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Thursday, March 7, 2013

बासौद की कुर्बानी ( Basodh ki Kurbani )

डा. सुशील भाटी

सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में बाबा शाहमल सिंह की भूमिका अग्रणी क्रान्तिकारी नेता की थी। तत्कालीन मेरठ के बागपत-बड़ौत क्षेत्र में बगावत का झण्डा बुलन्द कर, शाहमल सिंह ने दिल्ली के क्रान्तिकारियों को रसद आदि पहुचाना शुरु कर दिया था। मेरठ के अंग्रेजी प्रशासन एवं दिल्ली में अंग्रेजी फौज के सम्पर्क को तोड़ने के लिए बागपत क्षेत्र के गूजरों ने, शाहमल सिंह के निर्देश पर, बागपत का यमुना पुल तोड़ने दिया। क्रांन्ति में बाबा शाहमल के इस योगदान से प्रसन्न होकर, मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने शाहमल सिंह को बागपत-बड़ौत परगने का नायब सूबेदार बना दिया।

यूं तो बागपत-बड़ौत क्षेत्र के 28 गांवों ने क्रान्ति में सक्रिय सहयोग किया था, और प्रति क्रान्ति के दौर में उन्होंने अंग्रेजों के असहनीय जुल्मों और अत्याचारों को झेला था, परन्तु इनमें मेरठ बागपत रोड के समीप स्थित बासौद एक ऐसा गांव था जिसने अपनी देशभक्ति की सबसे बड़ी कीमत अदा की थी। इस मुस्लिम बहुल गांव के लगभग 150 लोगों को मारने के बाद अंग्रेजों ने गांव को आग लगा दी थी।

 बाबा शाहमल ने जब बड़ौत पर हमला किया था तो वो तहसील के खजाने को नहीं लूट पाए क्योंकि बड़ौत का तहसीलदार करम अली इसे डौला गांव के जमींदार नवल सिंह की मदद से सुरक्षित स्थान पर ले गया। कलैक्टर डनलप ने मेजर जनरल हैविट को लिखे पत्र में नवल सिंह की गणना अंगे्रजों के प्रमुख मददगार के रूप में की थी। इस बात से बेहद खफा होकर, बाबा शाहमल ने नवल सिंह आदि को सजा देने के लिए डौला के पड़ौसी गांव बासौद में, अपने लाव-लश्कर के साथ, डेरा डाल दिया। बासौद गांव के लोगों ने आरम्भ से ही क्रन्तिकारी गतिविधियों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। उस दिन भी वहां दिल्ली से दो गाजी आए हुए थे, और दिल्ली के क्रांन्तिकारियों को रसद पहुंचाने के लिए 8000 मन अनाज एवं दाल क्षेत्र से इकट्ठा की गई थी।

बागपत क्षेत्र में क्रान्ति का दमन करने के लिए, उसी दिन डनलप के नेतृत्व में खाकी रिसाला भी दुल्हैणा पहुंच गया। दुलहैणा डौला से लगभग सात मील दूर है। खाकी रिसाले मंे लगभग 200 सिपाही थे। रिसाले में 2 तोपें, 8 गोलन्दाज, 40 राइफलधारी, 50 घुड़सवार, 27 नजीब एवं अन्य सैनिक थे। नवल सिंह भी रिसाले के साथ गाइड के रूप में मौजूद था। इस बीच जब डौला वासियों को शाहमल सिंह के बासौद में मौजूद होने और सम्भावित हमले का पता चला तो उनहोंने जबरदस्त हवाई फायरिंग कर दी। फायरिंग की आवाज सुन कर डनलप ने नवल सिंह को सच्चाई का पता करने के लिए भेजा, जिसने लौट कर सभी को स्थिति से अवगत कराया। हालात को समझते हुए खाकी रिसाला रात में ही कूच कर गया और 17 जुलाई की भौर में डौला पहुँच  गया।

अंग्रेजी घुड़सवार बासौद को घेरने के लिए बढ़े तो, रिसाले के अग्रिम रक्षकों ने देखा कि बहुत से लोग, जो हाथों में बंदूकें और तलवारें लिए हुए थे, गांव से भागे जा रहे थे। अंग्रेज जब गांव में पहुंचे तो पता चला कि बाबा शाहमल के जासूसों ने उन्हें खाकी रिसाले के आने की खबर दे दी थी और वो रात में ही बड़ौत की तरफ चले गये। अंग्रेजों को वहां आठ मन अनाज और दालों का भण्डार मिला जो कि दिल्ली के क्रांन्तिकारियों को रसद के तौर पर पहुंचाने के लिए इकट्ठा किया गया था। गांव के लोग बुरे-से बुरे अंजाम को तैयार थे, उन्होंने औरतों और बच्चों को रात में ही सुरक्षित स्थान पर भेज दिया था। अंग्रेज विद्रोही भारतीयों के लिए एक नजीर स्थापित करना चाहते थे। गांव में जो भी आदमी मिला उसे अंग्रजों ने गोली मार दी या फिर तलावार से काट दिया। शहीद होने वालों में दिल्ली से आये दो गाजी भी थे, जिन्होंने बसौद की मस्जिद में मोर्चा संभाल कर, मरते दम तक, अंग्रेजों को जमकर टक्कर दी। सभी क्रांन्तिकारियाों को मारने के बाद गांव को आग लगा दी गई वहां से प्राप्त रसद को भी आग के हवाल कर दिया गया। डनलप के अनुसार बासौद में लगभग 150 लोग मारे गये।

अंग्रेज अपनी जीत पर फूले नहीं समा रहे थे, परन्तु हिन्दुस्तानी संघर्ष और शहादत का सिलसिला यहीं नहीं रुका, अंग्रेजों का क्रांन्तिकारियों से असली मुकाबला तो अगले दिन, 18 जुलाई को, बड़ौत में होने वाला था, जहां भारतीयों ने उनके दांत खट्टे कर दिये थे। 

संदर्भ

1. गौतम भद्रा, फोर रिबेल्स ऑफ एट्टीन फिफ्टी सेवन (लेख), सब आल्टरन स्टडीज,
   खण्ड-4 सम्पादक-रणजीत गुहा।
2. डनलप, सर्विस एण्ड एडवैन्चर ऑफ खाकी रिसाला इन इण्डिया इन 1857-58
3. नैरेटिव ऑफ इवैन्ट्स अटैन्डिंग दि आउटब्रेक  ऑफ  डिस्टरबैन्सिस एण्ड रेस्टोरेशन
   ऑफ अथारिटी इन दि डिस्ट्रिक्ट ऑफ मेरठ इन 1857-58
4. एरिक स्ट्रोक पीजेन्ट आम्र्ड।
5. एस000 रिजवी, फ्रीडम स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश खण्ड-5
6. 0वी0 जोशी, मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटयर
                                                                                                                                             - Dr Sushil Bhati



Friday, February 22, 2013

वराह उपासक मिहिर पर्याय हूण

(गुर्जरों की हूण उत्पत्ति पर नवीन दृष्टी)
                             
 डा. सुशील भाटी
                                 
 पांचवी शताब्दी के अंत में श्वेत हूणों ने पश्चिमोत्तर से भारत में विजेता के तौर पर प्रवेश किया| उन्होंने तोरमाण और उसके बेटे मिहिरकुल के नेतृत्व में उत्तर भारत से गुप्तो के प्रभुसत्ता समाप्त कर हूण साम्राज्य की स्थापना की| तोरमाण ने ग्वालियर के निकट चम्बल नदी के किनारे स्थित पवैय्या को और मिहिरकुल ने स्यालकोट, पंजाब को अपनी राजधानी बनाया| भारत में हूण साम्राज्य आधी शताब्दी से अधिक (475-533 ई.) तक स्थिर रहा| मिहिरकुल के हाथ से 533 ई.में उत्तर भारत का साम्राज्य निकल जाने के बाद भी हूण पश्चिमोत्तर भारत और काश्मीर में लंबे समय तक राज करते रहे|  पुराणों के अनुसार उन्होंने भारत में तीन सौ साल राज किया|

चीनी स्त्रोतों के अनुसार श्वेत हूण 125 ई. में आधुनिक चीनी प्रान्त सिकियांग के उत्तरी इलाके ज़ुन्गारिया में चीन की महा दीवार के उत्तर में रहते थे| इतिहासकारों के अनुसार भारत आने वाले श्वेत हूणों की शक्ति का उदय पांचवी शताब्दी में उत्तर-पूर्वी इरान और पश्चिमोत्तर भारत में हुआ| ये भारोपीय भाषा समूह की पूर्वी ईरानी भाषा बोलते थे| इनकी भाषा में तुर्की भाषा का प्रभाव भी दिखाई देता हैं| श्वेत हूण इरान के ज़ुर्थुस्त धर्म से प्रभावित थे और वे सूर्य और अग्नि के उपासक थे, जिन्हें वो अपनी भाषा में क्रमश मिहिर और अतर कहते थे| 

प्राचीन चीनी इतिहासकारों एवं प्रोपीकुयस के अनुसार श्वेत हूण यूची-कुषाण कबीलो से सम्बंधित लोग थे, जोकि हिंग नु जाति के हमले के समय तारीम घाटी में ही रह गए थे| | यूची, ईसा से पूर्व, चीनी तुर्केस्तान स्थित तारिम घाटी में रहने वाले भारोपीय भाषा समूह की पूर्वी ईरानी बोलने वाले नार्डिक/आर्य नस्ल के लोग थे| यूची भी मिहिर-सूर्य और अतर-अग्नि  के उपासक थे| ईसा की पहली तीन शताब्दियों में, कुषाणों के नेतृत्व में यूचियो ने, बक्ट्रिया को आधार बना कर मध्य एशिया और उत्तर भारत में एक साम्राज्य का निर्माण किया| इनका सबसे प्रभावशाली सम्राट कनिष्क था, जिसने पेशावर से राज किया| कुषाणों के अभिलेख ईरानी प्रभाव वाली खरोष्टी और यूनानी लिपि में मिले हैं|

श्वेत हूणों से पहले हूणों कि एक अन्य शाखा हारा हूण ने भारत में अपनी उपस्तिथि दर्ज कराई | यहाँ हारा शब्द का अर्थ लाल अथवा दक्षिणी हैं| चीनी स्त्रोतों के अनुसार हूणों की वो शाखा जो किदार (320 ई.) के नेतृत्व में दक्षिणी बक्ट्रिया में शक्तिशाली हुई वो हारा हूण’ (Red Xionites or Red Huns) कहलाई| हारा हूणों को इनके संथापक शासक किदार  के नाम पर, किदार हूण ( kidarite Xionites or Kidarite Huns) भी कहा जाता था| कालांतर में इन्ही हूण कबीलो में से कुछ वुसुन जाति से पराजित होकर पश्चिमी बक्ट्रिया में बस गए| यहाँ ये हेप्थलाइट वंश के नेतृत्व में पुनः शक्तिशाली हो गए और श्वेत हूण कहलाने लगे| इस प्रकार हारा हूणों और श्वेत हूणों में कोई अंतर नहीं था, फर्क केवल स्थान का था, श्वेत हूण का मतलब हैं- पश्चिमी हूण  और हारा हूण का अर्थ हैं- दक्षिणी हूण| हारा हूणों ने किदार द्वितीय (360 ई.), जोकि पश्चिमोत्तर सिंधु घाटी में कुषाणों का सामंत था, के नेतृत्व में अंतिम कुषाण राजा को हरा कर भारत में अपनी शक्ति को प्रतिष्ठित किया था| हारा हूण अपने को कुषाण कहते थे, इन्होने कुषाणों की उपाधि शाही भी धारण की थी| किदार के सिक्को पर उसके नाम के साथ शाही और कुषाण लिखा मिला हैं| स्पष्ट हैं कि हारा हूण अपने को कुषाणों से सम्बंधित मानते थे और उनके साम्राज्य पर अपना वैध अधिकार मानते थे| एकता के इन प्रयासों से हारा हूणों और कुषाण कबीले एकाकार हो गए| इन्ही कारणों से इतिहासकार हारा हूणों को किदार कुषाण भी कहते हैं| कालिदास के ग्रन्थ रघुवंशम में, गांधार स्थित जिन हूणों का ज़िक्र हुआ हैं वो, तथा वो हूणों जिन्हें स्कंदगुप्त ने 455 ई. में पराजित किया था, सभी हारा हूण थे| भारतीय भी सामान्यत हारा हूण और श्वेत हूणों में अंतर नहीं समझते थे| संभवतः, हारा हूणों ने पश्चिमी तथा दक्षिणी राजस्थान और मालवा के इलाके में अपना प्रभाव बना लिया था| कालांतर में श्वेत हूणों ने भारत प्रवेश के समय सबसे पहले हारा हूणों को पराजित कर उनके इलाको को ही अपने अधीन किया था|

 हूण मुख्य रूप से मिहिर यानि सूर्य के उपासक थे, यहाँ तक कि हूणों को मिहिर भी कहा जाता था| हूणों के प्रसिद्ध नेता मिहिरकुल के एक सिक्के पर उसका नाम सिर्फ मिहिर अंकित हैं| हूणों ने भारत में अनेक सूर्य मंदिरों का निर्माण कराया| कुछ इतिहासकारों का मानना हैं कि मुल्तान और भीनमाल के सूर्य मंदिरों का निर्माण हूणों ने बौद्ध मंदिरों को ध्वस्त कर उनके भग्नावेशो पर करवाया था| कुछ अन्य इतिहासकार इन दोनों सूर्य मंदिरों की स्थापना का श्रेय कुषाणों को देते हैं| मिहिरकुल ने ग्वालियर में किले का निर्माण कराया था और वह एक सूर्य मंदिर की स्थापना की| इस मंदिर से उसका एक अभिलेख भी मिला हैं| मिहिरकुल के सिक्को पर सासानी प्रभाव वाली ईरानी ढंग की अग्नि वेदी सेविकाओ के साथ और सूर्य का प्रतीक रथ चक्र दिखाई देते हैं, जोकि हूणों के सूर्य और अग्नि उपासक होने के प्रमाण हैं| वैसे, भारत में सासानी प्रभाव से युक्त ईरानी ढंग की वेदी वाले सिक्के सबसे पहले हारा हूणों ने चलाये थे, इन सिक्को पर अग्नि वेदी सेविकाओ के साथ दिखाई देती हैं|
             

Varaha Statue at Eran 
हूणों मिहिर के अलावा वराह के भी उपासक थे| वराह पूजा की शुरुआत भारत के मालवा और ग्वालियर इलाके में लगभग उस समय हुई जब हूणों ने यहाँ प्रवेश किया| आरम्भ में हूण पश्चिमी तथा दक्षिणी राजस्थान, मालवा और ग्वालियर इलाको में शक्तिशाली हुए| यही पर हमें हूणों के प्रारभिक सिक्के और अभिलेख मिलते हैं| भारत में हूण शक्ति को स्थापित करने वाले उनके नेता तोरमाण ने इसी इलाके के एरण, जिला सागर, मध्य प्रदेश में वाराह अवतार की विशालकाय मूर्ति स्थापित कराई थी जोकि भारत में प्राप्त सबसे पहली वाराह मूर्ति हैं| तोरमाण के शासन काल के प्रथम वर्ष का अभिलेख इसी मूर्ति से मिला हैं, अभिलेख की शुरुआत वाराह अवतार की प्रार्थना से होती हैं, जोकि इस बात का सबूत हैं कि हूण और उनका नेता तोरमाण भारत प्रवेश के समय से ही वराह के उपासक थे| पूर्व ग्वालियर रियासत स्थित उदयगिरी की गुफा में वराह अवतार पहला चित्र मिला हैं, जोकि हूणों के आगमन के काल का ही हैं|  

साइबेरिया में वराह के सिर वाले देवताओ का चलन पहले से ही था और  मध्य एशियाई शक, हूण आदि कबीले इससे पहले से ही प्रभावित थे| इतिहासकार आर. गोइत्ज़ (R. Goetz) के अनुसार जिस समय भारत में वराह देवता का आम चलन हुआ, उसी समय इरानी दुनिया, अफगानिस्तान, और सासानी साम्राज्य में भी वराह ज़ुर्थुस्त भगवान वेरेत्रघ्न के रूप में पहली बार दिखाई देता हैं| उस समय हिंदू, बौद्ध और ईरानी, सभी को, श्वेत हूणों के साथ संघर्ष करना पड़ रहा था, इसलिए इस सम्प्रदाय का साँझा स्त्रोत हूणों के साथ खोजना ही अधिक तर्कसंगत हैं| वैष्णव, तांत्रिक बौद्ध और ज़ुर्थुस्त धर्मो में वराह देवता का एक साथ पर होने वाला ये उभार, संभवतः, हूणों या गुर्जरों से सम्बंधित किसी कबीलाई सौर देवता को अपने धर्मो में अवशोषित करने के प्रयास था|

गोएत्ज़, एरण स्थित वराह मूर्ति को वराह-मिहिर की मूर्ति बताते हैं और इसकी स्थापना का श्रेय तोरमाण हूण को देते हैं| गोएत्ज़ कहते हैं, क्योकि हूण सूर्य उपासक थे, इसलिए वराह और मिहिर का संयोग सुझाता हैं कि वराह उनके लिए सूर्य के किसी आयाम का प्रतिनिधित्व करता था| उनकी इस बात की पुष्टि ईरानी ग्रन्थ जेंदा अवेस्ता के मिहिर यास्त से होती हैं, जिसमे कहा गया हैं कि मिहिर/सूर्य जब चलता हैं तो वेरेत्रघ्न वराह रूप में उसके साथ चलता हैं| वेरेत्रघ्न युद्ध में विजय का देवता हैं| इसके भारतीय देवता विष्णु की तरह दस अवतार हैं| दोनों का ही, एक अवतार वराह भी हैं|

हालाकि वराह अवतार को उपनिषदो में चिन्हित किया जाता हैं, लेकिन इसे मुख्य रूप से हूणों और गुर्जरों से जोड़ा जाना चाहिए| यधपि वराह अवतार पहले से ज्ञात था, परन्तु सम्भावना हैं कि यह किसी विदेशी कबीलाई पंथ के स्थानपन्न के रूप में लोकप्रिय हुआ होगा| यही कारण हैं कि उत्तर भारत में वराह अवतार की अधिकतर मूर्तिया 500-900 ई. के मध्य की हैं, जोकि हूण-गुर्जरों का काल हैं| हूणों का नेता तोरमाण वराह अवतार का भक्त था और गुर्जर सम्राट मिहिरभोज भी वराह उपासक था| अधिकतर वराह मूर्तिया, विशेषकर वो  जोकि विशुद्ध वराह जानवर जैसी हैं, गुर्जर-प्रतिहारो के काल की हैं| तोरमाण हूण द्वारा एरण में स्थापित वराह मूर्ति भी विशुद्ध जानवर जैसी हैं| 1000 ई. के बाद की वराह मूर्तिया तो इक्की-दुक्की ही मिलती हैं| इसी समय सूर्य देवता का भी लोकप्रिय चलन हुआ, जोकि इसी (वराह की) तरह विदेशी मिहिर देवता का अनुकूलन था|

विष्णु भी वेरेत्रघ्न और वराह की तरह सूर्य/मिहिर से सम्बंधित देवता हैं, इस कारण से भी हूणों के आगमन पर विष्णु के वराह अवतार की पूजा को बल मिला होगा| भारत और इरान की कुछ सांझी अथवा सामानांतर मिथकीय परंपरा हैं, जो दोनों देशो की विरासत हैं, वराह अवतार की पूजा भी इनमे से एक हैं|

यूरोप में वराह (जंगली सूअर) को हूणों का पर्याय माना जाता हैं, इसे हूणों कि शक्ति और साहस का प्रतीक समझा जाता हैं| यूरोप में हंगरी हूणों के वंशजो का देश हैं| रोमानिया और हंगरी में विशालकाय वराह की प्रजाति को आज भी अटीला पुकारते हैं| अटीला(434-455 ई.) हूणों के उस दल का नेता था जिसने पांचवी शताब्दी में रोमन साम्राज्य को पराजित कर यूरोप में तहलका मचा दिया था| यूरोप के बोहेमिया देश में हूणों से सम्बंधित एक प्राचीन राजपरिवार का नाम बोयर अथवा बुजाइस हैं| बोयर का अर्थ हैं जंगली सूअर/वराह जैसा आदमी| भारत के इतिहास में भी वराह हूणों का पर्याय मालूम पड़ता हैं| कल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार विष्णु के वराह और नरसिंह अवतारों द्वारा मारे जाने वाले दैत्यों के नामधारी राजा हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप पंजाब में हूणों के पड़ोस में राज़ करते थे| संभवत: हूणों ने इन्हें मारा हो| इस प्रकार विष्णु के अवतार वराह द्वारा दैत्य हिरण्याक्ष के वध की कथा में वराह पर्याय हूण और उनके पडोसी राजा हिरण्याक्ष के मध्य हुए युद्ध का अक्स दिखाई पड़ता हैं| गोएत्ज़ के अनुसार हूणों के निष्काषन के बाद एरण में, हूणों द्वारा निर्मित वाराह मूर्ति के पास ही एक नरसिंह अवतार का मंदिर बनवाया गया| यह मात्र वराह मूर्ति के घटते हुए महत्व का ही नहीं  दर्शाता हैं, बल्कि वराह पर्याय हूणों कि पराजय का भी ध्योतक हैं|

भारत और इरान दोनों देशो में मिहिर-सूर्य पूजा और वराह पूजा संयुक्त धार्मिक विश्वास हैं| मिहिर-सूर्य और वराह के आपसी जुडाव का इस बात से भी अहसास होता हैं कि कृष्ण के पुत्र साम्ब द्वारा भारत में पहले सूर्य मंदिर कि स्थापना और सूर्य पूजा के लिए शक द्वीप से मग ब्राह्मणों को बुलाने की कथा भी वराह नामक पुराण में आती हैं| वराह और सूर्य के धार्मिक विश्वास की संयुक्तता की अभिव्यक्ति कुछ स्थानो और व्यक्तियों के नामो में भी दिखाई देता हैं, जैसे- उत्तर प्रदेश के बहराइच स्थान का नाम वाराह और आदित्य शब्दों से वाराह+आदित्य= वाराहदिच्च/ वाराहइच्/ बाहराइच/ बहराइच होकर बना हैं| मिहिरकुल हूण ने अपने पराभव काल में कश्मीर में शरण ली थी, उसने श्री नगर के निकट मिहिरपुर नगर बसाया था| कश्मीर में ही बारामूला नगर हैं ,जोकि प्राचीन काल के वाराह+मूल स्थान का अपभ्रंश हैं| मूल सूर्य का पर्याय्वाची हैं|  इसी प्रकार तोरमाण  हूण (475-515.) और मिहिकुल हूण (515-533 ई.) के समकालीन भारतीय नक्षत्र विज्ञानी वराह-मिहिर (505-587 ई.) के नाम में तो दोनों शब्द एक दम साफ़ तौर पर देखे जा सकते हैं| इतिहासकार डी. आर. भंडारकर वराह मिहिर को ईरानी मूल का मग पुरोहित मानते हैं| इस प्रकार प्रतीत होता हैं कि वाराह और मिहिर परस्पर जुड़े हुए धार्मिक विश्वास हैं, जोकि ज़ुर्थुस्थ धर्म से प्रभावित हूणों के साथ भारत आये|

वाराह और मिहिर की युति हमें गुर्जर-प्रतिहार सम्राट भोज महान के मामले में भी दिखाई देती हैं| 
Varaha Coin of  Gurjara Emperor Bhoja
  भोज की एक अन्य उपाधि वराह थी, उत्तर भारत के बहुत से स्थानों से हमें  भोज महान के वराह के चित्र वाले  चांदी के सिक्के प्राप्त हुए हैं, जिन पर श्रीमद आदि वराह लिखा हैं| समकालीन अरबी  इतिहासकारों ने सभी गुर्जर-प्रतिहार सम्राटों को बौरा यानि वराह कहा हैं, यह इनका पारवारिक उपनाम मालूम पड़ता हैं| यहाँ आपको याद दिला दू कि ठीक इसी प्रकार यूरोप में हूणों को वराह कहा जाता रहा हैं, और यूरोप के बोहेमिया में भी हूणों से सम्बंधित एक राजपरिवार को बोयर/वाराह कहा जाता था|

भारतीय इतिहास में हूणों और गुर्जर प्रतिहारो के बीच बहुत से सामानांतर तथ्य हैं| ग्वालियर से मिहिरकुल हूण (515-533 ई.) का एक अभिलेख मिला हैं| भोज महान (836-885 ई.) का भी एक अभिलेख ग्वालियर से मिला हैं, कन्नौज से विस्थापित होने के बाद प्रतिहारो ने ग्वालियर को ही अपना केन्द्र बनाया था| ग्वालियर इलाका पहले हूणों का और कालांतर में गुर्जरों के शक्ति का केंद्र रहा हैं| गुर्जरों की घनी आबादी और प्राचीन काल से ही यहाँ हूण-गुर्जरों के शक्तिशाली होने के कारण ग्वालियर इलाका उन्नीसवी शताब्दी तक गूजराघार कहलाता था|

भोज महान के वास्तविक नाम मिहिर और हूण सम्राट मिहिरकुल के नाम में मिहिर शब्द की समानता भी कम उलेखनीय नहीं है| मिहिरकुल हूण को मिहिर भी कहा जाता था, उसके एक सिक्के पर उसका नाम सिर्फ मिहिर अंकित हैं|  मिहिरकुल हूण के सिक्को की भाति हमें भोज महान के सिक्के भी ईरानी सासानी ढंग के हैं और इन पर भी सेविकाओ सहित अग्नि वेदिका और सूर्य का प्रतीक रथ चक्र अंकित हैं| प्रो. विशम्बर शरण पाठक का मत हैं कि मिहिरभोज की मुद्राओ पर चित्रित अग्नि और उसके खुद का नाम मिहिर होना उसे सूर्य उपासना से जोड़ते हैं| प्रो. पाठक का यह कथन मिहिरकुल पर भी लागू होता हैं|

हूण सम्राट तोरमाण और मिहिरकुल भैंस के सिर वाला चांदी का मुकुटपहनते थे| जोकि हूण-गुर्जरों का प्राचीन काल से ही भैस पालक होने का प्रमाण हैं| जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड के घुमुन्तु चरवाहे गुर्जर आज भी भैस पालक ही हैं| हूणों के इतिहास से समानता रखने वाले गुर्जर सम्राट भोज महान से जुड़े उपरोक्त सभी तथ्य गुर्जरों की हूणों से उत्पति के सिद्धांत को मज़बूत आधार प्रदान करते हैं|

इतिहासकार वी. ए. स्मिथ और विलियम क्रुक ने गुर्जरों को हूणों से सम्बंधित माना हैं| उनके अनुसार इसकी प्रमुख वजह यह थी कि छठी शताब्दी में गुर्जरों का उदय पश्चिमी भारत में ठीक हूणों के आक्रमण और उनके पतन के बाद हुआ| | कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों की उत्पत्ति खज़र नामक कबीले से मानते हैं, वे खज़र जाति को श्वेत हूणों की शाखा मानते हैं| डी. आर. भंडारकर के अनुसार चन्द्र बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो में अग्निकुंड से उत्पन्न बताये गए राजघराने गुर्जर-प्रतिहार, चालुक्य/सोलंकी, परमार/पंवार और चौहान  खज़र-हूण मूल के गुर्जर थे| इतिहासकार होर्नले तोमर, कछवाहो और चालुक्यो को हूण मूल का गुर्जर मानते हैं| होर्नले के अनुसार मालवा में यशोधर्मण से 528 ई. में हारने के  के पश्चात हूणों का एक दल नर्मदा नदी पार कर दक्कन चल गया, कालांतर में इन्होने ही वातापी के चालुक्य वंश कि स्थापना की| गुर्जर-प्रतिहारो की तरह ही चालुक्यो का शाही निशान भी वराह था| उनके सिक्को पर भी वराह अंकित रहता था| इन सिक्को को वराह के नाम से पुकारा जाता था|  चालुक्यो ने हूण नाम के सिक्के भी चलवाए| ऐसा प्रतीत होता हैं कि, सातवी शताब्दी में गुर्जरों का उत्थान वास्तव में एक नए जातिय नाम के साथ  हूणों का ही पुनरुत्थान था|

सूर्य और वराह पूजा हूणों की ही तरह उनके वंशज कहे जाने वाले गुर्जरों में विशेष रूप से विधमान रही हैं| इस बात की पुष्टि गुर्जरों से जुड़े रहे स्थलों पर दृष्टी डालने से हो जाती हैं| सातवी शताब्दी में लिखित बाण भट्ट कृत हर्षचरित में गुर्जरों का पहली बार उल्लेख हुआ हैं| इसी काल में चीनी यात्री हेन सांग (629-645 ई.)भारत आया था, उसने अपनी पुस्तक सीयूकी में आज के राजस्थान को गुर्जर देश कहा हैं और भीनमाल को इसकी राजधानी बताया| भीनमाल से इस काल में निर्मित सूर्य देवता के प्रसिद्ध जग स्वामी मंदिर के भग्नावेश मिले हैं| यहाँ एक वराह मंदिर भी हैं| गुर्जरों का पहला अभिलेख भडोच, सूरत से प्राप्त हुआ हैं| यह भडोच के शासक दद्दा द्वितीय (633 ई.) का हैं| इस अभिलेख पर सूर्य शाही निशान(emblem) के तौर पर मौजूद हैं| इस प्रकार स्पष्ट हैं कि  गुर्जर आरम्भ से ही सूर्य और वाराह के उपासक थे|

 गुर्जर प्रतिहारों की राजधानी कन्नौज में भी वराह की पूजा होती थी और वहा वराह का मंदिर भी था| पुष्कर जोकि गुर्जरों का सबसे बड़ा तीर्थ माना जाता हैं, यहाँ से सौ मील के दायरे तक के गुर्जर अपने मृतको के अंतिम संस्कार के लिए यहाँ आते हैं| यहाँ भी वराह मंदिर और वराह घाट हैं| वराह घाट पर स्नान करना सबसे अधिक पुण्य प्रदान करने वाला मन जाता हैं| पदम पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने पुष्कर में, गुर्जर कन्या गायत्री से विवाह कर, एक हवन किया था| यहाँ ब्रह्मा और गायत्री के मंदिर भी हैं| गायत्री मन्त्र सूर्य आराधना से सम्बंधित हिन्दुओ का सबसे महत्वपूर्ण मन्त्र माना जाता हैं| सूर्य सम्बन्धी गायत्री मन्त्र का व्यक्तिकरण गुर्जर कन्या के रूप होना, निसंदेह गुर्जरों का विशेष रूप से सूर्य उपासक होने का प्रमाण है|

मथुरा भी ऐतिहासिक तौर पैर गुर्जरों से जुडा रहा हैं और यहाँ आज भी गुर्जरों की आबादियाँ हैं| इतिहासकार केनेडी मथुरा के कृष्ण की बाल लीलाओ की कथाओ के प्रचलन का श्रेय गुर्जरों को देते हैं| मथुरा में भी प्राचीन वराह मंदिर हैं|

मिहिरऔर वाराहहूणों और गुर्जरों दोनों के ही समान रूप से ने केवल आराध्य थे बल्कि ये इनके उपनाम और उपाधि भी थे| डी. आर. भंडारकर ने गुर्जरों के पहचान हूणों से की हैं क्योकि हूणों को मिहिर भी कहते थे और मिहिर आज भी अजमेर राजस्थान में गुर्जरों सम्मानसूचक उपाधि हैं| यूरोप में वराह हूणों का पर्याय रहा हैं और भारत में वराह प्रतिहार वंश के गुर्जर सम्राटों की उपाधि थी| यह बात भी साफ़ हो रही हैं कि भारत आने वाले श्वेत हूण और अटीला के नेतृत्व में यूरोप जाने वाले हूण सिर्फ नाम ही नहीं जातिय तौर पर भी एक ही थे|

                                                                                                                  (Dr Sushil Bhati)