डॉ सुशील भाटी
कनिष्क के प्राप्त कुल सोने के सिक्को पर सबसे अधिक
शिव को अंकित किया गया हैं| कनिष्क के लगभग 25 प्रतिशत सोने के सिक्को पर शिव को
अंकित किया गया| उसके पश्चात मिहिर ‘सूर्य’ को 23 प्रतिशत सिक्को पर अंकित किया
गया हैं| महात्मा बुद्ध को केवल 1 प्रतिशत सोने के सिक्को पर अंकित किया गया हैं|
बौद्ध साहित्य में कनिष्क का बहुधा उल्लेख हुआ हैं
जिससे उसके बौद्ध होने के संकेत प्राप्त होते हैं| किन्तु सोने के सिक्को पर
महात्मा बुद्ध का ‘शिव’ और ‘मिहिर’ की तुलना में बहुत कम प्रतिनिधित्व कनिष्क
प्रथम के बौद्ध हो जाने की बात की पुष्ठी नहीं करता| सोने के सिक्को पर अंकित
देवताओ का प्रतिनिधित्व कनिष्क के शिव और मिहिर ‘सूर्य’ का उपासक होने का प्रमाण
हैं|
सम्राट कनिष्क के सिक्को पर पाए जाने वाले राजकीय
चिन्ह को कनिष्क का तमगा भी कहते है| कनिष्क के तमगे
में ऊपर की तरफ चार नुकीले काटे के आकार की रेखाए हैं तथा नीचे एक खुला हुआ गोला
हैं इसलिए इसे चार शूल वाला ‘चतुर्शूल
तमगा’ भी कहते हैं| कनिष्क का ‘चतुर्शूल
तमगा’ सम्राट और उसके वंश / ‘कबीले’ का
प्रतीक हैं| इसे राजकार्य में शाही मोहर के रूप में भी
प्रयोग किया जाता था| कनिष्क के पिता विम कडफिस ने सबसे पहले
‘चतुर्शूल तमगा’ अपने सिक्को पर
राजकीय चिन्ह के रूप में प्रयोग किया था| जैसा कि कहा जा
चुका हैं विम कडफिस शिव का उपासक था तथा उसने माहेश्वर की उपाधि धारण की थी|
माहेश्वर का अर्थ हैं- शिव भक्त| इतिहासकारों
का मानना हैं कि चतुर्शूल तमगा शिव के हथियार ‘त्रिशूल’ और शिव की सवारी ‘नंदी बैल के पैर के निशान’ का ‘मिश्रण’ हैं||
यह सही हैं की तमगे का नीचे वाला भाग नंदीपद जैसा हैं,
परन्तु इसमें त्रिशूल के तीन शूलो के स्थान पर चार शूल हैं? मैंने पूर्व में ‘सम्राट कनिष्क का शाही निशान’ लेख में इसे शिव के अन्य
हथियार पाशुपतास्त्र और नंदी के खुर के निशान का मिश्रण दर्शाया हैं| कनिष्क का
राजकीय चिन्ह एक शैव चिन्ह हैं, यह तथ्य कनिष्क और कुषाण राज्य के शैव धर्म की तरफ
उनके झुकाव का स्पष्ट प्रमाण हैं|
रबाटक अभिलेख से ज्ञात होता हैं कि कनिष्क ने उक्त
स्थान पर एक बागोलग्गो (देवकुल) का निर्माण करवाया था, जिसके अवशेष प्राप्त नहीं
हो सके हैं| रबाटक अभिलेख से पता चलता हैं कि इस बागोलग्गो की प्रमुख देवी उमा
(ओम्मो) थी, जिन्हें इस अभिलेख में अन्य देवताओ का नेतृत्वकर्ता बताया गया हैं|
उक्त अभिलेख से यह भी पता चलता हैं कि कनिष्क को राज्य मुख्य रूप से नाना देवी से
प्राप्त हुआ| नाना सिंहवाहिनी देवी हैं| उमा और नाना देवी दोनों को कनिष्क के
उत्तराधिकारी हुविष्क के सिक्को शिव की पत्नी के रूप में शिव के साथ अंकित किया
गया हैं| प्राचीन मध्य एशियाई सुंग्द राज्य में नाना को ‘नाना देवी अम्बा’ कहा गया
हैं| अम्बा दुर्गा का नाम हैं जोकि शिव की
पत्नी हैं|
कनिष्क प्रथम ने सुर्खकोटल में एक अन्य बागोलग्गो
(देवकुल) का निर्माण करवाया| यह मुख्य रूप से शिव को समर्पित था| यहाँ मंदिर में
शिव, पार्वती, नंदी और त्रिशूल का अंकन किया गया हैं| इस मंदिर के भग्नावेश प्राप्त हैं| ये अब तक
प्राप्त सनातन धर्म से सम्बंधित किसी भी मंदिर के ये प्राचीनतम भग्नावेश हैं|
कनिष्क का कश्मीर के साथ एक ऐतिहासिक जुडाव हैं|
कल्हण के अनुसार कनिष्क ने कश्मीर में कनिष्कपुर नगर बसाया था| वर्तमान में, यह
स्थान बारामूला जिले में स्थित ‘कनिसपुर’ के नाम से जाना जाता हैं| कश्मीर में भी
कनिष्क ने शिव मंदिर का निर्माण करवाया था| कश्मीर के राजौरी जिले में जिला
मुख्यालय से लगभग 66 किलोमीटर दूर वास्तविक नियंत्रण रेखा के नज़दीक प्राचीन ‘वीर भद्रेश्वर
शिव मंदिर’ स्थित हैं| आस-पास के क्षेत्रो में प्रचलित लोक मान्यता के अनुसार इस
शिव मंदिर का निर्माण संवत 141 अर्थात 87 ई. में कनिष्क ने करवाया था| भद्रेश्वर
शिव मंदिर की दीवार से प्राप्त अभिलेख के अनुसार भी इस मंदिर निर्माण संवत 141 में
कनिष्क ने करवाया था|
जम्मू से 64 किलोमीटर तथा उधमपुर से 9 किलोमीटर दूर
किरमाची गाँव हैं, जोकि पूर्व में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थल था| यहाँ गंधार शैली में
निर्मित चार प्राचीन मंदिर स्थित हैं| कुछ विद्वानों के अनुसार इस स्थान की
स्थापना कनिष्क ने की थी| बड़े मंदिर से त्रिमुख शिव और वराह अवतार की मूर्तिया प्राप्त
हुई हैं|
उपरोक्त ऐतिहासिक तथ्य यह स्पष्ट होता हैं कि
कनिष्क महान का शिव और मिहिर ‘सूर्य’ उपासना की तरफ विशेष झुकाव था| इतिहासकारों
का एक वर्ग अब यह मानने लगा हैं कि बौद्ध साहित्य में कनिष्क I नहीं कनिष्क II की
चर्चा और उल्लेख हैं|
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