डा. सुशील भाटी
भारत मे प्रजातंत्र के वास्तविक निर्माण के लिये आम जन
के योगदान एवं उपलब्धियो का लिखा जाना आवश्यक
है। किन्तु प्रश्न उठता है, कैसे ? पूर्व
का अधिकतर साहित्य एवं इतिहास लेखन तत्कालीन सभ्रान्त एवं उच्च वर्ग की उपब्धिपूर्ण
भूमिका को रेखकिंत करता है। अतः इतिहास लेखन के लिये प्रयोग मे लाये जाने वाले सभी
लिखित प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोत इसी सभा्रन्तवादी दृष्टिकोण से प्रभावित है। ऐसी
स्थिति मे , पुरातात्विक स्त्रोतो के अतिरिक्त आम जन से जुडी मौखिक परम्पराओं, जन अनुश्रुतियो,
मिथक, लोक कहावते, लोक गीत, लोकगाथाओं के अतिरिक्त लोक
संगीत एवं कला का लिपिबद्ध किया जाना अति आवश्यक है। शहरी मजदूर, देहाती किसान एवं दूर दराज
के जगंलो एवं पहाडो मे निवास करने वाले जनजातिय समुदायो के पास अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं
एवं उपलब्धियो का व्यवस्थित एवं लिखित साहित्य एवं इतिहास नही होता है, वे अपनी सांस्कृति एवं इतिहास को मौखिक रुप से ही अपनी नई पीढी
को हस्तान्तरित करते है, इस कारण से आम जन के इतिहास लिखते समय मौखिक परम्पराओ का अनिवार्य स्रोत
के रुप मे प्रयोग करना पडेगा, आम जन का इतिहास सिर्फ पुस्तकालयो
मे बैठकर नही वरन उनके बीच रहकर उनसे निरन्तर संवाद स्थापित करके ही लिखा जा सकता है।
इन्ही वर्गो
के बीच से ही कुछ युवा शोधार्थियो एवं इतिहासकारो को इस कार्य के लिये प्रोत्साहित
किया जाना चाहिये, जिससे कि उनके भूतकाल के चित्रण मे उन्ही के मूल्यों एवं दृष्टिकोण का समावेश किया
जा सके।
भारतीय इतिहास लेखन की अखिल भारतीय रुप रेखा मे आम जन
का जिक्र लगभग नगण्य है। उनकी भूमिका क्षेत्रीय एवं स्थानीय इतिहास मे अधिक स्थान पा
सकती है अतः इनका इतिहास लिखते समय स्थानीय राजस्व, प्रशासनिक, न्याययिक एवं जनगणना सम्बन्धी लेखे
जोखे, गजेटेयर आदि का उपयोग भी श्रेयस्कर है।
यह ध्यान रखने योग्य है कि इतिहास के शोध पत्र एवं ग्रन्थ
पुस्तकालयो के धूल न चाटते रहे, आम जन के इतिहास लिखने का
उददेशय उनकी एक गरिमामयी पहचान स्थापित करना एवं उनमे एक प्रगतिशील चेतना का निर्माण
करना है। इसके लिये आवश्यक है कि भारत की सभ्यता
के विकास एवं भारत के स्वतंत्रता सघर्ष मे आम जन के योगदान एवं उपलब्धियो की गाथा आम
समाज तक पहुचे, जो कि तभी सम्भव है जब इतिहास आम आदमी के घर तक दस्तक दें, इतिहासकार इसके लिये आधुनिक प्रचार साधन - टीवी, इन्टरनेट, अखबार, पत्रिकायें आदि का उपयोग कर सकते है। लघु पुस्तिकाए एवं पैम्पहलैट इत्यादि
भी इस कार्य मे काफी उपयोगी हो सकते है। इतिहास संगोष्ठियो एवं कार्यशालाओं मे आम जन की भागेदारी को प्रोत्साहित
किया जाना चाहिये , साथ ही आम जलसो मे भी इतिहास की चर्चा के अवसर खोजे जाने चाहिये।
आखिर यह आम आदमी ही तो है, जिसे अपना इतिहास जानने की सबसे अधिक आवश्यकता है।
जन इतिहास का
मूलमंत्र है -"जनता का इतिहास जनता के द्वारा जनता के लिये"|