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Tuesday, February 19, 2013

1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में अवन्तिबाई की भूमिका ( Avanti Bai Lodhi )

डॉ. सुशील भाटी 

डॉ महीपाल सिंह 


भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के पूर्वाग्रहीत एवं त्रुटिपूर्ण लेखन के कारण बहुत से त्यागी, बलिदान, शहीदों और राष्ट्रनिर्माताओं को इतिहास के ग्रन्थों में उचित सम्मानपूर्ण स्थान नहीं मिल सका है। परन्तु ये शहीद और राष्ट्रनिर्माता जन-अनुश्रुतियों एवं जन-काव्यों के नायक एवं नायिकाओं के रूप में आज भी जनता के मन को अभीभूत कर उनके हृदय पर राज कर रहे हैं। उनका शोर्यपूर्ण बलिदानी जीवन आज भी भारतीयों के राष्ट्रीय जीवन का मार्गदर्शन कर रहा है।
अमर शहीद वीरांगना अवन्तिबाई लोधी भी एक ऐसी ही राष्ट्र नायिका हैं जिन्हें इतिहास में उचित स्थान प्राप्त नहीं हो सका है, परन्तु वे जन अनुश्रुतियों एवं लोककाव्यों की नायिका के रूप में आज भी हमें राष्ट्रनिर्माण व देशभक्ति की प्रेरणा प्रदान कर रही हैं। ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध उनके संघर्ष एवं बलिदान से सम्बन्धित ऐतिहासिक सामग्री समकालीन सरकारी पत्राचार, कागजातों व जिला गजेटियरों में बिखरी पड़ी है। इस ऐतिहासिक सामग्री का संकलन और ऐतिहासिक व्याख्या समय की माँग है।
पिछड़े लोधी/लोधा/लोध समुदाय में जन्मी यह वीरांगना लोधी समाज में बढ़ती हुई जागृति को प्रतीक बन गई है। पूरे भारत में लोधी समुदाय की आबादियों के बीच इनकी अनेक प्रतिमाएँ स्मारक के रूप में स्थापित हो चुकी हैं और यह कार्य निर्बाध गति से जारी है। अवन्तिबाई लोधी का इतिहास समाज में एक मिथक बन गया है।
इस शोध पत्र का उद्देश्य जन-अनुश्रुतियों एवं लोक साहित्य जन्य वातावरण से प्रेरणा प्राप्त कर लोधी के बलिदान को इतिहास के पटल पर अवतरित करना है।

अवन्तिबाई लोधी का जन्म 16 अगस्त सन् 1831 को ग्राम मनकेड़ी, जिला सिवनी के जमींदार श्री जुझार सिंह के परिवार में हुआ।1 जुझार सिंह का परिवार 187 गाँवों का जमींदार था।2 मनकेड़ी नर्मदा घाटी में एक छोटा-सा सुन्दर गाँव था। अवन्तिबाई का लालन-पालन एवं शिक्षा-दीक्षा मनकेड़ी ग्राम में ही हुई थी। बाल्यकाल में ही जुझार सिंह की इस सुन्दर कन्या ने तलवार चलाना और घुड़सवारी सीख ली थी। अवन्तिबाई बचपन से ही बड़ी वीर और साहासी थी और मनकेड़ी के जमींदार परिवार में बेटे की तरह पले होने के कारण शिकार करने का शौक भी रखती थी। अवन्तिबाई के जवान होने के साथ-साथ उसके गुणों और साहस की चर्चा समस्त नर्मदा घाटी में होने लगी।
जुझार सिंह ने अपनी बेटी के राजसी गुणों के महत्त्व को समझते हुए उसका विवाह सजातीय लोधी राजपूतों की रामगढ़ रियासत, जिला मण्डला के राजकुमार से करने का निश्चय किया। गढ़ मण्डला के पेन्शन याफ्ता गोड़ वंशी राजा शंकर शाह के हस्तक्षेप के कारण रामगढ़ के राजा लक्ष्मण सिंह ने जुझार सिंह की इस साहसी कन्या का रिश्ता अपने पुत्र राजकुमार विक्रम जीत सिंह के लिए स्वीकार कर लिया।3 सन् 1849 में शिवरात्रि के दिन अवन्तिबाई का विवाह राजकुमार विक्रम जीत सिंह के साथ हो गया और वह रामगढ़ रियासत की वधू बनी।4
अवन्तिबाई के इतिहास को आगे बढ़ाने से पहले रामगढ़ रियासत के इतिहास पर दृष्टि डालना अप्रासंगिक न होगा। रामगढ़ रियासत अपने चर्मोत्कर्ष के समय वर्तमान मध्य प्रदेश के मण्डला जिले के अन्तर्गत चार हजार वर्ग मील में फैली हुई थी, इसमें प्रताप गढ़, मुकुटपुर, रामपुर, शाहपुर, शहपुरा, निवास, रामगढ़, चौबीसा, मेहदवानी और करोतिया नामक दस परगने और 681 गाँव थे, जो सोहागपुर, अमरकंटक और चबूतरा तक फैले थे।5 इसकी स्थापना सन् 1680 ई० में गज सिंह लोधी ने की थी।6 प्रचलित किवदन्ति के अनुसार मोहन सिंह लोधी और उसके भाई मुकुट मणि ने गढ़ मण्डला राज्य में आतंक का पर्याय बन गये एक आदमखोर शेर को मार कर जनता को उसके भय से मुक्ति दिलाई थी, इस संघर्ष में मुकुट मणि भी मारे गए। गढ़ मण्डला के राजा निजाम शाह ने मोहन सिंह को इस बहादुरी से प्रसन्न होकर उसे अपना सेना पति बना लिया।7 मोहन सिंह के मृत्यु के बाद राजा ने उसके बेटे गज सिंह उर्फ गाजी सिंह को मुकुट पुर का ताल्लुका जागीर में दे दिया। गज सिंह ने गढ़ मण्डला के खिलाफ बगावत करने वाले दो गोंड भाईयों को मौत के घाट उतार दिया, इस पर राजा ने प्रसन्न होकर उसे रामगढ़ की जागीर और राजा की पदवी प्रदान की।8 कालान्तर में गज सिंह ने रामगढ़ की स्वतंत्रता की घोषणा कर पृथक राज्य की स्थापना की।
सन् 1850 में रामगढ़ रियासत के राजा लक्ष्मण सिंह की मृत्यु हो गई और राजकुमार विक्रम जीत सिंह गद्दी पर बैठे।9 राजा विक्रम जीत सिंह बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के थे और धार्मिक कार्यों में अधिक समय देते थे। कुछ समय के उपरान्त वे अर्धविक्षिप्त हो गए, उनके दोनों पुत्र अमान सिंह और शेर सिंह अभी छोटे थे, अत: राज्य का सारा भार रानी अवन्तिबाई लोधी के कन्धों पर आ गया। रानी ने अपने विक्षिप्त पति और नाबालिग पुत्र अमान सिंह के नाम पर शासन सम्भाल लिया। इस समय भारत मे गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी का शासन था, उसकी साम्राज्यवादी नीतियों के कारण विशेषकर उसकी राज्य हड़प नीति की वजह से देशी रियासतों में हा-हाकार मचा हुआ था। इस नीति के अन्तर्गत कम्पनी सरकार अपने अधीन हर उस रियासत को ब्रिटिश साम्राज्य में विलीन कर लेती थी जिसका कोई प्राकृतिक बालिग उत्तराधिकारी नहीं होता था। इस नीति के तहत डलहौजी कानपुर, झाँसी, नागपुर, सतारा, जैतपुर, सम्बलपुर इत्यादि रियासतों को हड़प चुका था। रामगढ़ की इस राजनैतिक स्थिति का पता जब कम्पनी सरकार को लगा तो उन्होंने रामगढ़ रियासत को 13 सितम्बर 1851 ई० में कोर्ट ऑफ वार्डसके अधीन कर हस्तगत कर लिया और शासन प्रबन्ध के लिए शेख मौहम्मद नामक एक तहसीलदार को नियुक्त कर दिया, राज परिवार को पेन्शन दे दी गई।10 इस घटना से रानी बहुत दु:खी हुई, परन्तु वह अपमान का घूँट पीकर रह गई। उसने अपने राज्य को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराने का निश्चय कर लिया। रानी उचित अवसर की तलाश करने लगी। मई 1857 में राजा विक्रम जीत सिंह का स्वर्गवास हो गया।
इस बीच 10 मई 1857 को मेरठ में देशी सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी। मेरठ में सदर कोतवाली में तैनात कोतवाल धन सिंह गुर्जर के नेतृत्व में मेरठ की पुलिस, शहरी और ग्रामीण जनता ने क्रान्ति का शंखनाद कर दिया।11 अगले दिन दिल्ली में मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को विद्रोही सैनिकों ने भारतवर्ष की क्रान्तिकारी सरकार का शासक घोषित कर दिया। मेरठ और दिल्ली की घटनाएँ सब तरफ जंगल की आग की तरह फैल गई और इन्होंने पूरे देश का आन्दोलित कर दिया।
मध्य भारत के जबलपुर मण्डला परिक्षेत्र में आने वाले तूफान के प्रथम संकेत उसके आगमन से कम से कम छ: माह पूर्व दृष्टिगोचर होने लगे थे। जनवरी 1857 से ही गाँव-गाँव में छोट-छोटी चपातियाँ रहस्मयपूर्ण तरीके से भेजी जा रही थी। ये एक संदेश का प्रतीक थी जिसमें लोगों से उन पर आने वाली आकस्मिक भयंकर घटना के लिए तैयार रहने के लिए कहा गया था। मई के प्रारम्भ से ही ऐसी कथाएँ प्रचलित थीं कि शासन के आदेश से घी, आटा तथा शक्कर में क्रमश: सुअर की चर्बी, गाय का रक्त एवं हड्डी का चूरा मिलाया गया है।12 लोग यह समझते थे कि सरकार उनका धर्म भ्रष्ट करना चाहती है।
मध्य भारत के देशी रजवाडों के शासक एवं पूर्व शासक कानपुर में नाना साहब एवं तात्या टोपे के सम्पर्क में थे,13 क्षेत्रीय किसान उनके प्रभाव में थे और देशी सैनिक उनकी तरफ नेतृत्व के लिए देख रहे थे। जबलपुर परिक्षेत्र में क्रान्ति की एक गुप्त योजना बनाई गई जिसमें देशी राजा, जमींदार और जबलपुर, सलीमानाबाद एवं पाटन में तैनात 52 वी रेजीमेन्ट के सैनिक शामिल थे। इस योजना में गढ़मण्डला के पूर्व शासक शंकर शाह, उनका पुत्र रघुनाथ शाह, रामगढ़ की रानी अवन्तिबाई लोधी, विजयराघवगढ़ के राजा सरयु प्रसाद, शाहपुर के मालगुजार ठाकुर जगत सिंह, सुकरी-बरगी के ठाकुर बहादुर सिंह लोधी एवं हीरापुर के मेहरबान सिंह लोधी एवं देवी सिंह शामिल थे।14 इनके अतिरिक्त सोहागपुर के जागीरदार गरूल सिंह, कोठी निगवानी के ताल्लुकदार बलभद्र सिंह, शहपुरा का लोधी जागीरदार विजय सिंह और मुकास का खुमान सिंह गोंड विद्रोह में शामिल थे। रीवा का शासक रघुराज सिंह भी विद्रोहियों के साथ सहानुभूति रखता था।15 वयोवृद्ध 70 वर्षीय राजा शंकर शाह को मध्य भारत में क्रान्ति का नेता चुना गया।16 रानी अवन्तिबाई ने भी इस क्रान्तिकारी संगठन को तैयार करने में बहुत उत्साह का प्रदर्शन किया। क्रान्ति का सन्देश गाँव-गाँव पहुँचाने के लिए अवन्तिबाई ने अपने हाथ से लिखा पत्र किसानों, देशी सैनिकों, जमींदारों एवं मालगुजारो को भिजवाया, जिसमें लिखा था-
देश और आन के लिए मर मिटो
या फिर चूडियाँ पहनों।
तुम्हें धर्म और ईमान की
सौगन्ध जो इस कागज
का पता दुश्मन को दो।17
सितम्बर 1857 के प्रारम्भ में ब्रिटिश शासन के पास इस बात के प्रमाण उपलब्ध थे कि कुछ सैनिकों और ठाकुरों ने कार्यवाही करने की योजना बनाई थी। योजना यह थी कि क्षेत्रीय देशी राजाओं और जमींदारों की सहायता से पर्याप्त सेना इक्कठी की जाये तथा मोहरर्म के पहले दिन छावनी पर आक्रमण किया जाये।18 पर यह योजना क्रियान्वित नहीं हो सकी। गिरधारीदास नाम के एक गद्दार ने योजना का भेद अंग्रेजों को बता दिया।19 ब्रिटिश सरकार ने एक चपरासी को फकीर के रूप में राजा शंकर शाह के पास भेजा, उसने राजा के सरल स्वभाव का लाभ उठाकर गुप्त योजना जान ली।20 लेफ्टिनेन्ट क्लार्क ने राजा शंकर शाह, उनके पुत्र रघुनाथ शाह तथा परिवार के अन्य 13 सदस्यों को बिना किसी कठिनाई के 14 सितम्बर 1857 को उनके पुरवा, जबलपुर स्थित हवेली से गिरफ्तार कर लिया।21 उनके घर से कुछ आपत्ति जनक कागजात भी प्राप्त हुए। एक कागज पाया गया जिसमें ब्रिटिश शासन को उखाड़ फैकने के लिए अराध्य देवता से प्रार्थना की गई थी।22 पिता पुत्र पर सैनिक न्यायालय ने सार्वजनिक रूप से राजद्रोह का मुकदमा चलाया और उन्हें दोषी मानते हुए उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। 18 सितम्बर 1857 को उन्हें तोप के मुँह से बाँधकर उड़ा दिया गया।23
राजा शंकर शाह के बलिदान से पूर मध्य भारत में उत्तेजना फैल गई और जनता में विद्रोह की भावना पहले से भी तीव्र हो गई। 24 देशी सिपाहियों की 52 वीं रेजीमेन्ट ने उसी रात जबलपुर में विद्रोह कर दिया, शीघ्र ही यह विद्रोह पाटन और सलीमानाबाद छावनी में भी फैल गया। संकट की घडी में मध्य भारत के किसान और सैनिक एक कुशल और चमत्कारिक नेतृत्व की तलाश में थे। क्षेत्र के सामंत, जमींदार एवं मालगुजार भी असमंजस में थे। ऐसे में रानी अवन्तिबाई लोधी मध्य भारत की क्रान्ति के नेता के रूप में उभरी।
सर्वसाधारण जनता और समाज के अगुवा जमींदार और संभ्रान्त रानी के साहस और युद्धप्रियता से परिचित थे। विशेष रूप से रामगढ़ क्षेत्र के किसानों से रानी निकटता से जुड़ी थी और आम जनता उनसे प्रेम करती थी। क्षेत्र में क्रान्ति के प्रचार-प्रसार के लिए पूर्व में किये गये प्रयासों ने रानी अवन्तिबाई को क्रान्तिकारियों का वैकल्पिक नेता बना दिया। इस स्थिति में रानी ने अपने महत्त्व को समझते हुए स्वयं आगे बढ़कर क्रान्ति का नेतृत्व ग्रहण कर लिया। विजय राघवगढ़ के राजा सरयू प्रसाद, शाहपुर के मालगुजार ठा० जगत सिंह, सुकरी-बरगी के ठा० बहादुर सिंह लोधी एवं हीरापुर के महरबान सिंह लोधी ने भी रानी अवन्तिबाई का साथ दिया।25
सर्वप्रथम रानी ने रामगढ़ से ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त तहसीलदार को खदेड़ दिया और वहाँ की शासन व्यवस्था को अपने हाथों में ले लिया। सी०यू०विल्स अपनी पुस्तक "History of the Raj Gond Maharajas of Satpura Rangs" esa i`"B la[;k 106 ij fy[krs gSa] "when the news of Shankar Shas's execution reached the Mandla District, the Rani of Ramgarh, a subordinate Chiefship of the Raj Gond, broke into rebillion, drove the officials from Ramgarh and siezed the place in the name of her son.''26 रानी के विद्रोह की खबर जबलपुर के कमिश्नर को दी गई तो वह आबबूला हो उठा। उसने रानी को आदेश दिया कि वह मण्डला के डिप्टी कलेक्टर से भेट कर ले।27 अंग्रेज पदाधिकारियो से मिलने की बजाय रानी ने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। उसने रामगढ़ के किले की मरम्मत करा कर उसे और मजबूत एवं सुदृढ़ बनवाया।
मध्य भारत के विद्रोही रानी के नेतृत्व में एकजुट होने लगे अंग्रेज विद्रोह के इस चरित्र से चिंतित हो उठे। जबलपुर डिविजन के तत्कालीन कमिश्नर ने अपने अधिकारियों को घटनाओं को भेजे गए ब्योरे में लिखा है, राजा शंकर साहि की मृत्यु से क्रुद्ध एवं अपमानित लगभग 4000 विद्रोही रामगढ़ की विधवा रानी अवन्तिबाई तथा युवक राजा सरयू प्रसाद के कुशल नेतृत्व में नर्मदा नदी के उत्तरी क्षेत्र में सशस्त्र विद्रोह के लिए एकत्रित हो गए हैं।28 रानी अवन्तिबाई ने अपने साथियों के सहयोग से हमला बोल कर घुघरी, रामनगर, बिछिया इत्यादि क्षेत्रों से अंग्रेजी राज का सफाया कर दिया। इसके पश्चात् रानी ने मण्डला पर आक्रमण करने का निश्चय किया। मण्डला विजय हेतु रानी ने एक सशक्त सेना लेकर मण्डला से एक किलोमीटर पूरब में स्थित ग्राम खेरी में मोर्चा जमाया। अंग्रेजी सेना में और रानी की क्रान्तिकारी सेना में जोरदार मुठभेड़ें हुई परन्तु यह युद्ध निर्णायक सिद्ध नहीं हो सका। मण्डला के चारों ओर क्रान्तिकारियों का जमावड़ा बढ़ता जा रहा था विशेषकर मुकास के ठा० खुमान सिंह का संकट अभी बरकरार था। अत: मण्डला का डिप्टी कमिश्नर वाडिंगटन भयभीत होकर सिवनी भाग गया।29 इस घटना के उपरान्त रानी अवन्तिबाई ने दिसम्बर 1857 से फरवरी 1858 तक गढ़ मण्डला पर शासन किया।
कैप्टन वाडिंगटन लम्बे समय से मण्डला का डिप्टी कमिश्नर था। वह अपनी पराजय का बदला चुकाने के लिए कटिबद्ध था। वह अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा पाने के लिए आतुर था। वाडिंगटन, लेफ्टीनेन्ट बार्टन एवं लेफ्टीनेन्ट कॉकबर्न ने अपने सैनिकों के साथ मार्च 1858 के अन्त में रामगढ़ की ओर कूच किया, उनकी सेना में इररेगुलर इन्फैन्ट्री, नागपुर इन्फैन्ट्री, 52 वी नेटिव इन्फैन्ट्री के सेनिक और स्थानीय पुलिस के जवान तथा मेचलॉक मैंनथे।30 26 मार्च 1857 को इन्होने विजय राघवगढ़ पर अधिकार कर लिया। राजा सरयू प्रसाद फरार हो गए। 31 मार्च को इन्होंने घुघरी को वापस प्राप्त कर लिया। शीघ्र ही इन्होंने नारायणगंज, पाटन, सलीमानाबाद में भी क्रान्तिकारियों को परास्त कर दिया और 2 अप्रैल 1858 को रामगढ़ पहुँच गए।31 
अंग्रेजी सेना ने रामगढ़ के किले पर दो तरफ से आक्रमण किया। लेफ्टीनेन्ट बार्टन और लेफ्टीनेन्ट कॉकबर्न ने नागपुर इन्फैन्ट्री के सैनिक और कुछ पुलिस के जवानों के साथ दाहिनी ओर से आक्रमण किया। कैप्टन वाडिंगटन स्वयं 52 वी नेटिव इन्फैन्ट्री के सेनिकों और कुछ पुलिस वालों के साथ बाईं ओर से बढ़ा।32 रानी अवन्तिबाई ने अपनी सेना जिसमें उसके सेनिक और किसान शामिल थे, के साथ जमकर अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया। परन्त अंगे्रजी सेना संख्या बल एवं युद्ध सामग्री की दृष्टि से रानी की सेना से कई गुना शक्तिशाली थी अत: स्थिति के भयंकरता को देखते हुए रानी ने किले के बाहर निकल कर देवहर गढ़ की पहाडियों में छापामार युद्ध करना उचित समझा।33 रानी के रामगढ़ छोड़ देने के बाद अंगे्रजी सेना ने अपनी खीज रामगढ़ के किले पर उतारी और किले को बुरी तरह ध्वस्त कर दिया।
देवहर गढ़ के जंगलों में रानी ने अपनी बिखरी हुई सेना को फिर से एकत्रित किया। उसे रीवा नरेश से भी सैन्य सहायता की आशा थी परन्तु उसने अंग्रेजों का साथ दिया। देवहर गढ़ के जंगलों में रानी इस सेना के जमावड़े का जब वाडिंगटन को पता चला तो उसने तब तक आगे बढ़ने का निर्णय नहीं लिया जब तक कि रीवा नरेश की सेना अंग्रेजों की मदद के लिए नहीं आ गई। रीवा की सेना पहुँचने पर 9 अप्रैल 1858 को देवहरगढ़ के जंगल में भयंकर युद्ध हुआ, 34 जिसमें अंग्रेजों ने अन्तत: रानी की सेना का चारों ओर से घेर लिया। रानी के सैकड़ों सैनिक बलिदान हो गए, क्रान्तिकारियों की संख्या घटती जा रही थी। रानी ने अपनी पूर्वजा रानी दुर्गावती का अनुसरण करते हुए, शत्रुओं द्वारा पकड़े जाने से श्रेयष्कर अपना आत्म बलिदान समझा और स्वयं अपनी तलवार अपने पेट में घोप कर शहीद हो गई।  
रानी अवन्तिबाई लोधी एक धीर, गम्भीर, विदुषी वीर, एवं साहसी शासिका थी। उसमें एक प्रशासक एवं सेनापति के श्रेष्ठ गुण थे। उनमें साहस और बहादुरी के गुण बाल्यकाल से ही दृष्टिगोचर होने लगे थे। अपने पति के अधविक्षिप्त होने एवं उसकी मृत्यु के पश्चात् संकट की घड़ी में जिस कुशलता से उसने राजकाज सम्भाला वह उनके धैर्य का परिचायक है। अपने नेतृत्व के गुणों के कारण ही वे शंकर शाह एवं रघुनाथ शाह की शहादत के पश्चात् जबलपुर परिक्षेत्र क्रान्ति की वैक्लपिक नेत्री के रूप में उभरी और उन्होंने रामगढ़ एवं मण्डला को अंग्रेजी राज से मुक्त कराकर ब्रिटिश राज को कठिन चुनौती पेश की। उन्होंने चार महीने तक मण्डला पर शासन किया, उन्होंने अन्त तक अंग्रेजों के सामने समर्पण नहीं किया। मण्डला एवं रामगढ़ हार जाने पर भी वे देवहार गढ़ के जंगलों में छापामार युद्ध करती रहीं, जब तक कि अपनी आन की रक्षा के लिए स्वयं की शहादत न दे दी।


परिशिष्ट-

रामगढ़ राज्य की वंशावली

गज सिंह (संस्थापक, 1760-1782 ई०)


भूपाल सिंह (1782-1802 ई०)


हेमराज सिंह (1802-1824 ई०)


लक्ष्मण सिंह (1824-1850 ई०)


विक्रम जीत सिंह (1850- सितम्बर 1859 ई०)


अमान सिंह (1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय संरक्षिका रानी अवन्तिबाई)


परिशिष्ट-

मध्य भारत के सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक जीवन का
एक आधारभूत तत्व- लोधी समुदाय।

लोध/लोधा/ लोधी राजपूत भारत के विस्तृत क्षेत्र पर आबाद हैं। इनकी आबादी मुख्य रूप से दिल्ली, उ० प्र०, म० प्र०, राजस्थान के भरतपुर एवं म० प्र० से सटे हुए जिले, गुजरात के राजकोट और अहमदाबाद जिले, महाराष्ट्र, बिहार, उड़ीसा और बंगाल के मिदनापुर जिले में है। 1931 की जनगणना के अनुसार भारत में इनकी जनसंख्या 17,42,470 थी जो कि मुख्य रूप से संयुक्त प्रान्त, मध्य प्रान्त बरार और राजपूताना  आबाद थी। विलियम क्रुक आपनी पुस्तक दी ट्राइव एण्ड कास्टस ऑफ दी नार्थ-वैस्टर्न इण्डियामें लिखते है- लोधी पूरे मध्य प्रान्त में फैले हुए हैं और ये बुंदेलखण्ड से यहाँ आये हैं। नरवर, बुंदेलखण्ड में बसने से पहले ये लुधियाना, पंजाब के निवासी थे। बहुत से विद्वान लुधियाना को लोधियों का मूल स्थान मानते हैं।
आर० वी० रसेल और हीरालाल अपनी पुस्तक दी ट्राईव एण्ड कास्टस ऑफ सेन्ट्रल प्राविन्सेज ऑफ इण्डिया’, भाग-4 में लोधी जाति के विषय में लिखते हैं कि यह एक महत्त्वपूर्ण खेतिहर जाति है जो मुख्य रूप से विन्ध्याचल पर्वत के जिलों और नर्मदा घाटी में रहती है और वहाँ ये लोग वेन गंगा नदी की घाटी और छत्तीसगढ़ की खैरागढ़ रियासत तक फैले हुए हैं। लोधी उत्तर प्रदेश से आये और सेन्ट्रल प्राविन्सेज में भूमिपति हो गए। उन्हें ठाकुर की सम्मानजनक पदवी से सम्बोधित किया जाता है और खेती करने वाली ऊँची जातियों के समकक्ष रखा जाता है। दमोह और सागर जिलों में कई लोधी भू-स्वामी  मुस्लिम शासन के समय अर्धस्वतंत्र हैसियत रखते थे और बाद में उन्होंने पन्ना के राजा को अपना अधिपति मान लिया। पन्ना के राजा ने उनके कुछ परिवारों को राजा और दीवान की पदवी प्रदान कर दी थी। इनके पास कुछ इलाका होता था और ये सैनिक भी रखते थे।
डॉ० सुरेश मिश्र अपनी पुस्तक रामगढ़ की रानी अवन्तिबाईमें पृष्ठ 11 पर लिखते हैं कि "1842 के बुन्देला विद्रोह के समय सागर नर्मदा प्रदेश में जो विद्रोह हुआ था उसमें लोधी जागीरदारों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। इनमें नरसिंहपुर जिले के हीरापुर का हिरदेशाह और सागर जिले का मधुकर शाह प्रमुख थे।" ब्रिटिश सत्ता के प्रति लोधियों के विरोध की यह विरासत 1857 में और ज्यादा मुखर हुई और इसकी अगुआई रामगढ़ की रानी अवन्तिबाई ने की।
लोधी क्षत्रियों का भारतीय सभ्यता और संस्कृति के निर्माण में विशेष योगदान रहा है। मध्य और पूर्वी भारत में इस बहादुर और संघर्षशील समुदाय की घनी आबादियाँ विद्यमान है। भोगौलिक दृष्टि से यह क्षेत्र मुख्यतय विन्द्य परिसर के अन्तर्गत आता है। भारतीय समाज में विन्द्य परिसर एवं नर्मदा घाटी का बड़ा पौराणिक और ऐतिहासिक महत्त्व है, लोधी समुदाय इस पौराणिक और ऐतिहासिक परम्परा से अभिन्न रूप से जुड़ा है और इसके विकास का एक कारक है। पौराणिक रूप से विन्द्य परिसर और नर्मदा घाटी भगवान शिव से सम्बन्धित हैं और शिव भक्ति का एक केन्द्र हैं। नर्मदा नदी के उदगम स्थल, अमरकंटक को भगवान शिव का आदि निवास स्थान माना जाता है। मतस्य पुराण के अनुसार नर्मदा भगवान शिव की पुत्री है। मध्य भारत में आबाद लोध समुदाय भी मूलत: शिव भक्त है, सम्भवत: इसी कारण भगवान शिव का एक उपनाम लोधेश्वर (लोधो के ईश्वर) भी है। लोधी समुदाय की उत्पत्ति के विषय में एक दिलचस्प किवदन्ति प्रचलित है कि वे त्रिपुर के देवासुर संग्राम के समय भगवान शिव के द्वारा देवताओ की सहायता के लिए भेजे गए शिवगणों के वंशज हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि शिव उपासक लोधों की विशाल आबादी मध्य भारत में शैव सम्प्रदाय के विकास से जुड़ी है।
प्राचीन काल से ही मध्य भारत के समाज और राजनीति पर चन्द्र वंशी क्षत्रियों का वर्चस्व रहा है। इस वंश के आदि पूर्वज चन्द्र भी भगवान शिव से सम्बन्धित हैं और उनके केशों मे श्रंगार के रूप में विराजमान रहते हैं। इतिहास के कालक्रम में चन्द्र वंश की बहुत-सी शाखाएँ मध्य भारत की राजनीति पर छाई रही हैं, इनमें यदु वंश, हैहय वंश, चिदि वंश, चंदेल वंश, कलचुरी वंश एवं लोधी वंश प्रमुख हैं। विन्द्य परिसर में स्थित प्राचीन नगरी महिष्मती (वर्तमान में मण्डला), पूर्व-मध्यकाल में त्रिपुरी (तेवर, जबलपुर) एवं महोबा चन्द्रवंशीय क्षत्रियों की शक्ति के केन्द्र रहे हैं। मध्य भारत के छत्तीसगढ़ क्षेत्र में गौंड भी एक प्रमुख राजनैतिक शक्ति रहे हैं। मध्यकाल में चंदेलों, कलचुरियों, लोधियों एवं गौंडो में एक राजनैतिज्ञ तालमेल एवं सहयोग रहा है, जिसकी परिणति अनेक बार इन वंशों के शासकों के मध्य वैवाहिक सम्बन्धों में भी हुई। हम कह सकते हैं कि प्राचीन एवं पूर्व मध्य काल में लोधी समुदाय मध्य भारत में सामाजिक और राजनैतिक रूप से काफी सशक्त था।
मध्यकाल में भी लोधी समुदाय ने अपनी राजनैतिज्ञ प्रतिष्ठा को समाप्त नहीं होने दिया और हिण्डोरिया, रामगढ़, चरखारी (हमीरपुर, उ०प्र०), हीरागढ़ (नरसिंहपुर, म०प्र०), हटरी, दमोह (म०प्र०) आदि रियासतों और अद्र्ध स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना कर मध्य भारत की राजनीति में अपना विशिष्ट स्थान बनाए रखा।
वर्तमान काल में लोधी समुदाय मुख्यत: कृषि से जुड़ा है, देश को कृषि उत्पादों में आत्मनिर्भर बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहा है। लोधी समुदाय बहुत परिश्रमी स्वभाव का है और कृषि क्षेत्र में अपनी उत्पादकता के लिए प्रसिद्ध है। इस विषय में एक देहाती कहावत है कि गुर्जर 100 बीघे, जाट 9 बीघे और लोधी 2 बीघे के किसान बराबर उत्पादन करते हैं। अपनी मेहनत और लगन से लोधी किसान भारत का खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने में अपना योगदान कर रहे हैं।
वर्तमान काल में लोधियों में एक बार फिर राजनैतिक जागृति आ रही है और आज कुछ लोधी लोक सभा में और विधान सभाओं में पहुँच गए हैं। भाजपा के राम मन्दिर आन्दोलन में लोधी समुदाय और उनके नेताओं ने जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई वह किसी से छिपी नहीं है। लोधी समाज में फिर ऐसा नेतृत्व पैदा हो गया है जो समस्त समाज को दिशा प्रदान कर रहा है। लोधी वंश से कल्याण सिंह दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। मध्य भारत से सुश्री उमा भारती समाज को सशक्त नेतृत्व प्रदान कर रहे हैं। सुश्री उमा भारती भी मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। अत: वह समय दूर नहीं जब लोधी समुदाय एक बार फिर मध्य भारत को राजनैतिक क्षेत्र में प्रशंसनीय योगदान करेगा।

सन्दर्भ
1.     खेम सिंह वर्मा, लोधी क्षत्रियों का वृहत इतिहास, बुलन्दशहर, 1994, पृष्ठ 96; गणेश कौशिक एवं फूल सिंह, वतन पर मिटी अवन्तिबाई, नवभारत 14-8-1994; थम्मन सिंह सरस’, अवन्तिबाई लोधी, साहित्य केन्द्र प्रकाशन, दिल्ली, 1995, पृष्ठ 46
2.    सुरेश मिश्र, रामगढ़ की रानी अवन्तिबाई, भोपाल, 2004, पृष्ठ 10
3.    थम्मन सिंह सरस’, वही, पृष्ठ 52-53
4.    वही, पृष्ठ 54
5.    वही, पृष्ठ 54
6.    वही, पृष्ठ 41
7.    हुकुम सिंह देशराजन, अमर शहीद वीरांगना रानी अवन्तिबाई, अलीगढ़, 1994
8.    सुरेश मिश्र, वही, पृष्ठ 12-13
9.    भरत मिश्र, 1857 की क्रान्ति और उसके प्रमुख क्रान्तिकारी, पृष्ठ 93
10.   वही, पृष्ठ 90, 91-93; थम्मन सिंह सरस, वही, पृष्ठ 61-64
11.   सुशील भाटी, 1857 की जनक्रान्ति के जनक धन सिंह कोतवाल, मेरठ 2002; मयराष्ट्र मानस, मेरठ; आचार्य दीपांकर, स्वाधीनता आन्दोलन और मेरठ, जनमत प्रकाशन मेरठ, 1993; Memorendom on Mutiny and outbreak in May 1857, by Major William, Commissioner of Military Police N.W. Prorinces, Allahabad, 15th Nov. 185; Meerut District Gazattier, Govt. Press, Allahabad, 1963
12.   डब्ल्यू० सी०, अस्र्कोइन, नेरेटिव ऑफ ईवेन्टस अटेन्डिंग द आउट ब्रेक और डिस्टरबेन्सज एण्ड द रेस्टोरेशन ऑफ अथारिटी इन दी सागर एण्ड नर्बदा टेरीटरीज इन 1857, कंटिका 5
13.   थम्मन सिंह सरस, वही, पृष्ठ 67-69
14.   गणेश कौशिक, वही
15.   सुरेश मिश्र, वही, पृष्ठ 15
16.   कौशिक गणेश, वही
17.   वही; हुकुम सिंह देशराजन, वही
18.   जबलपुर गजेटियर, 1972, पृष्ठ 9
19.   गणेश कौशिक, वही
20.   जबलपुर गजेटियर, पृष्ठ 94
21.   वही, पृष्ठ 95; भरत मिश्र, वही, पृष्ठ 176
22.   जबलपुर गजेटियर, पृष्ठ 95
23.   वही, पृष्ठ 95; भरत मिश्र, वही, पृष्ठ 176
24.   सुरेश मिश्र, वही, पृष्ठ 20
25.   गणेश कौशिक, वही; हुकुम सिंह देशराजन, वही
26.   वर्मा खेम सिंह, वही, पृष्ठ 98
27.   भरत मिश्र, वही, पृष्ठ 94
28.   जबलपुर पत्र व्यवहार केस की फाइल 10 और 33/1857 उद्धत खेम सिंह वर्मा, वही, पृष्ठ 98;
29.   सुरेश मिश्र, वही, पृष्ठ 28
30.   गणेश कौशिक, वही
31.   भरत मिश्र, वही, पृष्ठ 91, 94; गणेश कौशिक, वही
32.   वही
33.   वही; हुकुम सिंह देशराजन, वही; भरत मिश्र, वही पृष्ठ 94-95
34.   गणेश कौशिक, वही

                                                                                                  (Sushil Bhati, Mahipal Singh)

                                                                                           

Sunday, October 28, 2012

बिजौलिया के गाँधी - विजय सिंह पथिक (Vijay Singh Pathik)

 डा. सुशील भाटी 

Vijay Singh Pathik


विजय सिंह पथिक का जन्म 27 फरवरी 1882 को बुलन्दशहर जिले के ग्राम गुठावली कलां में हुआ था। उनके दादा इन्द्र सिंह बुलन्दशहर स्थित मालागढ़ रियासत के दीवान (प्रधानमंत्री) थे। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में पथिक के दादा अंग्रेजों से लड़ते हुये वीरगति को प्राप्त हुये। उनके पिता को भी क्रान्ति में भाग लेने के आरोप में सरकार ने गिरफ्तार किया था। पथिक जी पर अपने परिवार की क्रान्तिकारी और देशभक्ति से परिपूर्ण पृष्ठभूमि का बहुत गहरा असर पड़ा। 

युवावस्था में पथिक जी का सम्पर्क रास बिहारी और सचिन सान्याल आदि क्रान्तिकारियों से हुआ। 1912 में ब्रिटिश सरकार ने भारत की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली लाने का निर्णय किया। इस अवसर पर भारत के गवर्नर जनरल लार्ड हाडिंग ने दिल्ली प्रवेश करने के लिए एक शानदार जुलूस का आयोजन किया। गवर्नर जनरल लार्ड हाडिंग ने दिल्ली प्रवेश के समय विजय सिंह पथिक ने अन्य क्रान्तिकारियों के साथ जुलूस पर बम फेंक कर लार्ड हार्डिग को मारने की कोशिश की। रास बिहारी बोस, जोरावर सिंह, प्रताप सिंह, पथिक जी व अन्य सभी सम्बन्धित क्रान्तिकारी अंग्रेजो के हाथ नहीं आये और वे फरार हो गए।

सन् 1915 मंें रास बिहारी बोस के नेतृत्व में लाहौर में क्रान्तिकारियों ने निर्णय लिया कि 21 फरवरी को देश के विभिन्न स्थानों 1857 की क्रान्ति की तर्ज पर सशस्त्र विद्रोह किया जाए। भारतीय इतिहास में इसे गदर आन्दोलन कहते है। योजना यह थी कि एक तरफ तो भारतीय ब्रिटिश सेना को विद्रोह के लिए उकसाय जाये दूसरी तरफ देशी राजाओं और उनकी सेनाओं का विद्रोह में सहयोग प्राप्त किया जाए। राजस्थान में इस क्रान्ति को संचालित करने का दायित्व विजय सिंह पथिक को सौंपा गया। उस समय पथिक जी फिरोजपुर षडयंत्र केस में फरार थे और खरवा (राजस्थान) में गोपाल सिंह के पास रह रहे थे। दोनो ने मिलकर दो हजार युवकों का दल तैयार किया और तीस हजार से अधिक बन्दूकें एकत्र की। दुर्भाग्य से अंग्रेजी सरकार पर क्रान्तिकारियों की देशव्यापी योजना का भेद खुल गया। देश भर में क्रान्तिकारयों को समय से पूर्व पकड़ लिया गया। पथिक जी और गोपाल सिंह ने गोला बारूद्व भूमिगत कर दिया और सैनिकों को बिखेर दिया गया। कुछ ही दिनों बाद अजमेर के अंग्रेज कमिश्नर ने पांच सौ सैनिकों के साथ पथिक जी और गोपाल सिंह को खरवा के जंगलों से गिरफ्तार कर लिया और टाडगढ़ के किले में नजरबंद कर दिया गया। उन्हीं दिनों लाहौर षडयंत्र केस में पथिक जी का नाम उभरा और उन्हें लाहौर ले जाने के आदेश हुए। किसी तरह यह खबर पथिक जी को मिल गई और वो टाडगढ़ के किले से फरार हो गए।

गिरफ्तारी से बचने के लिए पथिक जी ने अपना वेश राजस्थानी राजपूतों जैसा बना लिया और चित्तौडगढ़ क्षेत्र में रहने लगे। बिजौलिया से आये एक साधु सीताराम दास पथिक जी से बहुत प्रभावित हुए और उन्होनें पथिक जी को बिजौलिया आन्दोलन का नेतृत्व सम्भालने को आमत्रिंत किया। बिजौलिया उदयपुर रियासत में एक ठिकाना था। जहाॅ किसानों से भारी मात्रा में लाग बाग वसूली जाती थी और किसानों की दशा अति शोचनीय थी। पथिक जी 1916 में बिजौलिया पहुच गए और उन्हौनें आन्दोलन की कमान अपने हाथों में सम्भाल ली। माणिक्य लाल वर्मा ने पथिक जी से प्रभावित होकर बिजौलिया ठिकाने की सेवा से त्यागपत्र दे दिया और आन्दोलन में कूद पडें। 1916 में विजय सिंह पथिक ने बिजौलिया किसान पंचायत नाम से एक किसान संगठन का गठन किया। प्रत्येक गाॅव में किसान पंचायत की शाखाएॅ खोली गई। किसानों की मुख्य मांगे भूमि कर, अधिभारों एवं बेगार से सम्बन्धित थी। किसानों से 84 प्रकार के कर वसूले जाते थे। इसके अतिरिक्त युद्व कोष कर भी एक अहम मुददा था, एक अन्य मुददा साहूकारों से सम्बन्धित था जो कि जमीदारों के सहयोग और संरक्षण से किसानों को निरन्तर लूट रहे थे। पंचायत ने भूमि कर न देने का निर्णय लिया गया। किसान वास्तव में 1917 की रूसी क्रान्ति की सफलता से उत्साहित थे, पथिक जी ने उनके बीच रूस में श्रमिकों और किसानों का शासन स्थापित होने के समाचार को खूब प्रचारित किया था। विजय सिंह पथिक ने कानपुर से प्रकाशित गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा सम्पादित पत्र प्रताप के माध्यम से बिजौलिया के किसान आन्दोलन को समूचे देश में चर्चा का विषय बना दिया। 

सन् 1919 में अमृतसर कांग्रेस में पथिक जी के प्रयत्न से लोकमान्य तिलक ने बिजौलिया सम्बन्धी प्रस्ताव रखा। पथिक जी ने बम्बई जाकर किसानों की करूण गाथा गांधी जी को सुनाई। गांधी जी ने वचन दिया कि यदि मेवाड़ सरकार ने न्याय नहीं किया तो वह स्वयं बिजौलिया सत्याग्रह का संचालन करेगें। महात्मा गांधी ने किसानों की शिकायत दूर करने के लिए एक पत्र महाराणा को लिखा, पर कोई हल नहीं निकला। पथिक जी बम्बई यात्रा के समय, गांधी जी की पहल पर, यह निश्चय किया गया कि वर्धा से ‘‘राजस्थान केसरी’’ नामक पत्र निकाला जाए। पत्र सारे देश में लोकप्रिय हो गया, परन्तु पथिक जी का जमनालाल बजाज की विचारधारा से मेल नहीं खाया और वे वर्धा छोड़कर अजमेर चले गए।

सन् 1920 में पथिक जी के प्रयत्नों से अजमेर में ‘‘राजस्थान सेवा संघ’’ की स्थापना हुई। शीघ्र ही इस संस्था की शाखाएॅ पूरे प्रदेश में खुल गई। इस संस्था ने राजस्थान में कई जन आन्दोलनों का संचालन किया। अजमेर से ही पथिक जी ने एक नया पत्र ‘‘नवीन राजस्थान’’ प्रकाशित किया। सन् 1920 में पथिक जी अपने साथियों के साथ नागपुर अधिवेशन में शामिल हुए और बिजौलिया के किसानों की दुर्दशा और देशी राजाओं की निरंकुशता को दर्शाती हुई एक प्रदर्शनी का आयोजन किया। गांधी जी पथिक जी के बिजौलिया आन्दोलन से बहुत प्रभावित हुए, परन्तु गांधी जी का रूख देशी राजाओं और सामन्तों के प्रति नरम ही बना रहा। कांग्रेस और गांधी जी यह समझने में असफल रहें कि सामन्तवाद साम्राज्यवाद का ही एक स्तम्भ है और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विनाश के लिए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के साथ-साथ सामन्तवाद विरोधी संघर्ष आवश्यक है। गांधी जी ने अहमदाबाद अधिवेशन में बिजौलिया के किसानों को हिजरत (क्षेत्र छोड़ देने) की सलाह दी। पथिक जी ने इसे अपनाने से यह कहकर इनकार कर दिया कि यह तो केवल हिजड़ो के लिए ही उचित है, पुरूषों के लिए नहीं।  

सन् 1921 के आते-आते पथिक जी ने राजस्थान सेवा संघ के माध्यम से बेगू, पारसोली, भिन्डर, बासी और उदयपुर में शक्तिशाली आन्दोलन किए। बिजौलिया आन्दोलन अन्य क्षेत्र के किसानों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गया था। ऐसा लगने लगा मानो राजस्थान में किसान आन्दोलन की लहर चल पडी है। इससे ब्रिटिश सरकार डर गई। इस आन्दोलन में उसे बोल्शेविक आन्दोलन की प्रतिछाया दिखाई देने लगी। दूसरी ओर कांग्रेस के असहयोग आन्दोलन शुरू करने से भी सरकार को स्थिति और बिगड़ने की भी आशंका होने लगी। अंतत सरकार ने राजस्थान के ए0 जी0 जी0 हालैण्ड को बिजौलिया किसान पंचायत बोर्ड और राजस्थान सेवा संघ से बातचीत करने के लिए नियुक्त किया। शीघ्र ही दोनो पक्षों में समझौता हो गया। किसानों की अनेक मांगे मान ली गई। चैरासी में से पैंतीस लागतें माफ कर दी गई। जुल्मी कारिन्दे बर्खास्त कर दिए गए। किसानों की अपूर्व विजय हुई। 

इस बीच में बेगू में आन्दोलन तीव्र हो गया। मेवाड सरकार ने पथिक जी को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें पांच वर्ष की सजा सुना दी गई। लम्बे अरसे की केद के बाद पथिक जी अप्रैल 1927 को रिहा किए गए।

पथिक जी जीवनपर्यन्त निःस्वार्थ भाव से देश सेवार में जुटे रहें। भारत माता का यह महान सपूत 28 मई, 1954 में चिर निद्रा में सो गया। पथिक जी की देशभक्ति निःस्वार्थ थी और जब वह मरे उनके पास सम्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं था, जबकि तत्कालीन सरकार के कई मंत्री उनके राजनैतिक शिष्य थे। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री श्री शिवचरण माधुर ने पथिक जी का वर्णन राजस्थान की जागृति के अग्रदूत महान क्रान्तिकारी के रूप में किया। पथिक जी के नेतृत्व में संचालित हुए बिजौलिया आन्दोलन को इतिहासकार देश का पहला किसान सत्याग्रह मानते है।   

                                                                                                                                                                                                                                                                                                          ( Dr. Sushil Bhati )