डॉ. सुशील भाटी
सियादोनी अभिलेख, आहड अभिलेख और कमान अभिलेख से हमें
पूर्व-मध्यकाल (600-1000 ई) के दौरान
उत्तर भारत में ‘दम्म्र’ नामक मुद्रा के प्रचलन के विषय में ज्ञात होता हैं|
द्रम्म शब्द की उत्पत्ति मुद्रा के लिए प्रयुक्त यूनानी शब्द ‘द्रच्म’ से हुई हैं| द्रम्म शब्द चांदी
की उस मुद्रा के लिए प्रयोग होता था, जिसका भार मानदंड यूनानी द्रच्म मुद्रा पर आधारित होता था|
सियादोनी अभिलेख (902-96 ई.) में ‘विग्रहपाल’ तथा
‘आदिवराह’ द्रम्म नामक मुद्राओ का उल्लेख हुआ हैं| वस्तुतः गुर्जर प्रतिहार काल में उत्तर भारत में
‘विग्रहपाल’, ‘आदिवराह’ तथा विनायकपाल अंकित द्रम्म मुद्रा प्रचलित थी| अलाउद्दीन
खिलजी की दिल्ली टकसाल के अधिकारी ठक्कर फेरु (1291-1323 ई.) ने द्रव्य परीक्षा
नामक एक ग्रन्थ लिखा, जिसमे उसने ‘वराहमुद्रा’ का उल्लेख किया हैं| इस आदिवराह अथवा
वराह मुद्रा की पहचान उत्तर भारत से प्राप्त ‘श्रीमदआदिवराह’ अंकित सिक्को से की जाती हैं| श्रीमद आदिवारह गुर्जर प्रतिहार शासक
मिहिर भोज का बिरुद था अतः ऐसा माना जाता हैं कि ये सिक्के उसी के द्वारा ज़ारी
किये गए थे|
मिहिरभोज के ग्वालियर अभिलेख में भी मुद्रा के
लिए द्रम्म शब्द प्रयुक्त हुआ हैं| श्रीमदआदिवराह द्रम्म में ऊपर की तरफ वराह अवतार तथा सूर्य चक्र अंकित
हैं| वराह अवतार का सिर वराह का और धड़ मनुष्य का हैं| सिक्को के दूसरी तरफ
‘श्रीमदआदिवराह’ लिखा हैं तथा सासानी
ढंग की वेदी उत्कीर्ण हैं|
‘आदिवराह’ द्रम्म को हिन्द-सासनी सिक्को में
वर्गीकृत किया जाता रहा हैं, क्योकि इन सिक्को का डिजाईन ईरान के सासानी वंश के शासको के सिक्को
जैसा हैं| 484 ई. में हूणों ने ईरान के सासानी वंश के शासक फ़िरोज़ को युद्ध में
पराजित कर दिया| उसके पश्चात् छठी शताब्दी में अलखान हूणों ने उत्तर और पश्चिम भारत में सासनी
ढंग की वेदी वाले सिक्के प्रचलित किये| हूणों के इन्ही सिक्को का अनुसरण गुर्जर
राज्यों ने किया| यह भी उल्लेखनीय हैं कि कल्हण कृत राजतरंगिणी ग्रन्थ (1149 ई.)
में पंजाब के राजा का नाम अलखान गुर्जर बताया गया हैं अलखान गुर्जर का युद्ध
कश्मीर के शासक शंकरवर्मन (885-902 ई.) के साथ हुआ था| स्पष्ट हैं कि नवी शताब्दी
के अंत में अलखान हूण गुर्जर के रूप में जाने जा रहे थे, अतः गुर्जरों द्वारा
हूणों की मुद्रा का अनुकरण स्वाभाविक था|
प्रतिहारो के सामन्तो ने भी अपने सिक्के चलाये|
मेवाड़ में चलने वाले सिक्के चौड़े और पतले हैं जोकि हूणों के सिक्को से अधिक मिलते
हैं| इन सिक्को पर अग्निवेदिका की सेविकाए हीरो के मनको से निर्मित तीन श्रंखलाओ
के रूप में दर्शायी गई हैं| के इन सिक्को का प्रचलन क्षेत्र भीलवाड़ा-मेवाड़ था| ये
सिक्के गुहिलोत शासको ने चलाये थे| गुर्जर प्रतिहारो के शाही सिक्को की तुलना में
इन सिक्को में चांदी की मात्रा कम हैं| इस प्रकार के 3000 सिक्को का ढेर भीलवाड़ा
जिले से प्राप्त हुआ हैं| इस प्रकार के सिक्को का एक और पिपलांज से प्राप्त हुआ
हैं| ये सिक्के अठारवी शताब्दी तक प्रचलन में रहे तथा फडिया/पड़िया कहलाते थे| जॉन
एस. ड़ेयेल्ल (John S Deyell) के अनुसार चौदहवी शताब्दी के आरम्भ दिल्ली टकसाल के
अधिकारी फेरु ठक्कर ने पड़िया मुद्रा को ‘गुर्जर सिक्का’ कहा हैं|
गुजरात का चाप सामन्तो ने भी चांदी के सिक्के
चलाये| अपने डिजाईन के कारण ये सिक्के भी हिन्द-सासानी श्रेणी के अंतर्गत आते हैं|
के इन सिक्को में चांदी की मात्रा गुर्जर प्रतिहारो के सिक्को से भी अधिक थी|
उज्जैन-कन्नौज के प्रतिहारो से पूर्व में भी
गुर्जरों ने सासानी ढंग के सिक्के जारी किये थे|
सातवी शताब्दी में गुर्जर देश की राजधानी भीनमाल से भी सासानी ढंग की
अग्निवेदिका वाले सिक्के जारी किये गए थे| उस समय गुर्जर देश पर चाप (चावड़ा) वंश
के व्याघ्रमुख का शासन था| इन सिक्को को गदहिया सिक्के भी कहते हैं| एक जैन लेखक
के विवरण से यह तथ्य ज्ञात होता हैं कि ‘गदहिया सिक्के’ भीनमाल से ज़ारी किये गए थे| भीनमाल से ज़ारी किये गए गदहिया सिक्के हूणों के सिक्को का अनुकरण हैं|
हूणों के सिक्को पर भी सासानी ढंग की अग्निवेदिका उत्कीर्ण हैं| गदहिया सिक्को का
सम्बन्ध गुर्जरों से रहा हैं तथा इनके द्वारा शासित पश्चिमी भारत में सातवी से
लेकर दसवी शताब्दी तक भारी प्रचलन में रहे हैं| चाप (चावड़ा) वंश के गुजरात में प्रबल होने पर गदहिया सिक्को का
प्रचलन गुजरात में बढ़ गया|
इब्न खोर्दाद्बेह (Ibn Khordadbeh) जिसकी मृत्यु 912
में हुई थी, उसके अनुसार हज़र (गुर्जर) राज्य में तातारिया सिक्के भी प्रचलन में थे|
छोटे व्यापारिक लेनदेन के लिए कौड़ियो का प्रचलन
भी था| ऊपरी गंगा घाटी के खजौसा (Khajausa) नामक स्थान से अदिवराह तथा विनायकपाल
द्रम्म के साथ कौड़िया भी प्राप्त हुई हैं|
यह ज्ञात करना कि गुर्जर प्रतिहारो के शासनकाल
में कितनी मात्रा में मुद्रा प्रचलित थी, काफी कठिन कार्य हैं| भू राजस्व
व्यवस्था, सैन्य विभाग तथा स्थानीय और विदेशी व्यापार के सुचारू परिचालन के लिए एक
स्थिर मुद्रा व्यवस्था की आवश्यकता थी| राज्य की आय का मुख्य स्त्रोत भू राज़स्व
था, वही राजकोष का धन मुख्य रूप शाही परिवार और सेना पर से खर्च किया जाता था| स्थानीय
और विदेशी व्यापारिक गतिविधियाँ और लेन-देन काफी मात्रा में किया जाता हैं| कन्नौज,
अहिछत्र (बरेली), पुराना किला (दिल्ली), अतरंजीखेड़ा, राजघाट (वाराणसी), आदि प्राचीन
नगर प्रतिहार काल में भी फलते-फूलते रहे| तत्तनन्दपुर (आहर), सियादोनी, जिला-
झाँसी , गोपाद्री (ग्वालियर), पृथुदक (पेहोवा), नडुल्ल आदि नए नगरो का उदय गुर्जर
प्रतिहार काल में हुआ| इन नगर में बाज़ार और व्यापारिक समुदाय अस्तित्व में थे| अल
बिरूनी के ग्रन्थ किताब उल हिन्द (1030 ई.) से हम उत्तर भारत के व्यापारिक मार्गो
की जानकारी प्राप्त होती हैं| विदेशो से घोड़ो का व्यापार किया जाता हैं| भारत में
गुर्जर राज्य की घुड़सवार सेना सबसे अच्छी थी| पेहोवा अभिलेख (882 ई.) के अनुसार
वहाँ घोड़ो की खरीद-फरोख्त की एक मंडी थी| अल मसूदी के अनुसार बौरा (वराह) के चार सेनाये
थी, उत्तर की सेना मुल्तान के विरुद्ध, दक्षिण की सेना मनकीर (मान्यखेट) के बल्हर
(वल्लभ) के विरुद्ध तैनात रहती थी| दो सेनाए हमेशा किसी भी आवश्यता पड़ने पर किसी
भी दिशा में कूच के लिए तैयार रहती थी| सीमाओं पर तैनात सैनिको के लिए नकद वेतन की
व्यवस्था की आवश्यकता रही होगी| जॉन एस.
डेयेल्ल (John S Deyell) ने अपने विश्लेषण में ए. के. श्रीवास्तव के अध्ययन को
आधार बनाया हैं| इस विश्लेषण के अनुसार 1882-1979 तक उत्तर प्रदेश में गुप्त काल
(300-500 ई.) के कुल 21 ढेरो से 159 सिक्के प्राप्त हुए हैं, जबकि पूर्व मध्काल
(600-1000ई.) / गुर्जर प्रतिहार काल के 110 ढेरो से 16121 द्रम्म सिक्के प्राप्त
हुए हैं| गुर्जर प्रतिहार काल में मुद्रा की कमी नहीं थी, वरन इस काल में गुप्त
काल से अधिक मुद्रा प्रचलित थी|
सन्दर्भ-
1. John S Deyell, The Gurjara Pratiharas, Trade in Early India (Edited) Ranabir Chakravarti, OUP, New Delhi, 2001, p 396-415
2. A K Shrivastava, Coin Hoards of Uttar
Pradesh 1882-1979, Lucknow, 1980
3. Surabhi Srivastava, “Coins and Currency system under the Gurjara
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vol. 65, 2004, pp. 111–120., www.jstor.org/stable/44144724.
Accessed 15 May 2020.
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5. Sushil Bhati, Huna origin of Gurjara clans, Janitihas
blogspot.com, 2015 https://janitihas.blogspot.com/2015/01/huna-origin-of-gurjara-clans.html
6. Sushil Bhati, Gurjar Pratiharo ki Huna Virasat,
Janitihas blogspot.com, 2016 https://janitihas.blogspot.com/2016/11/blog-post.html
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9. R C Mazumdar, The age of Imperial Kannauj,
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10. B.N. Mukherjee, ‘Gold Coin of Pratihara
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12. V. A. Smith, The Gurjaras of Rajputana and
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