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Friday, August 23, 2019

‘मिहिर’ उपाधि, गुर्जर और मिहिरोत्सव

डॉ. सुशील भाटी

गुर्जरों की मिहिर उपाधि की परंपरा ने इनकी ऐतिहासिक विरासत को संरक्षित रखा हैं| मिहिर शब्द का गुर्जरों के इतिहास के साथ गहरा सम्बंध हैं| हालाकि गुर्जर चौधरी, पधान प्रधान’, आदि उपाधि धारण करते हैं, किन्तु मिहिरगुर्जरों की विशेष उपाधि हैं| राजस्थान के अजमेर क्षेत्र और पंजाब में गुर्जर मिहिर उपाधि धारण करते हैं|

मिहिर सूर्यको कहते हैं| भारत में सर्व प्रथम सम्राट कनिष्क कोशानो ने मिहिरदेवता का चित्र और नाम अपने सिक्को पर उत्कीर्ण करवाया था| सम्राट कनिष्क के रबाटक अभिलेख में उल्लेखित उसकी अपनी आर्य भाषामें उसने अपने सिक्को पर मीरोअंकित करवाया था| कनिष्क मिहिर सूर्यका उपासक था|

सम्राट मिहिरकुल हूण ने मिहिर शब्द उपाधि के रूप में धारण किया था| मिहिरकुल का वास्तविक नाम गुल था तथा मिहिर इसकी उपाधि थी| मिहिरगुल को ही राजतरंगिणी सहित अन्य संस्कृत ग्रंथो में मिहिरकुल लिखा गया हैं| सम्राट मिहिरकुल हूण परम शिवभक्त था और सनातन धर्म का संरक्षक था| उसने 1000 गाँव ब्राह्मणों को दान में दिए थे| कैम्पबैल आदि इतिहासकारों के अनुसार हूणों को मिहिरनाम से भी पुकारा जाता था| मिहिरकुल का पिता सम्राट तोरमाण वराह देवताका उपासक था|

भारतीय इतिहास में, सम्राट मिहिरकुल हूण के पश्चात, मिहिर उपाधि धारण करने का एक अन्य उदाहरण गुर्जर प्रतिहार सम्राट भोज महान द्वारा प्रस्तुत होता हैं| भोज महान ने भी मिहिरउपाधि धारण की थी| इसीलिए आधुनिक इतिहासकार इन्हें मिहिर भोज भी कहते हैं| भोज भी वराह देवता का उपासक था, उसने अपने सिक्को पर वराह देवता का चित्र तथा अपनी उपाधि आदि वराहअंकित करवाया थी| आदि शब्द आदित्य का संछिप्त रूप हैं, जिसका अर्थ मिहिर 'सूर्य' हैं|

इस प्रकार मिहिर भोज के सिक्को पर उत्कीर्ण 'आदि वराह' सूर्य से संबंधित देवता हैं| वराह देवता इस मायने में भी सूर्य से सम्बंधित हैं कि वे भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं, जोकि वेदों में सौर देवता के रूप में प्रतिष्ठित हैं| विष्णु भगवान को सूर्य नारायण भी कहते हैं| 'आदि वराह' के अतिरिक्त वराह और सूर्य देवता के नाम की संयुक्तता कुछ प्राचीन स्थानो और ऐतिहासिक व्यक्तियों के नामो में भी दिखाई देती हैं, जैसे- उत्तर प्रदेश के बहराइच नगर का नाम वराह और आदित्य शब्दों से वराह+आदित्य= वराहदिच्च/ वराहइच्/ बहराइच होकर बना हैं| कश्मीर में बारामूला नगर हैं, जिसका नाम वराह+मूल = वराहमूल शब्द का अपभ्रंश हैं| आदित्य और मिहिर की भाति मूलशब्द भी सूर्य का पर्यायवाची हैं| प्राचीन मुल्तान नगर का नाम भी मूलस्थान शब्द का अपभ्रंश हैं| भारतीय नक्षत्र विज्ञानी वराहमिहिर (505-587 ई.) के नाम में तो दोनों शब्द एक दम साफ़ तौर पर देखे जा सकते हैं|

भादो के शुक्ल पक्ष की तीज को वराह जयंती होती हैं| वराहमिहिर, वराहमूल (बारामूला), वराहदित्य (बहराइच) आदि नामो से मिहिर और वराह देवता की संयुक्तता प्रमाणित हैं| वराह जयंती के अवसर पर आदि वराहउपाधि धारक सम्राट मिहिर भोज को भी हम याद करते हैं| मिहिर और 'आदि वराह' दोनों ही गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज की उपाधि हैं| अतः "मिहिर भोज स्मृति दिवस" कोमिहिरोत्सव”- मिहिर का उत्सव के रूप में भी मना सकते हैं|

सन्दर्भ:

1. भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय संस्कृति के स्त्रोत, नई दिल्ली, 1991,
2. रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिका, खंड-1 मेरठ, 2006
3. सुशील भाटी, वराह उपासक मिहिर पर्याय हूण, जनइतिहास ब्लॉग, 2013
4. सुशील भाटी, शिव भक्त सम्राट मिहिरकुल हूण, जनइतिहास ब्लॉग, 2012
5. सुशील भाटी, गुर्जर प्रतिहारो की हूण विरासत, जनइतिहास ब्लॉग, 2013
6. ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
7. ए. एम. टी. जैक्सन, भिनमाल (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896
8. विन्सेंट ए. स्मिथ, दी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडिया, चोथा संस्करण, दिल्ली,
9. Sushil Bhati, Huna origin of Gurjara clans, Janitihas Blog, 2015
10. जे.एम. कैम्पबैल, दी गूजर (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2, बोम्बे, 1899
11. सुशील भाटी, कल्कि अवतार और मिहिरकुल हूण, जनइतिहास ब्लॉग, 2013
12. सुशील भाटी, गुर्जर इतिहास चेतना के सूत्र, जनइतिहास ब्लॉग, 2017
13. के. सी. ओझा, ओझा निबंध संग्रह, भाग-1 उदयपुर, 1954
14. बी. एन. पुरी. हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहार, नई दिल्ली, 1986
15. डी. आर. भण्डारकर, गुर्जर (लेख), जे.बी.बी.आर.एस. खंड 21, 1903
16. सुशील भाटी, सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क (लेख)

Tuesday, March 19, 2019

हम थे.... हम हैं.... हम रहेंगे

डॉ सुशील भाटी
साथियों, IGD 2018 के मौके पर ग्रेटर नॉएडा में, हमारे ऐतिहासिक वजूद पर प्रश्न चिन्ह लगाने वालो के लिए मैंने कहा था कि ‘हम थे....हम हैं....हम रहेंगे..
भारत के विधिवत इतिहास लेखन की शुरुआत ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेज इतिहासकार जेम्स मिल, विलियम जॉन, वी ए स्मिथ आदि ने की थी| इन विदेशी इतिहासकारों के इतिहास लेखन का एक मकसद विदेशी अंग्रेजी शासन के लिए भारतीय जनता में सामाजिक आधार खोजना था| अतः इन्होने भारत के इतिहास को विदेशी आक्रमणों का इतिहास बना कर प्रस्तुत किया| शक, कुषाण, हूण सभी को विदेशी आक्रमणकारी के रूप में पेश किया| यहाँ तक कि वेदों के रचयिता वैदिक आर्यों को मूल भी मध्य एशिया में खोजा गया| तुर्क और मुग़ल तो प्रमाणित विदेशी थे ही| अतः अंग्रेजी इतिहास लेखन में निहित तर्क यह था कि भारत पर विदेशी अंग्रेजी शासन स्वाभाविक हैं क्योकि भारत पर सदा ही विदेशियों का शासन रहा हैं तथा भारतीयों में शासन करने के गुणों का अभाव हैं|
विलियम जॉन के 'इंडो-यूरोपियन जाति सिधांत' से प्रभावित अंग्रेज इतिहासकारों और विद्वानों ने वैदिक परंपरा को भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा मानते  हैं|
किन्तु उन्होंने शक, कुषाण, हूणों को मध्य एशिया की विदेशी बर्बर जातिया लिखकर, इन्हें भारतीय इतिहास में बदनाम कर, इनकी ऐतिहासिक भूमिका को ही उलट दिया| जबकि सच ये हैं कि किसी भी समकालीन भारतीय ग्रन्थ में इन्हें विदेशी नहीं कहा गया हैं| चीनी यात्री फाहियान ने कनिष्क को जम्बूदीप का सम्राट कहा हैं| कुषाणों का आरंभिक इतिहास जम्बूदीप के उत्तर कुरुवर्ष (तारिम घाटी) से मिलता हैं| जम्बूदीप वृहतर भारत के समान था| प्राचीन भारतीयों की भोगोलिक चेतना जम्बूदीप से जुड़ी थी| आज भी हवन आदि से पूर्व पुरोहित जम्बूदीप स्थित भरत खंड का उच्चारण करते हैं| स्मृति साहित्य और पुराणों में इन्हें ‘व्रात्य क्षत्रिय’ कहा गया हैं| भगवान महावीर के लिच्छवी कुल को भी व्रात्य क्षत्रिय कहा गया हैं| कनिष्क कोशानो के रबाटक अभिलेख में उसने अपने राजसी वर्ग और अधीन सामंतो को क्षत्रिय कहकर पुकारा हैं| अतः प्राचीन समकालीन साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्य इनके क्षत्रिय होने का संकेत करते हैं| संस्कृत भाषा का, जूनागढ़ से प्राप्त प्राचीनतम अभिलेख, शक शासक रूद्रदमन का हैं| रबाटक अभिलेख के अनुसार कनिष्क कुषाण ने राजकार्य में ‘आर्य भाषा’ को प्राथमिकता दी तथा उसके शासन काल में संस्कृत सहित्य का विशेष रूप से विकास हुआ| यहाँ तक, कनिष्क के राज्यकाल में, बौद्ध साहित्य भी संस्कृत भाषा में रचा गया| कनिष्क के दरबार में अश्वघोष, वसुबंधु और नागार्जुन जैसे दार्शनिक और विद्वान थे| प्राचीन भारत के प्रसिद्ध आयुर्विज्ञानी चरक और श्रुश्रत कनिष्क के दरबार में आश्रय पाते थे| गांधार एवं मथुरा मूर्तिकला का विकास कनिष्क महान की ही देन हैं|
कनिष्क ने अपने राज्य रोहण को यादगार बनाने के लिए 78 इस्वी में शक संवत चलाया था| आज़ादी के समय शक संवत भारत का सबसे प्रचलित था तथा आज भी भारत का राष्ट्रीय संवत हैं| शक संवत प्रत्येक साल 22 मार्च को शुरू होता हैं अतः यह दिन कनिष्क के राज्य रोहण की वर्ष गाँठ भी हैं|
आज़ादी के बाद राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने वैदिक आर्यों के विदेशी मध्य एशियाई मूल के सिधांत को चुनौती दी और उसे अस्वीकार कर दिया| वोट बैंक की राजनीती ने तुर्क और मुगलों को भी विदेशी होने के तमगे से बरी कर दिया| लेकिन शक कुषाण और हूण भारतीय इतिहास लेखन में कोरे विदेशी बर्बर ही लिखे जाते रहे हैं| भारतीय इतिहास लेखन की पथभ्रष्ट परम्परा द्वारा भारतीय सभ्यता के लिए इनके योगदान को यह कह कर झुटलाया जाता रहा कि इन्हें भारतीय समाज और संस्कृति ने पचा लिया और विलीन कर लिया गया|
किन्तु कुषाण, कुषाणों की आर्य भाषा (बाख्त्री) में कोशानो, आज भी गुर्जरों के कसाना गोत्र के रूप में उपस्थित हैं, जिसका विस्तार लगभग पूरे भारतीय उप महादीप में हैं| इतिहासकार कनिंघम, भगवान लाल इंद्र जी, एथ्नोलोजिस्ट डेंजिल इबटसन तथा एच ए बिंगले ने गुर्जरों को कुषाण स्वीकार किया हैं| इसी प्रकार हूण भी गुर्जरों का एक प्रमुख गोत्र हैं| विलियम क्रुक, होर्नले और वी. ए. स्मिथ ने गुर्जरों के हूण सम्बंध को स्वीकार किया हैं| (कुषाण/कोशानो) और हूण न पचे हैं ना विलीन हुए हैं बल्कि आज भी ये गुर्जरों के गौत्र हैं, वास्तव में य ये गुर्जरों के इतिहास के जीते-जागते उदाहरण हैं|
विदेशी अंग्रेजी इतिहासकारों ने सभी भारतीयों को विदेशी साबित करने की जिस परिपाटी को आरम्भ किया, उसका अनुसरण उनके कुछ पिछलग्गू भारतीय इतिहासकारों ने भी किया| इन अंग्रेज इतिहासकारों और उनके पिछलग्गूओ के इतिहास लेखन और प्रचार से घबरा कर कुषाण और हूण जैसे बहादुर और पराक्रमी यौधाओ के कुछ बुद्धिजीवी वंशज भी उनसे कतराते फिर रहे हैं, कुषाणों और हूणों को विलीन कर लेने की बात करने वालो के दामन में छुपकर, ये मिथकों को इतिहास बनाने पर तुले हैं और वास्तविक इतिहास से समाज को विमुख कर रहे हैं|
यह बेहद आश्चर्यजनक हैं कि तुर्क और मुग़ल को विदेशी कहने में लोगो को संकोच हैं, किन्तु प्राचीन परम्पराओ के पोषको को विदेशी ठहराए जाने से कोई गुरेज़ नहीं हैं| साथियों कनिष्क कुषाण/ कोशानो, मिहिरकुल हूण और मिहिर भोज के इतिहास से गुर्जर समाज के जुड़ाव ने ब्रिटिशशासन काल के विदेशी अंग्रेज इतिहासकारों और उनके कुछ वर्तमान पिछलग्गू इतिहासकारों के सामने चुनौती उपस्थित कर दी हैं| ब्रिटिशशासन काल के विदेशी अंग्रेज इतिहासकारों के वर्तमान पिछलग्गू इतिहासकारों को हमारा साफ़ सन्देश हैं - हम थे.. हम हैं....हम रहेंगे !
जय कनिष्क, जय मिहिरकुल, जय मिहिर भोज
जय हिन्द, जय भारत !
सन्दर्भ
1. Alexander, Cunningham, Archeological survey India, Four reports made during 1862-63-64-65, Vol . II, Simla, 1871, Page 70-73
2. Pandit Bhagwanlal Indraji, Early History of Gujarat (art.), Gazetteer of the Bombay Presidency, Vol I Part I, , Bombay 1896,
3. Denzil Ibbetson, Panjab Castes, Lahore 1916
4. H A Rose, A Glossary Of The Tribes and Castes Of The Punjab And North-Western Provinces, Vol II, Lahore, 1911,
5. Edwin T Atkinson, Statistical, Descriptive and Historical Account of The North- Western Provinces Of India, Vol II, Meerut Division: Part I, Allahabad, !875, Page 185-186 https://books.google.co.in/books?id=rJ0IAAAAQAAJ
6. A H Bingley, History, Caste And Cultures of Jats and Gujarshttps://books.google.co.in/books?id=1B4dAAAAMAAJ
7. D R Bhandarkar, Gurjaras (Art.), J B B R S, Vol. XXI,1903
8. G A Grierson, Linguistic Survey of India, Volume IX, Part IV, Calcutta, 1916
9. सुशील भाटी, गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिधांत, जनइतिहास ब्लॉग, 2016
10. सुशील भाटी, जम्बूदीप,का सम्राट कनिष्क कोशानो,जनइतिहास ब्लॉग, 2018

Thursday, March 14, 2019

1857 की जनक्रांति के जनक धन सिंह कोतवाल पर इतिहास लेखन

डॉ सुशील भाटी

10 मई 1857 को मेरठ से, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध में, शुरू हुई जनक्रांति के विस्फोट में मेरठ की सदर कोतवाली में तैनात धन सिंह कोतवाल की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका थी| धन सिंह कोतवाल की इस क्रन्तिकारी भूमिका पर अनेक लेखको ने रेखांकित किया हैं| उपलब्ध स्त्रोतों के आधार पर, धन सिंह कोतवाल पर इतिहास लेखन  का, वर्ष 2002 तक का क्रमवार सिलसिला निम्नवत हैं|  

1. ई. बी. जोशी ने सर्वप्रथम धन सिंह कोतवाल की भूमिका का उल्लेख मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर, गवर्नमेन्ट प्रेस, 1965, के पृष्ठ संख्या 52 पर किया था The Indian troops as well as the police including the kotwal, Dhanna Singh, made common cause against the British. About midnight the villagers attacked the gaol, released its 839 prisoners and set fire to the building. The 720 prisoners in the old jail were also released by some Indian soldiers. Thousands of Gujars from the neighbouring villages came to Mcerut, set fire to the lines of the sappers and miners, destroyed other parts of the cantonment ...…On July 4, the Risala which was armed with two guns surrounded and attacked the Gujar villages (particularly Panchli Ghat and Nagla) about five miles from Meerut, killing some of the inhabitants, making some prisoners and burning the villages.”

2. जे. ए. बी. पामर ( J A B Palmer) ने 1966 में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से छपी अपनी पुस्तक “म्युटिनी आउटब्रेक एट मेरठ इन 1857” धन सिंह की भूमिका के विषय में लिखा था|  नार्थ-वेस्टर्न प्राविन्सिस की मिलेट्री पुलिस के कमिश्नर मेजर विलयम्स द्वारा मेरठ के विद्रोह के विस्फोट में पुलिस की भूमिका की जांच की गई थी तथा इस विषय पर एक स्मरण पत्र (मैमोरेन्डम) तैयार किया गया था|  जे. ए. बी. पामर  ने धन सिंह कोतवाल की भूमिका के विषय में इस स्मरण पत्र का हवाला दिया हैं|

3. यतीन्द्र कुमार वर्मा ने मयराष्ट्र मानस ग्रन्थ में ‘स्वतंत्रता की प्रथम ज्योति’ नामक अपने लेख में 10 मई 1857 को मेरठ में हुए क्रांति के विस्फोट में धन सिंह कोतवाल की भूमिका के विषय में पृष्ठ संख्या 48 पर लिखा हैं, कि “11 वी व 20 वी नेटिव इन्फेंटरी, जेल से रिहाई पाने वाली भीड़ व् देहात की जनता शहर कोतवाल चो. धनसिंह गूजर के नेतृत्व में आस पास के गाँवो से उसके भाई बंद पुलिस के सिपाही योरोपियनो के खून के प्यासे हो गए......योरोपियन मार डाले गए, बंगले जला दिए गए|”

4. गणपति सिंह ने वर्ष 1986 में फरीदाबाद से प्रकाशित ‘गुर्जर वीर वीरांगनाए” नामक अपनी पुस्तक में धन सिंह कोतवाल के इतिहास पर ‘धन सिंह गूजर कोतवाल” के नाम से तीन पृष्ठ का एक पूरा लेख लिखा हैं| धन सिंह कोतवाल के विषय में वे लिखते हैं कि “मेरठ के समीप चपराने गूजरों का पांचली गाँव हैं| वहां का निवासी चौ. धन सिंह मेरठ सिटी का कोतवाल है वह बड़ा देशभक्त और और स्वाधीनता प्रिय पुलिस अफसर था|.......पुलिस कोतवाल होने के नाते उसका दायित्व था कि वह अंग्रेजी सरकार को सहयोग देता और विद्रोहियों का दमन करता लेकिन उसने विद्रोहियों का सहयोग दिया और नेतृत्व किया| उसने मेरठ के आस-पास के के गूजरों के गांवों में सन्देश भिजवाकर मेरठ जेल पर हमले की योजना बनाई| अंग्रेजी हुकूमत को को पता नहीं चला कि स्वाधीनता की चिंगारी उनके जिला प्रशासन के पुलिस महकमे के कोतवल के दिल में घर कर गई हैं| तीस हज़ार गूजर, घाट पांचली के चपराने, सीकरी के चंदीले, नंगला और भौपुरा के कसाने गूजर व् अन्य ग्रामीण एकत्र होकर मेरठ पहुंचे| कोतवाल धन सिंह उनके स्वागत के लिए प्रतीक्षा कर रहा था|.............उन्होंने ने पहला धावा मेरठ की नई जेल पर बोला दिया| इन्होने जेल से 839 कैदियों को मुक्त कराया और वे भी मुक्त होकर धाड़ के साथ हो गए|..............”मारो फिरंगी को” को बस यही उद्घोष सुनने में आता था| ...................पांचली गाँव के 80 गूजरों को फाँसी दी गई और 400 गूजरों को गोली से उड़ाया गया|”

5. हाकिम मोहम्मद सईद (Hakim Mohmmad Said) वर्ष 1990 में छपी अपनी पुस्तक ‘रोड टू पाकिस्तान’ के पृष्ट संख्या 545 में लिखते हैं “The state of confusion that ensued was worsened when the riff-raffs from the town started plundering and the Gujars who had come in numbers because the acting Kotwal, Dhanna Singh, belonged to that tribe, joined them. 

6. स्वामी वासुदेवानंद तीर्थ ने वर्ष 1991 में मेरठ (बागपत) से प्रकशित अपनी पुस्तक ‘आर्य समाज एवं स्वतंत्रता सेनानी’ धन सिंह कोतवाल की भूमिका को रेखांकित करते हुए ‘राव कदम सिंह व चौ. धन सिंह’ नामक एक दो पृष्ठ का पूरा अध्याय लिखा हैं| वे लिखते हैं कि “स्वतंत्रता विद्रोह से पूर्व मह्रिषी दयानंद सरस्वती मेरठ नगर के शिव मंदिर में चार दिन ठहरे थे, वहां श्री धन सिंह शहर कोतवाल और राव कदम सिंह आदि अनेक व्यक्ति उनसे गुप्त रूप से मिले|…..मेरठ के सैनिको ने अंग्रेजो के आदेशो को अंगीकार नहीं किया क्योकि कारतूस पर गाय और सूअर की चर्बी लगी हुई थी कारतूस को दांत से तोडा जाता था|.....अंग्रेज कर्नल ने सैनिको के हाथो में हथकड़ी और पैरो में बैडी डलवाकर जेल भेज दिया| गुर्जर जनता एवं रांघड मुसलमानों ने राव कदम सिंह व् धन सिंह की आज्ञा मिलते ही मेरठ शहर पर धावा बोलकर अंग्रेजो के जान-माल को नष्ट कर दिया क्योकि 50 हज़ार विद्रोही संघर्ष कर रहे थे और अंग्रेज सैनिको व उनके समर्थको के पैर नहीं टिक सके| अंग्रेज इतने घबरा गए की अपनी जान बचाकर शहर से भागने लगे| उधर जनता ने जेल पर हमला कर दिया|”

7. वेदानंद आर्य ने वर्ष 1993 में प्रकाशित अपनी पुस्तक “1857 का मुक्ति संग्राम तथा उसका ऐतिहासिक स्वरुप” में पृष्ट संख्या 98 पर लिखते हैं कि धन सिंह कोतवाल ने देहाती अंचलो से आये क्रांतिकारियों के एक दल का नेतृत्व किया| वे लिखते हैं कि “सैनिको की बेड़िया काटने के उद्देश्य से ये सीधे कारागार गए| इस काफिले में छावनी के सैनिको के अतिरिक्त देहाती आंचलो से आये क्रन्तिकारी दल संम्मिलित थे| जिनमे से एक दल का नेतृत्व धनसिंह गुर्जर पांचली निवासी, जोकि तत्कालीन मेरठ नगर के कोतवाल थे, कर रहे थे| धन सिंह एक स्वाधीनता प्रेमी पुलिस अधिकारी थे|

8. आचार्य दीपांकर ने वर्ष 1993 में मेरठ से प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘स्वाधीनता संग्राम और मेरठ’ में पृष्ठ 143 पर लिखते हैं, “ घाट पांचली का धनसिंह गूजर विशेष रूप से क्रन्तिकारी था| उसी के नेतृत्व में 10 हज़ार से अधिक किसानो और मजदूरों ने मेरठ जेल में ठीक उसी समय धावा मारा था जब मेरठ के सैनिक अपने 85 बंदी साथियो को रिहा कराने गए थे| उनकी रिहाई के बाद धन सिंह गूजर ने सभी 1400 कैदियों को रिहा कर दिया तथा जेल के रजिस्टर भी जला दिए| बाद में प्रतिक्रांति का दौर प्रारम्भ होने पर गूजरों को दमन का विशेष सामना करना पड़ा| पांचली गाँव को विशेष दमन का शिकार होना पड़ा जहाँ के 80 लोगो को फाँसी पर चढ़ाया गया|”

10 मई 1857 को विद्रोह के विस्फोट से लगभग एक माह पहले अप्रैल में अयोध्या से एक हिन्दू फ़क़ीर मेरठ आया था| यह फ़क़ीर विद्रोही सैनिको के संपर्क में था| सदर कोतवाल इस फ़क़ीर से 24 अप्रैल को मिला था| आचार्य दीपंकर ने अपनी इस पुस्तक में इस हिन्दू फ़क़ीर की पहचान स्वामी दयानंद सरस्वती के रूप में की हैं| इस सम्बन्ध में उन्होंने अपनी पुस्तक में पृष्ठ संख्या  120- 131 पर  “1857 की क्रांति में यह साधू कौन था? नामक “एक अध्याय लिखा हैं|

9. डॉ देवेन्द्र सिंह ने वर्ष 1995 में एक लेख में धन सिंह कोतवाल के विषय में लिखा हैं जोकि एक अख़बार में छपा था| लेख मुझे उपलब्ध नहीं हो सका हैं|

10. सुशील भाटी ने वर्ष 2000 में “1857 की क्रांति के जनक धन सिंह कोतवाल” पर एक लेख लिखा जिसमे कोतवाल धन सिंह को पहली बार ‘1857 की क्रांति का जनक’ कहा गया और उसे क्रांति की शुरुआत करने का श्रेय दिया गया| लेख में तर्क रखा गया कि 1857 की  क्रान्ति की शुरूआत करने का श्रेय उसी व्यक्ति को दिया जा सकता है जिसने 10 मई 1857 के दिन मेरठ में घटित क्रान्तिकारी घटना में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो। इस लेख के अनुसार ऐसी सक्रिय क्रान्तिकारी भूमिका धन सिंह कोतवाल ने 10 मई 1857 के दिन मेरठ में निभाई थी लेख में यह तर्क भी प्रमुखता से रखा गया कि 1857 का महाविद्रोह मात्र सैनिक विद्रोह नहीं था बल्कि यह साम्राज्यवाद के खिलाफ एक जनक्रांति थी, जिसमे जनता की सहभागिता की शुरुआत धन सिंह कोतवाल के नेतृत्व 10 मई को मेरठ से हुई थी, अतः धन सिंह कोतवाल इस क्रांति के जनक हैं| सुशील भाटी ने अपने लेख में क्रांति की पूर्व योज़ना को स्वीकार किया तथा सदर कोतवाल धन सिंह के अयोध्या से आये हिन्दू फ़क़ीर से मुलाकात की बात कही हैं|

सन्दर्भ

  1. The first expedition of this corps (4th of July) was in company with small force of regulars against a number of Gujar villages about six miles from Meerut, of which chief were Pancli Ghat and Nangla. The inhabitants of these villages, beside bearing a conspicuous part in sack of the station and the murder of the Europeans on the night of 10th of May, had since made them notorious by the number and heinousness of their crime. The principal villages were successfully surrounded, a little after day break, by different parties told of for the purpose. A considerable number of men were killed in the attack, and of 46 prisoners taken, out of which forty were subsequently brought to trial, and suffered to extreme penalty of the law for their misdeeds. The villages were burned.   एडविन टी. एटकिनसन, स्टैटिस्टिकल डिस्क्रिप्टिव एंड हिस्टोरिकल अकाउंट ऑफ़ नार्थ वेस्टर्न प्रोविन्सेज़, खंड III, मेरठ डिवीज़न, भाग II., नार्थ वेस्टर्न प्रोविन्सेज़ गवर्नमेंट प्रेस, इलाहाबाद, 1876, पृष्ठ 331
  2. 0 बी0 जोशी, मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर, गवर्नमेन्ट प्रेस, 1965 पृष्ठ संख्या 52 https://books.google.co.in/books?id=uwVDAAAAYAAJ
  3. मयराष्ट्र मानस, मेरठ।
  4. जे. ए. बी. पामर, म्युटिनी आउटब्रेक एट मेरठ इन 1857, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1966
  5. हाकिम मोहम्मद सईद (Hakim Mohmmad Said)रोड टू पाकिस्तान’, 1990, पृष्ट संख्या 545
  6. स्वामी वासुदेवानंद तीर्थ,  आर्य समाज एवं स्वतंत्रता सेनानी, मेरठ, 1991  
  7. गणपति सिंह, 1857 के गूजर शहीद: भारतीय इतिहास का शानदार अध्याय, 1984, पृष्ठ संख्या 37 https://books.google.co.in/books?id=8AG2AAAAIAAJ
  8. गणपति सिंह, गुर्जर वीर वीरांगनाए, फरीदाबाद, 1986  
  9. वेदानंद आर्य, 1857 का मुक्ति संग्राम तथा उसका ऐतिहासिक स्वरुप, 1993, पृष्ट 98  https://books.google.co.in/books?id=DVIFAQAAIAAJ
  10. आचार्य दीपांकर, स्वाधीनता संग्राम और मेरठ, जनमत प्रकाषन, मेरठ 1993



Friday, March 8, 2019

भारत में कुषाण पहचान की निरंतरता- कसाना गुर्जरों के गांवों का सर्वेक्षण


डॉ सुशील भाटी

अक्सर यह कहा जाता हैं कि कनिष्क महान से सम्बंधित ऐतिहासिक कुषाण वंश अपनी पहचान भूल कर भारतीय आबादी में विलीन हो गया| किन्तु यह सत्य नहीं हैं| अलेक्जेंडर कनिंघम ने ‘आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, खंड 2, 1864  में कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की है| यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक हैं कि ऐतिहासिक कुषाणों से इतिहासकारों का मतलब केवल कुषाण वंश से नहीं बल्कि तमाम उन भाई-बंद कुल, वंश, नख और कबीलों के परिसंघ से हैं जिनका नेतृत्व कुषाण कर रहे थे| कनिंघम के अनुसार आधुनिक कसाना गुर्जर राजसी कुषाणों के प्रतिनिधि हैं तथा आज भी सिंध सागर दोआब और यमुना के किनारे पाये जाते हैं| कुषाण सम्राट कनिष्क ने रबाटक अभिलेख में अपनी भाषा का नाम आर्य बताया हैं| सम्राट कनिष्क ने अपने अभिलेखों और सिक्को पर अपनी आर्य भाषा (बाख्त्री) में अपने वंश का नाम कोशानो लिखवाया हैं| गूजरों के कसाना गोत्र को उनके अपने गूजरी लहजे में आज भी कोसानो ही बोला जाता हैं| अतः गुर्जरों का कसाना गोत्र कोशानो का ही हिंदी रूपांतरण हैं| कोशानो शब्द को ही गांधारी प्राकृत में कुषाण के रूप में अपनाया गया हैं| क्योकि कनिष्क के राजपरिवार के अधिकांश अभिलेख प्राकृत में थे अतः इतिहासकारों ने उनके वंश को कुषाण पुकारा हैं|

लाहौर से 1911 में प्रकाशित एच. ए. रोज द्वारा लिखित पुस्तक ‘दी ग्लोसरी ऑफ़ ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ़ दी पंजाब एंड नार्थ वेस्टर्न फ्रंटियर प्रोविंस, में पंजाब के अनुसार गुर्जरों में यह सामाजिक मान्यता हैं कि उनके ढाई घर असली हैं- कसाना, गोरसी और आधा बरगट| इस प्रकार गुर्जरों की कसाना गोत्र इनकी उत्पत्ति के लिहाज़ से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं| कसाना गोत्र  क्षेत्र विस्तार एवं संख्याबल की दृष्टि से भी सबसे बडा है जोकि  अफगानिस्तान से महाराष्ट्र तक फैली हुआ है|

कोशानो (कसाना) गुर्जरों का एक प्रमुख गोत्र ‘क्लेन’ हैं जिसकी आबादी भारतीय उपमहादीप के अनेक क्षेत्रो में हैं| कसाना गुर्जरों के गाँवो के सर्वेक्षण के माध्यम से रखे गए तथ्यों पर आधारित मेरा मुख्य तर्क यह हैं कि भारतीय उपमहादीप में कुषाण वंश विलीन नहीं हुआ हैं बल्कि गुर्जरों के एक प्रमुख गोत्र/ क्लेन के रूप में कोशानो (कसाना) पहचान निरंतर बनी हुई हैं तथा ऐतिहासिक कोशानो का गुर्जरों साथ गहरा सम्बन्ध हैं|

भारतीय महाद्वीप के पश्चिमी उत्तर में हिन्दू कुश पर्वतमाला से सटे दक्षिणी क्षेत्र में गुर्जर गुजुर कहलाते हैं| गुजुर (गुशुर) शब्द कोशानो के अभिलेखों में उनके राजसी वर्ग के लिए प्रयोग हुआ हैं| यहाँ गुर्जर मुख्य रूप से तखार, निमरोज़, कुन्डूज, कपिसा, बगलान, नूरिस्तान और कुनार क्षेत्र में निवास करते हैं| कसाना, खटाना, चेची, गोर्सी और बरगट गुर्जरों के प्रमुख गोत्र हैं तथा इनकी भाषा गूजरी हैं| यह क्षेत्र यूची-कुषाण शक्ति का आरंभिक केंद्र हैं| क्या ये महज़ एक इत्तेफाक हैं कि यह वही क्षेत्र हैं जहाँ कनिष्क कोशानो के पड़-दादा कुजुल कडफिस ने ऐतिहासिक यूची कबीलों का एक कर महान कोशानो साम्राज्य की नीव रखी थी?

1916 में लाहौर से प्रकाशित डेनजिल इबटसन की पंजाब कास्ट्स पुस्तक के अनुसार हजारा, पेशावर, झेलम, गुजरात, रावलपिंडी, गुजरानवाला, लाहौर, स्यालकोट, अमृतसर, जालंधर, लुधियाना, फिरोजपुर, गुरदासपुर, होशियारपुर, कांगड़ा, रोहतक, हिसार, अम्बाला, करनाल, दिल्ली और गुडगाँव में कसाना गुर्जर पाये जाते हैं| जिला गुजरात, गुरुदासपुर, होशियारपुर और अम्बाला में इनकी अच्छी संख्या हैं| इबटसन के विवरण से स्पष्ट हैं कि पंजाब, हिमांचल प्रदेश, हरयाणा, दिल्ली आदि प्रान्तों में कसाना गुर्जर आबाद हैं तथा प्राचीन ऐतिहासिक गांधार राज्य की सीमा के अंतर्गत आने वाली कुषाणों की राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) और उसके उत्तरी तरफ मरदान, चित्राल और स्वात क्षेत्र में भी गुर्जरों की अच्छी खासी आबादी हैं| कनिष्क की गांधार कला के विकास में विशेष भूमिका थी| होशियारपुर जिला गजेटियर, 1904 के अनुसार गूजरों के ढाई गोत्र कसाना, गोर्सी और बरगट के अतिरिक्त चेची, भूमला, चौहान और बजाड़ आदि जिले में प्रमुख गोत्र हैं|

जम्मू और कश्मीर राज्य में भी कसाना गुर्जरों का एक प्रमुख गोत्र हैं| कसाना, खटाना, चेची, पढाना/भडाना, लोढ़ा, पसवार/पोषवाल तथा बागड़ी जम्मू कश्मीर में गुर्जरों के प्रमुख गोत्र हैं| कश्मीर के मीरपुर क्षेत्र में कसाना गुर्जरों का प्रमुख गोत्र हैं|

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा और ऊना जिले के गूजरों में कसाना प्रमुख गोत्र हैं|

उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद जिले के लोनी क्षेत्र में कसाना गोत्र का बारहा यानि 12 गाँव की खाप हैं| इस कसाना के बारहा में रिस्तल, जावली, शकलपुरा, गढ़ी, सिरोरा, राजपुर, भूपखेडी, मह्मूंदपुर, धारीपुर, सीती, कोतवालपुर तथा मांडला गाँव आते हैं| इनके पड़ोस में ही रेवड़ी और भोपुरा भी कसाना गुर्जरों के गाँव हैं| जावली तथा शकलपुरा इनके केंद्र हैं| कसानो के इस बारहा का निकल दनकौर के निकट रीलखा गाँव से माना जाता हैं| रीलखा से पहले इनके पूर्वजों का राजस्थान के झुझुनू जिले की खेतड़ी तहसील स्थित तातीजा गाँव से आने का पता चलता हैं| इतिहासकार रामशरण शर्मा के अनुसार गुर्जर प्रतिहारो ने अपनी विजेता सेना के सरदारों को 12 या उसके गुणांक 24, 60, 84, 360 की समूह में गाँव को प्रदान किये थे| इन विजेता सरदारों ने अपने गोत्र के भाई-बंद सैनिको को ये गाँव बाँट दिए| सभवतः ये 12 गाँव गुर्जर प्रतिहारो के काल में नवी शताब्दी में उनकी उत्तर भारत की विजय के समय यहाँ बसे हैं|

मेरठ जिले के परतापुर क्षेत्र में ‘कुंडा’, मेरठ मवाना मार्ग पर ‘कुनकुरा’, मुज़फ्फरनगर जिले में  शुक्रताल के पास ‘ईलाहबास’ तथा गंगा पार बिजनोर जिले में  लदावली कसाना गोत्र के गाँव चौदहवी शताब्दी में जावली से निकले हैं| इसी प्रकार दादरी क्षेत्र के हाजीपुर, नंगला, रूपबास रामपुर और चिठेडा के कसाना गुर्जर लोनी क्षेत्र स्थित महमूदपुर गाँव से सम्बंधित, 1857 की जनक्रांति के मशहूर स्वतंत्रता सेनानी शहीद तोता सिंह कसाना जी के वंशज हैं|

रूहेलखंड के गुर्जरों में कसाना गोत्र के अनेक गाँव हैं| मुरादाबाद के निकट मुरादाबाद हरिद्वार राजमार्ग पर लदावली कसाना को प्रसिद्ध गाँव हैं| अमरोहा जिले की हसनपुर तहसील में हीसपुर कसानो का प्रमुख गाँव हैं|

चंबल नदी की घाटी में स्थित उत्तर प्रदेश के आगरा, मध्य प्रदेश के मुरेना, ग्वालियर भिंड, शिवपुरी, दतिया तथा राजस्थान के समीपवर्ती धोलपुर जिले के उबड़-खाबड़ दुर्गम बीहड़ क्षेत्रो में गुर्जरों की घनी आबादी हैं| इस कारण से इस पूरे क्षेत्र को स्थानीय बोलचाल में गूजराघार भी कहते हैं| चंबल क्षेत्र स्थित इस गूजराघार में कसाना गोत्र के 100 गाँव हैं| गूजराघार में कसाना गोत्र के गांवों की शुरुआत आगरा की बाह तहसील के सैंय्या से हो जाती हैं| इनमे सबसे ज्यादा, कसाना नख के 28 गाँव राजस्थान के धौलपुर जिले में तथा 22 गाँव मुरेना जिले में हैं| 1857 की जनक्रांति के नायक सूबा देवहंस कसाना का गाँव कुदिन्ना भी धोलपुर जिले में हैं| मुरेना में नायकपुरा, दीखतपुरा, रिठोरा, गडौरा, हेतमपुर एवं जनकपुर कसाना गुर्जरों के प्रमुख गाँव हैं| नायकपुरा गाँव कसानो का केंद्र माना जाता हैं|  गूजराघार का यह दुर्गम क्षेत्र कोशानो के उनकी राजधानी और अंतिम शक्ति केंद्र मथुरा के दक्षिण पश्चिम में सटा हुआ हैं| सभवतः मथुरा क्षेत्र में नाग वंश और गुप्तो के उत्कर्ष के फलस्वरूप कोशानो तथा अन्य गुर्जरों को इस निकटवर्ती दुर्गम क्षेत्र में प्रव्रजन करना पड़ा| राजपूताना गजेटियर के अनुसार राजस्थान के गुर्जरों का निकाल मथुरा से माना जाता हैं| संभवतः राजस्थान के गुर्जरों में यह मान्यता मथुरा क्षेत्र से इस प्रव्रजन का स्मृति अवशेष हैं|

राजस्थान के गुर्जरों में गोत्र के लिए परम्परागत रूप से ‘नख’ शब्द प्रचलित हैं| राजस्थान में कसाना नख की सबसे बड़ी आबादी धौलपुर जिले में हैं जहाँ इनके 28 गाँव हैं| धोलपुर जिले की बाड़ी तहसील में कसानो का बारहा हैं| इनमे गजपुरा, कुआखेडा, रेहेन, बरैंड, लालौनी, सौहा, अतराजपुरा आदि गाँव हैं|

भरतपुर जिले में में कसाना नख के 12 गाँव की खाप हैं| इनमे झोरोल, सालाबाद, नरहरपुर, दमदमा, लखनपुर, खैररा, खटोल, भोंडागाँव, गुठाकर, निसुरा आदि प्रमुख गाँव हैं|
जयपुर जिले के कोटपूतली क्षेत्र में कसाना नख के 5 गाँव हैं, इनमे सुन्दरपुरा, पूतली, खुर्दी, अमाई, कल्याणपुरा खुर्द आदि मुख्य हैं| 

राजस्थान के दौसा जिले के सिकंदरा क्षेत्र में कसाना नख के 12 गाँव की खाप हैं| डिगारया पत्ता, बरखेडा, डुब्बी, कैलाई, भोजपुरा, बावनपाड़ा, सिकंदरा, रामगढ़, बुडली, टोरडा बगडेडा
अलवर जिले में इन्द्रवली, 
 
झुंझुनू जिले की खेतड़ी तहसीलमें पांच गाँव हैं- ततिज़ा, कुठानिया, बनवास, गूजरवास और देवटा|


सन्दर्भ-
1.       Alexander, Cunningham, Archeological survey India, Four reports made during 1862-63-64-65, Vol . II, Simla, 1871, Page 70-73
2.       Pandit Bhagwanlal Indraji, Early History of Gujarat (art.), Gazetteer of the Bombay Presidency, Vol I Part I, , Bombay 1896,
3.       Denzil Ibbetson, Panjab Castes, Lahore 1916
4.       H A Rose, A Glossary Of The Tribes and Castes Of The Punjab And North-Western Provinces, Vol II, Lahore, 1911,
5.       Edwin T Atkinson, Statistical, Descriptive and Historical Account of The North- Western Provinces Of India, Vol II, Meerut Division: Part I, Allahabad, !875, Page 185-186 https://books.google.co.in/books?id=rJ0IAAAAQAAJ
6.       A H Bingley, History, Caste And Cultures of Jats and Gujars https://books.google.co.in/books?id=1B4dAAAAMAAJ
7.       D R Bhandarkar, Gurjaras (Art.), J B B R S, Vol. XXI,1903
8.       G A Grierson, Linguistic Survey of India, Volume IX, Part IV, Calcutta, 1916
9.       सुशील भाटी, गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिधांत, जनइतिहास ब्लॉग, 2016 
10.   सुशील भाटी, जम्बूदीप,का सम्राट कनिष्क कोशानो,जनइतिहास ब्लॉग, 2018