डॉ सशील भाटी
भारतीय इतिहास में हूणों को विदेशी जाति कहने की परंपरा अंग्रेज
इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड, विलियम क्रुक, वी. ए स्मिथ आदि ने शुरू की थी, जिसे
फिर भारतीय इतिहासकारों ने अपना लिया| यह परिपाटी आज भी जीवित हैं| परन्तु समकालीन
भारतीय ग्रंथो में आये हूणों के वर्णन में कही भी उन्हें विदेशी संबोधित नहीं किया
गया हैं| भारतीय ग्रंथो में उन्हें कही भी विदेशी चित्रित नहीं किया गया हैं| भारतीय
ग्रंथो में हूण शब्द एक भारतीय प्रदेश और समुदाय के लिए प्रयूक्त हुआ हैं| कहते
हैं साहित्य समाज का दर्पण होता हैं, आइये देखते हैं कि समकालीन भारतीय ग्रन्थ
हूणों की उत्पत्ति के विषय में में क्या कहते हैं?
महाभारत- महाभारत के आदि पर्व, अध्याय
177 में ऋषि वशिस्ठ की कामधेनु गाय पर अधिकार के प्रश्न पर उनके और विश्वामित्र के
बीच हुए युद्ध का उल्लेख हैं| आदि पर्व के उक्त अध्याय में बताया गया हैं कि वशिस्ठ
की कामधेनु गाय की रक्षा के लिए हूण, पुलिंद, केरल आदि यौद्धा सैनिक कामधेनु गाय
के विभिन्न अंगो से उत्पन्न हुए|
भारतीय समाज में हजारो वर्षो से प्रतिष्ठित ग्रन्थ महाभारत में नंदिनी
गाय को लेकर हुए ऋषि वशिस्ठ और विश्वामित्र के युद्ध की घटना के वर्णन से स्पष्ट
हैं कि प्राचीन भारतीय मानस हूणों की उत्पत्ति विदेश से नहीं अपितु पवित्रतम नंदिनी
गाय से मानता था| इस कथा से यह भी स्पष्ट हैं कि प्राचीन भारत में हूणों को गाय और
ब्राह्मण के रक्षक के रूप में देखा जा रहा था| नंदिनी गाय से हूण उत्पत्ति की
वैज्ञानिक सच्चाई कुछ भी हो किन्तु भारतीय इतिहास में हूणों को विदेशी के रूप में
देखना ब्रिटिश भारत के उपरोक्त अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा स्थापित आधुनिक अवधारणा
हैं, जिसका अंधा अनुसरण कुछ भारतीय इतिहासकार भी कर रहे हैं|
अपने इस मत की स्पष्टता के लिए यह बता देना भी उचित हैं कि भारतीय
ग्रंथो के अनुसार ऋषि वशिस्ठ द्वारा किये गए यज्ञो से अन्य प्रतिष्ठित क्षत्रिय
वंशो की उत्पत्ति भी हुई हैं| ग्यारहवी शताब्दी में पदमगुप्त द्वारा लिखित
नवसाहासांकचरित के अनुसार ऋषि वशिस्ठ ने विश्वामित्र से कामधेनु गाय को वापिस पाने
के लिए आबू पर्वत पर एक यज्ञ का आयोजन किया| यज्ञ की अग्नि से एक महामानव प्रकट
हुआ, जिसने बलपूर्वक विश्वामित्र से गाय को छीन लिया| ऋषि वशिस्ठ ने इस यौद्धा का
नाम परमार (शत्रु को मारने वाला) रखा और उसे राजा बना दिया| इसी प्रकार चन्द्र
बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो के अनुसार ऋषि वशिस्ठ द्वारा आबू पर्वत पर यज किया गया
जिसकी अग्नि से प्रतिहार, चालुक्य, परमार और चौहान नामक यौद्धा उत्पन्न हुए| ये
चारो भारत के प्रसिद्द राजसी वंश हैं| इन अग्निवंशी यौद्धा कुलो को भी कुछ अंग्रेज
इतिहासकारों ने हूणों की तरह विदेशी बताया हैं| जबकि भारतीय मानस का प्रतिनिधित्व नवसाहासांकचरित
और पृथ्वीराज रासो में वर्णित अग्निकुल की अवधारणा करती हैं|
महाभारत के सभापर्व के अनुसार पांडु पुत्र नकुल का युद्ध पश्चिम दिशा
में हाराहूणों से हुआ था| सभा पर्व में ही यह भी बताया गया हैं कि युधिस्ठिर
द्वारा इन्द्रप्रस्थ में किये गए राजसूय यज में हाराहूण भी उपहार लेकर आये थे| भीष्म
पर्व में भारत की राज्यों और समुदायों में हूणों का उल्लेख हुआ हैं|
रघुवंश- पांचवी शताब्दी के लेखक कालिदास द्वारा लिखित
संस्कृत महाकाव्य ‘रघुवंश’ में प्राचीन रघुवंश के संस्थापक राजा रघु की दिग्विजय
का वर्णन हैं| इसी रघुवंश में महाराज दशरथ और भगवान राम का जन्म हुआ था| संस्कृत
के विद्वान मल्लिनाथ के अनुसार रघुवंश ग्रन्थ में बताया गया हैं कि अपनी दिग्विजय
अभियान के अंतर्गत रघु ने सिन्धु नदी के किनारे रहने वाले हूणों को पराजित किया|
कुछ इतिहासकार सिन्धु के स्थान पर वक्षु पढ़े जाने के पक्ष में हैं| हूणों से यूद्ध
के पश्चात रघु ने कम्बोज समुदाय को पराजित किया| इतिहासकार सिन्धु क्षेत्र में
हूणों के निवास की इस स्थिति को कालिदास के समय से सम्बन्धित मानते हैं| किन्तु कालिदास
की जानकारी और विश्वास में रघुवंश के संस्थापक राजा रघु के शासनकाल में हूण भारत
में सिन्धु नदी के क्षेत्र के निवासी थे, विदेशी नहीं|
विष्णु पुराण- पाराशर तथा वराहमिहिर आदि प्राचीन नक्षत्र
वैज्ञानिकों ने भारत के नौ खंड बताये हैं| बहुधा पुराणों में भी भारत के नौ खंडो
का उल्लेख हैं| विष्णु पुराण के अनुसार भारतवर्ष के मध्य में कुरु पंचाल, पूर्व
में कामरूप (आसाम), दक्षिण में पंडूआ, कलिंग और मगध, पश्चिम में सौराष्ट्र, सूर,
आभीर, अर्बुद, करुष, मालव, सौवीर और सैन्धव तथा उत्तर में हूण, साल्व, शाकल,
अम्बष्ट और पारसीक स्थित हैं| इस प्रकार प्राचीन पुराणों के अनुसार हूण प्रदेश भारत
के उत्तर खण्ड में पड़ता था|
हर्षचरित- सातवी
शताब्दी के पूर्वार्ध में बाणभट्ट द्वारा लिखित हर्षचरित के अनुसार थानेश्वर के
शासक प्रभाकरवर्धन का युद्ध हूण, गुर्जर, सिन्धु, गंधार, लाट, मालव शासको के साथ
हुआ| यह हूण राज्य थानेश्वर (हरयाणा) राज्य के उत्तर में स्थित था क्योकि
प्रभाकरवर्धन ने अपनी मृत्यु से ठीक कुछ समय पहले अपने बड़े पुत्र राज्यवर्धन को
हूणों से युद्ध करने उत्तर दिशा में भेजा था|
कुवलयमाला- उदयोतन
सूरी के प्राचीन ग्रन्थ कुवलयमाला में हूण शासक तोरमाण का वर्णन हैं| इस ग्रन्थ के
अनुसार तोरमाण चंद्रभागा (चम्बल) नदी के तट पर स्थित पवैय्या नगरी से दुनिया पर शासन
करता था| कुछ इतिहासकार चंद्रभागा नदी को पंजाब की चेनाब नदी मानते हैं| कुवलयमाला
के अनुसार हरिगुप्त तोरमाण का गुरु था|
नीतिवाक्यमृत- सोमदेव सूरी के ग्रन्थ नीतिवाक्यमृत (959 ई.) के
अनुसार चित्रकूट में हूणों की उपस्थिति का उल्लेख हैं|
राजतरंगिणी- ग्वालियर और मंदसोर अभिलेख से हमें हूण सम्राट
मिहिरकुल के विषय में जानकारी प्राप्त होती हैं| मिहिरकुल हूण के बहुत से सिक्के
भी उसके इतिहास की पुष्टि करते हैं| हेन सांग के ग्रन्थ सी यू की में भी हमें
मिहिरकुल हूण का वर्णन मिलता हैं| कल्हण ने भी अपने ग्रन्थ राजतरंगणी (1149 ई.)
में मिहिरकुल का ऐतिहासिक वर्णन दिया हैं| राजतरंगिणी के अनुसार मिहिरकुल का जन्म
कश्मीर के गौनंद क्षत्रिय वंश में हुआ था| इस वंश का संस्थापक गोनंद महाभारत में
वर्णित राजा जरासंध का सम्बंधी था| मिहिरकुल संकट के समय राजगद्दी पर बैठा|
राजतरंगिणी के अनुसार उस समय दरदो, भौतो और मलेच्छो ने कश्मीर को रौंद डाला था| इस
अवस्था में कश्मीर में धर्म नष्ट हो गया था| मिहिरकुल ने कश्मीर की रक्षा कर उसने
वहाँ शांति स्थापित की| उसके पश्चात उसने आर्यों की भूमि से लोगो को कश्मीर में
बसा कर धर्माचरण का पालन सुनिश्चित करवाया| राज्तारंगिणी के अनुसार मिहिरकुल के जीवन
की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना सिंघल (लंका) पर विजय थी| कल्हण की दृष्टी में
मिहिरकुल लंका पर चढ़ाई करने वाला भगवान राम के बाद दूसरा उत्तर भारतीय सम्राट था| उसने
श्रीनगरी में मिहिरेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया तथा होलड में मिहिरपुर नाम का
बड़ा नगर बसाया| मिहिरकुल ने भी 1000 अग्रहार (ग्राम) ब्राह्मणों को दान में दिए
थे| प्रजा की भलाई के लिए उसने सिचाई व्यवस्था को मज़बूत किया| इस कार्य के लिए चंद्रकुल्या
नदी को रूख मोड़ने का प्रयास भी किया| अतः कल्हण की राजतरंगणी के अनुसार मिहिरकुल एक
भारतीय क्षत्रिय शासक था विदशी नहीं|
कल्हण ने अपनी पुस्तक राजतरंगिनी में नवी शताब्दी में पंजाब के शासक
अलखान गुर्जर का उल्लेख किया हैं| हूणराज तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरकुल के सिक्को
पर उनके वंश का नाम अलखान (अलखोनो) लिखा हैं| इसलिए इन्हें अलखान हूण भी कहते हैं|
अतः नवी शताब्दी में हूणों का राजसी कुल अलखान गुर्जर कहलाता था| कश्मीर के इतिहास
की पुस्तक राजतरंगिनी और अलखान हूणों के सिक्को से प्राप्त सूचना के आधार पर हम कह
सकते हैं कि नवी शताब्दी में अलखान हूण गुर्जर (क्षत्रिय) माने जा रहे थे| ग्वालियर
अभिलेख के अनुसार नवी शताब्दी में कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार क्षत्रिय माने जाते
थे|
कर्नल टॉड मेवाड़ के अनुसार मेवाड़ के वर्षक्रमिक इतिहास (Annals)
में हूण शासक उन्गुत्सी का नाम उन राजाओ की सूची में शामिल हैं जिन्होने चित्तोड़
पर पहले मुस्लिम आक्रमण के विरुद्ध साँझा मोर्चा गठित किया था| हूण शासक उन्गुत्सी
ने इस अवसर पर अपनी सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व किया था| हाड़ोती स्थित कोटा जिले में के
बडोली में हूणों द्वारा बनवाया मंदिर आज भी हैं| मेवाड़ में प्रचलित मान्यताओ के
अनुसार हूण भयसोर (Bhynsor) के राजा थे| मालवा,
हाडौती और मेवाड़ क्षेत्रो में हूण आज भी गुर्जरों का प्रमुख गोत्र हैं|
हूण राजसी क्षत्रिय माने जाते थे और उनके विवाह सम्बन्ध क्षत्रिय
राज़परिवारों में होते थे| उज्जैन के उत्तर में एक ‘हूण मण्डल’ राज्य था| कलचुरी
शासको की राजधानी महिष्मति हूण मण्डल के नज़दीक थी| कलचुरी शासको के हूणों के साथ
राजनैतिक और वैवाहिक सम्बन्ध थे| खैर (रेवा) प्लेट अभिलेख (1072 ई.)
के अनुसार कलचुरी शासक लक्ष्मीकर्ण का विवाह हूण राजकुमारी आवल्ल देवी से हुआ था|
इस विवाह से उत्पन्न राजकुमार यशकर्ण बाद में कलचुरी वंश का राजा बना| गुहिल शासक
शक्तिकुमार के अतपुर अभिलेख (977 ई.) के अनुसार गुहिलोत वंश के राजा
अल्लट का विवाह हूण राजा की पुत्री हरिया देवी से हुआ था| अल्लट के उत्तराधिकारी
नरवाहन की गोष्ठी का एक सदस्य हूण वंश का था| सभवतः गुहिलो और हूणों ने मालवा के
परमारों के विरुद्ध संधि कर रखी थी| हेमचन्द्र सूरी के अनुसार नाडोल
के शासक महेंद्र ने अपनी बहिन के विवाह के लिए एक स्वयंवर सभा का आयोजान किया गया
था, जिसमे एक हूण राजा भी आया था| अतः स्पष्ट हैं कि हूण राजसी क्षत्रिय माने जाते
थे और उनके विवाह-सम्बन्ध क्षत्रिय राज़परिवारों में होते थे|
मध्यकालीन भारतीय ग्रंथो में में हूण राजसी क्षत्रिय माने जाते थे| हेमचन्द्र
(1145-1225 ई.) द्वारा लिखित कुमारपाल प्रबंध / कुमारपाल चरित में
सबसे 36 राजकुलो का उल्लेख किया गया हैं| इस ग्रन्थ में हूण 36 राजकुलो की सूची
में शामिल हैं| उसके पश्चात चन्द्र बरदाई कृत पृथ्वीराजराज रासो में
36 राजकुलो का उल्लेख हैं| इनके अतिरिक्त खीची वंश के भाट ने भी अपने ग्रन्थ में 36
राजकुलो की सूची दी हैं| इन सभी ग्रंथो में दी गई 36 राजकुलो की सूचियों के आधार
पर कर्नल जेम्स टॉड ने अपनी पुस्तक एनाल्स एंड एंटीक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान
(1829 ई.) में 36 राजकुलो की सूची तैयार की हैं, इस सूची में भी हूण 36 राजकुलो
में शामिल हैं|
भारत में हूण पहचान की निरंतरता : हूण गुर्जरों के गाँवो का सर्वेक्षण-
वर्तमान
काल में हूण गुर्जरों का एक प्रमुख गोत्र हैं| सुशील भाटी ने इस सम्बन्ध में “भारत
में हूण पहचान की निरंतरता : हूण गुर्जरों के गाँवो का सर्वेक्षण” नाम से एक शोध
पत्र लिखा हैं| ग्वालियर किला स्थल से प्राप्त सबसे प्राचीन पुरातात्विक-ऐतिहासिक
महत्व की वस्तु हूण सम्राट मिहिरकुल का अभिलेख हैं, जोकि छठी शताब्दी में इस
क्षेत्र में हूणों के आधिपत्य का प्रमाण हैं| इस क्षेत्र में भी हूण गुर्जरों की
अच्छी जनसख्या हैं| हूणों का अंतिम इतिहास मालवा, हाडौती और मेवाड़ क्षेत्र से
मिलता हैं| इन क्षेत्रो में भी हूण गुर्जरों का एक प्रमुख गोत्र हैं| उत्तर प्रदेश
स्थित मेरठ के समीपवर्ती हापुड जिले में हूण गोत्र के गुर्जरों का बारहा (12 गाँव
की खाप) हैं| उत्तराखण्ड के जिला हरिद्वार के लक्सर क्षेत्र में हूण गुर्जरों का
चौगामा (चार गाँव) हैं|
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट हैं कि प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय
साहित्य में हूण वंश को विदेशी नहीं माना गया| महाभारत के आदि पर्व के अनुसार
हूणों की उत्पत्ति ऋषि वशिस्ठ की नंदिनी गाय से उनकी रक्षा के लिए हुई थी| महाभारत
और पुराणों में हूण शब्द एक भारतीय क्षेत्र और समुदाय के लिए प्रयुक्त हुआ हैं| कुवलयमाला
और राजतरंगिणी में क्रमशः हूण सम्राट तोरमाण और मिहिरकुल को भारतीय चित्रित करते
हैं| उपरोक्त उल्लेखित अभिलेखों और ग्रंथो से स्पष्ट हैं कि हूण राजसी क्षत्रिय
माने जाते थे, उनके विवाह क्षत्रिय वंशो में होते थे तथा उनकी गणना प्रसिद्ध 36
राजकुलो में की जाती थी|
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