डॉ सुशील भाटी
अलबिरुनी (1031 ई.) की पुस्तक तह्कीके हिन्द के अनुसार
भारत के लोग ग्यारहवी शताब्दी में श्री हर्ष, बिक्रमादित्य,
शक, गुप्त या बल्लब का संवत प्रयोग करते थे|
अलबिरुनी लिखता हैं कि जहाँ तक गुप्त काल ‘संवत’ का सम्बन्ध हैं, वे लोग (गुप्त शासक), जैसा कि कहा जाता हैं, दुष्ट और शक्तिशाली थे और जब
वे ख़त्म हो गए, तब जनता ने इसे चलाया| अलबिरुनी के अनुसार
गुप्त और बल्लभ संवत (वल्लभी संवत) एक ही हैं, क्योकि प्राप्त सूचना के अनुसार
बल्लभ गुप्त वंश का अंतिम शासक था| बल्लभ अन्हिलवाडा के 30
योज़न दक्षिण में स्थित बल्लभ (वल्लभी) नगर का स्वामी था| अलबिरुनी
के अनुसार जो लोग बल्लभ के संवत को प्रयोग करते हैं, वो शक
संवत से 241 वर्ष घटा कर इसे प्राप्त करते हैं| बल्लभ गुप्तो
में अंतिम शासक था, इसलिए इसलिए गुप्त संवत का आरम्भ भी शक
संवत के 241 वर्ष बाद होता हैं|
अलबिरुनी ने 632 ई. में प्रारम्भ होने वाले ईरानी
यज्दजिर्द संवत वर्ष 400 के अनुरूप भारतीय संवतो के आगामी वर्षो का उल्लेख इस
प्रकार किया हैं – बिक्रमादित्य के संवत का वर्ष 1088,
शक संवत का वर्ष 953 तथा बल्लभ का संवत, जोकि
गुप्त संवत भी हैं, उसका वर्ष 712 |
अलबिरुनी ने तह्कीके हिन्द पुस्तक यज्दजिर्द संवत वर्ष
400 से एक वर्ष पूर्व अर्थात 632+399 = 1031 ई. में लिखी थी| अतः 1031 से 712 घटा कर गुप्त संवत का आरंभिक वर्ष 319 ई. प्राप्त होता
हैं| इसी प्रकार 1031 से 953 घटा कर शक संवत का आरंभिक वर्ष
78 ई. प्राप्त होता हैं|
अलबिरुनी के अनुसार गुप्त शासक भारतीय आम जन में
अलोकप्रिय थे| छठी शताब्दी के पूर्वार्ध में
गुप्तो का पतन हो गया| इनके पतन के लगभग 500
वर्ष बाद अलबिरुनी भारत आया तथा भारत में प्रचलित संवतो के विषय में जानकारी
जुटाते वक्त लोगो ने, उसे गुप्तो के विषय में प्रचलित धारणा
के विषय में, बताया कि गुप्त शासक दुष्ट और शक्तिशाली थे,
उनके शासन का अंत होने पर आमजन ने प्रसन्नता में गुप्त संवत चलाया| अतः अलबिरुनी के अनुसार गुप्तो के साम्राज्य के अंत से जनता को उनके
उत्पीडन से मुक्ति मिल गई तथा इस घटना को एक समय विभाजक रेखा तथा नए युग की शुरुआत
मानते हुए भारतीय जनमानस ने प्रसन्नता में गुप्त संवत आरम्भ किया| अलबिरुनी की गुप्तो की अलोकप्रियता के विषय में दी गई जानकारी को इस तथ्य
से भी बल मिलता हैं कि हर्षवर्धन (606-647 ई.) के दरबारी कवि बाणभट्ट ने भी अपनी
हर्षचरित नामक पुस्तक में मालवा के एक दुष्ट गुप्त राजा (दुरात्मा मालवराजेन) का
उल्लेख किया हैं| गुप्तो के शासन के 500 वर्ष बाद भी प्रचलित
उनकी अलोकप्रियता सम्बंधित, यह नकरात्मक जनधारणा, जिसका उल्लेख अलबिरुनी ने किया है, इतिहासकार वी. ए.
स्मिथ द्वारा प्रतिपादित इस संकल्पना का खंडन करती हैं कि ‘गुप्त
काल प्राचीन भारत का स्वर्ण युग हैं’ |
सन्दर्भ
1. जॉन ऍफ़ फ्लीट, कोर्पुस इनस्क्रिप्टशनम इन्डिकेरम खंड
III, कलकत्ता, 1888 प 17-40
2. डॉ शिवस्वरुप सहाय, भारतीय पुरालेखो का अध्ययन,
प 321
3. अपर्णा शर्मा, भारतीय संवतो का इतिहास,1994
4. उदय नारायण रॉय, गुप्त राजवंश तथा उनका युग, 1977
5. शिव कुमार गुप्ता, भारत का राजनैतिक इतिहास, 1999,
6. रामवृक्ष सिन्हा, गुप्तोत्तर कालीन राजवंश, 1982
No comments:
Post a Comment