-डा. सुशील भाटी
गोवर्धन अथवा गोधन पूजा का सम्बन्ध भगवान कृष्ण से हैं| भारत की शास्त्रीय परम्पराओ के अनुसार गोकुलवासियों को, भगवान इंद्र जनित बारिश और बाढ़ से, बचाने के लिए भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपने बाये हाथ की कनकी उंगुली पर उठा लिया था और सभी गोकुलवासियों को पशुओ सहित उसके नीचे शरण देकर उनकी रक्षा की थी | तभी से गोवर्धन पर्वत की हर वर्ष पूजा की जाती हैं| भारत के अहीर, गुर्जर और जाट आदि किसान-पशुपालक चरवाहे समुदायों में यह त्यौहार विशेष लोकप्रिय हैं|
इतिहासकार केनेडी के अनुसार मथुरा के कृष्ण की बाल लीलाओ की कथाओ के जनक गुर्जर ही हैं| मथुरा इलाके में प्रचलित लोक मान्यताओ के अनुसार कृष्ण की प्रेमिका राधा बरसाना गांव की गुर्जरी थी और कृष्ण को पालने वाले नन्द बाबा और यशोदा माता भी गुर्जर थे| इबटसन कहता हैं कि पंजाब के गुर्जर नन्द मिहिर को अपना पूर्वज मानते हैं| रसेल के अनुसार मालवा इलाके की बड-गुर्जर खाप अपने को दूसरे गुर्जरों से बड़ा मानती हैं क्योकि वो अपने उत्पत्ति कृष्ण से मानते हैं| गुर्जरों और राजपूतो में पाए जाने वाले भाटी गोत्र की वंशावली भगवान कृष्ण के वंशज भाटी तक जाती हैं|
दक्षिणी एशिया में रहने वाला गुर्जर कबीला मूलतः एक पशुपालक अर्ध- घुमंतू चरवाहा समुदाय रहा हैं| इनके पूर्वज माने जाने वाले कुषाण और हूण कबीले भी पशुपालक घुमंतू चरवाहे थे| पश्चिमिओत्तर दक्षिणी एशिया से प्राप्त हूणों के सिक्को पर इनके राजा भैस के सींगो वाले मुकुट पहने दिखाई देते हैं| आज भी कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड के घुमंतू गुर्जर चरवाहे मुख्यतः भैस पलते हैं, गाय नहीं| भगवान कृष्ण की मथुरा कुषाणों की भी राजधानी रही हैं| एक कुषाण/कसाना सम्राट का नाम वासुदेव था जोकि कनिष्क महान का पोता था| शासक कबीलो का लोक मान्यताओ में स्थान बना लेना एक स्वाभाविक प्रक्रिया हैं, इसलिए मथुरा इलाके में गुर्जरों को कृष्ण से जोड़ना अस्वाभिक नहीं हैं|
इस त्यौहार में घरों में गाय-भैंस के गोबर से गोवर्धन पर्वत की देव रुपी आकृति बनायी जाती हैं, जिसे गोधन कहते हैं| गोधन के ऊपर गोबर के बने हुए गाय-भैंस और ग्वाले भी रखे जाते हैं| गोधन के साथ हंडिया-पारे और दूध बिलोने की रही भी रखी जाती हैं| इसके पैरों की तरफ एक गोबर का कुत्ता भी बनाया जाता हैं| शाम के वक्त वहाँ एक दिया जलाया जाता हैं| घर-कुनबे-गांव के लोग ग्वाले के रूप में इक्कट्ठे होकर गोधन के दोनों ओर खड़े हो जाते हैं| तब गोधन गीत गाया जाता हैं, उसके बाद गोधन की परिक्रमा करते हैं|
नीचे दिया गया गोधन गीत का प्रचलन बुलंदशहर जिले के गंगा किनारे पर बसे गुर्जरों के गांवों में हैं| गीत में गोधन के अलावा मांडू (ग्वालो के आंचलिक देवता) , राधिका (राधा) और भोजला (भोज) का भी ज़िक्र हैं| मांडू एक ग्वाला था जिसका पेट फाड़ कर क़त्ल कर दिया गया था, गंगा के किनारे इसका मंदिर बना हुआ हैं| राधिका कृष्ण की प्रेमिका राधा हैं| भोजला प्रसिद्ध गुर्जर प्रतिहार सम्राट भोज प्रतीत होता हैं, जिसे गुर्जरों अपने इस लोक गीत में स्थान दिया हैं| “कहाँ रजा भोज कहाँ गंगू तेली” लोक कहावत का प्रसिद्ध भोज भी यही गुर्जर-प्रतिहार सम्राट हैं|
गोधन गीत
गोधन माडू रे तू बड़ों
तोसू बड़ों ना रे कोये
गोधन उतरो रे पार सू
उतरो गढ़ के रे द्वारे
कल टिको हैं रे जाट क
तो आज गूजर के रे द्वारे
उठके सपूती रे पूज ल
गोधन ठाडो रे द्वारे
ठाडो हैं तो रे रहन द
गौद जडूलो रे पूते
गोधन पूजे राधिका
भर मोतियन को रे थारे
एक जो मोती रे गिर गयो
तो ढूंढे सवरे रे ग्वारे
कारी को खैला बेच क
ओझा लूँगी रे छुटाए
इतने प भी न छुटो
तो बेचू गले को रे हारे
कारी-भूरी रे झोटियाँ
चलती होड़ा रे होडे
कारी प जड़ दू रे खांकडो
भूरी प जड़ दू रे हाँसे
कैसो तो कई य रे भोजला
कैसी वाकि रे मोछे
भूरी मोछन को रे भोजला
हिरन सिंगाडी रे आँखे
बंगरी बैठो रे मैमदो
मुड मुड दे रो रे असीसे
अजय विजय सुरेश इतने बाढियो
गंग-जमन के रे असीसे
छोटे-बड्डे इतने रे बाढियो
गंग-जमन के रे नीरे
(स्त्रोत गोधन गीत- जैसा श्री नरेश नागर एवं श्री रोहित नागर ने बताया)