डा. सुशील भाटी
प्राचीन भारत के इतिहास लेखन में वैदिक आर्यों के योगदान
को अधिकाधिक स्थान दिया गया है। अधिकांश इतिहासकार वैदिक आर्यों को भारतीय इतिहास धारा
के एक मात्र नेता के रूप मे प्रस्तुत करते हैं| वे वैदिक साहित्य को समस्त
ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता और संस्कृति का स्रोत मानते हैं। इस कारण से भारत जैसे बहुनस्लीय,
बहुभाषायी,
बहुसांसकृतिक और बहुधार्मिक
देश में अधिकांश जनसंख्या बिना किसी ऐतिहासिक उपलब्धि के दीन-हीन दिखायी देती है। वस्तुतः
भारत की निचली और मध्यम कही जाने वाली अधिकांश जातियाँ समाज में बेहतर पहचान के लिए
प्रयासरत हैं| वे ने केवल संस्कृतिकरण के दौर से गुजर रही है बल्कि वे अपने आप को शुद्धतम
आर्य साबित करने की होड़ में भी लगे हैं।
इस नस्लीय एवं सांस्कृतिक पूर्वाग्रह ने प्राचीन भारत
के इतिहास को विकृत कर दिया हैं|
और प्राचीन भारत का इतिहास लेखन विभिन्न जाति वर्गों
को सदृश करने का औजार बन गया है। इस
प्रकार का इतिहास लेखन बहुसंख्यक भारतीयों को ऐतिहासिक रूप से महत्वहीन और उपलब्ध विहीन
साबित करता है, अतः यह भारतीय राष्ट्र एवं लोकतन्त्र को कमजोर करने वाला है। यदि हम
भारत को एक मजबूत लोकतान्त्रि राष्ट्र के रूप में देखना हैं तो हमें प्राचीन भारत के
इतिहास के आर्यीकरण की प्रवृति से बचना होगा।
नर्मदा नदी के दक्षिण के लोग अपने को द्रविण कहते है
और वहाँ अपने को आर्य कहने वाले लोग गिनती के हैं| इसी प्रकार उत्तर-पूर्व के सात राज्यो
में मोंगलोइड नस्ल के लोग हैं। उत्तर भारत में भी अनुसूचित जाति और जनजाति के
अधिकतर लोग, जो कुल जनसंख्या का लगभग 21 प्रतिशत है, ‘भूमध्य सागरीय’ और ‘प्रोटो-ऑस्ट्रोलोइड’ नृवंश के माने जाते हैं| कर्नल टाड, वी. ए. स्मिथ, विलियम
क्रुक आदि इतिहासकार जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उ0प्र0 और पश्चिमी म0प्र0 के बसी हुई जाट, गूजर आदि जातियों को मध्य एशिया से आये सीथयनो –शको, कुषाणों और हूणों का वंशज मानते है।
1901 की जन गणना में हबर्ट रिजले
ने आर्यवृत्त का हृदय प्रदेश कहे जाने वाले पूर्वी उ0प्र0 एवं बिहार के निवासियों को आर्यों-द्रविण
यानि आर्य और द्रविण का समिश्रण कहा है। भारतीय सन्दर्भ में बी0 एस0 गुहा का नस्लीय वर्गीकरण
सर्वाधिक मान्य है। गुहा ने अपने वर्गीकरण में भारत की जनसंख्या को 6 नस्लों (Races) में बांटा है लेकिन उसमें
आर्य नस्ल का जिक्र तक नहीं किया है।
आधुनिक मानवशास्त्री और कुछ प्रमुख इतिहासविद्व आर्य
को एक नस्ल नहीं बल्कि एक ‘भाषायी समूह’ मानते हैं। जिसमे यूरोप की अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, रूसी
आदि तथा मध्य एशियाई भाषाए, ईरानी और उत्तर भारत की भाषाए आदि आती हैं| वर्तमान मे
‘इण्डो-आर्यन’ शब्द का अर्थ उत्तर भारत में संस्कृत
मूल की अथवा उससे प्रभावित भाषाए बोलने वाले लोगों के लिए जाता है। किन्तु नयी
अवधारणाओ के बावजूद आर्य नस्ल की श्रेष्ठता का पूर्वाग्रह अधिकतर इतिहासकारो के मन
में जगह बनाए हुए है। जिसका प्रभाव इतिहास लेखन पर पड़ रहा है। प्राचीन भारत के इतिहास
लेखन में नस्लीय और सांस्कृतिक पूर्वाग्रह के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
1. भारतीय इतिहासकार आज तक भी यह लिखने-कहने में कतराते हैं कि
भारत के किस समुदाय या वर्ग ने सिन्धु घाटी की सभ्यता का निर्माण किया? दक्षिण भारतीय द्रविणों और
उत्तर भारत की अनुसूचित जातियों और जनजातियों का इस सभ्यता से जो ऐतिहासिक जुड़ाव रहा
हैं उस पर पूर्ण प्रकाश पड़ना अभी बाकी है।
2. लगभग 100 ई. पू, से 550 ई. तक मध्य एशिया से भारत में प्रवेश करने वाले शक,
कुषाण और हूण कबीलो
ने भारत में बहुत से राज्यों और साम्राज्यों का निर्माण किया| यह
जानते हुए भी कि पश्चिमोत्तर भारत की एक बड़ी जनसंख्या इन कबीलों की वंशज है, इन्हे
विदेशी मानना कहाँ तक न्यायोचित है? इसी पूर्वाग्रह के चलते कुषाण साम्राज्य और सम्राट कनिष्क
को भारतीय इतिहास में उचित स्थान नहीं मिल सका है। इसी देशी-विदेशी की भावना के कारण
हूणों को भारतीय इतिहास में मात्र खलनायक के रूप में चित्रित किया जाता रहा है। भारतीय
जनसंख्या और सभ्यता के विकास में इन कबीलों के योगदान की बहुदा अनदेखी की गई है। गुप्तों
से लगभग दुगने साम्राज्य पर उनसे अधिक समय तक राज्य करने वाले कुषाणों के समय को कुषाण
काल नहीं कहा जाता, जैसे मोर्य काल या गुप्त काल| बल्कि इस
मोर्योत्तर काल में समाहित किया जाता है। जबकि कुषाण साम्राज्य आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनैतिक उपलब्धियों
में गुप्त साम्राज्य से कमतर नहीं है। इस प्रकार हूणों ने एक साम्राज्य के रूप में
उत्तर भारत पर 50 वर्षों तक शासन किया, उन्हें महज विदेशी आक्रमणकारी कहकर गुप्तोत्तर काल में समाहित
कर दिया जाता है।
3. अधिक उपलब्धिपूर्ण मोर्य एवं कुषाण काल की उपेक्षा कर गुप्त
काल को ‘प्राचीन भारत का स्वर्ण
काल’ कहा जाना भी एक पूर्वाग्रह
है।
4. हर्षवर्धन को अंतिम हिन्दू सम्राट कहना भी निराधार है। हर्षवर्धन
बोद्ध था| हर्षवर्धन के बाद गुर्जर-प्रतिहारों ने उत्तर भारत में हर्षवर्धन से अधिक
विस्तृत और स्थायी साम्राज्य का निर्माण किया। वस्तुतः गुर्जर सम्राट मिहिर भोज को
अंतिम हिन्दू सम्राट कहा जा सकता है| गुर्जर प्रतिहार सम्राटों की उपेक्षा के पीछे
भी यह कारण हो सकता है कि गुर्जरों को मध्य ऐशियाई खजर, हूण, कुषाण आदि कबीलों से जोड़ा जाता रहा
है, और वर्तमान में वे साधारण पशुपालक और किसान हैं।
व्यवसायिक समुदायों के आर्थिक पक्ष के साथ-साथ उनकी सामाजिक
और राजनैतिक भूमिका का अध्ययन भी आवश्यक है। यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि भारत के पहले
साम्राज्य, मगध साम्राज्य, का निर्माता नन्द वंश मूलतः नाई व्यवसायिक वर्ग से था।
प्राचीन भारत का इतिहास वैदिक आर्यों और उनकी परम्पराओं
के अतरिक्त अन्य नृवंशो के कार्यों का इतिहास
भी हैं। इतिहास में द्रविणों, किराटों, भीलों, मुंडा, संस्थालों, झीवरों, निषादों, सीथयनो, दासों, पासियों, जाटवों, आदि की उपलब्धियों और परम्पराओं को भी समुचित स्थान मिलना चाहिए।
वास्तव में इन समुदायों के इतिहास की उपेक्षा और अनदेखी हुई हैं।
उत्तर वैदिक काल के साहित्य में ही हमें द्रविड़,
मुंडा और किरात आदि लोगो का धर्म और संस्कृति पर प्रभाव दिखाई पड़ने लगता है। पुराणों
में इनके लोक देवता और मान्यताओं भी काफी मात्रा में है। वस्तुतः वैदिक हवन-यज्ञ के
इतर योग आदि धार्मिक परम्मपराएं मुख्यतः अनार्य प्रभाव की देन है, मोहनजोदड़ो से प्राप्त
योगी की मुहर इसी ओर इशारा करती है।
यदि हमें भारत को एक सशक्त लोकतान्त्रिक राष्ट्र बनाना
है तो हमें भारत की हर नस्ल, धर्म, भाषा, वर्ग, जाति और क्षेत्र की उपलब्धियों एवं योगदान को खुले मन से स्वीकार
कर इतिहास में स्थान देना होगा। जिससे की सभी समुदाय और वर्गों को ससम्मान राष्ट्रीय
एकता के सूत्र में पिरोया जा सके।
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