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Saturday, November 23, 2019

पुलिस विभाग, उ. प्र. द्वारा स्थापित "1857 की जनक्रांति के जनक धन सिंह कोतवाल" का स्मारक एवं शिलालेख


1857 की क्रांति के जनक अमर शहीद धन सिंह कोतवाल की प्रतिमा का अनावरण श्री ओ. पी. सिंह, पुलिस महानिदेशक, उ. प्र., महोदय द्वारा दिनांक 3 जुलाई 2018 को थाना सदर बाज़ार जनपद मेरठ में किया गया| इस अवसर पर अमर शहीद धन सिंह कोतवाल की याद में एक शिलालेख भी अधिष्ठापित किया गया| श्री राजेश पाण्डेय, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, मेरठ ने यह शिलालेख शहीद धन सिंह कोतवाल की याद में सादर समर्पित किया हैं| डॉ. सुशील भाटी, असि. प्रोफेसर, इतिहास ने अमर शहीद धन सिंह कोतवाल के इतिहास को समर्पित इस शिलालेख का आलेख लिखा हैं| इस अवसर पर पुलिस विभाग द्वारा शहीद धन सिंह कोतवाल की स्मृति में एक स्मारिका का प्रकाशन भी किया गया| समारोह में, श्री ओ. पी. सिंह, पुलिस महानिदेशक, उ. प्र., महोदय ने अपने संबोधन में कहा कि शहीद धन सिंह कोतवाल के विषय पुलिस ट्रेनिंग कोर्स में पढाया जायेगा, जिसके पाठ्क्रम को तैयार करने का जिम्मा उन्होंने डॉ सुशील भाटी और श्री राजेश पाण्डेय, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, मेरठ को सौपा| 


शहीद धन सिंह कोतवाल की प्रतिमा और शिलालेख 

अमर शहीद धन सिंह कोतवाल की याद में सादर समर्पित शिलालेख का आलेख निम्नवत हैं-
 

1857 की जनक्रांति के जनक धन सिंह कोतवाल

मेरठ सदर बाज़ार कोतवाली में तैनात, ग्राम पांचली निवासी, कोतवाल धन सिंह गुर्जर ने 10 मई 1857 के दिन इतिहास प्रसिद्ध ब्रिटिश विरोधी जनक्रांति के विस्फोट में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। एक पूर्व योज़ना के तहत, विद्रोही सैनिकों तथा
धन सिंह कोतवाल सहित पुलिस फोर्स ने अंग्रेजों के विरूद्ध साझा मोर्चा गठित कर क्रान्तिकारी घटनाओं को अंजाम दिया था। शाम 5 से 6 बजे के बीच, सदर बाज़ार की सशस्त्र भीड़ और सैनिकों ने सभी स्थानों पर एक साथ विद्रोह कर दिया| धन सिंह कोतवाल द्वारा निर्देशित पुलिस के नेतृत्व में क्रान्तिकारी भीड़ ने ‘मारो फिरंगी’ का घोष कर सदर बाजार और कैंट क्षेत्र में अंग्रेजो का कत्लेआम कर दिया| धन सिंह कोतवाल के आह्वान पर उनके अपने गाँव पांचली सहित घाट, नंगला, गगोल नूरनगर, लिसाड़ी, चुडियाला, डीलना आदि गाँवो के हजारों लोग सदर कोतवाली क्षेत्र में जमा हो गए| प्रचलित मान्यता के अनुसार इन लोगो ने, धन सिंह कोतवाल के नेतृत्व में, रात दो बजे नई जेल जेल तोड़कर 839 कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी।

4 जुलाई 1857 को, बदले की भावना से ग्रस्त अंग्रेजी ‘खाकी रिसाले’ ने धन सिंह कोतवाल के गाँव पांचली को तोपो से उड़ा दिया। लगभग 400 लोग मारे गए, 40 को फाँसी दे दी गई| - डॉ सुशील भाटी 

            शिलालेख शहीद धन सिंह कोतवाल की याद में सादर समर्पित
तिथि:- 3 जुलाई सन 2018            श्री राजेश पाण्डेय (आई. पी. एस.)
      विक्रम संवत 2075, पंचमी         वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक मेरठ   
शिलालेख -1857 की जनक्रांति के जनक धन सिंह कोतवाल का इतिहास 



उत्तर प्रदेश पुलिस के मुखिया श्री ओ. पी. सिंह, पुलिस महानिदेशक महोदय तथा श्री राजेश पाण्डेय, तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, मेरठ के इस प्रशंशनीय प्रयास से 1857 की जनक्रांति के जनक धन सिंह कोतवाल को उचित सम्मान प्राप्त हुआ हैं| यह बात अत्यंत महत्वपूर्ण हैं कि अमर शहीद धन सिंह कोतवाल की प्रतिमा और उनके इतिहास का वर्णन करने वाला शिलालेख उस सदर कोतवाली प्रांगण में लगाया गया हैं, जहाँ से उन्होंने 10 मई 1857 को भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आगाज़ किया था| 1857 की जनक्रांति की शुरुआत मेरठ से हुई थी , इस तथ्य ने मेरठ को सदैव एक सम्मान दिया हैं, यह बात मेरठ की पहचान की भी हैंसदर कोतवाली प्रांगण में स्थापित इस प्रतिमा और शिलालेख ने 1857 की जनक्रांति से जुडी मेरठ की ऐतिहासिक पहचान को और अधिक पुख्ता किया हैं, जिसके लिए समाज और देश विशेषकर मेरठ के लोग उपरोक्त महानुभावो के ऋणी रहेंगे|


बाए से दाये- डॉ सुशील भाटी एवं  श्री राजेश पाण्डेय, आई. पी. एस.
महत्वपूर्ण लिंक -
https://www.jagran.com/uttar-pradesh/meerut-city-story-of-valour-the-dhan-singh-18155891.html

http://pratapraogurjar.blogspot.com/2018/10/police-smarika-dhan-singh-kotwal.html

https://www.livehindustan.com/uttar-pradesh/meerut/story-dgp-unveils-statue-of-dhan-singh-kotwal-2048074.html

https://www.amarujala.com/uttar-pradesh/meerut/dgp-op-singh-said-need-to-remember-history-again

https://www.inextlive.com/police-personnel-in-training-will-learn-martyr-kotwal-dhansingh-190497

https://www.livehindustan.com/uttar-pradesh/meerut/story-dhan-singh-kotwal-1949387.html

https://www.patrika.com/meerut-news/dgp-op-singh-unveiled-statue-dhan-singh-kotwal-in-meerut-1-3049505/

https://m.dailyhunt.in/news/nepal/hindi/uttar+pradesh-epaper-uttar/dijipi+opi+sinh+bole+itihas+ko+dobara+se+jinda+karane+ki+jarurat-newsid-91530714

http://www.nationaljanmat.com/1857-kranti-dhan-singh-kotwal-sushil-bhati/



Friday, November 1, 2019

कुषाणों की भाषाई संबद्धता- कुषाण तुर्क नहीं आर्य थे|


डॉ सुशील भाटी


कुछ इतिहासकारों ने कुषाणों को तुर्क बताने का प्रयास किया हैं| किन्तु कुषाण तुर्क नहीं थे, इस बात के बहुत ही स्पष्ट और प्रबल प्रमाण हैं|

1. सर्वप्रथम,  कुषाणों का शासन काल तुर्क जाति के जन्म से पूर्व का हैं| कुषाणों का शासन काल मुख्यतः 25 ईसा पूर्व1  -248 ई. हैं, जबकि विश्व के पटल पर तुर्क जाति का उदभव छठी शताब्दी ई. में हुआ हैं|2 अतः जब कुषाण शासन कर रहे थे, तुर्क नाम कि कोई जाति या जातिय पहचान अस्तित्व में नहीं थी, अतः कुषाणों को तुर्क कहना अत्यंत गलत हैं| इस विषय में को समझने के लिए तुर्क जाति का परिचय और आरंभिक इतिहास जानना आवश्यक हैं|

तुर्क मूलतः एक भाषाई समूह हैं|तुर्की भाषा समूह में लगभग 35 भाषा हैं| तुर्की भाषा समूह की भाषा बोलने वाले को तुर्क कहते हैं|3 तुर्की भाषा समूह  यूरालिक-अल्ताई भाषा परिवार से सम्बंधित हैं|4 यूरालिक-अल्ताई भाषा परिवार में तुर्की, मंगोली और तुन्गुसिक आदि भाषा आती हैं| तुर्क समुदाय का उदभव दक्षिण साइबेरिया और मंगोलिया में हुआ था|5  तुर्की भाषा का प्रथम साक्ष्य मंगोलिया से प्राप्त आठवी शताब्दी का ओर्खोंन अभिलेख हैं|6 यह अभिलेख गोकतुर्क शासको से सम्बन्धित हैं| वर्तमान विश्व में तुर्की, तुर्कमेनिस्तान, अज़रबेजान, उज्बेकिस्तान, किर्गिज़िस्तान देशो के लोग तथा चीन के सिकियांग प्रान्त के ‘उइगुर’ तुर्की भाषा बोलने वाले समुदाय हैं|

तुर्कों का प्रथम ऐतिहासिक उल्लेख छठी शताब्दी में लिखित चीनी ग्रंथो में मिलता हैं|7 छठी शताब्दी से पहले विश्व में कही भी तुर्क समुदाय का कोई ज़िक्र नहीं हैं| सबसे पहले छठी शताब्दी ईसवी में गोकतुर्कों ने एक तुर्क राज्य की स्थापना की थी | गोकतुर्कों के इस राज्य का विस्तार चीन की महादीवार के उत्तर से लेकर काला सागर तक था| इन्ही गोक तुर्क शासको से सम्बंधित आठवी शताब्दी का तुर्की भाषा से सम्बंधित प्रथम ओर्खोंन अभिलेख मंगोलिया से प्राप्त हुआ हैं|
गोकतुर्क साम्राज्य के पतन के बाद, नवी शताब्दी के मध्य, तुर्की भाषा बोलने वाले उइगुर (Uyghur) तुर्क मंगोलिया से पलायन कर तारीम घाटी में बस गए|8 आठवी शताब्दी तक तारीम घाटी में भारोपीय ‘आर्य’ समूह की तोख़ारी भाषा बोलने वाली जनसख्या निवास करती थी|9 इस भारोपीय ‘आर्य’ भाषा तोख़ारी के, पांचवी से आठवी शताब्दी तक के अभिलेख और ग्रन्थ तारीम घाटी से प्राप्त हुए हैं| अतः आठवी शताब्दी से पहले तारीम घाटी में भी कोई तुर्क आबादी नहीं थी| नवी शताब्दी के बाद उइगुरो ने तारीम घाटी की बची हुई तोख़ारी/आर्य जनसख्या को अपने में अवशोषित कर लिया|
आठवी शताब्दी में ही तुर्क मध्य एशिया के बुखारा और समरकंद शहरो के आस- पास बस गए, बगदाद के मुस्लिम खलीफा के राज्य का विस्तार इन क्षेत्रो में होने के कारण, ये इस्लाम के प्रभाव में आ गए|

1071 ई. में सेलजुक तुर्कों ने अनातोलिया ‘एशिया माइनर’ को जीत लिया|10 बारहवी शताब्दी में यूरोप के लोग अनातोलिया ‘एशिया माइनर’ क्षेत्र को तुर्कों की बाहुल्यता और आधिपत्य के कारण तुर्की (टर्की) पुकारने लगे| अतः ग्यारहवी शताब्दी से पहले आधुनिक टर्की में कोई तुर्क आबादी नहीं थी| बल्कि प्राचीन काल से यह क्षेत्र आर्यों का निवास स्थान था| आधुनिक तुर्की के बोगाज़कोई नामक स्थान से हित्ती आर्यों का, 1400 ईसा पूर्व का, प्राचीनतम अभिलेख प्राप्त हुआ हैं, जिसमे इंद्र, दशरथ और आर्त्ततम आदि राजाओ के नाम तथा  इंद्र, वरुण, मित्र, नासत्य आर्य देवताओ के नामो का उल्लेख हैं|11 इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन काल में वेदों में उल्लेखित आर्य देवताओ को पूजने वाले आर्यों का विस्तार सुदूर पश्चिमी एशिया में, वर्तमान में तुर्की कहे जाने वाले देश तक था| 600 ईसा पूर्व में इस क्षेत्र को ईरानियो के हखामनी (Achmenid) वंश ने जीत लिया| 334 ईसा पूर्व में सिकंदर के नेतृत्व में यूनानियो ने अनातोलिया (वर्तमान तुर्की) को ईरानियो से जीत लिया| बाद में यह क्षेत्र पूर्वी रोमन साम्राज्य का हिस्सा बन गया तथा इसकी राजधानी कुन्सतनतुनिया (Constantipole) थी| सेलजुक तुर्कों ने ग्यारहवी शताब्दी में रोमनो के (Byzantine Empire) को हराकर ही इस क्षेत्र पर पहली बार अधिकार किया था|

कभी हित्ती आर्यों का देश रहे अनातोलिया (वर्तमान तुर्की देश) के एक प्रान्त का नाम, प्राचीन काल से गुर्जिस्तान हैं| यह प्रान्त वास्तव में तुर्की के उत्तर-पूर्वी पडोसी देश गुर्जिस्तान (जॉर्जिया) का हिस्सा हैं, जिसे तुर्की ने कब्ज़ा लिया हैं| गुर्जिस्तान (जॉर्जिया) के लोग ग्रुज़ (Gruz) और गुर्ज (Gurj) कहलाते हैं|12 कुछ इतिहासकार इस गुर्जिस्तान को भारत के गुर्जरों को से जोड़कर देखते हैं|13 क्या भारतीय गुर्जरों का वास्तव में गुर्जिस्तान से कोई  सम्बन्ध हैं अथवा नहीं?  यह शोध का विषय हैं| वर्तमान स्थिति मे इसके पक्ष यह कहा जा सकता हैं कि गुर्जिस्तान (जॉर्जिया) प्राचीन रेशम मार्ग पर स्थित हैं, जिसके बहुत बड़े हिस्से पर शताब्दियों तक कुषाणों का आधिपत्य रहा हैं| सम्भव हैं, कुषाण और उनके भाई-बंद कुल-कबीले रेशम मार्ग पर अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए गुर्जिस्तान आदि क्षेत्रो में भी बसे हो|  यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय हैं कि लेखक14 सहित एलेग्जेंडर कनिंघम15, ए. एच. बिंगले16, भगवान लाल इंद्र जी17 आदि ने कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की हैं|
 
दसवी शतब्दी के अंत में सुबकुतगिन और उसके पुत्र महमूद (1000-1030 ई.) ने भारतीय उपमहादीप के अंतर्गत, हिन्दू कुश पर्वत के दक्षिण में, गजनी क्षेत्र में प्रथम तुर्क राज्य की स्थापना की|18 इससे पूर्व भारत में किसी तुर्क राज्य के प्रमाण नहीं हैं|

इस प्रकार स्पष्ट हैं कि विश्व में तुर्क जाति अथवा पहचान का उदय छठी शताब्दी में दक्षिणी साइबेरिया और मंगोलिया में हुआ| इसके पश्चात, यहाँ से इनका प्रसार कालंतर में समस्त मध्य एशिया और तुर्की में हुआ| भारत में इनका आगमन दसवी शताब्दी के अंत में हुआ हैं, अतः तीसरी शताब्दी ईसवी तक भारतीय उपमहादीप में शासन करने वाले कुषाणो के तुर्क होने की बात पूर्णतः असत्य हैं|

                                    
                                    II

2. कुषाणों के इतिहास पर दृष्टी डालने से उनकी निम्नलिखित भाषाई संबद्धता प्रकट होती हैं|
(क) आर्य भाषा - कनिष्क के रबाटक अभिलेख के अनुसार कुषाणों की राजकीय और अधिकारिक भाषा का नाम ‘आर्य’ था| कनिष्क के रबाटक अभिलेख में बताया गया हैं की कनिष्क ने यूनानी भाषा के  स्थान पर ‘आर्य’ भाषा को अपने साम्राज्य की राजकीय भाषा घोषित किया|19 इतिहासकारों का मत हैं कि आर्य उनकी अपनी भाषा थी| आधुनिक भाषा विज्ञानियों के अनुसार कुषाणों द्वारा ‘आर्य’ पुकारी जाने वाली उनकी अपनी तथा अधिकारिक राजकीय भाषा भारोपीय समूह की सातेम (Satem) वर्ग की आर्य भाषा थी20|  डब्लू. बी. हेनिंग ने कुषाणों की ‘आर्य’ नामक भाषा को ही बाख्त्री (Bactrian) नाम दिया हैं21| अतः स्पष्ट हैं कि कुषाणों की भाषा आर्य थी, तुर्की नहीं|

तुर्क मूलतः एक भाषाई समूह हैं, तुर्की भाषा समूह की भाषा बोलने वाले को तुर्क कहते हैं| कुषाण तुर्क नहीं थे, क्योकि कुषाणों की भाषा तुर्की नहीं ‘आर्य’ थी| इसलिए कुषाणों को तुर्क कहना अत्यंत त्रुटिपूर्ण और गलत हैं| आर्य भी मूलतः एक भाषाई समूह हैं|22 आर्य भाषा समूह की भाषा बोलने वाले जन समूह आर्य कहलाते हैं| अतः कनिष्क और उसका कुषाण वंश तुर्क नहीं आर्य थे|

(ख) तोख़ारी भाषा - कुछ विद्वानों का मत हैं कि कुषाणों की मूल भाषा तोख़ारी हैं|23 तोख़ारी तारीम घाटी स्थित राज्यों में बोले जाने वाली भारोपीय भाषा समूह के केन्तुम (Centum) वर्ग की आर्य भाषा थी|24तारीम घाटी स्थित राज्यों से, पांचवी से आठवी शताब्दी के कालक्रम से सम्बंधित , तोख़ारी भाषा के अभिलेखों और ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं जोकि मुख्यतः भारतीय ब्राह्मी25 लिपि में लिखे गए थे| तोख़ारी हालाकि केन्तुम वर्ग की भाषा हैं परन्तु यह सातेम वर्ग की पुरानी  भारोपीय भाषाओ के सबसे निकट हैं|26 उत्तरी तारीम घाटी राज्यों में बोले जाने वाली तोख़ारी भाषा कुषाण साम्राज्य के प्रभाव मे थी|27

कुषाण / यूची तथा तोख़ारी सम्बन्ध- यह अवधारणा कि “कुषाणों की मूल भाषा तोख़ारी थी”,  इस मत  पर आधारित हैं कि कुषाण “कभी तारीम घाटी निवासी रहे उस यूची कबीले” का हिस्सा थे, जोकि तोख़ारी भाषा बोलते था, अतः यूची और तोख़ारी एक ही लोग हैं| कुषाण, यूची और तोख़ारी सम्बंध पर हमें प्राचीन चीनी और यूनानी-रोमन विद्वानों से कुछ महत्वपूर्ण सूचनाए प्राप्त होती हैं, जो इस प्रकार हैं-

(i) चीनी इतिहास के प्राचीन ग्रन्थ ‘शीजी’ (Shij) में दिए गए, चीनी राजदूत जहाँग क़ुइअन (Zhang Quian) के हवाले के अनुसार, 176 ईसा पूर्व में हिंगनू जाति से पराजित होकर तारीम घाटी से पलायन करने वाला यूची कबीला 129 ईसा पूर्व में  उत्तरी वाह्लिक (बैक्ट्रिया) में शासन कर रहा था|28 यूची घुमंतू लोगो की कौम थी, जो अपने पशुओं के साथ घूमते रहती थी, वह कहता हैं कि उनके पास 1-2 लाख धनुर्धर थे|

(II) 111 ई. में लिखी गए एक अन्य चीनी इतिहास के ग्रन्थ “हान शु ” (Han Shu, Book of Han) तथा पांचवी शताब्दी में लिखी गई इतिहास की पुस्तक होउ हान शु (Hou Han Shu, Book of Later Han) 29 के अनुसार कुषाण यूचीयो का एक कबीला था, जिसने बाह्लिक (बैक्ट्रिया) के पांच अन्य यूची राज्यों को समाप्त कर एक साम्राज्य का निर्माण किया|

(III) प्राचीन यूनानी भूगोलवेत्ता स्ट्रैबो के अनुसार तोखारोई (Tokharoi) और असी (Asii), पसिअनी (Pasiani), सकेरौली (Sacarauli) कबीलों ने दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के अंत में वाह्लिक (बैक्ट्रिया) राज्य में यूनानी सत्ता को समाप्त कर दिया था|30

(IV) प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के रोमन इतिहासकार ट्रोगस (Trogus) यूनानी राज्य बैक्ट्रिया के विनाश के लिए सकारौकाए (Sacaraucae) और असिअनी (Asiani) को जिम्मेदार ठहराता हैं, तथा वह यह भी बताता हैं कि असिअनी ने तोखारियो को शासक दिए|31

(V) बीसवी शताब्दी के आरम्भ में “कभी यूची कबीले का निवास स्थान रहे तारीम घाटी” में उत्खनन के फलस्वरूप वहां से पांचवी से आठवी शताब्दी तक कुछ अभिलेख और ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं| उइगुर भाषा में अनुवादित एक ग्रन्थ में इस भाषा को तोक्सरी (तोख़ारी) नाम से पुकारा गया हैं|32

(VI) कुषाणों की राजधानी मथुरा के निकट एक पुरातात्विक टीला हैं ज़हां से कुषाण शासक विम तक्तु तथा कनिष्क की मूर्ती प्राप्त हुई हैं, इस टीले को आस-पास के ग्रामीण तोकरी-टीला (तुखारो का टीला) कहते हैं|33

अतः उपरोक्त ‘चीनी तथा यूनानी-रोमन सूचनाओ के मिलान’ तथा ‘तारीम घाटी से प्राप्त पांचवी से आठवी शताब्दी तक के अभिलेखों और ग्रंथो की भाषा के विश्लेषण’ के आधार पर कुछ विद्वानों का मत हैं कि कुषाण यूची कबीले का एक अंग हैं तथा यूची कबीले यूनानियो द्वारा तोखारोई के नाम से जाने जाते थे| इन विद्वानों अनुसार बाह्लिक (बैक्ट्रिया) के जिन क्षेत्रो में यूची निवास करते थे, वो तोखारिस्तान के नाम से मशहूर हो गए|34 अतः उक्त मत के अनुसार यूची तोख़ार, तोख़ारी, तोखारियन, तुषार नाम से भी पुकारे जाते थे तथा इनकी भाषा तोख़ारी कहलाती थी| पुराणों में पश्चिमिओत्तर भारत में निवास करने वाली तुखार और तुषार जाति का उल्लेख हैं| पुराणों के अनुसार तुखार जाति के 14 शासक हुए थे|35

तारीम घाटी क्षेत्र में तोख़ारी भाषा- तारीम घाटी क्षेत्र में तोख़ारी भाषा के अस्तित्व के सम्बंध में महत्वपूर्ण प्रमाण मिले हैं| जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका हैं कि बीसवी शताब्दी के आरम्भ में तारीम घाटी में उत्खनन के फलस्वरूप वहां से पांचवी से आठवी शताब्दी तक कुछ अभिलेख और ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं| उइगुर भाषा में अनुवादित ‘आरियाकंद्र द्वारा लिखित मैत्रेयस्यमिति “(maytreyiasyamiti) ग्रन्थ में इस भाषा को तोक्सरी (तोख़ारी) नाम से पुकारा गया हैं| अतः इन अभिलेखों और ग्रंथो की भाषा को ऍफ़. वी. के. मुएल्लेर (F. V. K. Mueller) ने तोख़ारी नाम दिया हैं|36 ये ग्रन्थ और अभिलेख भारतीय ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं| इन अभिलेखों और ग्रंथो के अध्ययन से पता चलता हैं कि तारीम घाटी के नगर राज्यों में तोख़ारी भिन्न रूपों में बोली जाती थी| तारीम घाटी के उत्तर पूर्वी क्षेत्र में स्थित अग्नि (Yanqi) और चेशी (आधुनिक तुर्फन) राज्यों में तोख़ारी- ए37, इसके पश्चिम क्षेत्र में स्थित कुसि (Quici) यानि कूचा में तोख़ारी- बी38 तथा तारीम घाटी के दक्षिण  क्षेत्र में तोख़ारी-सी39 बोली जाती थी| अग्नि आदि राज्यों के तोख़ारी-ए भाषा बोलने वाले लोग अपनी भाषा को ‘अर्शी कन्त्वा’ (Arshi Kantwa) 40 तथा स्वयं को अर्शी कहते थे41| अर्शी का अर्थ श्वेत (white) हैं42| अर्शी अपने राज्य को आर्शी यपे (Arshi Ype) कहते थे, जिसका अर्थ हैं- श्वेत देश (The White Country) 43|  अर्शी शब्द की मूल धातु आर्य हैं| एच. बैले के अनुसार अर्शी शब्द, ईरानी शब्द आर्ष के माध्यम से, संस्कृत के आर्य शब्द से आया हैं|44 अर्शी / रिशी को ही महाभारत आदि प्राचीन भारतीय ग्रंथो में (जम्बुद्वीप स्थित उत्तरकुरु वर्ष निवासी) ऋषिक45 तथा चीनी ग्रंथो में  रुझी / युएझी / यूची46 कहा गया हैं| इस प्रकार स्पष्ट हैं कि यूची आर्य थे, जोकि स्वयं को अर्शी कहते थे| यह पूर्व में कहा जा चुका हैं कि अर्शी शब्द की मूल धातु आर्य हैं|

तोख़ारी बी के ग्रंथो के अध्ययन से ये प्रमाणित हो गया हैं की कूचा राज्य के निवासी अपनी भाषा, तोख़ारी-बी में कूचा को कुसि47 तथा अपनी भाषा को ‘कुसिन्ने’ बोलते थे| ‘कुसिन्ने’ और ‘कुच्चाने’ न केवल उनकी भाषा का नाम था बल्कि यह कूचा के निवासियों का जातिनाम (ethnonym) भी था|48 अर्शी की भाति कुसिन्ने का अर्थ भी श्वेत हैं|49 अतः सम्भव हैं कि यूची जातिनाम तारीम घाटी स्थित अग्नि राज्य के निवासी ‘अर्शी’ का चीनी रूपांतरण हैं तथा कुषाण कूचा के ‘कुसिन्ने’ से सम्बंधित हैं| कुषाण यदि तोख़ारी बोलने वाले अर्शी (यूची), विशेष रूप से कूचा के कुसिन्ने हैं, तब भी यह प्रमाणित हैं कि उनकी भाषा भारोपीय समूह की आर्य भाषा थी तथा तुर्की भाषा से उनका कोई सम्बन्ध नहीं हैं| एक बड़ी महत्वपूर्ण बात यह भी हैं कि तारीम घाटी से प्राप्त तोख़ारी भाषा के अभिलेख और ग्रन्थ भारतीय ब्राह्मी में लिखे गए हैं, किसी चीनी या तुर्की लिपि में नहीं| अतः कुषाणों की तोख़ारी भाषा से संबद्धता के आधार पर वो भारोपीय आर्य साबित होते हैं|
उपरोक्त विश्लेष्ण के आधार पर कह सकते हैं कि कुषाणों के सिक्को और अभिलेखों में पाई जाने वाली ‘आर्य’ नामक भाषा ‘बाख्त्री’ और भारोपीय आर्य भाषा ‘तोख़ारी’ का मिश्रण थी|

ग. संस्कृत एवं प्राकृत - कुषाणों ने संस्कृत को विशेष बढ़ावा दिया| यहाँ तक की बौद्ध ग्रन्थ कुषाण काल से पूर्व में पाली भाषा में लिखे जाते थे, कुषाणों के समय में महायान बौद्ध ग्रन्थ संस्कृत में लिखे जाने लगे|50 कनिष्क कुषाण (78-101 ई.) ने चीन के शासको को पराजित कर तारीम घाटी को पुनः जीत लिया था|51 कुषाणों ने वहां भारतीय भाषा और लिपियों के प्रयोग को बढ़ावा दिया| कुषाणों के शासन काल में तारीम घाटी के राज्यों में संस्कृत को साहित्य की भाषा के रूप में प्रयोग आरम्भ हुआ|52 कुषाणों ने ही तारीम घाटी राज्यों अन्य भारतीय भाषा प्राकृत और ब्राह्मी लिपि को प्रशासनिक भाषा और लिपि के रूप में स्थापित किया|53 कुषाणों ने ही वहाँ भारत की एक अन्य लिपि खरोष्ठी का प्रयोग आरम्भ किया|


निष्कर्ष- रबाटक अभिलेख के अनुसार कुषाणों की अपनी भाषा का नाम आर्य था| कुछ इतिहासकारों ने चीनी स्त्रोतों के आधार कुषाणों को यूची कबीले का अंग माना हैं तथा स्ट्रैबो तथा ट्रोगस आदि प्राचीन यूनानी-रोमन लेखको के वर्णन के आधार यूची कबीले की पहचान तोख़ारी समुदाय से की हैं| इस आधार पर उनकी मूल भाषा तोख़ारी को माना हैं| तोख़ारी भी भारोपीय समूह की आर्य भाषा हैं| कुषाणों ने अपनी मातृ भाषा आर्य के अतिरिक्त संस्कृत को विशेष बढ़ावा दिया| यहाँ तक उनके प्रभाव से तारीम घाटी राज्यों में भी संस्कृत को साहित्य की भाषा के रूप में प्रयोग आरम्भ हुआ तथा प्राकृत को प्रशासनिक भाषा के रूप में स्थापित हुई| निष्कर्षतः कुषाणों की सभी ज्ञात भाषाई संबद्धता उन्हें आर्य प्रमाणित करती हैं|

सन्दर्भ - 

1. Hans Loeschner, The Stūpa of the Kushan Emperor Kanishka the Great, with Comments on the Azes Era and Kushan Chronology, Sino-Platonic Papers,  Number 227, July 2012, p 19
2.  J. B. Bury, The Turks in the Sixth Century, The English Historical Review, Vol.12, No.47, July 1897, p 417-426
3. Hans-Lukas Kieser, Turkey Beyond Nationalism: Towards Post- Nationalist Identies, London, p 44
4.  James Minahan, Encyclopedia of the Stateless nations: Ethnic and National Groups Around the World, Vol. 1, Westport, 2002, p 92
6. Philipp Strazn, Encyclopedia of Linguistics, New York, 2011, p 39
(b) वही Carter Vaughn Findley
8. Valerie Hanse, The Silk Road: A New History, New York, 2012, p 71
9. John M. Rosenfield, The Dynastic Arts of the Kushans, University of California Press, Berkley and Los Angles, California, p 9
10. William J. Duiker, Jackson Spielvogel, The Essential World History, Thomson Wadsworth, Australia, p 153
11. J. N. Farquhar & Hervey De Witt Griswold, The Religious Quest of India- The Religion of Rigveda, London, 1923, p 23
(b) सुशील भाटी, गुर्जिस्तान, जनइतिहास ब्लॉग, 2018
13. James M Campbell, The Gazetteer of Bombay Presidency, Vol. IX Part 1, Bombay, 1901, P 469-502
14. सुशील भाटी, गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिधांत, जनइतिहास ब्लॉग, 2016 
15. . Alexander, Cunningham, Archeological survey India, Four reports made during 1862-63-64-65, Vol . II, Simla, 1871, Page 70-73
16.  Pandit Bhagwanlal Indraji, Early History of Gujarat (art.), Gazetteer of the Bombay Presidency, Vol I Part I, , Bombay 1896, Page 2
17. A H Bingley, History, Caste And Cultures of Jats and Gujars, Page 9
18. (a)  Muhammad Nazim, The Life and Times of Mahmud of Ghazna, Cambridge University Press, 1931
(b) André Wink, Al-Hind, The Making of the Indo-Islamic world: Early Medieval India and the expansion of Islam 7th- 11th centuries, Boston, 2002
19. Nicholas Sims Williams and Joe Cribb, A New Bactrian Inscription of Kanishka The Great, Silk Road Art and Archaelogy, Volume 4, 1995–6, Kamakura, p 75-142
20. H. J. M. Claessen, Peter Skalník, The Study of the State, Vol. 1, New York, 1981, p 259
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22. Wendy Doniger,The Hindus, Oxford, New York, 2010, p 90
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26. John M Rosenfield, 1967, op.cit., p 8
27. ibid.
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31.  ibid., p 65
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33. John M Rosenfield, 1967, op. cit. p 7-9
34. ibid.
35. ibid.
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38. ibid.
39. J. P. Mollary and D. Q. Adams (Edit.), The Encyclopedia of Indo-European Culture, London, 1997, p 591
40. Zhivko Voynikov, op. cit., p 9
41. ibid., p 7
42. ibid., p 9
43. ibid., p 10
44. ibid, p 9
45. ibid., p 10, 40, 60,
46. ibid., p 4-6
47.ibid., p 10
48. ibid., p14
49. ibid.
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53. ibid.

Friday, August 30, 2019

विदेशी आक्रान्ता और गुर्जर प्रतिरोध (पूर्व मध्य काल)


डॉ सुशील भाटी

अरब साम्राज्यवाद की भारत को चुनौती- खलीफा उमर (634-44 ई) के समय अरबी साम्राज्य का तीव्र गति से विकास हुआ| 637-647 ई. के बीच हुए सैनिक अभियानों में सीरिया, इराक, ईरान और मिश्र पर मदीना का नियंत्रण स्थापित हो गया| उसके पश्चात खलीफा उस्मान (644-656 ई.) ने मध्य एशिया पर नियंत्रण के लिए सैनिक अभियान भेजे| खलीफा उस्मान के शासन काल में मिश्र और ईरान में अरब साम्राज्य का विस्तार होता रहा| इस प्रकार कुछ ही दशक में अरबी साम्राज्य मिश्र स्थित नील नदी से लेकर भारत की सीमा तक फ़ैल गया| अरबो ने भारत विजय के प्रयास सातवी शताब्दी के मध्य में ही आरम्भ कर दिए थे किन्तु आंधी तूफ़ान की गति से बढ़ रहे अरब भारत की सीमा पर ठहर गए|

अरबो द्वारा पश्चिमीओत्तर भारत विजय अभियान तथा काबुल शाही द्वारा प्रतिरोध- अरबो ने पूर्वी ईरान स्थित सीस्तान को 650 ई. के लगभग जीत लिया था| सीस्तान को सैनिक ठिकाना बनाकर, अरबो ने सर्व प्रथम, पश्चिमीओत्तर भारत में काबुल-कपिशा तथा गंधार क्षेत्र को जीतने का प्रयास किया| काबुल-कपिशा के शाही राजाओ ने 666 के लगभग अरबो के काबुल जीतने के प्रयासों को असफल कर दिया| अतः अरब साम्राज्यवाद की आंधी को पहला झटका भारत में काबुल-कपिशा के शाही राजाओ से प्राप्त हुआ|

डी. बी. पाण्डेय आदि इतिहासकार काबुल-कपिशा के शाही वंश को हूणों से सम्बंधित करते हैं| अल बिरूनी (1030 ई.) के अनुसार इस वंश का पहला शासक बरहतकिन (बराह तेगिन) था तथा वह इन्हें कनिक (कनिष्क कुषाण) से सम्बंधित करता हैं|  इस बात के अन्य प्रमाण भी हैं कि भारत में हूणों ने, किदार हूण तथा अलखान हूणों ने, अपने को कुषाणों का वारिस माना हैं| किदार और अलखान हूण दोनों ही कुषाणों की उपाधि ‘शाही’ धारण करते थे| किदार हूण तो अपने सिक्को पर कुषाण ‘कोशानो’ अंकित कराते थे इसलिए कुछ इतिहासकार इन्हें किदार कुषाण कहते हैं| कनिक (कनिष्क) के वंशज पुकारे जाने वाले काबुल-कपिशा के शाही शासको को हेन सांग (645 ई) क्षत्रिय कहता हैं तथा इनका निवास उदभांडपुर बताता हैं| कल्हण के अनुसार भी शाही क्षत्रिय थे तथा इनकी राजधानी उदभांडपुर थी| इस राज्य का दक्षिण भाग (गजनी क्षेत्र) जाबुल कहलाता था तथा यहाँ का प्रान्त पति काबुल शाह के परिवार का सदस्य होता था| अरबी स्त्रोतों में इसे ‘रतबिल’ कहा गया हैं| शाही वंश ने आगामी शताब्दियों में एक दीवार की तरह अरबो से भारत की रक्षा की|  यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय हैं कि एलेग्जेंडर कनिंघम ने कुषाणों की पहचान गुर्जरों से की हैं तथा वी. ए. स्मिथ, विलियम क्रुक आदि इतिहासकारों ने गुर्जरों को हूणों से सम्बंधित किया हैं|

697 – 98 में अरबो ने जाबुल को पुनः जीतने का प्रयास किया| परन्तु एक निर्णायक युद्ध में शाही शासको अरबो को पराजित कर दिया जिसमे अरबी सेनापति याज़िद ज़ियाद मारा गया|

अरबो द्वारा सिंध मुल्तान की विजय - मुल्तान के दक्षिण में स्थित निचला सिन्धु घाटी क्षेत्र सिंध कहलाता हैं| चचनामा के अनुसार आठवी शताब्दी के आरम्भ राजा दाहिर राजधानी ब्राह्मणाबाद से सिंध पर शासन कर रहा था| देबल सिंध उसका मुख्य शहर था|

सीलोन (श्री लंका) के राजा ने कुछ कीमती उपहार समुन्द्र के रास्ते एक जहाज़ से ईरान के अरबी गवर्नर हज्जाज के लिए भिजवाए थे| जिन्हें रास्ते में ही देबल में लूट लिया गया| अरबो के कहने पर भी राजा दाहिर ने लुटेरो पर कोई कारवाही नहीं की| अतः इस बहाने से ईरान के गवर्नर हज्जाज के सेनापति मोहम्मद बिन कासिम ने 712 ई. में सिंध स्थित देबल बंदरगाह  पर आक्रमण कर दिया| अरबो के सेनापति मोहम्मद बिन कासिम राजा दाहिर को परास्त कर देबल और ब्रह्मणाबाद जीत लिया| उसके बाद अरबो ने 723 ई. में मुल्तान पर विजय प्राप्त कर अपनी सिंध विजय पूर्ण कर ली| इस प्रकार अरबी साम्राज्यवाद के समक्ष एक भारतीय राज्य ढेर हो गया|

जुनैद का भारत पर आक्रमण तथा गुर्जर परिसंघ द्वारा प्रतिरोध - सिंध विजय के पश्चात् अरबो ने उत्तर भारत की विजय के लिए अभियान आरम्भ कर दिए| अरब खलीफा हिशाम (724-743 ई.) ने जुनैद को सिंध का गवर्नर नियुक्त किया| जुनैद ने सिंध में अरब शक्ति को मज़बूत किया तथा विस्तारवादी नीति को अपनाया| बिलादुरी के अनुसार उसने अपने सैन्य अधिकारियो को मरमद (मरू-मार), मंडल (वल्ल मंडल), दहनाज, बरुस (भड़ोच), उजैन (उज्जैन) और मालिबा (मालवा) पर आक्रमण करने के लिए भेजा| जुनैद ने स्वयं अल बैलमान (भीनमाल) और जुर्ज़ (गुर्जर) को जीता| नवसारी अभिलेख से भी हमें इस अरब आक्रमण का पता चलता हैं| पुल्केशी जनाश्रय के नवसारी अभिलेख (738 ई.) के अनुसार “ताज़िको (अरबो) ने तलवार के बल पर सैन्धव (सिंध), कच्छेल्ल (कच्छ), सौराष्ट्र, चावोटक (चापोत्कट, चप, चावडा), मौर्य (मोरी), गुर्जर आदि को नष्ट कर दिया था|

जुनैद ने नेतृत्व में, 724 ई. में पश्चिमी भारत पर हुए अरब आक्रमण ने एक अभूतपूर्व संकट उत्पन्न कर दिया| इस संकट के समय भी हूण-गुर्जर समूह के राज्य एक साथ उठ खड़े हुए| इस बार इनका नेतृत्व गुर्जर-प्रतीहार शासक नाग भट I ने किया| मिहिरभोज के ग्वालियर अभिलेख के अनुसार प्रताड़ित जनता की प्रार्थना पर नाग भट नारायण के अवतार के रूप में प्रकट हुआ तथा उसने मलेच्छो (अरबो) की सेना को पराजित किया| यह कहना कठिन कि अरब आक्रमण के समय नाग भट I किस स्थान का शासक था अथवा उसकी राजनैतिक स्थिति क्या थी| परन्तु ऐसा प्रतीत होता हैं कि उस समय उज्जैन उसके राज्य का हिस्सा था| जैन ग्रन्थ हरिवंश में गुर्जर प्रतीहार शासक वत्सराज को अवन्तीनाथ कहा गया हैं| अमोघवर्ष के संजान प्लेट अभिलेख से पता चलता हैं कि राष्ट्रकूट शासक दन्तिदुर्ग (753-756 ई.) के समय उज्जैन का शासक गुर्जर था|

बिलादुरी ने अरब सैन्य अधिकारियो द्वारा  मरमद (मरू-मार), मंडल (वल्ल मंडल), दहनाज, बरुस (भड़ोच), उजैन (उज्जैन) और मालिबा (मालवा) पर आक्रमण का उल्लेख मात्र किया हैं, इन सैन्य अभियानों के परिणामो के विषय में वह मौन हैं| केवल जुनैद द्वारा जुर्ज़ (गुर्जर) और उसकी राजधानी अल बैलमान (भीनमाल) को जीतने का उसने वर्णन किया हैं| अतः ऐसा प्रतीत होता हैं कि बढ़ते हुए अरब आक्रमण को नाग भट | ने उज्जैन से पीछे धकेल दिया था और अरबो को सिंध तक सीमित कर दिया|

प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम प्लेट अभिलेख के अनुसार भड़ोच के गुर्जर शासक जय भट IV ने वर्ष 735-36  ई में वल्लभी में ताज्जिको (अरबो) को पराजित किया|

वह नवसारी प्लेट अभिलेख (738-739 ई.) के अनुसार ज़ब अरबो ने दक्षिणपथ (दक्कन) में प्रवेश करने का प्रयास किया तो वातापी के चालुक्यो के सामंत पुल्केशीराज जनाश्रय ने भी नवसारी के पास अरबो को पराजित किया था| पुल्केशीराज सभवतः दक्षिण गुजरात, कोंकण एक हिस्से तथा नासिक क्षेत्र का प्रान्त पति था| इतिहासकार वी. ए. स्मिथ, डी. आर. भंडारकर चालुक्यो को गुर्जर मानते हैं|

ऐसा प्रतीत होता हैं कि कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार, भड़ोच के गुर्जर तथा वातापी के चालुक्य ने अरबो के विरूद्ध एक परिसंघ बना कर इस विदेशी आक्रमण को विफल कर भारतीय समाज और संस्कृति की रक्षा की| इसी समय से उज्जैन के गुर्जर शासक नाग भट और उसके वंशजो ने लगभग तीन सों वर्ष तक भारत की अरब साम्राज्यवाद से रक्षा की |

गुर्जर साम्राज्य का उदय तथा अरब साम्राज्यवाद से भारत की रक्षा- कालांतर में नाग भट II के नेतृत्व में उज्जैन के गुर्जर-प्रतिहारो ने कन्नौज को जीतकर उसे अपनी राजधानी बनाया| अल इदरीसी (1154 ई,) के अनुसार के अनुसार गुर्जर प्रतिहार शासको उपाधि गुर्जर थी तथा उनके साम्राज्य का नाम भी ‘गुर्जर’ था| गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य उत्तर भारत में विस्तृत था| भोज महान (836-886 ई.) और उसके पुत्र महेंद्रपाल (886-915 ई.) के समय यह हर्ष वर्धन के राज्य से अधिक बड़ा था तथा गुप्त साम्राज्य से कम नहीं था| के. एम. मुंशी ने गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य को ‘गुर्जर देश’ की संज्ञा दी हैं| आधुनिक इतिहासकारों में होर्नले ने इसे “गुर्जर साम्राज्य’ की संज्ञा दी हैं|

मिहिर भोज (836-885 ई.) के शासन सभालने के एक वर्ष के भीतर ही सिंध के अरबी सूबेदार ने आस-पास के क्षेत्रो को जीतने का प्रयास किया | लेकिन 833-843 के मध्य अरबो को परास्त कर कच्छ से भगा दिया| कुछ ही वर्षो में गुर्जर प्रतीहारो ने अरबो से सिंध का एक बड़ा भाग जीत लिया| अरबी लेखक अल मसूदी (900-940 ई.) के अनुसार सिन्धु नदी गुर्जर साम्राज्य के एक शहर के बीच से बहती थी| अरबो के पास दो छोटे-छोटे राज्य रह गए थे जिनकी राजधानी अल मंसूरा और मुल्तान थी| अरबी लेखक बिलादुरी कहता हैं कि अल-हाकिम इब्न-अवान्हा के समय ‘अल हिन्द’ में मुसलमानों को ऐसा कोई स्थान ढूंढे से भी नहीं मिलता था ज़हा भागकर वो अपनी जान बचा ले| इसलिए उसने अल हिन्द की सीमा के बाहर झील के दूसरी तरफ मुसलमानों की पनाहगाह के रूप में अल मह्फूज़ा नाम का शहर बसाया जहा मुसलमान सुरक्षित रह सके और उसे अपनी राजधानी बना सके| मिहिर भोज ने अरबो को को शेष सिंध और मुल्तान से निकालने के प्रयास किये किन्तु अरब शासको द्वारा मुल्तान के सूर्य मंदिर को तोड़ने की धमकी देने पर वह पीछे हटने पर मजबूर हो जाता था| प्रसिद्ध इतिहासकार आर. सी. मजुमदार के अनुसार मिहिर भोज “मुस्लिम आक्रमणों के सामने वह अभेद दीवार की भाति था| अपना यह गुण वह अपने उत्तराधिकारियों को विरासत में दे गया”|

851 ई. में सुलेमान नाम का अरब भूगोलवेत्ता और व्यापारी भारत आया| उसने अपने ग्रन्थ ‘सिलसिलात-उत तवारीख’ में गुर्जर साम्राज्य की समृधि और सैन्य शक्ति का शानदार विवरण प्रस्तुत किया हैं| वह लिखता हैं कि हिन्द के शासको में एक गुर्जर हैं जिसके पास विशाल सेना हैं, हिन्द के किसी अन्य शासक के पास उसके जितनी अच्छी घुड़सवार सेना नहीं हैं| वह अरबो का दुश्मन हैं| हिन्द के शासको में उससे से बढ़कर कोई इस्लाम का शत्रु नहीं हैं| वह बहुत धनवान हैं, उसके पास असख्य ऊट और घोड़े हैं| उसके राज्य में लेन-देन चांदी और सोने के सिक्को में होता हैं| ऐसा कहा जाता हैं कि उसके राज्य में इन धातुओ की खाने हैं| भारत में कोई भी राज्य लुटेरो से अधिक सुरक्षित नहीं हैं, जितना की गुर्जर साम्राज्य हैं|

बगदाद के रहने वाले अल मसूदी (900-940 ई.) ने कई बार हिन्द की यात्रा की| अल मसूदी अपने ग्रन्थ ‘मुरुज़ उत ज़हब’ कहता हैं कि बौरा उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम चारो दिशाओ में चार विशाल सेनाए तैनात रखता हैं, क्योकि उसका राज्य लडाकू राजाओ से घिरा हैं| कन्नौज का राजा बल्हर (राष्ट्रकूट राजाओ की उपाधि वल्लभ) का शत्रु हैं| वह कहता हैं कि कन्नौज के शासक बौरा के पास चार सेनाए हैं, प्रत्येक सेना में 7 से 9 लाख सैनिक हैं| उत्तर की सेना मुल्तान के अरब राजा और मुसलमानों के विरुद्ध लडती हैं, दक्षिण की सेना मनकीर (राष्ट्रकूट राजधानी मान्यखेट) के राजा बल्हर (वल्लभ) के विरुद्ध लडती हैं| उसके अनुसार बल्हर हमेशा गुर्जर राजा से युद्धरत रहता हैं| गुर्जर राजा ऊट और घोड़ो के मामले में बहुत धनवान हैं और उसके पास विशाल सेना हैं||

अरब साम्राज्वाद के विरोध में गुर्जर-शाही गटबंधन- कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार शासको के विरोध में सिंध के अरब शासको और दक्कन के राष्ट्रकूट शासको ने गठजोड़ कर लिया| बंगाल के पाल भी यदा-कदा इनके पीछे ही खड़े नजर आये| अतः इसके ज़वाब में कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार शासक मिहिर भोज ने पंजाब के अलखान गुर्जर तथा अरबो के शत्रु उदभांडपुर के शाही शासक लल्लिया के साथ  गटबंधन कर लिया| चंबा राज्य का साहिल वर्मा (920-940 ई.) गुर्जर प्रतिहारो का सामंत था और वह भी इस गटबंधन का अहम् हिस्सा था|

सीस्तान के अरब शासक याकूब बिन लेथ ने 870 ई में काबुल जीत लिया| इतिहासकार हरमट ने तोची घाटी अभिलेख के आधार पर निष्कर्ष निकला हैं कि मिहिर भोज (836-885 ई.)ने पश्चिम की तरफ अपने राज्य का विस्तार किया तथा लल्लिया शाही (875-90 ई.) को काबुल और कंधार प्राप्त करने में उसकी मदद की| हरमट के अनुसार मिहिर भोज ने लल्लिया शाही को याकूब बिन लेथ के विरुद्ध तैनात किया|

कल्हण ने भीम देव शाही के बाद एक ठक्कन नाम के शाही शासक का ज़िक्र किया हैं| जिसका झुकाव कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार शासक की तरफ था| यह संभवतः जयपाल शाही का दादा था| मशहूर एथ्नोलोजिस्ट एच. ए. रोज के अनुसार पंजाब के खटाना गुर्जर जयपाल शाही और उसके पुत्र आनन्दपाल को अपना पूर्वज मानते हैं| फ़रिश्ता (1560-1620 ई.) के अनुसार महमूद गजनवी के आक्रमण के समय जयपाल शाही वंश का शासक था| उसके पिता का नाम इश्तपाल था| उसका राज्य लमघान से सरहिन्द तथा कश्मीर से मुल्तान तक विस्तृत था| वह वाई हिन्द के किले में रहता था| 982-83 में लिखे गए एक अरबी ग्रन्थ हुदूद-उल-आलम के अनुसार जयपाल शाही (965-1001 ई.) कन्नौज के शासक (राय) का सामंत था| ऐसा प्रतीत होता हैं कि अभी तक भी कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारो की उत्तर भारत के सम्राट के रूप में प्रतिष्ठा शेष थी| सभवतः इसी प्रतिष्ठा के आधार पर कन्नौज के शासको ने शाही राज्य के विरुद्ध महमूद गजनवी के संभावित आक्रमण को देखते हुए उत्तर भारत के शासको का एक परिसंघ बनने का प्रयास किया था| फ़रिश्ता के अनुसार जयपाल शाही ने महमूद गजनवी के विरुद्ध कुर्रम घाटी में लडे गए युद्ध में दिल्ली, कन्नौज और कालिंजर के राजाओ से आर्थिक और सैनिक सहायता प्राप्त की थी| परन्तु ऐसा प्रतीत होता हैं कि केवल कन्नौज के प्रतिहार शासक ने ही अपनी सेना भेजी थी|

शाही राज्य को जीतने के बाद महमूद गजनवी ने 1018 ई. में कन्नौज को भी जीत लिया| प्रतिहार शासक राज्यपाल ने गंगा पार बारी में शरण ली|

गुर्जर प्रतिहारो, काबुल और जाबुल के शाही वंश, भड़ोच के गुर्जरों तथा वातापी के चालुक्यो के पराक्रम के कारण अरब भारत के आंतरिक हिस्सों को तीन सों वर्षो तक नहीं जीत सके, तुर्कों को भी भारत में तभी सफलता मिल सकी, जब दसवी शताब्दी के उत्तरार्ध में गुर्जर प्रतिहारो और शाही वंश का पतन प्रारम्भ हो गया|

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