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Thursday, October 19, 2017

दीपावली/अन्नकूट - नव वर्ष का शुभारम्भ

डॉ सुशील भाटी

गुजरात में दीपावली, कार्तिक की अमावस्या, विक्रमी संवत का अंतिम दिन होता हैं तथा दीपावली से अगला दिन, कार्तिक की शुक्ल पक्ष प्रतिपदा, विक्रमी संवत का पहला दिन होता हैं| इस प्रकार गुजरात में दीपावली से अगले दिन नव वर्ष ‘नूतन वर्ष’ बेस्टू वर्ष’ के रूप में मनाया जाता हैं हैं, इसे विक्रमी नवसंवत्सर भी कहते हैं| गुजरात के लोग इस दिन लक्ष्मी पूजन करते हैं तथा नव वर्ष दिवस को ‘अन्नकूट’ के नामक त्यौहार के रूप में मनाते हैं| गुजरात ही नहीं उत्तर भारत के अन्य राज्यों के व्यापारी समुदाय भी कार्तिक की शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को नव वित्तीय वर्ष के रूप में मानते हैं और इस दिन से अपने व्यापारिक खातो को बंद कर नए खातो की शुरुआत करते हैं| परम्परागत रूप से भारत में दीपावली की व्यापारी बनिया समुदाय के त्यौहार के रूप में मान्यता रही हैं| इस प्रकार दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी पूजन कर व्यापारी समुदाय नव का शुभारम्भ करता हैं, यह परम्परा गुजरात में अधिक स्पष्ट और बलवान हैं|

वैसे उत्तर भारत में दीपावली से अगले दिन, कार्तिक की शुक्ल पक्ष प्रतिपदा, को गोवर्धन पूजा का त्यौहार धूम-धाम से मनाया जाता हैं परन्तु उसमे नव वर्ष दिवस जैसा कुछ नहीं होता|

गुजरात तथा उत्तर भारत के परम्परागत व्यापारी समुदाय के इस नव वर्ष दिवस की जानकारी इस मायने में भी महत्वपूर्ण हैं कि शेष उत्तर भारत में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा नहीं बल्कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को विक्रमी संवत का नव वर्ष दिवस होता हैं|

सन्दर्भ- 

भोजराज दिवेदी, रिलीजियस बेसिस ऑफ़ हिन्दू बिलीफ्स,

http://hindupad.com/gujarati-new-year-nutan-varsh-bestu-varsh-in-gujarat/

Tuesday, September 5, 2017

गुर्जर इतिहास चेतना के सूत्र

डॉ सुशील भाटी

प्राचीन गुर्जर इतिहास को समझने के लिए तीन बिन्दु हैं - कुषाण साम्राज्य (50- 250ई.), हूण साम्राज्य (490-542 ई.) तथा गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य (725-1018 ई.)| प्राचीन भारत में गुर्जरों के पूर्वजों द्वारा स्थापित किये गए इन साम्राज्यों के क्रमश सम्राट कनिष्क (78-101 ई.), सम्राट मिहिरकुल (502-542 ई.) और सम्राट मिहिर भोज (836-886 ई.) प्रतिनिधि आइकोन हैं| 

गुर्जर समाज में इतिहास चेतना उत्पन्न करने हेतु “सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क” की जयंती ‘सूर्य षष्ठी’ छठ पूजा के दिन वर्षो से मनाई जाती रही हैं| भारत में सूर्य पूजा का प्रचलन अति प्राचीन काल से ही हैपरन्तु ईसा की प्रथम शताब्दी में, कुषाण कबीलों ने इसे विशेष रूप से लोकप्रिय बनाया। कुषाण मुख्य रूप से मिहिर ‘सूर्य’ के उपासक थे। सूर्य का एक पर्यायवाची ‘मिहिर’ हैजिसका अर्थ हैवह जो धरती को जल से सींचता हैसमुद्रों से आर्द्रता खींचकर बादल बनाता है। सम्राट कनिष्क की मिहिर ‘सूर्य’ के प्रति आस्था को प्रकट करने वाले अनेक पुरातात्विक प्रमाण हैं| कुषाण सम्राट कनिष्क ने अपने सिक्कों पर मीरों ‘मिहिर’ देवता  का नाम और चित्र अंकित कराया था|  सम्राट कनिष्क के सिक्के में मिहिर ‘सूर्य’ बायीं और खड़े हैं। भारत में सिक्कों पर सूर्य का अंकन किसी शासक द्वारा पहली बार हुआ था। पेशावर के पास ‘शाह जी की ढेरी’ नामक स्थान पर एक बक्सा प्राप्त हुआ इस पर कनिष्क के साथ सूर्य एवं चन्द्र के चित्र का अंकन हुआ है। मथुरा के सग्रहांलय में लाल पत्थर की अनेक सूर्य प्रतिमांए रखी हैजो कुषाण काल की है। इनमें भगवान सूर्य को चार घोड़ों के रथ में बैठे दिखाया गया है। वे कुर्सी पर बैठने की मुद्रा में पैर लटकाये हुये है। उनका शरीर ‘औदिच्यवेश’ अर्थात् पगड़ी लम्बा कोट और सलवार से ढका है और वे ऊंचे जूते पहने हैं। उनकी वेशभूषा बहुत कुछमथुरा से ही प्राप्त  कनिष्क की सिरविहीन प्रतिमा जैसी है। भारत में ये सूर्य की सबसे प्राचीन मूर्तियां है| भारत में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना मुल्तान में हुई थी, जिसे कुषाणों ने बसाया था। इतिहासकार डी. आर. भण्डारकर के अनुसार कनिष्क के शासन काल  में ही सूर्य एवं अग्नि के पुरोहित मग ब्राह्मणों ने  भारत में प्रवेश किया। उसके बाद ही उन्होंने कासाप्पुर ‘मुल्तान’ में पहली सूर्य प्रतिमा की स्थापना की। ए. एम. टी. जैक्सन के अनुसार  मारवाड़ क्षेत्र स्थित भीनमाल में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण काश्मीर के राजा कनक ‘सम्राट कनिष्क’ ने कराया था। सातवी शताब्दी में यही भीनमाल आधुनिक राजस्थान में विस्तृत ‘गुर्जर देश’ की राजधानी बना।  कनिष्क मिहिर और अतर ‘अग्नि’ के अतरिक्त कार्तिकेय, शिव तथा बुद्ध आदि भारतीय देवताओ का उपासक था| कनिष्क ने भारत में कार्तिकेय की पूजा को विशेष बढ़ावा दिया। कनिष्क के बेटे हुविष्क का चित्रण उसके सिक्को पर महासेन 'कार्तिकेय' के रूप में किया गया हैं| आधुनिक पंचाग में सूर्य षष्ठी एवं कार्तिकेय जयन्ती एक ही दिन पड़ती है|  कोई चीज है प्रकृति में जिसने इन्हें एक साथ जोड़ा है-वह है सम्राट कनिष्क की आस्था। ‘सूर्य षष्ठी’ के दिन सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क को भी याद किया जाना चाहिये और उन्हें भी श्रद्धांजलि दी जानी चाहिये।  

इसी क्रम में“शिव भक्त सम्राट मिहिरकुल हूण” की जयंती ‘सावन की शिव रात्रि’ पर मनाई जाती हैं| मिहिकुल हूण एक कट्टर शैव था|  मिहिरकुल को ग्वालियर अभिलेख में भी शिव भक्त कहा गया हैंमिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं जिसका अर्थ हैं- जय नंदी| वृष शिव कि सवारी हैं जिसका नाम नंदी हैं| उसने अपने शासन काल में अनेक शिव मंदिर बनवायेमंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु ‘शिव’ के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सर नहीं झुकाया थाकल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक  नगर बसाया तथा श्रीनगर के पास मिहिरेशवर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया थाउसने गांधार इलाके में ब्राह्मणों को 1000 ग्राम दान में दिए थेकल्हण मिहिरकुल हूण को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं| मिहिरकुल ही नहीं वरन सभी हूण शिव भक्त थेहनोल ,जौनसार – बावरउत्तराखंड में स्थित महासु देवता “महादेव” का मंदिर हूण स्थापत्य शैली का शानदार नमूना हैंकहा जाता हैं कि इसे हूण भट ने बनवाया थायहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि भट का अर्थ योद्धा होता हैं | तोरमाण और मिहिरकुल के ‘अलखान हूण परिवार ’ के पतन के बाद हूणों के इतिहास के प्रमाण राजस्थान के हाडौती और मेवाड़ के पहाड़ी इलाको से प्राप्त होते हैं| पूर्व मध्य काल में कोटा-बूंदी का क्षेत्र हूण प्रदेश कहलाता था| ऐतिहासिक हूणों के प्रतिनिधि के तौर पर वर्तमान में इस क्षेत्र में हूण गुर्जर काफी संख्या में पाए जाते हैं| बूंदी इलाके में रामेश्वर महादेव,  भीमलत और झर महादेव हूणों के बनवाये प्रसिद्ध शिव मंदिर हैं बिजोलियाचित्तोरगढ़ के समीप स्थित मैनाल कभी हूण राजा अन्गत्सी की राजधानी थीजहा हूणों ने तिलस्वा महादेव का मंदिर बनवाया थाचंबल के निकट स्थित भैंसोरगढ़ से तीन मील की दूरी पर बाडोली का प्रसिद्ध प्राचीन शिव मंदिर हैं| मंदिर के आगे एक मंडप हैं जिसे लोग ‘हूण की चौरी’ कहते हैं| कर्नल टाड़ के अनुसार बडोली में स्थित सुप्रसिद्ध  शिव मंदिर के हूणराज ने बनवाया था|

भादो के शुक्ल पक्ष की तीज को वराह जयंती होती हैं| गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज की उपाधि आदि वराहथी, जोकि उसके सिक्को पर उत्कीर्ण थी|| अतः इस दिन सम्राट मिहिर भोज को भी याद किया जाता हैं|आदि वराहआदित्य वराह का संक्षिप्त रूप हैं| आदित्य सूर्य का पर्यायवाची हैं| इस प्रकार आदि वराह सूर्य से संबंधित देवता हैं| वराह देवता इस मायने में भी सूर्य से सम्बंधित हैं कि वे भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं, जोकि वेदों में सौर देवता के रूप में प्रतिष्ठित हैं| विष्णु भगवान को सूर्य नारायण भी कहते हैंआदि वराह के अतिरिक्त वराह और सूर्य शब्दों की संयुक्तता कुछ प्राचीन स्थानो और ऐतिहासिक व्यक्तियों के नामो में भी दिखाई देती हैं, जैसे- उत्तर प्रदेश के बहराइच नगर का नाम वराह और आदित्य शब्दों से वराह+आदित्य= वराहदिच्च/ वराहइच्/ बहराइच होकर बना हैं| कश्मीर में बारामूला नगर हैं, जिसका नाम वराह+मूल = वराहमूल शब्द का अपभ्रंश हैं| आदित्य की भाति मूलशब्द भी सूर्य का पर्यायवाची हैं| प्राचीन मुल्तान नगर का नाम भी मूलस्थान शब्द का परिवर्तित रूप हैं| भारतीय नक्षत्र विज्ञानी वराहमिहिर (505-587 ई.) के नाम में तो दोनों शब्द एक दम साफ़ तौर पर देखे जा सकते हैं क्योकि मिहिर का अर्थ भी सूर्य हैंमिहिर और आदि वराह दोनों ही गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज की उपाधि हैं| अतः "मिहिर भोज स्मृति दिवस" को मिहिरोत्सवके रूप में भी मना सकते हैं|

मिहिर शब्द का गुर्जरों के इतिहास के साथ गहरा सम्बंध हैं| हालाकि गुर्जर चौधरी, पधान ‘प्रधान’, आदि उपाधि धारण करते हैं, किन्तु ‘मिहिर’ गुर्जरों की विशेष उपाधि हैं| राजस्थान के अजमेर क्षेत्र और पंजाब में गुर्जर मिहिर उपाधि धारण करते हैं| मिहिर ‘सूर्य’ को कहते हैं| भारत में सर्व प्रथम सम्राट कनिष्क कोशानो ने ‘मिहिर’ देवता का चित्र और नाम अपने सिक्को पर उत्कीर्ण करवाया था| कनिष्क ‘मिहिर’ सूर्य का उपासक था| उपाधि के रूप में सम्राट मिहिर कुल हूण ने इसे धारण किया था| मिहिर कुल का वास्तविक नाम गुल था तथा मिहिर उसकी उपाधि थी| मिहिर गुल को ही मिहिर कुल लिखा गया हैं| कैम्पबैल आदि इतिहासकारों के अनुसार हूणों को मिहिर भी कहते थे| गुर्जर प्रतिहार सम्राट भोज महान ने भी मिहिर कुल की भाति मिहिर उपाधि धारण की थी| इसीलिए इतिहासकार इन्हें मिहिर भोज भी कहते हैं| संभवतः “गुर्जर प्रतिहारो की हूण विरासत” रही हैं| मिहिर उपाधि की परंपरा गुर्जरों की ऐतिहासिक विरासत को सजोये और संरक्षित रखे हुए हैं|

मशहूर पुरात्वेत्ता एलेग्जेंडर कनिंघम इतिहास प्रसिद्ध कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की हैं| उनके अनुसार गुर्जरों का कसाना गोत्र कुषाणों का वर्तमान प्रतिनिधि हैं| उसकी बात का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि गुर्जरों का कसाना गोत्र क्षेत्र विस्तार एवं संख्याबल की दृष्टि से सबसे बड़ा है। कसाना गौत्र अफगानिस्तान से महाराष्ट्र तक फैला है और भारत में केवल गुर्जर जाति में मिलता है। ऐतिहासिक तौर पर कनिष्क द्वारा स्थापित कुषाण साम्राज्य गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हैं, क्योकि यह मध्य और दक्षिण एशिया के उन सभी देशो में फैला हुआ था, ज़हाँ आज गुर्जर निवास करते हैं| कुषाण साम्राज्य के अतरिक्त गुर्जरों से सम्बंधित कोई अन्य साम्राज्य नहीं हैं, जोकि पूरे दक्षिणी एशिया में फैले गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए अधिक उपयुक्त हो| यहाँ तक की मिहिर भोज द्वारा स्थापित प्रतिहार साम्राज्य केवल उत्तर भारत तक सीमित था, तथा पश्चिमिओत्तर में करनाल इसकी बाहरी सीमा थी| कनिष्क के साम्राज्य का एक अंतराष्ट्रीय महत्व हैं, दुनिया भर के इतिहासकार इसमें अकादमिक रूचि रखते हैं| सम्राट कनिष्क कोशानो 78 ई. में राजसिंघासन पर बैठा| अपने राज्य रोहण को यादगार बनाने के लिए उसने इस अवसर पर एक नवीन संवत चलाया, जिसे शक संवत कहते हैं| शक संवत भारत का राष्ट्रीय संवत हैं| “भारतीय राष्ट्रीय संवत- शक संवत” 22 मार्च को शुरू होता हैं| इस प्रकार 22 मार्च सम्राट कनिष्क के राज्य रोहण की वर्षगाठ हैं| दक्षिणी एशिया विशेष रूप से गुर्जरों के प्राचीन इतिहास में यह एक मात्र तिथि हैं जिसे अंतराष्ट्रीय रूप से प्रचलित जूलियन कलेंडर के अनुसार निश्चित किया जा सकता हैं| सम्राट कनिष्क के राज्य रोहण की वर्षगाठ के अवसर पर वर्ष 2013 से मनाया जाने वाला  “22 मार्च- इंटरनेशनल गुर्जर डे” आज देश-विदेश में बसे गुर्जरो के बीच एकता और भाईचारे से परिपूर्ण उत्सव का रूप ले चुका हैं|

गुर्जर चिन्ह (Gujjar Logo) - सम्राट कनिष्क के सिक्के पर उत्कीर्ण पाया जाने वाला ‘राजसी चिन्ह’ जिसे ‘कनिष्क का तमगा’ भी कहते हैं, आज गुर्जर समुदाय की पहचान बन कर उनके वाहनों, स्मृति चिन्हों, घरो और उनके कपड़ो तक पर अपना स्थान ले चुका हैं| सम्राट कनिष्क का राजसी चिन्ह गुर्जर कौम की एकता, उसके गौरवशाली इतिहास और विरासत के प्रतीक के रूप में उभरा हैं| कनिष्क के तमगे में ऊपर की तरफ चार नुकीले काटे के आकार की रेखाए हैं तथा नीचे एक खुला हुआ गोला हैं| कुषाण सम्राट शिव के उपासक थे| कनिष्क के अनेक सिक्को पर शिव मृगछाल, त्रिशूल, डमरू और कमण्डल के साथ उत्कीर्ण हैं|  कनिष्क का राजसी निशान “शिव के त्रिशूल” और उनकी की सवारी “नंदी बैल के पैर के निशान” का समन्वित रूप हैं| सबसे पहले इस राज चिन्ह को कनिष्क के पिता सम्राट विम कड्फिस ने अपने सिक्को पर उत्कीर्ण कराया था| विम कड्फिस शिव का परम भक्त था तथा उसने माहेश्वर की उपाधि धारण की थी| उसने अपने सिक्को पर शिव और नंदी दोनों को उत्कीर्ण कराया था| यह राजसी चिन्ह कुषाण राजवंश और राजा दोनों का प्रतीक था तथा राजकार्य में मोहर के रूप में प्रयोग किया जाता था|

सन्दर्भ:

1. भगवत शरण उपाध्यायभारतीय संस्कृति के स्त्रोतनई दिल्ली, 1991,
2. रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिकाखंड-1 मेरठ, 2006
3. ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
4. के. सी.ओझादी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डियाइलाहाबाद, 1968 
5. डी. आर. भण्डारकरफारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख)इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्डX L 1911
6. ए. एम. टी. जैक्सनभिनमाल (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896
7. विन्सेंट ए. स्मिथदी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडियाचोथा संस्करणदिल्ली,
8. जे.एम. कैम्पबैलदी गूजर (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2, बोम्बे, 1899
9.के. सी. ओझाओझा निबंध संग्रहभाग-1 उदयपुर, 1954
10.बी. एन. पुरी. हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहारनई दिल्ली, 1986
11. डी. आर. भण्डारकरगुर्जर (लेख)जे.बी.बी.आर.एस. खंड 21, 1903
12 परमेश्वरी लाल गुप्तकोइन्स. नई दिल्ली, 1969
13. आर. सी मजुमदारप्राचीन भारत
14. रमाशंकर त्रिपाठीहिस्ट्री ऑफ ऐन्शीएन्ट इंडियादिल्ली, 1987
15. राम शरण शर्माइंडियन फ्यूडलिज्मदिल्ली, 1980
16. बी. एन. मुखर्जीदी कुषाण लीनऐजकलकत्ता, 1967,
17. बी. एन. मुखर्जीकुषाण स्टडीज: न्यू पर्सपैक्टिव,कलकत्ता, 2004,
18. हाजिमे नकमुरादी वे ऑफ थिंकिंग ऑफ इस्टर्न पीपल्स: इंडिया-चाइना-तिब्बत जापान
19. स्टडीज़ इन इंडो-एशियन कल्चरखंड 1, इंटरनेशनल एकेडमी ऑफ इंडियन कल्चर, 1972,
20. एच. ए. रोजए गिलोसरी ऑफ ट्राइब एंड कास्ट ऑफ पंजाब एंड नोर्थ-वेस्टर्न प्रोविंसेज
21. जी. ए. ग्रीयरसनलिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडियाखंड IX  भाग IV, कलकत्ता, 1916
22. के. एम. मुंशीदी ग्लोरी देट वाज़ गुर्जर देशबोम्बे, 1954 
23. भास्कर चट्टोपाध्याय, दी ऐज ऑफ़ दी कुशान्स, कलकत्ता, 1967


Thursday, June 29, 2017

भारत में हूण पहचान की निरंतरता : हूण गुर्जरों के गाँवो का सर्वेक्षण

डा. सुशील भाटी

बुहलर, होर्नले, वी. ए. स्मिथविलियम क्रुक आदि इतिहासकारो ने गुर्जरों को श्वेत हूणों से सम्बंधित माना हैं कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों की उत्पत्ति श्वेत हूणों की खज़र शाखा से बताते हैं| भारत में आज भी ‘हूण’ गुर्जरों का एक प्रमुख गोत्र हैं जिसकी आबादी अनेक प्रदेशो में हैं|

छठी शताब्दी के उतरार्ध में हूण साम्राज्य के पतन के बाद हूण गुर्जरों की उपस्थिति नवी-दसवी शताब्दी में पंजाब में प्रमाणित होती हैं| हूण सम्राट तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरकुल (502-542) ई. के सिक्को पर उनके कुल का नाम ‘अलखान’ अंकित हैं| राजतरंगिणी के अनुसार पंजाब के शासक ‘अलखान’ गुर्जर का युद्ध कश्मीर के राजा शंकर वर्मन (883- 902 ई.) के साथ हुआ था| इतिहासकार हरमट के अनुसार हूणों के सिक्को पर बाख्त्री भाषा में उत्कीर्ण ‘अलखान’ वही नाम हैं जोकि कल्हण की राजतरंगिणी में उल्लेखित गुर्जर राजा का हैं| इतिहासकार अलार्म के अनुसार ‘अलखान’ हूण शासको की क्लेन / कुल का नाम हैं| इतिहासकार बिवर के अनुसार मिहिरकुल का उतराधिकारी ‘अलखान’ था| अतः भारत में हूण साम्राज्य के पतन के बाद भी पंजाब में तोरमाण और मिहिरकुल के परिवार की शक्ति अक्षुण बनी रही तथा नवी शताब्दी में पंजाब पर शासन करने वाला अलखान गुर्जर उनके ‘अलखान’ परिवार का वारिस था| 

वर्तमान में उत्तराखंड राज्य के हरिद्वार जिले में लक्सर कस्बे के पास हूण गोत्र का “चौगामा” यानि चार गाँव का समूह हैं| कुआँ खेडा, मखयाली, रहीमपुर और भुर्ना गाँव इस ‘हूण’ चौगामे का हिस्सा हैं| इनके अतिरिक्त मंगलोर के पास बिझोली गाँव में हूण गुर्जर हैं| वास्तविकता में कुआ खेडा गाँव के एक हूण परिवार के पूर्वज बिझोली से आकर बसे थे| बिझोली गाँव में आज भी इस परिवार की पुश्तैनी ‘सती देवी’ के मंदिर हैं| कुआ खेडा का दूसरा परिवार कनखल स्थित प्राचीन मायापुरी नगरी से आया हैं| मायापुरी में भी इनके पूज्य सती मंदिर हैं| इनके अतिरिक्त उत्तराखंड के हरिद्वार जिले मे ही झबरेडा के पास हूण गुर्जरों का एक बड़ा गाँव हैं, जिसका नाम ‘लाठ्हरदेवा हूण’ हैं|

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में सरसावा रेलवे स्टेशन के पास ‘अलीपुर-काजीपुर’ हूण गुर्जरों के गाँव हैं| मुज़फ्फरनगर जिले में पुरकाजी के पास शकरपुर और भदोलीगाँव  में हूण गोत्र के गुर्जर हैं|

उत्तर प्रदेश के हापुड़ और मेरठ जिले में हूण गोत्र के गुर्जरों का बारहा हैं| बारहा  का अर्थ हैं-12 गाँव की खाप या समूह| गोहरा, मुदाफरा, औरंगाबाद, मुक्तेसरा, माधोपुर, पीरनगर, दतियाना, सालारपुर, सुकलमपुरा, मडैय्या, अट्टा और नवल इस ‘हूण खाप’ के गाँव हैं| इसमें पहले 11 गाँव हापुड़ जिले में तथा बारहवा गाँव नवल मेरठ जिले में हैं| मेरठ में शाहजहाँपुर के पास सदुल्लाह्पुर गाँव में भी हूण गुर्जरों के परिवार रहते हैं|  

आगरा जिले में भी हूण गुर्जरों के गाँव हैं|

राजस्थान  में हूण गुर्जर मुख्य रूप से अलवर, भरतपुर, दौसा, अजमेर, सवाई माधोपुर, टोंक, बूंदी, कोटा, चित्तोडगढ और भीलवाड़ा जिले में पाए जाते हैं|  पूर्व मध्य काल में कोटा, बूंदी आदि जिलो का हाड़ोती क्षेत्र हूण प्रदेश कहलाता था| 

अलवर जिले में हूण गुर्जरों के सात गाँव में हूण गुर्जर निवास करते हैं| अलवर जिले की तहसील लक्ष्मण गढ़ में बांदका हूण गुर्जरों का प्रमुख गाँव हैं| भरतपुर जिले में डीग के पास ‘महमदपुर’ हूण गुर्जरों का गाँव हैं| इसी के पास ‘अधावाली’ गाँव में भी हूण गुर्जरों के कुछ परिवार निवास करते हैं| भरतपुर जिले के बसावर क्षेत्र में ‘इटामदा’ और ‘महतोली’ हूण गुर्जरों के गाँव हैं| दौसा जिले में सिकंदरा के पास ‘पीपलकी’ हूण गुर्जरों का प्रसिद्ध गाँव हैं, जोकि अपनी बहादुरी के लिए जाना जाता हैं| अजमेर जिले में ‘नारेली’, ‘लवेरा’, ‘बासेली’, घोड़दा और ‘भेरूखेड़ा’ हूण गुर्जरों के मुख्य गाँव हैं| टोंक जिले में सरोली, ‘गांवडी’, ‘कल्याणपुर’, ‘बसनपुरा’, ‘चान्दली माता’ और ‘रंगविलास’ ग्रामो में हूण गुर्जरों का निवास हैं| गांवडी गाँव में हूण गुर्जरों का पूज्य एक सती मंदिर भी हैं| कहते हैं कि गांवडी में पहले तंवर गुर्जर रहते थे| इन्होने अपनी एक बेटी का विवाह भीलवाड़ा जिले के टीकर गाँव के हूण गुर्जर के साथ कर दिया| किसी कारण वश दोनों परिवारों में संघर्ष हो गया| जिसमे तंवर परिवार के दामाद की मृत्यु हो गई और उसकी पत्नी सती हो गई| बाद में हूण गुर्जर गाँव में आबाद हो गए और उन्होंने अपनी पूर्वजा की याद में सती मंदिर का निर्माण करवाया| हिण्डोली और बूंदी के कुछ हूण परिवार गांवडी से ही प्रव्रजन कर वहां बसे हैं|

कोटा-बूंदी का क्षेत्र पूर्व मध्य काल में हूण प्रदेश के नाम से जाना जाता था| बूंदी इलाके  में रामेश्वर महादेवभीमलत और झर महादेव हूणों के बनवाये प्रसिद्ध शिव मंदिर हैंबिजोलियाचित्तोरगढ़ के समीप स्थित ‘मैनाल’ कभी हूण राजा अन्गत्सी की राजधानी थीजहा हूणों ने तिलस्वा महादेव का मंदिर बनवाया थायह मंदिर आज भी पर्यटकों और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता हैंकर्नल टाड़ के अनुसार बडोलीकोटा में स्थित सुप्रसिद्ध शिव मंदिर हूणराज ने बनवाया था| आज भी इस इलाके में हूणों गोत्र के गुर्जरों  के अनेक गांव हैं बूंदी शहर के बालचंद पाड़ा मोहल्ले में भी हूण गुर्जरों की पुरानी आबादी हैं| बूंदी जिले में राणीपुरा, नरसिंहपुरा, रामपुरा, झरबालापुरा, सुसाडिया, नीम का खेडा, झाल jआदि हूण गुर्जरों के प्रसिद्ध गाँव हैं| हिण्डोली में नेहडी, सहसपुरिया, टरडक्या, टहला, सलावलिया और खंडिरिया हूण गुर्जरों के गाँव हैं| सती माँ का एक मंदिर ग्राम मांगटला, जिला भीलवाडा में हैं जोकि खंडिरिया, झाल, बूंदी शहर के बालचंद पाड़ा तथा नेहडी के कुछ हूण परिवार की कुल देवी हैं| नेहडी के अधिकांश हूण परिवारो की कुल देवी, सती माँ का मंदिर बूंदी जिले के खेरखटा ग्राम में हैं| कोटा जिले में ‘रोजड़ी’, राजपुरा और पीताम्बपुरा हूण गुर्जरों के मुख्य गाँव हैं|

चित्तोडगढ जिले की बेगू तहसील में ‘पारसोली’ हूण गुर्जरों का प्रमुख गाँव हैं| भीलवाड़ा जिले की जहाजपुर तहसील में टिटोडा. बरोदा,  मोतीपुरा मोहनपुरा और गांगीथला तथा शाहपुरा तहसील में ‘बच्छ खेड़ा’ हूण गुर्जरों के गाँव हैं|  भीलवाड़ा की केकड़ी तहसील में गणेशपुरा गाँव में हूण गुर्जर निवास करते हैं|

छठी शताब्दी के पूर्वार्ध में मध्य प्रदेश के  ग्वालियर क्षेत्र में हूणों का आधिपत्य था| हूण सम्राट मिहिरकुल के शासन काल के पंद्रहवे वर्ष का एक अभिलेख ग्वालियर के पास से एक सूर्य मंदिर से प्राप्त हुआ हैंग्वालियर जिले की डबरा तहसील में भारस हूण गुर्जरों का प्रमुख गाँव हैं| आज भी चंबल संभाग ग्वालियर तथा इसके समीपवर्ती जिलो के गुर्जर बाहुल्य अनेक गाँवो में हूण गुर्जरों की बिखरी  आबादी हैं| ग्वालियर की डबरा तहसील में भारस हूण गुर्जरों का मुख्य गाँव हैं| भरास के पास ही चपराना गुर्जरों का बडेरा गाँव हैं| दोनों गोंवो के लोग पग-पलटा भाई माने जाते हैं तथा आपस में शादी नहीं करते| मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले में नरवर के पास डोंगरी, और टिकटोली हूण गुर्जरों का प्रसिद्ध गाँव हैं| डोंगरी नल-दमयंती के पौराणिक आख्यान के पात्र मनसुख गुर्जर का गाँव माना जाता हैं| मनसुख हूण गोत्र का गुर्जर था तथा राजा नल का दोस्त था| मनसुख गुर्जर ने संकट के समय राजा नल का साथ निभाया था| आम समाज आज भी मनसुख गुर्जर को एक आदर्श दोस्त के रूप में देखता हैं| डोंगरी में एक किले के भग्नावेश भी हैं जोकि मनसुख गुर्जर का किला माना जाता हैं| भारत के प्रथम हूण सम्राट तोरमाण का अभिलेख मध्य प्रदेश के सागर जिले स्थित एरण स्थान से प्राप्त हुआ हैं| मध्य प्रदेश में हूण गुर्जर भोपाल तक पाए जाते हैं|

महाराष्ट्र के दोड़े गुर्जरों में हूण गोत्र हैं| खानदेश गजेटियर के अनुसार दोड़े गुर्जरों के 41 कुल हैं| इनमे से एक अखिलगढ़ के हूण हैं|

सन्दर्भ

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2. विलियम क्रुक,” इंट्रोडक्शन”, अनाल्स एंड एंटीक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, खंड I, ( संपा.) कर्नल टॉड
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5. एम. ए स्टीन (अनु.), राजतरंगिणी, खंड II प. 464
6. जे.एम. कैम्पबैलदी गूजर”बोम्बे गजेटियर, खण्ड IX, भाग 2, 1901, प. 501
7. ए. कुर्बनोव, दी हेप्थालाइटस: आरकिओलोजिकल एंड हिस्टोरिकल एनालिसिस ( पी.एच.डी थीसिस) बर्लिन 2010, प. 100n
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9. बी. एन. पुरी, हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहारनई दिल्ली, 1986, प. 12-13
10. डी. आर. भण्डारकरफारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन”, इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्डX L, 1911,प
11. खानदेश डिस्ट्रिक्ट गजेटियर