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Tuesday, February 19, 2013

1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में अवन्तिबाई की भूमिका ( Avanti Bai Lodhi )

डॉ. सुशील भाटी 

डॉ महीपाल सिंह 


भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के पूर्वाग्रहीत एवं त्रुटिपूर्ण लेखन के कारण बहुत से त्यागी, बलिदान, शहीदों और राष्ट्रनिर्माताओं को इतिहास के ग्रन्थों में उचित सम्मानपूर्ण स्थान नहीं मिल सका है। परन्तु ये शहीद और राष्ट्रनिर्माता जन-अनुश्रुतियों एवं जन-काव्यों के नायक एवं नायिकाओं के रूप में आज भी जनता के मन को अभीभूत कर उनके हृदय पर राज कर रहे हैं। उनका शोर्यपूर्ण बलिदानी जीवन आज भी भारतीयों के राष्ट्रीय जीवन का मार्गदर्शन कर रहा है।
अमर शहीद वीरांगना अवन्तिबाई लोधी भी एक ऐसी ही राष्ट्र नायिका हैं जिन्हें इतिहास में उचित स्थान प्राप्त नहीं हो सका है, परन्तु वे जन अनुश्रुतियों एवं लोककाव्यों की नायिका के रूप में आज भी हमें राष्ट्रनिर्माण व देशभक्ति की प्रेरणा प्रदान कर रही हैं। ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध उनके संघर्ष एवं बलिदान से सम्बन्धित ऐतिहासिक सामग्री समकालीन सरकारी पत्राचार, कागजातों व जिला गजेटियरों में बिखरी पड़ी है। इस ऐतिहासिक सामग्री का संकलन और ऐतिहासिक व्याख्या समय की माँग है।
पिछड़े लोधी/लोधा/लोध समुदाय में जन्मी यह वीरांगना लोधी समाज में बढ़ती हुई जागृति को प्रतीक बन गई है। पूरे भारत में लोधी समुदाय की आबादियों के बीच इनकी अनेक प्रतिमाएँ स्मारक के रूप में स्थापित हो चुकी हैं और यह कार्य निर्बाध गति से जारी है। अवन्तिबाई लोधी का इतिहास समाज में एक मिथक बन गया है।
इस शोध पत्र का उद्देश्य जन-अनुश्रुतियों एवं लोक साहित्य जन्य वातावरण से प्रेरणा प्राप्त कर लोधी के बलिदान को इतिहास के पटल पर अवतरित करना है।

अवन्तिबाई लोधी का जन्म 16 अगस्त सन् 1831 को ग्राम मनकेड़ी, जिला सिवनी के जमींदार श्री जुझार सिंह के परिवार में हुआ।1 जुझार सिंह का परिवार 187 गाँवों का जमींदार था।2 मनकेड़ी नर्मदा घाटी में एक छोटा-सा सुन्दर गाँव था। अवन्तिबाई का लालन-पालन एवं शिक्षा-दीक्षा मनकेड़ी ग्राम में ही हुई थी। बाल्यकाल में ही जुझार सिंह की इस सुन्दर कन्या ने तलवार चलाना और घुड़सवारी सीख ली थी। अवन्तिबाई बचपन से ही बड़ी वीर और साहासी थी और मनकेड़ी के जमींदार परिवार में बेटे की तरह पले होने के कारण शिकार करने का शौक भी रखती थी। अवन्तिबाई के जवान होने के साथ-साथ उसके गुणों और साहस की चर्चा समस्त नर्मदा घाटी में होने लगी।
जुझार सिंह ने अपनी बेटी के राजसी गुणों के महत्त्व को समझते हुए उसका विवाह सजातीय लोधी राजपूतों की रामगढ़ रियासत, जिला मण्डला के राजकुमार से करने का निश्चय किया। गढ़ मण्डला के पेन्शन याफ्ता गोड़ वंशी राजा शंकर शाह के हस्तक्षेप के कारण रामगढ़ के राजा लक्ष्मण सिंह ने जुझार सिंह की इस साहसी कन्या का रिश्ता अपने पुत्र राजकुमार विक्रम जीत सिंह के लिए स्वीकार कर लिया।3 सन् 1849 में शिवरात्रि के दिन अवन्तिबाई का विवाह राजकुमार विक्रम जीत सिंह के साथ हो गया और वह रामगढ़ रियासत की वधू बनी।4
अवन्तिबाई के इतिहास को आगे बढ़ाने से पहले रामगढ़ रियासत के इतिहास पर दृष्टि डालना अप्रासंगिक न होगा। रामगढ़ रियासत अपने चर्मोत्कर्ष के समय वर्तमान मध्य प्रदेश के मण्डला जिले के अन्तर्गत चार हजार वर्ग मील में फैली हुई थी, इसमें प्रताप गढ़, मुकुटपुर, रामपुर, शाहपुर, शहपुरा, निवास, रामगढ़, चौबीसा, मेहदवानी और करोतिया नामक दस परगने और 681 गाँव थे, जो सोहागपुर, अमरकंटक और चबूतरा तक फैले थे।5 इसकी स्थापना सन् 1680 ई० में गज सिंह लोधी ने की थी।6 प्रचलित किवदन्ति के अनुसार मोहन सिंह लोधी और उसके भाई मुकुट मणि ने गढ़ मण्डला राज्य में आतंक का पर्याय बन गये एक आदमखोर शेर को मार कर जनता को उसके भय से मुक्ति दिलाई थी, इस संघर्ष में मुकुट मणि भी मारे गए। गढ़ मण्डला के राजा निजाम शाह ने मोहन सिंह को इस बहादुरी से प्रसन्न होकर उसे अपना सेना पति बना लिया।7 मोहन सिंह के मृत्यु के बाद राजा ने उसके बेटे गज सिंह उर्फ गाजी सिंह को मुकुट पुर का ताल्लुका जागीर में दे दिया। गज सिंह ने गढ़ मण्डला के खिलाफ बगावत करने वाले दो गोंड भाईयों को मौत के घाट उतार दिया, इस पर राजा ने प्रसन्न होकर उसे रामगढ़ की जागीर और राजा की पदवी प्रदान की।8 कालान्तर में गज सिंह ने रामगढ़ की स्वतंत्रता की घोषणा कर पृथक राज्य की स्थापना की।
सन् 1850 में रामगढ़ रियासत के राजा लक्ष्मण सिंह की मृत्यु हो गई और राजकुमार विक्रम जीत सिंह गद्दी पर बैठे।9 राजा विक्रम जीत सिंह बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के थे और धार्मिक कार्यों में अधिक समय देते थे। कुछ समय के उपरान्त वे अर्धविक्षिप्त हो गए, उनके दोनों पुत्र अमान सिंह और शेर सिंह अभी छोटे थे, अत: राज्य का सारा भार रानी अवन्तिबाई लोधी के कन्धों पर आ गया। रानी ने अपने विक्षिप्त पति और नाबालिग पुत्र अमान सिंह के नाम पर शासन सम्भाल लिया। इस समय भारत मे गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी का शासन था, उसकी साम्राज्यवादी नीतियों के कारण विशेषकर उसकी राज्य हड़प नीति की वजह से देशी रियासतों में हा-हाकार मचा हुआ था। इस नीति के अन्तर्गत कम्पनी सरकार अपने अधीन हर उस रियासत को ब्रिटिश साम्राज्य में विलीन कर लेती थी जिसका कोई प्राकृतिक बालिग उत्तराधिकारी नहीं होता था। इस नीति के तहत डलहौजी कानपुर, झाँसी, नागपुर, सतारा, जैतपुर, सम्बलपुर इत्यादि रियासतों को हड़प चुका था। रामगढ़ की इस राजनैतिक स्थिति का पता जब कम्पनी सरकार को लगा तो उन्होंने रामगढ़ रियासत को 13 सितम्बर 1851 ई० में कोर्ट ऑफ वार्डसके अधीन कर हस्तगत कर लिया और शासन प्रबन्ध के लिए शेख मौहम्मद नामक एक तहसीलदार को नियुक्त कर दिया, राज परिवार को पेन्शन दे दी गई।10 इस घटना से रानी बहुत दु:खी हुई, परन्तु वह अपमान का घूँट पीकर रह गई। उसने अपने राज्य को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराने का निश्चय कर लिया। रानी उचित अवसर की तलाश करने लगी। मई 1857 में राजा विक्रम जीत सिंह का स्वर्गवास हो गया।
इस बीच 10 मई 1857 को मेरठ में देशी सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी। मेरठ में सदर कोतवाली में तैनात कोतवाल धन सिंह गुर्जर के नेतृत्व में मेरठ की पुलिस, शहरी और ग्रामीण जनता ने क्रान्ति का शंखनाद कर दिया।11 अगले दिन दिल्ली में मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को विद्रोही सैनिकों ने भारतवर्ष की क्रान्तिकारी सरकार का शासक घोषित कर दिया। मेरठ और दिल्ली की घटनाएँ सब तरफ जंगल की आग की तरह फैल गई और इन्होंने पूरे देश का आन्दोलित कर दिया।
मध्य भारत के जबलपुर मण्डला परिक्षेत्र में आने वाले तूफान के प्रथम संकेत उसके आगमन से कम से कम छ: माह पूर्व दृष्टिगोचर होने लगे थे। जनवरी 1857 से ही गाँव-गाँव में छोट-छोटी चपातियाँ रहस्मयपूर्ण तरीके से भेजी जा रही थी। ये एक संदेश का प्रतीक थी जिसमें लोगों से उन पर आने वाली आकस्मिक भयंकर घटना के लिए तैयार रहने के लिए कहा गया था। मई के प्रारम्भ से ही ऐसी कथाएँ प्रचलित थीं कि शासन के आदेश से घी, आटा तथा शक्कर में क्रमश: सुअर की चर्बी, गाय का रक्त एवं हड्डी का चूरा मिलाया गया है।12 लोग यह समझते थे कि सरकार उनका धर्म भ्रष्ट करना चाहती है।
मध्य भारत के देशी रजवाडों के शासक एवं पूर्व शासक कानपुर में नाना साहब एवं तात्या टोपे के सम्पर्क में थे,13 क्षेत्रीय किसान उनके प्रभाव में थे और देशी सैनिक उनकी तरफ नेतृत्व के लिए देख रहे थे। जबलपुर परिक्षेत्र में क्रान्ति की एक गुप्त योजना बनाई गई जिसमें देशी राजा, जमींदार और जबलपुर, सलीमानाबाद एवं पाटन में तैनात 52 वी रेजीमेन्ट के सैनिक शामिल थे। इस योजना में गढ़मण्डला के पूर्व शासक शंकर शाह, उनका पुत्र रघुनाथ शाह, रामगढ़ की रानी अवन्तिबाई लोधी, विजयराघवगढ़ के राजा सरयु प्रसाद, शाहपुर के मालगुजार ठाकुर जगत सिंह, सुकरी-बरगी के ठाकुर बहादुर सिंह लोधी एवं हीरापुर के मेहरबान सिंह लोधी एवं देवी सिंह शामिल थे।14 इनके अतिरिक्त सोहागपुर के जागीरदार गरूल सिंह, कोठी निगवानी के ताल्लुकदार बलभद्र सिंह, शहपुरा का लोधी जागीरदार विजय सिंह और मुकास का खुमान सिंह गोंड विद्रोह में शामिल थे। रीवा का शासक रघुराज सिंह भी विद्रोहियों के साथ सहानुभूति रखता था।15 वयोवृद्ध 70 वर्षीय राजा शंकर शाह को मध्य भारत में क्रान्ति का नेता चुना गया।16 रानी अवन्तिबाई ने भी इस क्रान्तिकारी संगठन को तैयार करने में बहुत उत्साह का प्रदर्शन किया। क्रान्ति का सन्देश गाँव-गाँव पहुँचाने के लिए अवन्तिबाई ने अपने हाथ से लिखा पत्र किसानों, देशी सैनिकों, जमींदारों एवं मालगुजारो को भिजवाया, जिसमें लिखा था-
देश और आन के लिए मर मिटो
या फिर चूडियाँ पहनों।
तुम्हें धर्म और ईमान की
सौगन्ध जो इस कागज
का पता दुश्मन को दो।17
सितम्बर 1857 के प्रारम्भ में ब्रिटिश शासन के पास इस बात के प्रमाण उपलब्ध थे कि कुछ सैनिकों और ठाकुरों ने कार्यवाही करने की योजना बनाई थी। योजना यह थी कि क्षेत्रीय देशी राजाओं और जमींदारों की सहायता से पर्याप्त सेना इक्कठी की जाये तथा मोहरर्म के पहले दिन छावनी पर आक्रमण किया जाये।18 पर यह योजना क्रियान्वित नहीं हो सकी। गिरधारीदास नाम के एक गद्दार ने योजना का भेद अंग्रेजों को बता दिया।19 ब्रिटिश सरकार ने एक चपरासी को फकीर के रूप में राजा शंकर शाह के पास भेजा, उसने राजा के सरल स्वभाव का लाभ उठाकर गुप्त योजना जान ली।20 लेफ्टिनेन्ट क्लार्क ने राजा शंकर शाह, उनके पुत्र रघुनाथ शाह तथा परिवार के अन्य 13 सदस्यों को बिना किसी कठिनाई के 14 सितम्बर 1857 को उनके पुरवा, जबलपुर स्थित हवेली से गिरफ्तार कर लिया।21 उनके घर से कुछ आपत्ति जनक कागजात भी प्राप्त हुए। एक कागज पाया गया जिसमें ब्रिटिश शासन को उखाड़ फैकने के लिए अराध्य देवता से प्रार्थना की गई थी।22 पिता पुत्र पर सैनिक न्यायालय ने सार्वजनिक रूप से राजद्रोह का मुकदमा चलाया और उन्हें दोषी मानते हुए उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। 18 सितम्बर 1857 को उन्हें तोप के मुँह से बाँधकर उड़ा दिया गया।23
राजा शंकर शाह के बलिदान से पूर मध्य भारत में उत्तेजना फैल गई और जनता में विद्रोह की भावना पहले से भी तीव्र हो गई। 24 देशी सिपाहियों की 52 वीं रेजीमेन्ट ने उसी रात जबलपुर में विद्रोह कर दिया, शीघ्र ही यह विद्रोह पाटन और सलीमानाबाद छावनी में भी फैल गया। संकट की घडी में मध्य भारत के किसान और सैनिक एक कुशल और चमत्कारिक नेतृत्व की तलाश में थे। क्षेत्र के सामंत, जमींदार एवं मालगुजार भी असमंजस में थे। ऐसे में रानी अवन्तिबाई लोधी मध्य भारत की क्रान्ति के नेता के रूप में उभरी।
सर्वसाधारण जनता और समाज के अगुवा जमींदार और संभ्रान्त रानी के साहस और युद्धप्रियता से परिचित थे। विशेष रूप से रामगढ़ क्षेत्र के किसानों से रानी निकटता से जुड़ी थी और आम जनता उनसे प्रेम करती थी। क्षेत्र में क्रान्ति के प्रचार-प्रसार के लिए पूर्व में किये गये प्रयासों ने रानी अवन्तिबाई को क्रान्तिकारियों का वैकल्पिक नेता बना दिया। इस स्थिति में रानी ने अपने महत्त्व को समझते हुए स्वयं आगे बढ़कर क्रान्ति का नेतृत्व ग्रहण कर लिया। विजय राघवगढ़ के राजा सरयू प्रसाद, शाहपुर के मालगुजार ठा० जगत सिंह, सुकरी-बरगी के ठा० बहादुर सिंह लोधी एवं हीरापुर के महरबान सिंह लोधी ने भी रानी अवन्तिबाई का साथ दिया।25
सर्वप्रथम रानी ने रामगढ़ से ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त तहसीलदार को खदेड़ दिया और वहाँ की शासन व्यवस्था को अपने हाथों में ले लिया। सी०यू०विल्स अपनी पुस्तक "History of the Raj Gond Maharajas of Satpura Rangs" esa i`"B la[;k 106 ij fy[krs gSa] "when the news of Shankar Shas's execution reached the Mandla District, the Rani of Ramgarh, a subordinate Chiefship of the Raj Gond, broke into rebillion, drove the officials from Ramgarh and siezed the place in the name of her son.''26 रानी के विद्रोह की खबर जबलपुर के कमिश्नर को दी गई तो वह आबबूला हो उठा। उसने रानी को आदेश दिया कि वह मण्डला के डिप्टी कलेक्टर से भेट कर ले।27 अंग्रेज पदाधिकारियो से मिलने की बजाय रानी ने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। उसने रामगढ़ के किले की मरम्मत करा कर उसे और मजबूत एवं सुदृढ़ बनवाया।
मध्य भारत के विद्रोही रानी के नेतृत्व में एकजुट होने लगे अंग्रेज विद्रोह के इस चरित्र से चिंतित हो उठे। जबलपुर डिविजन के तत्कालीन कमिश्नर ने अपने अधिकारियों को घटनाओं को भेजे गए ब्योरे में लिखा है, राजा शंकर साहि की मृत्यु से क्रुद्ध एवं अपमानित लगभग 4000 विद्रोही रामगढ़ की विधवा रानी अवन्तिबाई तथा युवक राजा सरयू प्रसाद के कुशल नेतृत्व में नर्मदा नदी के उत्तरी क्षेत्र में सशस्त्र विद्रोह के लिए एकत्रित हो गए हैं।28 रानी अवन्तिबाई ने अपने साथियों के सहयोग से हमला बोल कर घुघरी, रामनगर, बिछिया इत्यादि क्षेत्रों से अंग्रेजी राज का सफाया कर दिया। इसके पश्चात् रानी ने मण्डला पर आक्रमण करने का निश्चय किया। मण्डला विजय हेतु रानी ने एक सशक्त सेना लेकर मण्डला से एक किलोमीटर पूरब में स्थित ग्राम खेरी में मोर्चा जमाया। अंग्रेजी सेना में और रानी की क्रान्तिकारी सेना में जोरदार मुठभेड़ें हुई परन्तु यह युद्ध निर्णायक सिद्ध नहीं हो सका। मण्डला के चारों ओर क्रान्तिकारियों का जमावड़ा बढ़ता जा रहा था विशेषकर मुकास के ठा० खुमान सिंह का संकट अभी बरकरार था। अत: मण्डला का डिप्टी कमिश्नर वाडिंगटन भयभीत होकर सिवनी भाग गया।29 इस घटना के उपरान्त रानी अवन्तिबाई ने दिसम्बर 1857 से फरवरी 1858 तक गढ़ मण्डला पर शासन किया।
कैप्टन वाडिंगटन लम्बे समय से मण्डला का डिप्टी कमिश्नर था। वह अपनी पराजय का बदला चुकाने के लिए कटिबद्ध था। वह अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा पाने के लिए आतुर था। वाडिंगटन, लेफ्टीनेन्ट बार्टन एवं लेफ्टीनेन्ट कॉकबर्न ने अपने सैनिकों के साथ मार्च 1858 के अन्त में रामगढ़ की ओर कूच किया, उनकी सेना में इररेगुलर इन्फैन्ट्री, नागपुर इन्फैन्ट्री, 52 वी नेटिव इन्फैन्ट्री के सेनिक और स्थानीय पुलिस के जवान तथा मेचलॉक मैंनथे।30 26 मार्च 1857 को इन्होने विजय राघवगढ़ पर अधिकार कर लिया। राजा सरयू प्रसाद फरार हो गए। 31 मार्च को इन्होंने घुघरी को वापस प्राप्त कर लिया। शीघ्र ही इन्होंने नारायणगंज, पाटन, सलीमानाबाद में भी क्रान्तिकारियों को परास्त कर दिया और 2 अप्रैल 1858 को रामगढ़ पहुँच गए।31 
अंग्रेजी सेना ने रामगढ़ के किले पर दो तरफ से आक्रमण किया। लेफ्टीनेन्ट बार्टन और लेफ्टीनेन्ट कॉकबर्न ने नागपुर इन्फैन्ट्री के सैनिक और कुछ पुलिस के जवानों के साथ दाहिनी ओर से आक्रमण किया। कैप्टन वाडिंगटन स्वयं 52 वी नेटिव इन्फैन्ट्री के सेनिकों और कुछ पुलिस वालों के साथ बाईं ओर से बढ़ा।32 रानी अवन्तिबाई ने अपनी सेना जिसमें उसके सेनिक और किसान शामिल थे, के साथ जमकर अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया। परन्त अंगे्रजी सेना संख्या बल एवं युद्ध सामग्री की दृष्टि से रानी की सेना से कई गुना शक्तिशाली थी अत: स्थिति के भयंकरता को देखते हुए रानी ने किले के बाहर निकल कर देवहर गढ़ की पहाडियों में छापामार युद्ध करना उचित समझा।33 रानी के रामगढ़ छोड़ देने के बाद अंगे्रजी सेना ने अपनी खीज रामगढ़ के किले पर उतारी और किले को बुरी तरह ध्वस्त कर दिया।
देवहर गढ़ के जंगलों में रानी ने अपनी बिखरी हुई सेना को फिर से एकत्रित किया। उसे रीवा नरेश से भी सैन्य सहायता की आशा थी परन्तु उसने अंग्रेजों का साथ दिया। देवहर गढ़ के जंगलों में रानी इस सेना के जमावड़े का जब वाडिंगटन को पता चला तो उसने तब तक आगे बढ़ने का निर्णय नहीं लिया जब तक कि रीवा नरेश की सेना अंग्रेजों की मदद के लिए नहीं आ गई। रीवा की सेना पहुँचने पर 9 अप्रैल 1858 को देवहरगढ़ के जंगल में भयंकर युद्ध हुआ, 34 जिसमें अंग्रेजों ने अन्तत: रानी की सेना का चारों ओर से घेर लिया। रानी के सैकड़ों सैनिक बलिदान हो गए, क्रान्तिकारियों की संख्या घटती जा रही थी। रानी ने अपनी पूर्वजा रानी दुर्गावती का अनुसरण करते हुए, शत्रुओं द्वारा पकड़े जाने से श्रेयष्कर अपना आत्म बलिदान समझा और स्वयं अपनी तलवार अपने पेट में घोप कर शहीद हो गई।  
रानी अवन्तिबाई लोधी एक धीर, गम्भीर, विदुषी वीर, एवं साहसी शासिका थी। उसमें एक प्रशासक एवं सेनापति के श्रेष्ठ गुण थे। उनमें साहस और बहादुरी के गुण बाल्यकाल से ही दृष्टिगोचर होने लगे थे। अपने पति के अधविक्षिप्त होने एवं उसकी मृत्यु के पश्चात् संकट की घड़ी में जिस कुशलता से उसने राजकाज सम्भाला वह उनके धैर्य का परिचायक है। अपने नेतृत्व के गुणों के कारण ही वे शंकर शाह एवं रघुनाथ शाह की शहादत के पश्चात् जबलपुर परिक्षेत्र क्रान्ति की वैक्लपिक नेत्री के रूप में उभरी और उन्होंने रामगढ़ एवं मण्डला को अंग्रेजी राज से मुक्त कराकर ब्रिटिश राज को कठिन चुनौती पेश की। उन्होंने चार महीने तक मण्डला पर शासन किया, उन्होंने अन्त तक अंग्रेजों के सामने समर्पण नहीं किया। मण्डला एवं रामगढ़ हार जाने पर भी वे देवहार गढ़ के जंगलों में छापामार युद्ध करती रहीं, जब तक कि अपनी आन की रक्षा के लिए स्वयं की शहादत न दे दी।


परिशिष्ट-

रामगढ़ राज्य की वंशावली

गज सिंह (संस्थापक, 1760-1782 ई०)


भूपाल सिंह (1782-1802 ई०)


हेमराज सिंह (1802-1824 ई०)


लक्ष्मण सिंह (1824-1850 ई०)


विक्रम जीत सिंह (1850- सितम्बर 1859 ई०)


अमान सिंह (1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय संरक्षिका रानी अवन्तिबाई)


परिशिष्ट-

मध्य भारत के सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक जीवन का
एक आधारभूत तत्व- लोधी समुदाय।

लोध/लोधा/ लोधी राजपूत भारत के विस्तृत क्षेत्र पर आबाद हैं। इनकी आबादी मुख्य रूप से दिल्ली, उ० प्र०, म० प्र०, राजस्थान के भरतपुर एवं म० प्र० से सटे हुए जिले, गुजरात के राजकोट और अहमदाबाद जिले, महाराष्ट्र, बिहार, उड़ीसा और बंगाल के मिदनापुर जिले में है। 1931 की जनगणना के अनुसार भारत में इनकी जनसंख्या 17,42,470 थी जो कि मुख्य रूप से संयुक्त प्रान्त, मध्य प्रान्त बरार और राजपूताना  आबाद थी। विलियम क्रुक आपनी पुस्तक दी ट्राइव एण्ड कास्टस ऑफ दी नार्थ-वैस्टर्न इण्डियामें लिखते है- लोधी पूरे मध्य प्रान्त में फैले हुए हैं और ये बुंदेलखण्ड से यहाँ आये हैं। नरवर, बुंदेलखण्ड में बसने से पहले ये लुधियाना, पंजाब के निवासी थे। बहुत से विद्वान लुधियाना को लोधियों का मूल स्थान मानते हैं।
आर० वी० रसेल और हीरालाल अपनी पुस्तक दी ट्राईव एण्ड कास्टस ऑफ सेन्ट्रल प्राविन्सेज ऑफ इण्डिया’, भाग-4 में लोधी जाति के विषय में लिखते हैं कि यह एक महत्त्वपूर्ण खेतिहर जाति है जो मुख्य रूप से विन्ध्याचल पर्वत के जिलों और नर्मदा घाटी में रहती है और वहाँ ये लोग वेन गंगा नदी की घाटी और छत्तीसगढ़ की खैरागढ़ रियासत तक फैले हुए हैं। लोधी उत्तर प्रदेश से आये और सेन्ट्रल प्राविन्सेज में भूमिपति हो गए। उन्हें ठाकुर की सम्मानजनक पदवी से सम्बोधित किया जाता है और खेती करने वाली ऊँची जातियों के समकक्ष रखा जाता है। दमोह और सागर जिलों में कई लोधी भू-स्वामी  मुस्लिम शासन के समय अर्धस्वतंत्र हैसियत रखते थे और बाद में उन्होंने पन्ना के राजा को अपना अधिपति मान लिया। पन्ना के राजा ने उनके कुछ परिवारों को राजा और दीवान की पदवी प्रदान कर दी थी। इनके पास कुछ इलाका होता था और ये सैनिक भी रखते थे।
डॉ० सुरेश मिश्र अपनी पुस्तक रामगढ़ की रानी अवन्तिबाईमें पृष्ठ 11 पर लिखते हैं कि "1842 के बुन्देला विद्रोह के समय सागर नर्मदा प्रदेश में जो विद्रोह हुआ था उसमें लोधी जागीरदारों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। इनमें नरसिंहपुर जिले के हीरापुर का हिरदेशाह और सागर जिले का मधुकर शाह प्रमुख थे।" ब्रिटिश सत्ता के प्रति लोधियों के विरोध की यह विरासत 1857 में और ज्यादा मुखर हुई और इसकी अगुआई रामगढ़ की रानी अवन्तिबाई ने की।
लोधी क्षत्रियों का भारतीय सभ्यता और संस्कृति के निर्माण में विशेष योगदान रहा है। मध्य और पूर्वी भारत में इस बहादुर और संघर्षशील समुदाय की घनी आबादियाँ विद्यमान है। भोगौलिक दृष्टि से यह क्षेत्र मुख्यतय विन्द्य परिसर के अन्तर्गत आता है। भारतीय समाज में विन्द्य परिसर एवं नर्मदा घाटी का बड़ा पौराणिक और ऐतिहासिक महत्त्व है, लोधी समुदाय इस पौराणिक और ऐतिहासिक परम्परा से अभिन्न रूप से जुड़ा है और इसके विकास का एक कारक है। पौराणिक रूप से विन्द्य परिसर और नर्मदा घाटी भगवान शिव से सम्बन्धित हैं और शिव भक्ति का एक केन्द्र हैं। नर्मदा नदी के उदगम स्थल, अमरकंटक को भगवान शिव का आदि निवास स्थान माना जाता है। मतस्य पुराण के अनुसार नर्मदा भगवान शिव की पुत्री है। मध्य भारत में आबाद लोध समुदाय भी मूलत: शिव भक्त है, सम्भवत: इसी कारण भगवान शिव का एक उपनाम लोधेश्वर (लोधो के ईश्वर) भी है। लोधी समुदाय की उत्पत्ति के विषय में एक दिलचस्प किवदन्ति प्रचलित है कि वे त्रिपुर के देवासुर संग्राम के समय भगवान शिव के द्वारा देवताओ की सहायता के लिए भेजे गए शिवगणों के वंशज हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि शिव उपासक लोधों की विशाल आबादी मध्य भारत में शैव सम्प्रदाय के विकास से जुड़ी है।
प्राचीन काल से ही मध्य भारत के समाज और राजनीति पर चन्द्र वंशी क्षत्रियों का वर्चस्व रहा है। इस वंश के आदि पूर्वज चन्द्र भी भगवान शिव से सम्बन्धित हैं और उनके केशों मे श्रंगार के रूप में विराजमान रहते हैं। इतिहास के कालक्रम में चन्द्र वंश की बहुत-सी शाखाएँ मध्य भारत की राजनीति पर छाई रही हैं, इनमें यदु वंश, हैहय वंश, चिदि वंश, चंदेल वंश, कलचुरी वंश एवं लोधी वंश प्रमुख हैं। विन्द्य परिसर में स्थित प्राचीन नगरी महिष्मती (वर्तमान में मण्डला), पूर्व-मध्यकाल में त्रिपुरी (तेवर, जबलपुर) एवं महोबा चन्द्रवंशीय क्षत्रियों की शक्ति के केन्द्र रहे हैं। मध्य भारत के छत्तीसगढ़ क्षेत्र में गौंड भी एक प्रमुख राजनैतिक शक्ति रहे हैं। मध्यकाल में चंदेलों, कलचुरियों, लोधियों एवं गौंडो में एक राजनैतिज्ञ तालमेल एवं सहयोग रहा है, जिसकी परिणति अनेक बार इन वंशों के शासकों के मध्य वैवाहिक सम्बन्धों में भी हुई। हम कह सकते हैं कि प्राचीन एवं पूर्व मध्य काल में लोधी समुदाय मध्य भारत में सामाजिक और राजनैतिक रूप से काफी सशक्त था।
मध्यकाल में भी लोधी समुदाय ने अपनी राजनैतिज्ञ प्रतिष्ठा को समाप्त नहीं होने दिया और हिण्डोरिया, रामगढ़, चरखारी (हमीरपुर, उ०प्र०), हीरागढ़ (नरसिंहपुर, म०प्र०), हटरी, दमोह (म०प्र०) आदि रियासतों और अद्र्ध स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना कर मध्य भारत की राजनीति में अपना विशिष्ट स्थान बनाए रखा।
वर्तमान काल में लोधी समुदाय मुख्यत: कृषि से जुड़ा है, देश को कृषि उत्पादों में आत्मनिर्भर बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहा है। लोधी समुदाय बहुत परिश्रमी स्वभाव का है और कृषि क्षेत्र में अपनी उत्पादकता के लिए प्रसिद्ध है। इस विषय में एक देहाती कहावत है कि गुर्जर 100 बीघे, जाट 9 बीघे और लोधी 2 बीघे के किसान बराबर उत्पादन करते हैं। अपनी मेहनत और लगन से लोधी किसान भारत का खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने में अपना योगदान कर रहे हैं।
वर्तमान काल में लोधियों में एक बार फिर राजनैतिक जागृति आ रही है और आज कुछ लोधी लोक सभा में और विधान सभाओं में पहुँच गए हैं। भाजपा के राम मन्दिर आन्दोलन में लोधी समुदाय और उनके नेताओं ने जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई वह किसी से छिपी नहीं है। लोधी समाज में फिर ऐसा नेतृत्व पैदा हो गया है जो समस्त समाज को दिशा प्रदान कर रहा है। लोधी वंश से कल्याण सिंह दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। मध्य भारत से सुश्री उमा भारती समाज को सशक्त नेतृत्व प्रदान कर रहे हैं। सुश्री उमा भारती भी मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। अत: वह समय दूर नहीं जब लोधी समुदाय एक बार फिर मध्य भारत को राजनैतिक क्षेत्र में प्रशंसनीय योगदान करेगा।

सन्दर्भ
1.     खेम सिंह वर्मा, लोधी क्षत्रियों का वृहत इतिहास, बुलन्दशहर, 1994, पृष्ठ 96; गणेश कौशिक एवं फूल सिंह, वतन पर मिटी अवन्तिबाई, नवभारत 14-8-1994; थम्मन सिंह सरस’, अवन्तिबाई लोधी, साहित्य केन्द्र प्रकाशन, दिल्ली, 1995, पृष्ठ 46
2.    सुरेश मिश्र, रामगढ़ की रानी अवन्तिबाई, भोपाल, 2004, पृष्ठ 10
3.    थम्मन सिंह सरस’, वही, पृष्ठ 52-53
4.    वही, पृष्ठ 54
5.    वही, पृष्ठ 54
6.    वही, पृष्ठ 41
7.    हुकुम सिंह देशराजन, अमर शहीद वीरांगना रानी अवन्तिबाई, अलीगढ़, 1994
8.    सुरेश मिश्र, वही, पृष्ठ 12-13
9.    भरत मिश्र, 1857 की क्रान्ति और उसके प्रमुख क्रान्तिकारी, पृष्ठ 93
10.   वही, पृष्ठ 90, 91-93; थम्मन सिंह सरस, वही, पृष्ठ 61-64
11.   सुशील भाटी, 1857 की जनक्रान्ति के जनक धन सिंह कोतवाल, मेरठ 2002; मयराष्ट्र मानस, मेरठ; आचार्य दीपांकर, स्वाधीनता आन्दोलन और मेरठ, जनमत प्रकाशन मेरठ, 1993; Memorendom on Mutiny and outbreak in May 1857, by Major William, Commissioner of Military Police N.W. Prorinces, Allahabad, 15th Nov. 185; Meerut District Gazattier, Govt. Press, Allahabad, 1963
12.   डब्ल्यू० सी०, अस्र्कोइन, नेरेटिव ऑफ ईवेन्टस अटेन्डिंग द आउट ब्रेक और डिस्टरबेन्सज एण्ड द रेस्टोरेशन ऑफ अथारिटी इन दी सागर एण्ड नर्बदा टेरीटरीज इन 1857, कंटिका 5
13.   थम्मन सिंह सरस, वही, पृष्ठ 67-69
14.   गणेश कौशिक, वही
15.   सुरेश मिश्र, वही, पृष्ठ 15
16.   कौशिक गणेश, वही
17.   वही; हुकुम सिंह देशराजन, वही
18.   जबलपुर गजेटियर, 1972, पृष्ठ 9
19.   गणेश कौशिक, वही
20.   जबलपुर गजेटियर, पृष्ठ 94
21.   वही, पृष्ठ 95; भरत मिश्र, वही, पृष्ठ 176
22.   जबलपुर गजेटियर, पृष्ठ 95
23.   वही, पृष्ठ 95; भरत मिश्र, वही, पृष्ठ 176
24.   सुरेश मिश्र, वही, पृष्ठ 20
25.   गणेश कौशिक, वही; हुकुम सिंह देशराजन, वही
26.   वर्मा खेम सिंह, वही, पृष्ठ 98
27.   भरत मिश्र, वही, पृष्ठ 94
28.   जबलपुर पत्र व्यवहार केस की फाइल 10 और 33/1857 उद्धत खेम सिंह वर्मा, वही, पृष्ठ 98;
29.   सुरेश मिश्र, वही, पृष्ठ 28
30.   गणेश कौशिक, वही
31.   भरत मिश्र, वही, पृष्ठ 91, 94; गणेश कौशिक, वही
32.   वही
33.   वही; हुकुम सिंह देशराजन, वही; भरत मिश्र, वही पृष्ठ 94-95
34.   गणेश कौशिक, वही

                                                                                                  (Sushil Bhati, Mahipal Singh)

                                                                                           

Monday, February 18, 2013

हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना की नींव - सेनापति प्रताप राव गूजर ( Pratap Rao Gujar )


सुशील भाटी

Statue of Pratap Rao Gujar

इस ऐतिहासिक लेख का उदेशय  शिवाजी के प्रधान सेनापति (सरे नौबत) प्रताप राव गूजर का हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना में योगदान पर प्रकाश डालना है। 


मध्यकालीन भारत की बात है जब मुगल बादशाह औरंगजेब की धार्मिक असहिष्णुता की नीति के कारण भारत देश की समस्त गैर सुन्नी मुसलमान जनता विशेषकर हिन्दू जनता त्रस्त थी। औरंगजेब ने जजिया कर, इस्लामिक राज्य में रहने वाले गैर मुसलमानों से लिया जाने वाला भेदभावपूर्ण कर, फिर से हिन्दू जनता पर लगा दिया था। नए हिन्दू मन्दिरों के निर्माण और पुराने मन्दिरों की जीर्णोद्धार पर भी रोक लगा दी थी। औरंगजेब ने राजपूती राज्यों जोधपुर और मेवाड़ के अन्दरूनी मामलों में दखल देकर मुगल साम्राज्य में मिलाने का प्रयत्न किया। कश्मीर और अन्य क्षेत्रों में बलात् धर्म परिवर्तन कराकर हिन्दुओं को मुसलमान बनाया गया। इन परिस्थितियों में भारतीय जनमानस अपने आपको अपमानित, असहाय और हतोत्साहित अनुभव करने लगा। भारत की समस्त जनता, विशेषकर प्राचीन क्षत्रिय जातियो और कबीलों, जिनमें राजपूत, गूजर, जाट और अहीर प्रमुख थे, ने जगह-जगह संघर्ष प्रारम्भ कर दिये। महाराष्ट्र के मध्यकालीन सन्तों- नामदेव, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ एवं समर्थ गुरू रामदास ने मराठी समाज के सामने उंच-नीच के भेदभाव रहित समाज का प्रारूप रखा, फलस्वरूप महाराष्ट्र में अभूतपूर्व सामाजिक एकता का विकास हुआ। इस पृष्ठ भूमि में मुगलों के विरूद्ध अनेक विद्रोह हुए, लेकिन भारतीयों के जिस संघर्ष ने स्वतंत्रता संग्राम का रूप धारण कर लिया, वह था शिवाजी राजे के नेतृत्व में मराठों के द्वारा स्वराज्य की स्थापना के लिये संघर्ष। स्वराज्य निर्माण वास्तव में एक राज्य निर्माण से अधिक के भारतीयों के खोये पौरूष का पुर्ननिर्माण था। स्वराज्य निर्माण के लिए संघर्ष एक प्रकार से भारतीयों के अस्तित्व और स्वाभिमान का सवाल था।

अस्मिता के इस महासंग्राम में शिवाजी के अनेक सहयोगी और साथी थे, जिनमे एक विशिस्ष्ट स्थान है उनकी अश्व सेना के प्रधान सेनापति (सरे नौबत) प्रताप राव गूजर का। प्रताप राव गूजर का, शिवाजी के उत्कर्ष और स्वराज्य स्थापना में, अति महत्वपूर्ण योगदान इसी तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि शिवाजी के सन् 1674 में राज्यारोहण ठीक पहले के आठ वर्ष  (चिटनिस के अनुसार 12 वर्ष) प्रताप राव गूजर ही शिवाजी के प्रधान सेनापति थे। प्रताप राव ने सरे नौबत के रूप में एक विशाल, सुव्यवस्थित और कार्यकुशल सेना का निर्माण किया। यह अश्व सेना पहाड़ी क्षेत्रो के तंग रास्तों पर दौड़ने और पलटकर तीव्रगति से शत्रु सेना पर आक्रमण करने के लिए अभ्यस्थ थी, यह पल भर में बिखरकर पहाड़ी रास्तों में गायब हो जाती थी, दूसरे ही पल अचानक प्रकट होकर शत्रु को घेर लेती थी। प्रताप राव वास्तव में एक योग्य सामरिक योजनाकार और निपुण सेनानायक था। वह मुगलों और बीजापुरी सुल्तानों के विरूद्ध अनेक महत्वपूर्ण और निर्णायक युद्ध की जीत का नायक रहा। सिंहगढ़, सल्हेरी और उमरानी के युद्ध में उसकी बहादुरी और रणकौशल देखते ही बनता था। प्रताप राव के हैरत अंगेज जंगी कारनामों की मुगल और दख्खन के दरबारों में चर्चा थी।

प्रताप राव का वास्तविक नाम कुड़तो जी गूजर था, प्रताप राव की उपाधि उसे शिवाजी ने सरेनौबत (प्रधान सेनापति) का पद प्रदान करते समय दी थी। प्रताप का अर्थ होता है- वीर। एक अन्य मत के अनुसार यह उपाधि शिवाजी ने उसे मिर्जा राजा जय सिंह के विरूद्ध युद्ध में दिखाई गई वीरता के कारण सम्मान में दी थी। प्रताप राव गूजर ने अपने सैनिक जीवन का प्रारम्भ शिवाजी की फौज में एक मामूली गुप्तचर के रूप में किया था। एक बार शिवाजी वेश बदल कर सीमा पार करने लगे, तो प्रताप राव ने उन्हें ललकार कर रोक लिया, शिवाजी ने उसकी परीक्षा लेने के लिए भांति-भांति के प्रलोभन दिये, परन्तु प्रताप राव टस से मस नहीं हुआ। शिवाजी प्रताप राव की ईमानदारी, और कर्तव्य परायणता से बेहद प्रसन्न हुए। अपने गुणों और शौर्य सेवाओं के फलस्वरूप सफलता की सीढ़ी चढ़ता गया शीघ्र ही राजगढ़ छावनी का सूबेदार बन गया।

इस बीच औरंगजेब ने जुलाई 1659 में शाइस्तां खां को मुगल साम्राज्य के दख्खन प्रान्त का सूबेदार नियुक्त किया, तब तक मराठों का मुगलों से कोई टकराव नहीं था, वे बीजापुर सल्तनत के विरूद्ध अपना सफल अभियान चला रहे थे। औरंगजेब शिवाजी के उत्कर्ष को उदयीमान मराठा राज्य के रूप में देख रहा था। उसने शाइस्ता खाँ को आदेश दिया कि वह मराठों से उन क्षेत्रों को छीन ले जो उन्होंने बीजापुर से जीते हैं। आज्ञा पाकर शाईस्ता खां ने भारी लाव-लश्कर लेकर पूना को जीत लिया और वहां शिवाजी के लिए निर्मित प्रसिद्ध लाल महल में अपना शिविर डाल दिया। उसने चक्कन का घेरा डाल कर उसे भी जीत लिया, 1661 में कल्याण और भिवाड़ी को भी उसने जीत लिया।

प्रतिक्रिया स्वरूप शिवाजी ने पेशवा मोरो पन्त और प्रताप राव को अपने प्रदेश वापस जीतने की आज्ञा दी, मोरोपन्त ने कल्याण और भिवाड़ी के अतिरिक्त जुन्नार पर भी हमला किया। रेरी बखर व चिटनिस के वर्णन के अनुसार प्रताप राव गूजर ने मुगल क्षेत्रों में एक सफल अभियान किया। वह अपनी घुड़सवार सेना के साथ मुगलों के अन्दरूनी क्षेत्रों में घुस गया। मुगलों का समर्थन करने वाले गांव, कस्बों और शहरों को बर्बाद करते हुए वह गोदावरी तट तक पहुंच गया। प्रताप राव ने बालाघाट, परांडे, हवेली, गुलबर्गा, अब्स और उदगीर को अपना निशाना बनाया और वहां से युद्ध हर्जाना वसूल किया और अन्त में वह दख्खन में मुगलों की राजधानी औरंगाबाद पर चढ़ आया। महाकूब सिंह, औरंगाबाद में औरंगजेब का संरक्षक सेनापति था। वह दस हजार सैनिकों के साथ प्रताव राव का सामना करने के लिए आगे बढ़ा। अहमदनगर के निकट दोनों सेनाओं का आमना-सामना हो गया। मुगल सेना बुरी तरह परास्त हुई। प्रताप राव ने मुगल सेनापति को युद्ध में हराकर उसका वध कर दिया। इस सैनिक अभियान से प्राप्त बेशुमार धन-दौलत लेकर प्रताप राव वापस घर लौट आया, प्रताप राव के इस सैन्य अभियान से शाइस्ता खां की मुहिम को एक बड़ा धक्का लगा। उत्साहित होकर मराठों ने अब सीधे शाईस्ता खां पर हमला करने का निर्णय लिया।

मराठे, शिवाजी के नेतृत्व, में एक छद्म बारात का आयोजन कर उसके शिविर में घुस गये और शाइस्ता खां पर हमला कर दिया। शाइस्ता खां किसी प्रकार अपनी जान बचाने में सफल रहा परन्तु इस संघर्ष में शिवाजी की तलवार के वार से उसके हाथ की तीन ऊँगली कट गयी। इस घटना के परिणाम स्वरूप एक मुगल सेना अगली सुबह सिंहगढ़ पहुंच गयी। मराठों ने मुगल सेना को सिंहगढ़ के किले के नजदीक आने का अवसर प्रदान किया। जैसे ही मुगल सेना तापों की हद में आ गयी, मराठों ने जोरदार बमबारी शुरू कर दी। उसी समय प्रताप राव अपनी घुड़सवार सेना लेकर सिंहगढ़ पहुंच गया और मुगल सेना पर भूखे सिंह के समान टूट पड़ा, पल भर में ही मराठा घुड़सवारों ने सैकड़ों मुगल सैनिक काट डाले, मुगल घुड़सवारों में भगदड़ मच गयी, प्रताप राव गूजर ने अपनी सेना लेकर उनका पीछा किया। इस प्रकार मुगल घुड़सवार सेना मराठों की घुड़सवार सेना के आगे-आगे हो ली। यह पहली बार हुआ था कि मुगलों की घुड़सवार सेना का मराठा घुड़सवार सेना ने पीछा किया हो। सिंहगढ़ की लड़ाई में प्रताप राव गूजर ने जिस बहादुरी और रणकौशल का परिचय दिया, शिवाजी उससे बहुत प्रसन्न हुए। अपनी इस शानदार सफलता से उत्साहित प्रताव राव ने मुगलों की बहुत सी छोटी सैन्य टुकड़ियों को काट डाला और मुगलों को अपनी सीमा चौकियों को मजबूत करने के लिए बाध्य कर दिया।

 शाइस्ता खां इस हार और अपमान से बहुत शर्मिन्दा हुआ। उसकी सेना का मनोबल गिर गया। उनके दिल में मराठों का भय घर कर गया, शाइस्ता खां की इस मुहिम की विफलता से मुगलों की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गयी और उनका दख्खन का सूबा खतरे में पड़ गया। दख्खन में तनाव इस कदर बढ़ गया कि लगने लगा कि अब औरंगजेब स्वयं दख्खन कूच करेगा परन्तु कश्मीर और पश्चिमी प्रान्त में विद्रोह हो जाने के कारण वह ऐसा न कर सका। फिर भी उसने शाइस्ता खां को दख्खन से हटा कर उसकी जगह शहजादा मुअज्जम को दख्खन का सूबेदार बना दिया।

मराठों ने पूरी तरह मुगल विरोधी नीति अपना ली और 1664 ई० में मुगल राज्य के एक महत्वपूर्ण आर्थिक स्रोत, प्रसिद्ध बन्दरगाह और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के केन्द्र, सूरत शहर को लूट लिया। इस तीव्रगति के आक्रमण में शिवाजी के साथ प्रताप राव गूजर और मोरो पन्त पिंगले और चार हजार मावल सैनिक थे। सूरत की लूट से मराठों को एक करोड़ रूपये प्राप्त हुए जिसके प्रयोग से मराठा राज्य को प्रशासनिक और सैनिक सुदृढ़ता प्राप्त हुई। सूरत की लूट औरंगजेब सहन नहीं कर सका। इधर मराठों ने मक्का जाते हुए हज यात्रियों के एक जहाज पर हमला कर दिया। इस घटना ने आग में घी का काम किया और औरंगजेब गुस्से से आग-बबूला हो उठा। उसने तुरन्त मिर्जा राजा जय सिंह और दिलेर खां के नेतृत्व में विशाल सेना मराठों का दमन करने के लिए भेज दी। दख्खन पहुंचते ही दिलेर खां ने पुरन्दर का घेरा डाल दिया, जय सिंह ने सिंहगढ़ को घेर लिया और अपनी कुछ टुकड़ियों को राजगढ़ और लोहागढ़ के विरूद्ध भेज दिया। जय सिंह जानता था कि मराठों को जीतना आसान नहीं है, अत: वह पूर्ण तैयारी के साथ आया था। उसके साथ 80000 चुने हुए योद्धा थे। स्थित की गम्भीरता को देखते हुए शिवाजी ने पहली बार रायगढ़ में एक युद्ध परिषद् की बैठक बुलायी। संकट के इन क्षणों में प्रताप राव गूजर ने शिवाजी का भरपूर साथ दिया था। उसने एक हद तक मुगल सेना की रसद पानी रोकने में सफलता प्राप्त की और उसने बहुत सी मुगल टुकड़ियों को पूरी तरह समाप्त कर दिया। वह लगातार मुगल सेना की हलचल की खबर शिवाजी को देता रहा। संकट की इस घड़ी में प्रताप राव के संघर्ष से प्रसन्न होकर ही शिवाजी ने उसे सरे नौबत का पद और प्रताप राव की उपाधि प्रदान किया।

 शिवाजी युद्ध की स्थिति का जायजा लेकर, इस नतीजे पर पहुंचे कि जय सिंह को आमने-सामने की लड़ाई में हराना सम्भव नहीं है। अत: उन्होंने प्रताप राव गूजर को जय सिंह का वध करने का कार्य सौंपा। एक योजना के अन्तर्गत प्रताप राव जय सिंह के साथ मिल गये और एक रात मौका पाकर उन्होंने जय सिंह को उसके शिविर में मारने का एक जोरदार प्रयास किया परन्तु अंगरक्षकों के चौकन्ना होने के कारण जय सिंह बच गया। प्रताप राव गूजर शत्रुओं के हाथ नहीं पड़ा और वह शत्रु शिविर से जान बचाकर निकलने में सफल रहा। प्रताप राव का यह दुस्साहिक प्रयास भी स्वराज्य के काम न आ सका। जय सिंह से संधि की बातचीत शुरू कर दी गयी। जिसके परिणामस्वरूप 1665 में पुरन्दर की संधि हुई। सन्धि के अन्र्तगत शिवाजी को 23 महत्वपूर्ण दुर्ग मुगलों को सौंपने पड़े। बीजापुर के कुछ क्षेत्रों पर शिवाजी का अधिकार स्वीकार कर लिया गया। शिवाजी के पुत्र संभाजी को मुगल सेना में पांच हजारी मनसब प्रदान किया गया। शिवाजी ने बीजापुर के विरूद्ध मुगलों का साथ देने का वचन दिया।

परन्तु बीजापुर के विरूद्ध मुगल-मराठा संयुक्त अभियान सफल न हो सका। इस अभियान के असफल होने से मुगल दरबार में जय सिंह की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुंचा। अत: उसने औरंगजेब को अपना महत्व दर्शाने के लिए शिवाजी को उससे मिलाने के लिए आगरा भेजा। मुगल दरबार में उचित सम्मान न मिलने से शिवाजी रूष्ट हो गये और तत्काल मुगल दरबार छोड़ कर चले गये। औरंगजेब ने क्रुद्ध होकर उन्हें गिरफ्तार करा लिया। एक वर्ष तक शिवाजी आगरा में कैद रहे फिर एक दिन मुगल सैनिकों को चकमा देकर वह कैद से निकल गये और सितम्बर 1666 में रायगढ़ पहुंच गये। जब तक शिवाजी कैद में रहे स्वराज्य की रक्षा का भार पेशवा और प्रधान सेनापति प्रताप राव गूजर के जिम्मे रहा। शिवाजी की अनुपस्थिति में दोनों ने पूरी राजभक्ति और निष्ठा से स्वराज्य की रक्षा की।

आगरा से वापस आने के बाद शिवाजी तीन वर्ष तक चुप रहे। उन्होंने मुगलों से संधि कर ली। जिसके द्वारा पुरन्दर की संधि को पुन: मान्यता दे दी गयी और संभा जी को पांच हजारी मनसब प्रदान कर दिया गया। संभाजी अपने अपने पांच हजार घुड़सवारों के साथ दख्खन की मुगल राजधानी औरंगाबाद में रहने लगे। परन्तु कम उम्र होने के कारण इस सैन्य टुकड़ी का भार प्रताप राव गूजर को सौंप कर वापस चले आये। मुगल-मराठा शान्ति अधिक समय तक कायम न रह सकी। औरंगजेब को शक था कि शहजादा मुअज्जम शिवाजी से मिला हुआ है। उसने शहजादे को औरंगाबाद में मौजूदा प्रताप राव गूजर को गिरफ्तार कर उसकी सेना को नष्ट करने का हुक्म दिया। परन्तु सम्राट के हुक्म के पहुचने से पहले ही प्रताप राव गूजर अपने पांच हजार घुड़सवारों को लेकर औरंगाबाद से सुरक्षित निकल आया।

मराठों ने  मुगल प्रदेशों पर चढ़ाई कर दी। उन्होंने पुरन्दर की संधि के द्वारा मुगलों को सौंपे गये अनेक किले फिर से जीत लिये। 1670 में सिंहगढ़ और पुरन्दर सहित अनेक महत्वपूर्ण किले वापस ले लिये गये। 13 अक्टूबर 1670 को मराठों ने सूरत पर से हमला बोलकर उसे फिर लूट लिया। तीन दिन के इस अभियान में मराठों के हाथ 66 लाख रूपये लगे। वापसी में शिवाजी जब वणी-दिंडोरी के समीप पहुंचे तो उनका सामना दाऊद खान के नेतृत्व वाली मुगल सेना से हुआ। ऐसे में खजाने को बचाना एक मुश्किल काम था। शिवाजी ने अपनी सेना को चार भागों में बांट दिया। उन्होंने प्रताप राव के नेतृत्व वाली टुकड़ी को खजाने को सुरक्षित कोकण ले जाने की जिम्मेदारी सौंपी और स्वयं दाऊद खान से मुकाबले के लिए तैयार हो गये। मराठों ने इस युद्ध में मुगलों को बुरी तरह पराजित कर दिया। दूसरी और प्रताप राव खजाने को सुरक्षित निकाल ले गया।

सूरत से लौटकर प्रताव राव गूजर ने खानदेश और बरार पर हमला कर दिया। प्रताप राव ने मुगल क्षेत्र के कुंरिजा नामक नगर सहित बहुत से नगरों, कस्बों और ग्रामों को बर्बाद कर दिया। प्रताप राव गूजर के इस युद्ध अभियान का स्मरणीय तथ्य यह है कि वह रास्ते में पड़ने वाले ग्रामों के मुखियाओं से, शिवाजी को सालाना चौथनामक कर देने का लिखित वायदा लेने में सफल रहा। चौथ नामक कर मराठे शत्रु क्षेत्र की जनता को अपने हमले से होने वाली हानि से बचाने के बदले में लेते थे। इस प्रकार हम वह तारीख निश्चित कर सकते हैं जब पहली बार मराठों ने मुगल क्षेत्रों से चौथ वसूली की। यह घटना राजनैतिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण थी। इससे महाराष्ट्र में मराठों की प्रतिष्ठा में बहुत वृद्धि हुई। यह घटना इस बात का प्रतीक थी कि महाराष्ट्र मराठों का है मुगलों का नहीं।

 अंतत: मुगल सम्राट ने गुजरात के सूबेदार बहादुर खान और दिलेर खान को दक्षिण का भार सौंपा। इन दोनों ने साल्हेर के किले का घेरा डाल दिया। और कुछ टुकड़ियों को वहीं छोड़कर दोनों ने पूना और सूपा पर धावा बोल दिया। साल्हेर का दुर्ग सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण था। अत: शिवाजी इसे हर हाल में बचाने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे। शिवाजी सेना लेकर साल्हेर के निकट पहुंच गये। इस बात की सूचना मिलते ही दिलेर खां पूना से साल्हेर  की ओर दौड़ पड़ा और उसने शिवाजी द्वारा भेजे गये दो हजार मराठा घुड़सवारों को एक युद्ध में परास्त कर काट डाला। मराठों की स्थिति बहुत बुरी तरह बिगड़ गयी। शिवाजी ने मोरोपन्त पिंगले और प्रताप राव गूजर को बीस-बीस हजार घुड़सवारों के साथ साल्हेर पहुंचने का हुक्म दिया। मराठों की इन गतिविधियों को देखते हुए बहादुर खां ने इखलास खां के नेतृत्व में अपनी सेना के मुख्य भाग को प्रताप राव गूजर के विरूद्ध भेज दिया। युद्ध शुरू होने के कुछ समय पश्चात् ही प्रताप राव ने अपनी सेना को वापिसी का हुक्म दे दिया। मराठे तेजी के साथ पहाड़ी दर्रो और रास्तों से गायब होने लगे। उत्साही मुगल उनके पीछे भागे। पीछा करते हुए मुगल सेना बिखर गयी अब प्रताप राव ने तेजी से घूमकर मराठों को संगठित किया और दुगने वेग से हमला बोल दिया। मुगल सेना प्रताप राव के इस जंगी दांव से भौचक्की रह गयी। मुगल भ्रमित और भयभीत हो गये और उनमें भगदड़ मच गयी। इखलास खां ने मुगल सेना को फिर से संगठित करने की कोशिश की,  कुछ नई मुगल टुकड़ी भी आ गयी, घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया तभी मोरो पन्त भी अपनी सेना लेकर पहुंच गये। मराठों ने मुगलों को बुरी तरह घेर कर मार लगाई। मराठों ने मुगल सेना बुरी तरह रौंद डाली। कहते हैं कि मुगलों के सबसे बहादुर पांच हजार सैनिक मारे गये, जिनमं बाइस प्रमुख सेनापति थे। बहुत से प्रमुख मुगल यौद्धा घायल हुए और कुछ पकड़ लिये गये।

 साल्हेर के युद्ध में मराठों की सफलता अपने आप में एक पूर्ण विजय थी और इसका सर्वोच्च नायक था प्रताप राव गूजर। सलहेरी के युद्ध में मराठों को 125 हाथी, 700 ऊट, 6 हजार घोड़े, असंख्य पशु और बहुत सारा धन सोना, चांदी, आभूषण और युद्ध सामग्री प्राप्त हुई। साल्हेर की विजय मराठों की अब तक की सबसे बड़ी जीत थी। आमने-सामने की लड़ाई में मराठों की मुगलों के विरूद्ध यह पहली महत्वपूर्ण जीत थी। इसी जीत ने मराठा शौर्य की प्रतिष्ठा को चार चांद लगा दिया। इस युद्ध के पश्चात् दक्षिण में मराठों का खौफ बैठ गया। युद्ध का सबसे पहला असर यह हुआ कि मुगलों ने साल्हेर का घेरा उठा लिया और औरंगाबाद लौट गये।

1672 के अन्त में मराठों और बीजापुर में पुन: सम्बन्ध विच्छेद हो गये। अपने दक्षिणी क्षेत्रों की रक्षा की दृष्टि से मराठों ने पन्हाला को बीजापुर से छीन लिया। सुल्तान ने पन्हाला वापिस पाने के लिये बहलोल खान उर्फ अब्दुल करीम के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी। बहलोल खान ने पन्हाला का घेरा डाल दिया। शिवाजी ने प्रताप राव गूजर को पन्हाला को मुक्त कराने के लिये भेजा। प्रताप राव गूजर ने पन्हाला को मुक्त कराने के लिये एक अद्भुत युक्ति से काम लिया। प्रताप राव गूजर ने पन्हाला कूच करने के स्थान पर आदिलशाही राजधानी बीजापुर पर जोरदार हमला बोल दिया और उसके आसपास के क्षेत्रों को बुरी तरह उजाड़ दिया। उस समय बीजापुर की रक्षा के लिए वहां कोई सेना नहीं थी अत: बहलोल खान पन्हाला का घेरा उठाकर बीजापुर की रक्षा के लिए भागा। लेकिन प्रताप राव ने उसे बीच रास्ते में उमरानी के समीप जा घेरा। बहलोल खान की सेना की रसद रोक कर प्रताप राव ने उसे अपने जाल में फंसा लिया और उसकी बहुत सी अग्रिम सैन्य टुकड़ियों का पूरी तरह सफाया कर दिया। बहलोल खान ने हार मानकर शरण मांगी। प्रताप राव ने संधि की आसान शर्तो पर उसे जाने दिया। प्रताप राव पन्हाला को मुक्त कराकर ही संतुष्ट था परन्तु शिवाजी ने शत्रु पर दिखाई गई उदारता पर अपनी नाखुशी प्रकट की। शिवाजी गलत नहीं थे, यह बहुत जल्दी ही सिद्ध हो गया। क्योंकि जैसे ही प्रतापराव बरार पर आक्रमण करने के लिये दूर निकल गया, बहलोल खान पुन: अपनी सेना को संगठित कर पन्हाला की तरफ चल दिया। प्रताप राव खबर मिलते ही वापस लौटा और नैसरी के पास दोनों का आमना-सामना हो गया। प्रताप राव के पास मात्र 1200 सैनिक थे जबकि बहलोल खान की सेना में 15000 सैनिक थे। स्थिति को भांपते हुए शेष मराठा सेना खामोश रही, परन्तु अहसान फरामोश और कायर बहलोल खान को देखकर प्रताप राव अपने आवेग पर काबू न रख सका और वह बहलोल खान पर टूट पड़ा। मात्र 6 सैनिकों ने प्रताप राव का अनुसरण किया, वे बहुत साहस और वीरता से लड़े परन्तु शत्रु की विशाल सेना के मुकाबले लड़ते हुए सात वीर क्या कर सकते थे। अंतत: वे सभी वीरगति को प्राप्त हो गये। प्रताप राव की मृत्यु का सबसे अधिक दु:ख शिवाजी को हुआ। शिवाजी ने महसूस किया कि उन्होंने अपने बहादुर और विवसनीय सेनापति को खो दिया। प्रताप राव के परिवार से सदा के लिये नाता बनाए रखने के लिए उन्होंने अपने पुत्र राजाराम का विवाह उसकी पुत्री के साथ कर दिया। 

प्रताप राव गूजर और उसके छह साथियों के बलिदान की यह घटना मराठा इतिहास की सबसे वीरतापूर्ण घटनाओं में से एक है। प्रतापराव और उसके साथियों इस दुस्साहिक बलिदान पर प्रसिद्ध कवि कुसुमग राज ने ‘वेडात मराठे वीर दौडले सात'नामक कविता लिखी है जिसे प्रसिद्ध पार्व गायिका लता मंगेश्वर ने गाया है। प्रताप राव गूजर के बलिदान स्थल नैसरी, कोल्हापुर, महाराष्ट्र में उनकी याद में एक स्मारक भी बना हुआ है।  

प्रताप राव गूजर एक योग्य, वीर, साहसी, चतुर, देशभक्त, राजभक्त, स्वामीभक्त और कर्तव्यपरायण सेनानायक था। सरेनौबत के तौर पर उसमें एक योग्य संगठनकर्ता के गुण दिखलाई पड़ते हैं। शिवाजी के मुगल कैद में रहने के समय जिस प्रकार उसने स्वराज्य को संरक्षण प्रदान किया, वह उसकी हिन्दवी स्वराज्य के प्रति गहरी निष्ठा का अनुपम उदाहरण है। एक सेनानायक के तौर पर वह अहमदनगर, सिंहगढ़, सलहेरी और उमरानी के युद्धों का नायक था। प्रताप राव के नेतृत्व में ही मराठों ने मुगल घुड़सवार सेना को सिंहगढ़ के युद्ध में परास्त कर पहली बार पीछा किया था। प्रताप राव गूजर ही वह मराठा सेनापति था जिसने 1670 में मुगल क्षेत्रों से पहली बार स्वराज्य के लिय चौथ हासिल की थी। शिवाजी के कार्यकाल की सबसे भीषण और आमने-सामने की लड़ाई में मुगलों को सलहेरी के युद्ध में बुरी तरह परास्त करने का श्रेय भी प्रताप राव गूजर को ही प्राप्त है। हिन्दी स्वराज्य की खातिर उसने अपने प्राणों की बाजी लगाकर मुगल सेनापति जय सिंह को उसी के शिविर में हमला कर मारने का प्रयास किया। प्रताप राव गूजर अपनी अंतिम सांस तक हिन्दवी स्वराज्य के लिए संघर्षरत रहा और शिवाजी के राज्याभिषेक जून 1674 से कुछ माह पूर्व 1674 में, नैसरी के युद्ध में शहीद हो गया। इतिहासकार आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार यह घटना 5 मार्च 1674 तथा अन्य कुछ इतिहासकारों के अनुसार 24 फरवरी 1674 की हैं| प्रताप राव गूजर जैसे  वीर, साहसी और देशभक्त बिरले ही होते हैं। वास्तव में वह उस तत्व का बना था जिससे शहीद बनते हैं। हिन्दवी स्वराज्य की राह में उसका बलिदान स्मरणीय तथ्य है।  

                                                                सन्दर्भ ग्रंथ
1-    Nilkant, S                         -        A History of the Great Maratha
                                                          Empire, Dehradun, 1992

2.       Duff, Grant                      -        History of Marathas

3.       Sarkar, Jadunath             -        Shivaji

4.       Sarkar, Jadunath             -        Aurangzeb

5.       Elliot & Downson              -        Khafi Khan, History of India as
                                                          told by its own Historian Voll VII

6.       Scott, Waring                  -        History of Marathas

7.       Srivastav, Ashrivadilal       -        Bharat Ka Ithas

8.       Bhave, Prabhakar            -        Pratap Rao Gujar

9.       Divya, Agni                      -        Mahaprakrami Pratap Rao Gujar

10.     Ranadi, Mahadev Govind-           Rise of Maratha Power

                                                                                                       ( Sushil Bhati)

भड़ाना देश एवं वंश ( Bhadana Desh )

सुशील भाटी
                                                                                                                 
भारतीय इतिहास लेखन में बहुत से राजवंशों और समुदायों को अपेक्षित स्थान नहीं मिल पाया है। ऐसे राजवंशों का उल्लेख यदाकदा इतिहास के संदर्भ ग्रन्थों में मिल जाता है, परन्तु इनके संगठित एवं क्रमबद्ध इतिहास का प्रायः अभाव है। ऐसा ही एक राजवंश है, ‘भड़ाना वंश

भड़ाना जिन्हें सामान्य तौर पर समकालीन ग्रन्थों में भड़ानककहा गया है, ग्यारहवीं व बारहवीं शताब्दी में एक विस्तृत क्षेत्र पर शासन करते थे। भड़ानकमुख्य रूप से मथुरा, अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली क्षेत्र में निवास करते थे और यह क्षेत्र इनके राजनीतिक आधिपत्य के कारण भड़ाना देशअथवा भड़ानक देशकहलाता था। सम्भवतः भड़ानकों की बस्तियाँ दिल्ली के दक्षिण में फरीदाबाद जिले तक थीं, जहाँ आज भी ये बड़ी संख्या में निवास करते हैं। फरीदाबाद जिले में भड़ानों के बारह गांव आबाद हैं। इतिहासकार दशरथ शर्मा के अनुसार जब शाकुम्भरी के राजा पृथ्वीराज चौहान ने भड़ाना देश पर आक्रमण किया, उस समय पर इस राज्य की पूर्वी सीमा पर चम्बल नदी एवं कछुवाहों का ग्वालियर राज्य था,  पूर्वोत्तर दिशा में इसकी सीमाएँ यमुना नदी एवं गहड़वालों के कन्नौज राज्य तक थी। इसकी अन्य सीमाएँ शाकुम्भरी के चौहान राज्य से मिलती थी। भड़ाना या भड़ानक देश एक पर्याप्त विस्तृत राज्य था। स्कन्द पुराण के विवरण के अनुसार भड़ाना देश में 1,25,000 ग्राम थे। समकालीन चौहान राज्य में भी इतने ग्राम न थे।1

समकालीन विद्वान सिद्धसैन सूरी ने भी भड़ानक देश का लगभग यही क्षेत्र बताया है, उसने कहा है कि यह कन्नौज और हर्षपुर (शेखावटी में हरस) के बीच स्थित है। उसने कमग्गा (मथुरा के चालीस मील पश्चिम में कमन) और सिरोहा (ग्वालियर के निकट) का भड़ानक देश के पवित्र जैन स्थलों के रूप में उल्लेख किया है।2 सम्भवतः कमग्गा और सिरोहा इस राज्य के प्रमुख नगर थे। इनके अतिरिक्त अपभ्रंश पाण्डुलिपि ‘‘सम्भवनाथ चरित’’ के लेखक तेजपाल ने भड़ाना देश में स्थित श्रीपथ नगर का वर्णन किया है। इतिहासकार दशरथ शर्मा के अनुसार यह नगर इस राज्य की राजधानी था। इस श्रीपथ नगर की पहचान आधुनिक बयाना से की जाती है।3 इतिहासकारों के अनुसार पूर्व मध्यकालीन अपभ्रंश भाषा में भड़ानक को भयानया कहा गया है, और भयानया शब्द से ही उत्तर मध्यकाल में बयाना शब्द की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार से आधुनिक बयाना ही भड़ाना देश का केन्द्र बिन्दु था। बयाना से 14 मील दक्षिण में ताहनगढ़ का मजबूत किला स्थित है जो इस राज्य की रक्षा छावनी थी।

भड़ाना समुदाय के विषय में हमें अनेक समकालिक साहित्यिक एवं अभिलेखीय स्रोतों से जानकारी प्राप्त होती है। कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार सम्राट महिपाल के दरबारी कवि राजशेखर ने अपने ग्रन्थ काव्यमीमांशामें उन्हें अपभ्रंश भाषा बोलने वाला कहा है। इस अपभ्रंश भाषा को सूरसेनी अपभ्रंश भी कहा जाता है, क्योंकि भड़ाना देश एवं प्राचीन सूरसेनी जनपद का क्षेत्र लगभग एक ही था। यह सूरसेनी अपभ्रंश ही आधुनिक ब्रजभाषा की जननी है।

भड़ानक या भड़ाना देश के राजनीतिक इतिहास के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है। सम्भवतः यह राज्य ग्यारहवीं एवं बारहवीं शताब्दी में स्थिर रहा। बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भड़ानकों का शाकुम्भरी के चौहानों से राजनीतिक संघर्ष चला। चौहान दिग्विजय की भावना से प्रेरित थे और उत्तर भारत में एक साम्राज्य का निर्माण करना चाहते थे। इसलिए उनका उत्तर भारत की अन्य राजनीतिक शक्तियों के साथ युद्ध अवश्यंभावी था। उस समय उत्तर भारत में कन्नौज के गहढ़वाल़, बुन्देलखण्ड के चन्देल, मालवा के परमार, गुजरात के सोलंकी एवं भड़ानक उत्तर भारत में प्रमुख राजनीतिक शक्ति थे। चौहानों का इन सभी से युद्ध हुआ परन्तु सम्भवतः सबसे पहले उनका युद्ध भड़ानकों के साथ ही हुआ।

चौहानों ने भड़ाना देश पर कम से कम दो बार आक्रमण किया। भड़ानकों पर प्रथम आक्रमण के विषय में हमें चौहान राजा सोमेश्वर के सन् 11690 के बिजौलिया अभिलेखसे पता चलता है। इस समय भड़ाना देश पर कुमार पाल प्रथम अथवा उसके उत्तराधिकारी अजय पाल का शासन था।4 अजय पाल एक शक्तिशाली एवं सम्प्रभुता सम्पन्न शासक था और वह महाराजाधिराज की उपाधि धारण करते था। उनके शासनकाल की जानकारी हमें उनकी महाबन प्रशस्ति (सन् 11500) से ज्ञात होती है। उनकी महाराजाधिराज की उपाधि से ऐसा प्रतीत होता है कि उनके अधीन अनेक छोटे राजा थे और वे एक विस्तृत क्षेत्र पर शासन करते थे। चौहानों और भड़ानकों में भीषण युद्ध हुआ परन्तु यह युद्ध निर्णायक साबित न हो सका, हालांकि बिजोलिया अभिलेख में चौहानों ने अपनी विजय का दावा किया है। अजयपाल के बाद हरिपाल भड़ाना राज्य का उत्तराधिकारी हुआ, एक अभिलेख के अनुसार 11700 में शासन कर रहा था।5

हरिपाल के पश्चात् साहन पाल उनका उत्तराधिकारी हुआ। उसका एक अभिलेख भरतपुर स्टेट के आघातपुर नामक स्थान से प्राप्त होता है। साहन पाल के शासन काल में चौहानों ने पृथ्वीराज तृतीय के नेतृत्व में दूसरी बार भड़ानकों पर आक्रमण किया। इस आक्रमण का उल्लेख समकालीन जैन विद्वान् जिनपाल ने 11820 में लिखित अपने ग्रन्थ खरतारगच्च पत्रावलीमें किया है। जैन विद्वान् ने भड़ानकों की शक्तिशाली गज सेना की प्रशंसा की है, वह लिखता है कि भड़ानकों ने अपनी शक्तिशाली गज सेना के साथ भीषण युद्ध किया।6 भड़ानक बहादुरी से लड़े परन्तु चौहान विजयी रहे। इस हार के कारण भड़ानों की शक्ति क्षीण होने लगी।

साहन पाल के पश्चात् कुमार पाल द्वितीय भड़ानक देश की गद्दी पर बैठा। वह इस राज्य का अन्तिम शासक था। उसके शासनकाल में सन् 11920 में मौहम्मद गौरी ने भड़ाना राज्य पर आक्रमण किया और त्रिभुवन नगरी को जीत लिया।7 इस आक्रमण से भड़ानक देश का पतन हो गया और कुछ समय पश्चात् हम बयाना को दिल्ली सल्तनत के अंग के रूप में देखते हैं।

भड़ाना राज्य की ज्ञात वंशावली में, कुमार पाल प्रथम (12वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध), महाराजाधिराज अजयपाल (11500), हरिपाल (11700), सोहन पाल (11960), कुमार पाल द्वितीय थे। भड़ाना राज्य का यदि मूल्यांकन किया जाये तो हम कह सकते हैं कि यह एक विस्तृत राज्य था जो कि दिल्ली के दक्षिण में अलवर, भरतपुर, मथुरा, करौली एवं धौलपुर क्षेत्र में फैला हुआ था। स्कन्द पुराणके अनुसार इसमें 1,25,000 ग्राम थे। इस राज्य का शासक महाराजाधिराज की उपाधि धारण करता था। भड़ानक राज्य की गणना समकालीन शक्तिशाली राज्यों से की जा सकती है। जैन विद्वान ने भड़ानों की शक्तिशाली गज सेना की प्रशंसा की है। भड़ानक राज्य दो शताब्दियों तक स्थिर रहा और उसने तत्कालीन भारतीय राजनीति को प्रचुर मात्रा में प्रभावित किया।

भड़ानक या भड़ाना राज्य के पतन हो जाने पर भी भड़ानकों की शक्ति पूरी तरह समाप्त नहीं हुई और वो आने वाले समय में भी अपने साहस और बहादुरी की पहचान बनाये रहे।

बारहवीं शताब्दी के अन्त में तराईन के द्वितीय युद्ध में चैहानों की तुर्कों से हार के फलस्वरूप उत्तर भारत में तुर्कों की सल्तनत की स्थापना हुई। तुर्क मध्य एशिया के निवासी थे और भारत में उनका शासन एक विदेशी शासन था। इस विदेशी शासन के प्रति भारतीयों ने अनेक विद्रोह किये। भड़ानकों अथवा भड़ानों ने भी संगठित होकर दो बार विदेशी सल्तनत का विरोध किया। समकालीन मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार सुल्तान बलबन (1246-840) के शासनकाल में दिल्ली के समीप मेवातियों और भड़ानकों ने जोरदार विद्रोह किया था। बलबन ने बड़ी निर्दयता एवं क्रूरता से इस विद्रोह का दमन किया, हजारों मेवाती और भड़ाने मारे गए। आज भी दिल्ली के दक्षिण में फरीदाबाद से लेकर भरतपुर तक मुस्लिम मेव व भड़ाने गूजरों की आबादी बहुसंख्या में है।

फरीदाबाद के भड़ानकों ने सुल्तान शेरशाह सूरी (1540-450) के शासन काल में दूसरी बार सशस्त्र विद्रोह किया। इस बार विद्रोह की कमान स्वयं भड़ानों के हाथों में थी। दिल्ली की सीमा के निकट फरीदाबाद जिले के पाली और पाखल  ग्रामों के भड़ानों ने इस विद्रोह में प्रमुख भूमिका निभाई। पाली और पाखल के भड़ानों ने मजबूत गढियों का निर्माण कर अपने सैन्य संगठन को शक्तिशाली बना लिया था। भड़ानकों का साहस इतना बढ़ गया था कि उन्होंने दिल्ली के दरवाजों तक हमले किये। जिस समय शेरशाह सूरी दिल्ली की किले बन्दी कर उत्तर भारत में अपने पैर जमा रहा था उस समय भड़ानकों ने उसे बहुत परेशान किया। एक बार भड़ानकों ने शेरशाह के सैन्य शिविर पर छापा मार हमला बोल कर उसके हाथियों को छीन लिया और इन हाथियों को अरावली पहाडि़यों में छिपा दिया। जहाँ इन हाथियों को छिपाया गया था वह स्थान आज भी हथवाला के नाम से जाना जाता है। भड़ानकों में हाथियों के प्रति आसक्ति शायद उनकी गज सेना की परम्परा की देन थी। भड़ानकों के बढ़ते साहस ने सुल्तान को विचलित कर दिया। भड़ाना अपना खोया हुआ वैभव पाना चाहते थे। विद्रोह इतना शक्तिशाली था कि सुल्तान शेरशाह सूरी ने उसकी गम्भीरता को समझते हुए स्वयं शाही सेना की कमान सम्भाली और पाली और पारवल पर हमला बोल दिया। भड़ाने वीरता और साहस से लड़े परन्तु शाही सेना बहुत बड़ी और बेहतर रूप से संगठित थी, उसके पास तोपें थीं। अन्त में तोपों की सहायता से गढि़या गिरा दी गई। हजारों भड़ाने मारे गए। आर0बी0 रसैल ने इस विषय में लिखा है "The Gurjars of Pali and Pahal became exceedingly audacious while Sher Shah was fortifying Delhi and he marched to the hills and expelled them so that not a vestige was left."8पाली और पारवल ग्राम जिन्हें बाद में पुनः बसाया गया आज भी फरीदाबाद जिलें मौजूद हैं और वहाँ भड़ाना गोत्र के गुर्जर निवास करते हैं जिनकी जुबां पर आज भी उनके पूर्वजों के बलिदान की कहानी है।

1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में फरीदाबाद जिले के गुर्जरों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। फरीदाबाद और सोहना क्षेत्र के अन्य गुर्जरों के साथ भड़ाना गुर्जरों ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक क्रान्तिकारी घटनाओं को अंजाम दिया। क्रान्ति की विफलता के बाद अन्य देशभक्त गुर्जरों के साथ अनेक भड़ाना वीरों को भी फाँसी दी गई।

सन्दर्भ :

1.      Page no. 101-102, Early Chauhan Dynasty, Dashrath Sharma, Jodhpur, 1992.
2.      Catalogue of MSS in Pattan Bhandara I.G.Os, p. 156, Verse 22 as quoted by Dashrath Sharma.
3.      Ibid, page 102-103, Dashrath Sharma.
4.      See his Mohaban Prasasti of the year, V. 1207, Epigraphica India pp. 289ff and II 276ff.
5.      Epigraphica Indica Vol. II page 275.
6.      Page 28 Singhi Jain Granth Mala edition as quoted by Dashrath Sharma.
7.      Taj-ul-Ma sir, Ed. II, pp. 204-43 as quoted by Dashrath Sharma.
8.      Page no. 170, Tribe and Caste of Central Province, Vol. 3, by R.V. Russel, Landon, 1916.

                                                                                                                             ( Sushil Bhati )

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Sunday, February 17, 2013

गोधन पूजा और गोधन गीत ( Godhan Geet)

-डा. सुशील भाटी

 गोवर्धन अथवा गोधन पूजा का सम्बन्ध भगवान कृष्ण से हैं| भारत की शास्त्रीय परम्पराओ के अनुसार गोकुलवासियों को, भगवान इंद्र जनित बारिश और बाढ़ से, बचाने के लिए भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपने बाये हाथ की कनकी उंगुली पर उठा  लिया था और सभी गोकुलवासियों को पशुओ सहित उसके नीचे शरण देकर उनकी रक्षा की थी | तभी से गोवर्धन पर्वत की हर वर्ष पूजा की जाती हैं| भारत के अहीर, गुर्जर और जाट आदि किसान-पशुपालक चरवाहे समुदायों में यह त्यौहार विशेष लोकप्रिय हैं|

इतिहासकार केनेडी के अनुसार मथुरा के कृष्ण की बाल लीलाओ की कथाओ के जनक गुर्जर ही हैं| मथुरा इलाके में प्रचलित लोक मान्यताओ के अनुसार कृष्ण की प्रेमिका राधा बरसाना गांव की गुर्जरी थी और कृष्ण को पालने वाले नन्द बाबा और यशोदा माता भी गुर्जर थे| इबटसन कहता हैं कि पंजाब के गुर्जर नन्द मिहिर को अपना पूर्वज मानते हैं| रसेल के अनुसार मालवा इलाके की बड-गुर्जर खाप अपने को दूसरे गुर्जरों से बड़ा मानती हैं क्योकि वो अपने उत्पत्ति कृष्ण से मानते हैं| गुर्जरों और राजपूतो में पाए जाने वाले भाटी गोत्र की वंशावली भगवान कृष्ण के वंशज भाटी तक जाती हैं|

दक्षिणी एशिया में रहने वाला गुर्जर कबीला मूलतः एक पशुपालक अर्ध- घुमंतू चरवाहा समुदाय रहा हैं| इनके पूर्वज माने जाने वाले कुषाण और हूण कबीले भी पशुपालक घुमंतू चरवाहे थे| पश्चिमिओत्तर दक्षिणी एशिया से प्राप्त हूणों के सिक्को पर इनके राजा भैस के सींगो वाले मुकुट पहने दिखाई देते हैं| आज भी कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड के घुमंतू गुर्जर चरवाहे मुख्यतः भैस पलते हैं गाय नहीं| भगवान कृष्ण की मथुरा कुषाणों की भी राजधानी रही हैं| एक कुषाण/कसाना सम्राट का नाम वासुदेव था जोकि कनिष्क महान का पोता था| शासक कबीलो का लोक मान्यताओ में स्थान बना लेना एक स्वाभाविक प्रक्रिया हैं, इसलिए मथुरा इलाके में गुर्जरों को कृष्ण से जोड़ना अस्वाभिक नहीं हैं|

इस त्यौहार में घरों में गाय-भैंस के गोबर से गोवर्धन पर्वत की देव रुपी आकृति बनायी जाती हैं, जिसे गोधन कहते हैं| गोधन के ऊपर गोबर के बने हुए गाय-भैंस और ग्वाले भी रखे जाते हैं| गोधन के साथ हंडिया-पारे और दूध बिलोने की रही भी रखी जाती हैं| इसके पैरों की तरफ एक गोबर का  कुत्ता भी बनाया जाता हैं| शाम के वक्त वहाँ एक दिया जलाया जाता हैं| घर-कुनबे-गांव के लोग ग्वाले के रूप में इक्कट्ठे होकर गोधन के दोनों ओर खड़े हो जाते हैं| तब गोधन गीत गाया जाता हैं, उसके बाद गोधन की परिक्रमा करते हैं|

नीचे दिया गया गोधन गीत का प्रचलन बुलंदशहर जिले के गंगा किनारे पर बसे गुर्जरों के गांवों में हैं| गीत में गोधन के अलावा मांडू (ग्वालो के आंचलिक देवता) , राधिका (राधा) और भोजला (भोज) का भी ज़िक्र हैं| मांडू एक ग्वाला था जिसका पेट फाड़ कर क़त्ल कर दिया गया था, गंगा के किनारे इसका मंदिर बना हुआ हैं| राधिका कृष्ण की प्रेमिका राधा हैं| भोजला प्रसिद्ध गुर्जर प्रतिहार सम्राट भोज प्रतीत होता हैं, जिसे गुर्जरों अपने इस लोक गीत में स्थान दिया हैं| कहाँ रजा भोज कहाँ गंगू तेली लोक कहावत का प्रसिद्ध भोज भी यही गुर्जर-प्रतिहार सम्राट हैं|

गोधन गीत

गोधन माडू रे तू बड़ों
तोसू बड़ों ना रे कोये
गोधन उतरो रे पार सू
उतरो गढ़ के रे द्वारे
कल टिको हैं रे जाट क
तो आज गूजर के रे द्वारे

उठके सपूती रे पूज ल
गोधन ठाडो रे द्वारे
ठाडो हैं तो रे रहन द
गौद जडूलो रे पूते

गोधन पूजे राधिका
भर मोतियन को रे थारे
एक जो मोती रे गिर गयो
तो ढूंढे सवरे रे ग्वारे

कारी को खैला बेच क
ओझा लूँगी रे छुटाए
इतने प भी न छुटो
तो बेचू गले को रे हारे

कारी-भूरी रे झोटियाँ
चलती होड़ा रे होडे
कारी प जड़ दू रे खांकडो
भूरी प जड़ दू रे हाँसे

कैसो तो कई य रे भोजला
कैसी वाकि रे मोछे
भूरी मोछन को रे भोजला
हिरन सिंगाडी रे आँखे

बंगरी बैठो रे मैमदो
मुड मुड दे रो रे असीसे
अजय विजय सुरेश इतने बाढियो
गंग-जमन के रे असीसे  
छोटे-बड्डे इतने रे बाढियो
गंग-जमन के रे नीरे


(स्त्रोत गोधन गीत- जैसा श्री नरेश नागर एवं श्री रोहित नागर  ने बताया)