गरीबो में बाँट देता था| वो गरीब अनाथ लड़कियों के भात भरता था| उसने
अंग्रेजी पुलिस की मौजूदगी में मढीयाई गांव की दलित लड़की का भात दिया था| कहते हैं
कि वो जनाने वेश में आया था, भात देकरदेकर निकल गया| अंग्रेज हाथ मलते रह गए| झंडा
और साहूकारों की इस लड़ाई में वर्ग संघर्ष की प्रति छाया दिखाई देती हैं| साहूकारों
के विरुद्ध झंडा कि ललकार पर चौक- चांदनी कहती हैं-
जब झंडा पर तकादा आवे
झंडा नहीं सीधा बतलावे
साहूकारों से यह कह दीना
मैं भी किसी माई का लाल
मारू बोड उदा दू खाल
हो होशियार तुम अपने घर बैठो
एक बार फिर मेरा जौहर देखो ............
झंडा ने मेरठ इलाके में अंग्रेजी राज को हिला कर रख दिया था| अंग्रेजी शासन ने
ज़मींदारो और साहूकारों को झंडा के कहर से बचाने के लिए पूरी ताकत झोक दी| सरकार ने
बूबकपुर में ही एक पुलिस चोकी खोल दी| इस स्थान पर आज प्राथमिक स्कूल हैं| लेकिन
इस सब के बावजूद झंडा बेबाक होकर बूबकपुर में भूमिया पर भेली चढाने आता रहा|
होली-दिवाली पर भी वह अपने गांव जरूर आता था| अंग्रेजी पुलिस और झंडा के टकराव पर
चौक-चांदनी कहती हैं-
एक तरफ पुलिस का डंका
दूजी तरफ झंडा का डंका
अंग्रेज अफसर कहाँ तक जोर दिखावे
अपना सिर उस पर कटवावे...........
एक दिन रासना गांव के एक मुखबिर ने पुलिस को झंडा के रासना के जंगल स्थित कुटी
में मौजूद होने की सूचना दी| पुलिस ने कुटी को चारो ओर से घेर लिया| झंडा अंग्रेजो
से बड़ी बहादुरी से लड़ा| दोनों ओर से भीषण गोला-बारी हुई| गोला-बारी के शांत होने
पर जब अंग्रेज कुटी में घुसे तो उन्हें वहाँ कोई नहीं मिला, झंडा वहाँ से जा चुका
था| परन्तु उस घटना के बाद उसका नाम फिर कभी नहीं सुना गया| आज भी ये स्थान झंडा
वाली कुटी के नाम से मशहूर हैं| यहाँ देवी माँ का एक मंदिर हैं और एक आश्रम हैं|
यहाँ चैत्र के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मेला लगता हैं, जिसमे आस-पास के गांवों के
लोग आते हैं जो भी आज भी झंडा को याद करते हैं और उसकी चर्चा करते हैं|
(Dr. Sushil Bhati)
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