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Wednesday, May 15, 2013
Thursday, March 7, 2013
हिंडन का युद्ध ( The war of Hindan )
डा. सुशील भाटी
1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में मेरठ और दिल्ली की सीमा पर हिंडन नदी के किनारे 30, 31 मई 1857 को राष्ट्रवादी सेना और अंग्रेजों के बीच एक ऐतिहासिक युद्ध हुआ था जिसमें भारतीयों ने मुगल शहजादा मिर्जा अबू बक्र,[1] दादरी के राजा उमराव सिंह[2] और मालागढ़ के नबाब वलीदाद खाँन[3] के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना के दांत खट्टे कर दिये थे।
जैसा कि विदित
है कि 10 मई
1857 को मेरठ में
देशी सिपाहियों ने
विद्रोह कर दिया
और रात में
ही वो दिल्ली
कूच कर गए
थे। 11 मई को
इन्होंने अन्तिम मुगल बादशाह
बहादुर शाह जफर
को हिन्दुस्तान का
बादशाह घोषित कर दिया[4] और अंग्रेजों को
दिल्ली के बाहर
खदेड़ दिया। अंग्रेजों
ने दिल्ली के
बाहर रिज क्षेत्र
में शरण ले
ली।
तत्कालीन परिस्थितियों में दिल्ली
की क्रान्तिकारी सरकार
के लिए मेरठ
क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण
था। न केवल
मेरठ से सैनिक
विद्रोह की शुरूआत
हुई थी वरन
पूरे मेरठ क्षेत्र
में, सहारनपुर से
लेकर बुलन्दशहर तक
का हिन्दू-मुस्लिम,
किसान-मजदूर सभी
आमजन, इस अंग्रेज
विरोधी संघर्ष में कूद
पड़े थे। ब्रिटिश
विरोधी संघर्ष ने यहाँ
जन आन्दोलन और
जनक्रान्ति का रूप
धारण कर लिया
था। मेरठ क्षेत्र
दिल्ली के क्रान्तिकारियों
को जन, धन
एवं अनाज (रसद)
की भारी मदद
पहुँच रहा था।
स्थिति को देखते
हुए मुगल बादशाह
ने मालागढ़ के
नवाब वलीदाद खान
को इस क्षेत्र
का नायब सूबेदार
बना दिया,[5] उसने
इस क्षेत्र की
क्रान्तिकारी गतिविधियों को गतिविधियों
को गति प्रदान
करने के लिये
दादरी में क्रान्तिकारियों
के नेता राजा
उमराव सिंह से
सम्पर्क साधा[6], जिसने दिल्ली
की क्रान्तिकारी सरकार
का पूरा साथ
देने का वादा
किया।
मेरठ में
अंग्रेजों के बीच
अफवाह थी कि
विद्रोही सैनिक, बड़ी भारी
संख्या में, मेरठ
पर हमला कर
सकते हैं।[7] अंग्रेज
मेरठ को बचाने
के लिए दृढ़
प्रतिज्ञ थे क्योंकि
मेरठ पूरे डिवीजन
का केन्द्र था।
मेरठ को आधार
बनाकर ही अंग्रेज
इस क्षेत्र में
क्रान्ति का दमन
कर सकते थे।
अंग्रेज इस सम्भावित
हमले से रक्षा
की तैयारी में
जुए गए। मेरठ
होकर वापिस गए
दो व्यक्तियों ने
बहादुर शाह जफर
को बताया कि
1000 यूरोपिय सैनिकों ने सूरज
कुण्ड पर एक
किले का निर्माण
कर लिया है।[8]
इस प्रकार
दोनों और युद्ध
की तैयारियां जोरो
पर थी। तकरीबन
20 मई 1857 को भारतीयों
ने हिंडन नदी
का पुल तोड़
दिया जिससे दिल्ली
के रिज क्षेत्र
में शरण लिए
अंग्रेजों का सम्पर्क
मेरठ और उत्तरी
जिलो से टूट
गया।[9]
इस बीच
युद्ध का अवसर
आ गया जब
दिल्ली को पुनः
जीतने के लिए
अंगे्रजों की एक
विशाल सेना प्रधान
सेनापति बर्नाड़ के नेतृत्व
में अम्बाला छावनी
से चल पड़ी।
सेनापति बर्नाड ने दिल्ली
पर धावा बोलने
से पहले मेरठ
की अंग्रेज सेना
को साथ ले
लेेने का निर्णय
किया। अतः 30 मई
1857 को जनरल आर्कलेड
विल्सन की अध्यक्षता
में मेरठ की
अंगे्रज सेना बर्नाड
का साथ देने
के लिए गाजियाबाद
के निकट हिंडन
नदी के तट
पर पहुँच गई।
किन्तु इन दोनों
सेनाओं को मिलने
से रोकने के
लिए क्रान्तिकारी सैनिकों
और आम जनता
ने भी हिन्डन
नदी के दूसरी
तरफ मोर्चा लगा
रखा था।[10]
जनरल विल्सन
की सेना में
60वीं शाही राइफल्स
की 4 कम्पनियां, कार्बाइनरों
की 2 स्क्वाड्रन, हल्की
फील्ड बैट्री, ट्रुप
हार्स आर्टिलरी, 1 कम्पनी
हिन्दुस्तानी सैपर्स एवं माईनर्स,
100 तोपची एवं हथगोला
विंग के सिपाही
थे।[1]1 अंग्रेजी सेना
अपनी सैनिक व्यवस्था
बनाने का प्रयास
कर रही थी
कि क्रान्तिकारी सेना
ने उन पर
तोपों से आक्रमण
कर दिया।[12] भारतीयों
की राष्ट्रवादी सेना
की कमान मुगल
शहजादे मिर्जा अबू बक्र
दादरी के राजा
उमराव सिंह एवं
नवाब वलीदाद खान
के हाथ में
थी। भारतीयों की
सेना में बहुत
से घुड़सवार, पैदल
और घुड़सवार तोपची
थे।[13] भारतीयों ने
तोपे पुल के
सामने एक ऊँचे
टीले पर लगा
रखी थी। भारतीयों
की गोलाबारी ने
अंग्रेजी सेना के
अगले भाग को
क्षतिग्रस्त कर दिया।
अंग्रेजों ने रणनीति
बदलते हुए भारतीय
सेना के बायें
भाग पर जोरदार
हमला बोल दिया।
इस हमले के
लिए अंग्रेजों ने
18 पौंड के तोपखाने,
फील्ड बैट्री और
घुड़सवार तोपखाने का प्रयोग
किया। इससे क्रान्तिकारी
सेना को पीछे
हटना पड़ा और
उसकी पाँच तोपे
वही छूट गई।
जैसे ही अंग्रेजी
सेना इन तोपों
को कब्जे में
लेने के लिए
वहाँ पहुँची, वही
छुपे एक भारतीय
सिपाही ने बारूद
में आग लगा
दी, जिससे एक
भयंकर विस्फोट में
अंग्रेज सेनापति कै. एण्ड्रूज
और 10 अंग्रेज सैनिक
मारे गए। इस
प्रकार इस वीर
भारतीय ने अपने
प्राणों की आहुति
देकर अंग्रेजों से
भी अपने साहस
और देशभक्ति का
लोहा मनवा लिया।
एक अंग्रेज अधिकारी
ने लिखा था
कि ”ऐसे लोगों
से ही युद्ध
का इतिहास चमत्कृत
होता है!”[14]
अगले दिन
भारतीयों ने दोपहर
में अंग्रेजी सेना
पर हमला बोल
दिया यह बेहद
गर्म दिन था
और अंग्रेज गर्मी
से बेहाल हो
रहे थे। भारतीयों
ने हिंडन के
निकट एक टीले
से तोपों के
गोलों की वर्षा
कर दी। अंग्रेजों
ने जवाबी गोलाबारी
की। 2 घंटे चली
इस गोलाबारी में
लै0 नैपियर और
60वीं रायफल्स के
11 जवान मारे गए
तथा बहुत से
अंग्रेज घायल हो
गए।15 अंग्रेज भारतीयों
से लड़ते-2 पस्त
हो गए, हालांकि अंग्रेज सेनापति जनरल विल्सन
ने इसके लिए
भयंकर गर्मी को
दोषी माना। भारतीय
भी एक अंग्रेज परस्त
गांव को आग
लगाकर सुरक्षित लौट
गए।
1 जून 1851 को अंग्रेजों
की मदद को
गोरखा पलटन हिंडन
पहुँच गई तिस
पर भी अंग्रेजी
सेना आगे बढ़ने
का साहस नहीं
कर सकी और
बागपत की तरफ
मुड़ गई।16 इस
प्रकार भारतीयों ने 30, 31 मई
1857 को लड़े गए
हिंडन के युद्ध
में साहस और
देशभक्ति की एक
ऐसी कहानी लिख
दी, जिसमें दो
अंग्रेजी सेनाओं के ना
मिलने देने के
लक्ष्य को पूरा
करते हुए, उन्होंने
अंग्रेजी बहादुरी के दर्प
को चूर-2 कर
दिया।
सन्दर्भ
1. ई0 बी0
जोशी, मेरठ डिस्ट्रिक्ट
गजेटेयर, गवर्नमेन्ट प्रेस, 1963, पृष्ठ
संख्या 53
2. शिव कुमार
गोयल, ऐसे शुरू
हुई मेरठ में
क्रान्ति (लेख), दैनिक प्रभात,
मेरठ, दिनांक 10 मई
2007।
3. वही।
4. वही ई0
बी0 जोशी।
5. एस0 ए0
ए0 रिजवी, फ्रीडम
स्ट्रगल इन उत्तर
प्रदेश, खण्ड टए
लखनऊ, 1960, पृष्ठ सं0 45 पर
मुंशी लक्ष्मण स्वरूप
का बयान।
6. वही।
7. बिन्दु क्रमांक 221, नैरेटिव ऑफ इवेन्टस अटैन्डिग
द आऊटब्रैक ऑफडिस्टरबैन्सिस एण्ड द
रेस्टोरेशन ऑफ ऑथोरिटी इन डिस्ट्रिक्ट मेरठ
1857-58, राष्ट्रीय अभिलेखागार, दिल्ली।
8. वही ई0
बी0 जोशी।
9. वही ई0
बी0 जोशी।
10. उमेश त्यागी,
1857 की महाक्रान्ति में गाजियाबाद
जनपद (लेख), दी
जर्नल आफ मेरठ
यूर्निवर्सिटी हिस्ट्री एलमनी, खण्ड 2006, पृष्ठ संख्या 311
11. वही बिन्दु
क्रमांक 232, नैरेटिव इन डिस्ट्रक्ट
मेरठ।
12. वही उमेश
त्यागी
13. वही ई0
बी0 जोशी
14. वही उमेश
त्यागी
15. विघ्नेष त्यागी, मेरठ
के ऐतिहासिक क्रान्ति
स्थल और घटनाएं
(लेख), दैनिक जागरण, मेरठ,
दिनांक 5 मई 2007
16. वही उमेश
त्यागी
( Dr Sushil Bhati )
बासौद की कुर्बानी ( Basodh ki Kurbani )
डा. सुशील भाटी
सन् 1857 के प्रथम
स्वतंत्रता संग्राम में बाबा
शाहमल सिंह की
भूमिका अग्रणी क्रान्तिकारी नेता
की थी। तत्कालीन
मेरठ के बागपत-बड़ौत क्षेत्र में
बगावत का झण्डा
बुलन्द कर, शाहमल
सिंह ने दिल्ली
के क्रान्तिकारियों को
रसद आदि पहुचाना शुरु कर दिया
था। मेरठ के
अंग्रेजी प्रशासन एवं दिल्ली
में अंग्रेजी फौज
के सम्पर्क को
तोड़ने के लिए
बागपत क्षेत्र के
गूजरों ने, शाहमल
सिंह के निर्देश
पर, बागपत का
यमुना पुल तोड़ने
दिया। क्रांन्ति में
बाबा शाहमल के
इस योगदान से
प्रसन्न होकर, मुगल बादशाह
बहादुरशाह जफर ने
शाहमल सिंह को
बागपत-बड़ौत परगने
का नायब सूबेदार
बना दिया।
यूं तो
बागपत-बड़ौत क्षेत्र
के 28 गांवों ने
क्रान्ति में सक्रिय
सहयोग किया था,
और प्रति क्रान्ति
के दौर में
उन्होंने अंग्रेजों के असहनीय
जुल्मों और अत्याचारों
को झेला था,
परन्तु इनमें मेरठ बागपत
रोड के समीप
स्थित बासौद एक
ऐसा गांव था
जिसने अपनी देशभक्ति
की सबसे बड़ी
कीमत अदा की
थी। इस मुस्लिम
बहुल गांव के
लगभग 150 लोगों को मारने
के बाद अंग्रेजों
ने गांव को
आग लगा दी
थी।
बाबा शाहमल
ने जब बड़ौत
पर हमला किया
था तो वो
तहसील के खजाने
को नहीं लूट
पाए क्योंकि बड़ौत
का तहसीलदार करम
अली इसे डौला
गांव के जमींदार
नवल सिंह की
मदद से सुरक्षित
स्थान पर ले
गया। कलैक्टर डनलप
ने मेजर जनरल
हैविट को लिखे
पत्र में नवल
सिंह की गणना
अंगे्रजों के प्रमुख
मददगार के रूप
में की थी।
इस बात से
बेहद खफा होकर,
बाबा शाहमल ने
नवल सिंह आदि
को सजा देने
के लिए डौला
के पड़ौसी गांव
बासौद में, अपने
लाव-लश्कर के
साथ, डेरा डाल
दिया। बासौद गांव
के लोगों ने
आरम्भ से ही
क्रन्तिकारी गतिविधियों में बढ़
चढ़ कर हिस्सा
लिया था। उस
दिन भी वहां
दिल्ली से दो
गाजी आए हुए
थे, और दिल्ली
के क्रांन्तिकारियों को
रसद पहुंचाने के
लिए 8000 मन अनाज
एवं दाल क्षेत्र
से इकट्ठा की
गई थी।
बागपत क्षेत्र में
क्रान्ति का दमन
करने के लिए,
उसी दिन डनलप
के नेतृत्व में
खाकी रिसाला भी
दुल्हैणा पहुंच गया। दुलहैणा
डौला से लगभग
सात मील दूर
है। खाकी रिसाले
मंे लगभग 200 सिपाही
थे। रिसाले में
2 तोपें, 8 गोलन्दाज, 40 राइफलधारी, 50 घुड़सवार, 27 नजीब एवं
अन्य सैनिक थे।
नवल सिंह भी
रिसाले के साथ
गाइड के रूप
में मौजूद था।
इस बीच जब
डौला वासियों को
शाहमल सिंह के
बासौद में मौजूद
होने और सम्भावित
हमले का पता
चला तो उनहोंने
जबरदस्त हवाई फायरिंग
कर दी। फायरिंग
की आवाज सुन
कर डनलप ने
नवल सिंह को
सच्चाई का पता
करने के लिए
भेजा, जिसने लौट
कर सभी को
स्थिति से अवगत
कराया। हालात को समझते
हुए खाकी रिसाला
रात में ही
कूच कर गया
और 17 जुलाई की
भौर में डौला पहुँच गया।
अंग्रेजी घुड़सवार बासौद
को घेरने के
लिए बढ़े तो,
रिसाले के अग्रिम
रक्षकों ने देखा
कि बहुत से
लोग, जो हाथों
में बंदूकें और
तलवारें लिए हुए
थे, गांव से
भागे जा रहे
थे। अंग्रेज जब
गांव में पहुंचे
तो पता चला
कि बाबा शाहमल
के जासूसों ने
उन्हें खाकी रिसाले
के आने की
खबर दे दी
थी और वो
रात में ही
बड़ौत की तरफ
चले गये। अंग्रेजों
को वहां आठ
मन अनाज और
दालों का भण्डार
मिला जो कि
दिल्ली के क्रांन्तिकारियों
को रसद के
तौर पर पहुंचाने
के लिए इकट्ठा
किया गया था।
गांव के लोग
बुरे-से बुरे
अंजाम को तैयार
थे, उन्होंने औरतों
और बच्चों को
रात में ही
सुरक्षित स्थान पर भेज
दिया था। अंग्रेज
विद्रोही भारतीयों के लिए
एक नजीर स्थापित
करना चाहते थे।
गांव में जो
भी आदमी मिला
उसे अंग्रजों ने
गोली मार दी
या फिर तलावार
से काट दिया।
शहीद होने वालों
में दिल्ली से
आये दो गाजी
भी थे, जिन्होंने
बसौद की मस्जिद
में मोर्चा संभाल
कर, मरते दम
तक, अंग्रेजों को
जमकर टक्कर दी।
सभी क्रांन्तिकारियाों को
मारने के बाद
गांव को आग
लगा दी गई
। वहां से
प्राप्त रसद को
भी आग के
हवाल कर दिया
गया। डनलप के
अनुसार बासौद में लगभग
150 लोग मारे गये।
अंग्रेज अपनी जीत
पर फूले नहीं
समा रहे थे,
परन्तु हिन्दुस्तानी संघर्ष और शहादत
का सिलसिला यहीं
नहीं रुका, अंग्रेजों
का क्रांन्तिकारियों से
असली मुकाबला तो
अगले दिन, 18 जुलाई
को, बड़ौत में
होने वाला था,
जहां भारतीयों ने
उनके दांत खट्टे
कर दिये थे।
संदर्भ
1. गौतम भद्रा, फोर रिबेल्स ऑफ एट्टीन फिफ्टी
सेवन (लेख), सब
आल्टरन स्टडीज,
खण्ड-4 सम्पादक-रणजीत
गुहा।
2. डनलप, सर्विस एण्ड एडवैन्चर ऑफ खाकी रिसाला
इन इण्डिया इन
1857-58।
3. नैरेटिव ऑफ इवैन्ट्स अटैन्डिंग
दि आउटब्रेक ऑफ डिस्टरबैन्सिस एण्ड रेस्टोरेशन
ऑफ अथारिटी
इन दि डिस्ट्रिक्ट ऑफ मेरठ इन
1857-58।
4. एरिक स्ट्रोक पीजेन्ट आम्र्ड।
5. एस0ए0ए0
रिजवी, फ्रीडम स्ट्रगल इन
उत्तर प्रदेश खण्ड-5
।
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