डा. सुशील भाटी
Emperor Kanishka Kushan/Kasana
यूँ तो भारत में सूर्य पूजा का प्रचलन सिन्धु घाटी की सभ्यता
और वैदिक काल से ही है, परन्तु ईसा की प्रथम शताब्दी में, मध्य एशिया से भारत आए, कुषाण कबीलों ने इसे यहाँ विशेष
रूप से लोकप्रिय बनाया। भारत में ‘शक संवत’ (78 ई0) का प्रारम्भ करने वाले कुषाण सम्राट
कनिष्ट की गणना भारत ही नहीं एशिया के महानतम शासकों में की जाती है। इसका
साम्राज्य मध्य एशिया के आधुनिक उजबेकिस्तान तजाकिस्तान, चीन के आधुनिक सिक्यांग एवं कांसू प्रान्त से लेकर अफगानिस्तान, पाकिस्तान और समस्त उत्तर भारत में बिहार एवं उड़ीसा तक फैला था।
कनिष्क ने देवपुत्र
शाहने शाही की उपाधि धारण की थी। भारत आने से पहले कुषाण ‘बैक्ट्रिया’ में शासन करते थे, जो कि उत्तरी अफगानिस्तान एवं
दक्षिणी उजबेगकिस्तान एवं दक्षिणी तजाकिस्तान में स्थित था और यूनानी एवं ईरानी
संस्कृति का एक केन्द्र था। कुषाण हिन्द-ईरानी समूह की भाषा बोलते थे और वे मुख्य
रूप से मिहिर (सूर्य) के उपासक थे। सूर्य का एक पर्यायवाची ‘मिहिर’ है, जिसका अर्थ है, वह जो धरती को जल से सींचता है, समुद्रों से आर्द्रता खींचकर बादल
बनाता है।
कुषाण सम्राट कनिष्क ने अपने सिक्कों पर,
यूनानी भाषा और
लिपि में मीरों (मिहिर) को उत्टंकित कराया था, जो इस बात
का प्रतीक है कि ईरान के सौर सम्प्रदाय भारत में प्रवेश कर गया था।ईरान में मिथ्र
या मिहिर पूजा अत्यन्त लोकप्रिय थी। भारत में सिक्कों पर सूर्य का अंकन किसी शासक
द्वारा पहली बार हुआ था। सम्राट कनिष्क के सिक्के में सूर्यदेव बायीं और खड़े हैं।
बांए हाथ में दण्ड है जो रश्ना सें बंधा है। कमर के चारों ओर तलवार लटकी है। सूर्य
ईरानी राजसी वेशभूषा में है। पेशावर के पास शाह जी की ढेरी
नामक स्थान पर कनिष्क द्वारा निमित एक बौद्ध स्तूप के अवशेषों से एक बक्सा प्राप्त
हुआ जिसे ‘कनिष्कास कास्केट’ कहते हैं, इस पर सम्राट कनिष्क के साथ सूर्य एवं
चन्द्र के चित्र का अंकन हुआ है। इस ‘कास्केट’ पर कनिष्क के संवत का प्रथम वर्ष अंकित है।
Kanishka's coin depicting Miiro |
मथुरा के सग्रहांलय में लाल पत्थर
की अनेक सूर्य प्रतिमांए रखी है, जो कुषाण काल (पहली से तीसरी
शताब्बी ईसवीं) की है। इनमें भगवान सूर्य को चार घोड़ों के रथ में बैठे दिखाया गया
है। वे कुर्सी पर बैठने की मुद्रा में पैर लटकाये हुये है। उनके दोनों हाथों में
कमल की एक-एक कली है और उनके दोनों कन्धों पर सूर्य-पक्षी गरूड़ जैसे दो छीटे-2 पंख लगे हुए हैं। उनका शरीर ‘औदिच्यवेश’ अर्थात् ईरानी ढंग की पगड़ी, कामदानी के चोगें (लम्बा कोट) और
सलवार से ढका है और वे ऊंचे ईरानी जूते पहने हैं। उनकी वेशभूषा बहुत कुछ, मथुरा से ही प्राप्त, सम्राट कनिष्क की सिरविहीन
प्रतिमा जैसी है। भारत में ये सूर्य की सबसे प्राचीन मूर्तियां है। कुषाणों से
पहली सूर्य की कोई प्रतिमा नहीं मिली है, भारत में उन्होंने ही सूर्य
प्रतिमा की उपासना का चलन आरम्भ किया और उन्होंने ही सूर्य की वेशभूषा भी वैसी दी
थी जैसी वो स्वयं धारण करते थे।
भारत में पहले सूर्य मन्दिर की
स्थापना मुल्तान में हुई थी जिसे कुषाणों ने बसाया था। पुरातत्वेत्ता एं0 कनिघम का मानना है कि मुल्तान का सबसे पहला नाम कासाप्पुर था और उसका
यह नाम कुषाणों से सम्बन्धित होने के कारण पड़ा। भविष्य, साम्व एवं वराह पुराण में वर्णन आता है कि भगवान कृष्ण के पुत्र
साम्ब ने मुल्तान में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना की थी। किन्तु भारतीय
ब्राह्मणों ने वहाँ पुरोहित का कार्य करने से मना कर दिया, तब नारद मुनि की सलाह पर साम्ब ने संकलदीप (सिन्ध) से मग ब्राह्मणों को
बुलवाया, जिन्होंने वहाँ पुरोहित का कार्य किया।
भविष्य पुराण के अनुसार मग ब्राह्मण जरसस्त के वंशज है, जिसके पिता स्वयं सूर्य थे और माता नक्षुभा ‘मिहिर’ गौत्र की थी। मग ब्राह्मणों के आदि पूर्वज जरसस्त का नाम, छठी शताब्दी ई0 पू0 में, ईरान में पारसी धर्म की स्थापना करने वाले जुरथुस्त से साम्य रखता
है। प्रसिद्ध इतिहासकार डी0 आर0 भण्डारकर (1911 ई0) के अनुसार मग ब्राह्मणों ने सम्राट कनिष्क
के समय में ही, सूर्य एवं अग्नि के उपासक पुरोहितों के
रूप में, भारत में प्रवेश किया। उसके बाद ही
उन्होंने कासाप्पुर (मुल्तान) में पहली सूर्य प्रतिमा की स्थापना की। इतिहासकार वी. ए. स्मिथ के अनुसार कनिष्क ढीले-ढाले रूप के ज़र्थुस्थ
धर्म को मानता था, वह मिहिर (सूर्य) और अतर (अग्नि) के अतरिक्त अन्य भारतीय एवं
यूनानी देवताओ उपासक था| अपने जीवन काल के अंतिम दिनों में बौद्ध धर्म में कथित
धर्मान्तरण के बाद भी वह अपने पुराने देवताओ का सम्मान करता रहा|
दक्षिणी राजस्थान में स्थित प्राचीन भिनमाल नगर में सूर्य देवता के
प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण काश्मीर के राजा कनक (सम्राट कनिष्क) ने
कराया था। मारवाड़ एवं उत्तरी गुजरात कनिष्क के साम्राज्य का हिस्सा रहे थे।
भिनमाल के जगस्वामी मन्दिर के अतिरिक्त कनिष्क ने वहाँ ‘करडा’ नामक झील का निर्माण भी कराया था। भिनमाल से सात कोस पूर्व ने
कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है। कहते है कि भिनमाल के
वर्तमान निवासी देवड़ा/देवरा लोग एवं श्रीमाली ब्राहमण कनक के साथ ही काश्मीर से
आए थे। देवड़ा/देवरा, लोगों का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि
उन्होंने जगस्वामी सूर्य मन्दिर बनाया था। राजा कनक से सम्बन्धित होने के कारण
उन्हें सम्राट कनिष्क की देवपुत्र उपाधि से जोड़ना गलत नहीं होगा। सातवी शताब्दी
में यही भिनमाल नगर गुर्जर देश (आधुनिक राजस्थान में विस्तृत) की राजधानी बना। यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि एक कनिघंम ने आर्केलोजिकल सर्वे
रिपोर्ट 1864 में कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से
की है और उसने माना है कि गुर्जरों के कसाना गौत्र के लोग कुषाणों के वर्तमान
प्रतिनिधि है। उसकी बात का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि गुर्जरों का कसाना
गोत्र क्षेत्र विस्तार एवं संख्याबल की दृष्टि से सबसे बड़ा है। कसाना गौत्र
अफगानिस्तान से महाराष्ट्र तक फैला है और भारत में केवल गुर्जर जाति में मिलता है।
कनिष्क ने भारत में कार्तिकेय की पूजा को आरम्भ किया और
उसे विशेष बढ़ावा दिया। उसने कार्तिकेय और उसके अन्य नामों-विशाख, महासेना, और स्कन्द का अंकन भी अपने सिक्कों पर
करवाया। कनिष्क के बेटे सम्राट हुविष्क का चित्रण उसके सिक्को पर महासेन 'कार्तिकेय' के रूप में किया गया हैं|आधुनिक पंचाग में सूर्य षष्ठी एवं कार्तिकेय जयन्ती एक ही दिन पड़ती है, कोई चीज है प्रकृति में जिसने इन्हें एक साथ जोड़ा है-वह है सम्राट
कनिष्क की आस्था। सूर्य षष्ठी के दिन सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क को भी याद किया
जाना चाहिये और उन्हें भी श्रद्धांजलि दी जानी चाहिये।
सन्दर्भ
1. भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय संस्कृति के स्त्रोत, नई दिल्ली, 1991,
2. रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य
पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिका, खंड-1 मेरठ,
2006
3. ए. कनिंघम
आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
4. के. सी.ओझा, दी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डिया, इलाहाबाद, 1968
5. डी. आर. भण्डारकर, फारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख), इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्ड X L 1911
6. जे.एम. कैम्पबैल, भिनमाल (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896
7. विन्सेंट ए. स्मिथ, दी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडिया, चोथा संस्करण,
दिल्ली, 1990
(Dr Sushil Bhati)
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