Search This Blog

Saturday, April 16, 2022

सम्राट कनिष्क के इतिहास से संबंधित जम्मू एवं कश्मीर स्थित कुछ ऐतिहासिक स्थल

डॉ. सुशील भाटी

कनिसपुर - कनिष्क का कश्मीर के साथ एक ऐतिहासिक जुडाव हैं| बारहवी शताब्दी के कश्मीरी इतिहासकार कल्हण के अनुसार कनिष्क कश्मीर का शासक था और उसने कश्मीर में कनिष्कपुर नगर बसाया था| वर्तमान में, यह स्थान बारामूला जिले में स्थित ‘कनिसपुर’ के नाम से जाना जाता हैं| कनिसपुर बारामूला से लगभग 6 किलोमीटर दूर हैं|

लोहरिन- कश्मीर में लोह्कोट (लोहरिन) कनिष्काक की राजनैतिक और सैनिक का शक्ति केंद्र रहा हैं| कैम्पबेल के अनुसार दक्षिण राजस्थान स्थित भीनमाल में यह परंपरा हैं कि लोह्कोट के राजा कनकसेन   (कनिष्क) ने उस क्षेत्र को जीता था| कैम्पबेल अनुसार यह लोह्कोट कश्मीर में स्थित एक प्रसिद्ध किला था| लोह्कोट अब लोहरिन के नाम से जाना जाता हैं तथा कश्मीर के पुंछ क्षेत्र में पड़ता हैं ए. एम. टी. जैक्सन ने बॉम्बे गजेटियर’ में भीनमाल का इतिहास विस्तार से लिखा हैंजिसमे उन्होंने भीनमाल में प्रचलित ऐसी अनेक लोक परम्पराओ और मिथको का वर्णन किया है जिनसे भीनमाल को आबाद करने में सम्राट कनिष्क की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका का पता चलता हैं| उसके अनुसार भीनमाल में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण कश्मीर के राजा कनक (कनिष्क) ने कराया था। कनिष्क ने वहाँ करडा’ नामक झील का निर्माण भी कराया था। भीनमाल से सात कोस पूर्व में कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है। ऐसी मान्यता हैं कि भीनमाल के देवड़ा गोत्र के लोगश्रीमाली ब्राहमण तथा भीनमाल से जाकर गुजरात में बसे, ओसवाल बनिए राजा कनक (सम्राट कनिष्क) के साथ ही काश्मीर से भीनमाल आए थे। ए. एम. टी. जैक्सन श्रीमाली ब्राह्मण और ओसवाल बनियों की उत्पत्ति गुर्जरों से मानते हैं| केम्पबेल के अनुसार मारवाड के लौर गुर्जरों में मान्यता हैं कि वो राजा कनक (कनिष्क कुषाण) के साथ लोह्कोट से आये थे तथा लोह्कोट से आने के कारण लौर कहलायेपुंछ आज भी गुर्जर बाहुल्य क्षेत्र हैं, जहाँ गुर्जरों की आबादी लगभग 40 प्रतिशत हैं| एलेग्जेंडर कनिंघम ने कुषाणों की पहचान गुर्जरों से की हैं| उसके अनुसार गुर्जरों का कसाना गोत्र ही प्राचीन कुषाण हैंसुशील भाटी ने इस मत का विकास किया हैं और इस विषय पर अनेक शोध पत्र लिखे हैं, जिसमे “गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिद्धांत” महत्वपूर्ण हैं| उनका कहना हैं कि ऐतिहासिक तोर पर कनिष्क द्वारा स्थापित कुषाण साम्राज्य गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हैं|

वीर भद्रेश्वर मंदिर -  कश्मीर में कनिष्क ने शिव मंदिर का निर्माण करवाया था| कश्मीर के राजौरी जिले में जिला मुख्यालय से लगभग 66 किलोमीटर दूर वास्तविक नियंत्रण रेखा के नज़दीक प्राचीन ‘वीर भद्रेश्वर शिव मंदिर’ स्थित हैं| आस-पास के क्षेत्रो में प्रचलित लोक मान्यता के अनुसार इस शिव मंदिर का निर्माण संवत 141 अर्थात 87 ई. में कनिष्क ने करवाया था| भद्रेश्वर शिव मंदिर की दीवार से प्राप्त अभिलेख के अनुसार भी इस मंदिर निर्माण संवत 141 में कनिष्क ने करवाया था|

किरमची- जम्मू से 64 किलोमीटर तथा उधमपुर से 9 किलोमीटर दूर किरमची गाँव हैं, जोकि पूर्व में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थल था| यहाँ गंधार शैली में निर्मित चार प्राचीन मंदिर स्थित हैं| कुछ विद्वानों के अनुसार इस स्थान की स्थापना कनिष्क ने की थी| बड़े मंदिर से त्रिमुख शिव और वराह अवतार की मूर्तिया प्राप्त हुई हैं|

कुंडलवन- कनिष्क ने कश्मीर स्थित कुंडलवन में चतुर्थ बौद्ध संगति का आयोज़न किया, जिसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी| इस संगति में बौद्ध धर्म हीनयान और महायान सम्रदाय में विभाजित हो गया| महायान ग्रंथो की रचना संस्कृत भाषा में की गई| इतिहासकारों के एक वर्ग के अनुसार चीनी बौद्ध ग्रंथो का यह नायक सम्राट कनिष्क प्रथम नहीं बल्कि कनिष्क द्वितीय था|

 सन्दर्भ-

1.एकनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864

2. जे.एमकैम्पबैलभिनमाल (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896

3.  Vir Bhadreshwar or Pir Bhadreshwar is acronyms of same deity. The legend of this temple goes back to the days of Lord Shiva and Dakshayani (Sati). This temple is believed to have been built by King Kanishka in Samvat 141 to commemorate the victory of Vir Bhadreshwar, over king Daksha-  Vir Bhadreshwar Temple, Daily Excelsior, 1 June 2014-    https://www.dailyexcelsior.com/vir-bhadreshwar-temple/

4. Kirmachi- 64, Kms from Jammu and about 9 kms from Udhampur is located kirmachi village. Though virtually unknown to the outside world, this village boosts of a unique architectural treasure. Kirmachi held an important place in the past. The four elegant and imposing temples can ascertain this. Three temples are standing in a row on the bank of Devak nadi Traditionally, the construction of these temples is associated with the heroic Pandvas, but there is no reliable record of its date. According to some scholars King Kanishka founded this place.-  Virendera Bangroo, Ancient Temples of  Jammu-  http://ignca.gov.in/PDF_data/Ancient_Temples_Jammu.pdf

5. सुशील भाटी, गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिधांत, जनइतिहास ब्लॉग, 2016 https://janitihas.blogspot.com/2016/06/blog-post.html

6. Finding Kundalwan

https://kashmirlife.net/finding-kundalwan-issue-36-vol-07-90360/

7. सुशील भाटी, कनिष्क और कश्मीर, जनइतिहास ब्लॉग, 2018 https://janitihas.blogspot.com/2018/01/blog-post.html

8. सुशील भाटी, कनिष्क और शैव धर्म, जनइतिहास ब्लॉग, 2020 https://janitihas.blogspot.com/2020/03/blog-post_62.html

9. सुशील भाटी, कनिष्क की राष्ट्रीयता, जनइतिहास ब्लॉग, 2020 https://janitihas.blogspot.com/2020/03/blog-post_21.html

Monday, March 21, 2022

कनिष्क, मिहिर और गुर्जर

डॉ. सुशील भाटी

कुषाणों में सूर्य पूजा बड़े पैमाने में प्रचलित थी|वो सूर्य को मिहिर के रूप में जानते थे और अपनी आर्य नामक भाषा में मीरो बुलाते थे| प्रस्तुत लेख में मेरा मुख्य तर्क यह हैं कि भारत में सूर्य देवता तथा किसी व्यक्ति के नाम के रूप में ‘मिहिर’ शब्द का प्रयोग कुषाण काल में प्रारम्भ हुआ हैं|

भारत में मिहिर शब्द का सबसे प्राचीन पुरातात्विक प्रमाण कुषाण वंश से सम्बंधित सम्राट कनिष्क (78-101 ई.) का रबाटक अभिलेख हैं| यह अभिलेख सम्राट कनिष्क के शासनकाल के आरम्भिक वर्षो  में लिखा गया था| रबाटक अभिलेख में उन देवी- देवताओ के नाम अंकित हैं जिनकी मूर्तियाँ रबाटक स्थित देवकुल (बागोलग्गो) में स्थापित की गई थी| उनमे एक नाम मिहिर देवता का भी हैं| रबाटक अभिलेख की सम्बंधित 8-11 पंक्तियों को रोबर्ट ब्रेसी (Robert Bracey) ने इस प्रकार प्रस्तुत किया हैं|

 ... for these gods, whose service here the ... glorious Umma (οµµα) leads (namely:) the above mentioned Nana (Νανα) and the above-mentioned Umma, Aurmuzd (αοροµοζδο), the Gracious One (µοζοοανο), Sroshard (σροþαρδο), Narasa (ναρασαο) (and) Mihr (µιρο) and he gave orders to make images of the same. [ Source- Robert Bracey, Chapter7, POLICY, PATRONAGE, AND THE SHRINKING PANTHEON OF THE KUSHANS, 2012]

भारत में मिहिर शब्द का सबसे प्राचीन पुरातात्विक प्रमाण कुषाण वंश से सम्बंधित सम्राट कनिष्क (78-101 ई.) के सिक्के हैं, जिनमे एक तरफ सम्राट कनिष्क को हवन में आहुति डालते हुए उत्कीर्ण किया गया हैं, और आर्य (बाख्त्री) भाषा में शाओ-नानो-शा कनिष्क कोशानो लिखा हैं, वही सिक्के के दूसरी तरफ सूर्य देवता को उत्कीर्ण किया गया हैं और कुषाणों की आर्य नामक भाषा में मीरो (मिहिर) लिखा हैं| इसी प्रकार के सिक्के उसके पुत्र हुविष्क के प्राप्त हुए हैंकनिष्क के सिक्को के प्राप्त कुल साँचो में 18 प्रतिशत मीरो ‘मिहिर’ देवता के हैं| हुविष्क के सिक्को के प्राप्त कुल साँचो में 20 प्रतिशत मिहिर देवता के हैं| इस प्रकार प्रमाणित होता हैं कि शिव, नाना (दुर्गा) के अतरिक्त कनिष्क प्रमुखतः मिहिर देवता का उपासक था|

कुषाणों के सुर्खकोटल अभिलेख में मिहिरामान और बुर्ज़मिहिरपुर्रह व्यक्तिगत नाम के रूप में प्रयोग किये गए हैं| यह भारत में मिहिर नाम के प्रयोग के प्राचीनतम उधारण हैं|

कनिष्क के पुत्र हुविष्क के शासन काल से सम्बंधित ऐरतम (Airtam) अभिलेख में इसके लेखक का नाम मीरोजादा (Miirozada) अंकित हैं| जनोस हरमट (Janos Harmatta) के अनुसार उक्त अभिलेख के अनुवाद इस प्रकार हौं-  

King [is] Ooesko, the Era year is 30 when the lord king presented and had the Ardoxso Farro image set up here. At that time when the stronghold was completed then Sodila ... the treasurer was sent to the sanctuary. There upon Sodila had this image prepared, then he [is] who had [it] set up in the stronghold. Afterwards when the water moved farther away, then the divinities were led from the waterless stronghold. Just therefore, Sodila had a well dug, then Sodila had a waterconduit dug in the stronghold. Thereupon both divinities returned back here to the sanctuary. This was written by Miirozada by the order of Sodila [ Source- Robert Bracey, Chapter7, POLICY, PATRONAGE, AND THE SHRINKING PANTHEON OF THE KUSHANS, 2012]

उक्त दोनों उदाहरणों से स्पष्ट हैं कि कुषाणों में मिहिर / मीरो  नाम का प्रचलन था|  

कुषाणों के सिक्को पर उत्कीर्ण देवी-देवताओ को देखने से पता चलता हैं कि कुषाण सम्राट कनिष्क  के सिक्को पर उत्कीर्ण मिहिर देवता की वेश-भूषा कुशाण सम्राटो जैसी हैं| सुर्खकोटल और मथुरा के कंकालीटीला से प्राप्त मिहिर देवता की मूर्ती कुषाण कला शैली और कुषाण सम्राट कनिष्क और हुविश्क वेश-भूषा से पूर्ण रूप से प्रभावित हैंनिष्कर्षतः कनिष्क और मिहिर देवता के अंकन अत्यधिक समनता हैं|

कुषाणों के बाद भारत में मिहिर देवता का नाम हूण सम्राट मिहिरकुल (502-542 ई.) के सिक्को पर अंकित किया गया| हूण सम्राटो के सिक्को में सूर्य का प्रतीक चक्र भी उत्कीर्ण किया गया हैं| सम्राट मिहिरकुल के नाम में भी मिहिर शब्द का प्रयोग किया गया हैं| अलखान हूणों ने कई मायनों में कुषाण विरासत को आगे बढाया हैं|

मिहिरकुल के बाद मिहिर नाम गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज (836-885 ई.) के नाम में भी किया गया हैंमिहिर भोज की आदि वराह मुद्रा पर भी सूर्य का प्रतीक चक्र भी उत्कीर्ण किया गया हैंगुर्जर प्रतिहारो की एक हूण विरासत रही हैं|

एलेग्जेंडर कनिंघम ने कुषाणों की पहचान गुर्जरों से की हैंउसके अनुसार गुर्जरों का कसाना गोत्र ही प्राचीन कुषाण हैं|  डॉ. सुशील भाटी ने इस मत का अत्यधिक विकास किया हैं और इस विषय पर अनेक शोध पत्र लिखे हैंजिसमे “गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिद्धांत” काफी चर्चित हैंउनका कहना हैं कि ऐतिहासिक तोर पर कनिष्क द्वारा स्थापित कुषाण साम्राज्य गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हैं| इसी प्रकार रुडोल्फ होर्नले, बुह्लर, विलियम क्रुक, वी.ए. स्मिथ आदि  इतिहासकार गुर्जरों को हूणों से सम्बंधित मानते हुए और प्रतिहारो को गुर्जर मानते हैं| प्रतिहारो को गुर्जर मानने वाले इतिहासकारों में ए. एम. टी. जैक्सन, कैम्पबेल, डी. आर. भंडारकर, बी. एन. पुरी और रमाशंकर त्रिपाठी प्रमुख हैं| कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों को हूणों की खज़र शाखा से उत्पन्न मानते हैं|

यह एक महत्वपूर्ण तथ्य हैं कि गुर्जरों से जुड़े सबसे प्राचीन राजवंश कुषाण, अलखान हूण और गुर्जर प्रतिहार का जुड़ाव मिहिर उपासना अथवा मिहिर नाम/उपाधि से हमेशा बना रहा हैं| मिहिर आज भी अजमेर और पंजाब में गुर्जरों की उपाधि हैं|

सन्दर्भ-

Robert Bracey, Chapter7, POLICY, PATRONAGE, AND THE SHRINKING PANTHEON OF THE KUSHANS, 2012

 भगवत शरण उपाध्यायभारतीय संस्कृति के स्त्रोतनई दिल्ली, 1991, 

 रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिकाखंड-मेरठ, 2006

 ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864

 के. सी.ओझादी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डियाइलाहाबाद, 1968  

 डी. आर. भण्डारकरफारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख)इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्ड X L 1911

 जे.एमकैम्पबैलभिनमाल (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड भाग 1, बोम्बे, 1896

 विन्सेंट ए. स्मिथ, दी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडिया, चोथा संस्करण, दिल्ली1990

 सुशील भाटी, सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क

 

 

 

 

 

Wednesday, March 16, 2022

सम्राट कनिष्क और 22 मार्च: अंतराष्ट्रीय गुर्जर दिवस

डॉ. सुशील भाटी

गुर्जर एक वैश्विक समुदाय हैं जोकि प्राचीन काल से भारतीय उपमहाद्वीप, ईरान और कुछ मध्य एशियाई देशो में रह रहा हैं| एलेग्जेंडर कनिंघम ने कुषाणों की पहचान गुर्जरों से की हैं| उसके अनुसार गुर्जरों का कसाना गोत्र ही प्राचीन कुषाण हैंडॉ. सुशील भाटी ने इस मत का अत्यधिक विकास किया हैं और इस विषय पर अनेक शोध पत्र लिखे हैं, जिसमे “गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिद्धांत” काफी चर्चित हैं| उनका कहना हैं कि ऐतिहासिक तोर पर कनिष्क द्वारा स्थापित कुषाण साम्राज्य गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हैं| कनिष्क का साम्राज्य भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि उन सभी देशो में फैला हुआ था जहाँ आज गुर्जर रहते हैं| कनिष्क के साम्राज्य की एक राजधानी मथुरा, भारत में तथा दूसरी पेशावर, पाकिस्तान में थी| कनिष्क के साम्राज्य का एक वैश्विक महत्व हैं, दुनिया भर के इतिहासकार इसमें रूचि रखते हैं| कनिष्क के साम्राज्य के अतरिक्त गुर्जरों से सम्बंधित ऐसा  कोई अन्य साम्राज्य नहीं हैं जोकि पूरे दक्षिणी एशिया में फैले गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए इससे अधिक उपयुक्त हो| यहाँ तक की मिहिर भोज द्वारा स्थापित प्रतिहार साम्राज्य केवल उत्तर भारत तक सीमित था तथा पश्चिमिओत्तर में करनाल इसकी बाहरी सीमा थी|

कनिष्क के राज्य काल में भारत में व्यापार और उद्योगों में अभूतपूर्व तरक्की हुई क्योकि मध्य एशिया स्थित रेशम मार्ग, जोकि समकालीन अंतराष्ट्रीय व्यापार मार्ग था तथा जिससे यूरोप और चीन के बीच रेशम का व्यापार होता था, पर कनिष्क का नियंत्रण था| भारत के बढते व्यापार और आर्थिक उन्नति के इस काल में तेजी के साथ नगरीकरण हुआ| इस समय पश्चिमिओत्तर भारत में करीब 60  नए नगर बसे| इन नगरो में एक कश्मीर स्थित कनिष्कपुर था| बारहवी शताब्दी के इतिहासकार कल्हण ने अपनी राजतरंगिनी में कनिष्क द्वारा कश्मीर पर शासन किया जाने और उसके द्वारा कनिष्कपुर नामक नगर बसाने का उल्लेख किया गया हैं|  सातवी शताब्दी कालीन गुर्जर देश (आधुनिक राजस्थान क्षेत्र) की राजधानी भीनमाल थी| भीनमाल नगर के विकास में भी कनिष्क का बहुत बड़ा योगदान था| प्राचीन भीनमाल नगर में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण कश्मीर के राजा कनक (सम्राट कनिष्क) ने कराया था। कनिष्क ने वहाँ ‘करडा’ नामक झील का निर्माण भी कराया था। भीनमाल से सात कोस पूर्व ने कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है। कहते है कि भीनमाल के वर्तमान निवासी देवडा लोग एवं श्रीमाली ब्राहमण कनक (कनिष्क) के साथ ही काश्मीर से आए थे। कनिष्क ने ही पहली बार भारत में कनिष्क ने ही बड़े पैमाने सोने के सिक्के चलवाए|

कनिष्क के दरबार में अश्वघोष, वसुबंधु और नागार्जुन जैसे विद्वान थे| आयुर्विज्ञानी चरक और श्रुश्रत कनिष्क के दरबार में आश्रय पाते थे| कनिष्क के राज्यकाल में संस्कृत सहित्य का विशेष रूप से विकास हुआ| भारत में पहली बार बोद्ध साहित्य की रचना भी संस्कृत में हुई| गांधार एवं मथुरा मूर्तिकला का विकास कनिष्क महान के शासनकाल की ही देन हैं|

अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार कनिष्क ने अपने राज्य रोहण के अवसर पर 78 ईस्वी में शक संवत प्रारम्भ किया| शक संवत भारत का राष्ट्रीय संवत हैं| शक संवत भारतीय संवतो में सबसे ज्यादा वैज्ञानिक, सही तथा त्रुटिहीन हैं| शक संवत भारत सरकार द्वारा कार्यलीय उपयोग लाया जाना वाला अधिकारिक संवत हैं| शक संवत का प्रयोग भारत के ‘गज़ट’ प्रकाशन और ‘आल इंडिया रेडियो’ के समाचार प्रसारण में किया जाता हैं| भारत सरकार द्वारा ज़ारी कैलेंडर, सूचनाओ और संचार हेतु भी शक संवत का ही प्रयोग किया जाता हैं|

भारत सरकार द्वारा 1954 में गठित प्रसिद्ध अंतरिक्ष वैज्ञानिक मेघनाथ साहा की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय संवत सुधार समिति के अनुसार शक संवत प्रत्येक वर्ष 22 मार्च को आरम्भ होता हैं| डॉ सुशील भाटी का मत हैं कि क्योकि शक संवत 22 मार्च को शुरू होता हैं अतः 22 मार्च कनिष्क के राज्य रोहण की तिथि हैं| उनका कहना हैं कि यह दिन भारतीय विशेषकर गुर्जर इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, इसलिए यह दिन अन्तराष्ट्रीय गुर्जर दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए| यह तिथि अन्तराष्ट्रीय गुर्जर दिवस मनाने के लिए इसलिए भी उचित हैं गुर्जरों के के प्राचीन इतिहास में यह एक मात्र तिथि हैं, जिसे अंतराष्ट्रीय रूप से मान्य पूरी दुनिया में प्रचलित कलेंडर के अनुसार निश्चित किया जा सकता हैं| अतः अन्य पंचांगों पर आधारित तिथियों की विपरीत यह भारत, पाकिस्तान अफगानिस्तान अथवा अन्य जगह जहा भी गुर्जर निवास करते हैं यह एक ही रहेगी, प्रत्येक वर्ष बदलेगी नहीं|

कनिष्क द्वारा अपने राज्य रोहण पर प्रचलित किया गया शक संवत प्राचीन काल में भारत में सबसे अधिक प्रयोग किया जाता था| भारत में शक संवत का व्यापक प्रयोग अपने प्रिय सम्राटकनिष्क के प्रति प्रेम और सम्मानका सूचक हैं और उसकी कीर्ति को अमर करने वाला हैं| प्राचीन भारत के महानतम ज्योतिषाचार्य वाराहमिहिर (500 इस्वी) और इतिहासकार कल्हण (1200 इस्वी) अपने कार्यों में शक संवत का प्रयोग करते थे| प्राचीन काल में उत्तर भारत में कुषाणों और शको के अलावा गुप्त सम्राट भी मथुरा के इलाके में शक संवत का प्रयोग करते थे| दक्षिण के चालुक्य और राष्ट्रकूट और राजा भी अपने अभिलेखों और राजकार्यो में शक संवत का प्रयोग करते थे|

सम्राट कनिष्क के सिक्को पर पाए जाने वाले राजसी चिन्ह को कनिष्क का तमगा भी कहते है, तथा इसे आज अधिकांश गुर्जर समाज अपने प्रतीक चिन्ह के रूप में देखता हैं| कनिष्क के तमगे में ऊपर की तरफ चार नुकीले काटे के आकार की रेखाए हैं तथा नीचे एक खुला हुआ गोला हैं इसलिए इसे चार शूल वाला ‘चतुर्शूल तमगा” भी कहते हैं| कनिष्क का ‘चतुर्शूल तमगा” सम्राट और उसके वंश / ‘कबीले’ का प्रतीक हैं| कुछ इतिहासकारों का मानना हैं कि चतुर्शूल तमगा शिव की सवारी ‘नंदी बैल के पैर के निशान’ और शिव के हथियार ‘त्रिशूल’ का ‘मिश्रण’ हैं, अतः इस चिन्ह को शैव चिन्ह के रूप में स्वीकार करते हैं| डॉ. सुशील भाटी, जिन्होंने इस चिन्ह को गुर्जर प्रतीक चिन्ह के रूप में प्रस्तावित किया हैं, इसे शिव के पाशुपतास्त्र और नंदी के खुर (पैर के निशान) का समिश्रण मानते हैं, क्योकि शिव के पाशुपतास्त्र में चार शूल होते हैं| गुर्जर प्रतीक के रूप में कनिष्क के राजसी चिन्ह को अधिकांश गुर्जरों द्वारा अपनाये जाने से 22 मार्च: अन्तराष्ट्रीय गुर्जर दिवस और अधिक प्रसांगिक ho गया हैं|

सन्दर्भ-

1. भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय संस्कृति के स्त्रोत, नई दिल्ली, 1991, 

2. रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिका, खंड-1 मेरठ, 2006

3. ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864

4. के. सी.ओझा, दी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डिया, इलाहाबाद, 1968  

5. डी. आर. भण्डारकर, फारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख), इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्ड X L 1911

6. जे.एम. कैम्पबैल, भिनमाल (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896

7. विन्सेंट ए. स्मिथ, दी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडिया, चोथा संस्करण, दिल्ली, 1990

8. सुशील भाटी, गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिधांत, जनइतिहास ब्लॉग, 2016

https://janitihas.blogspot.com/2016/06/blog-post.html

9. सुशील भाटी, भारतीय राष्ट्रीय संवत- शक संवत, जनइतिहास ब्लॉग, 2012

https://janitihas.blogspot.com/2012/10/surya-upasak-samrat-kanishka.html

 

 

 

 

Wednesday, May 26, 2021

शाक्य कुल

डॉ. सुशील भाटी

गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व में नेपाल की तराई स्थित लुम्बिनी वन में हुआ था| उनके पिता का नाम शुद्रोधन और माता का नाम महामाया था| शुद्रोधन शाक्य गणसंघ  के मुखिया था तथा राजा कहलाते थे| पाली भाषा में शाक्य के स्थान पर सक्य अथवा सक्क शब्द आया हैं|

गौतम बुद्ध के समय आधुनिक उत्तरी बिहार में कपिलवस्त के शाक्य, पावापुरी और कुसिनारा के मल्ल, वैशाली के लिच्छवी, मिथिला के विदेह, रामगाम के कोलिये, पीपलवन के मोरिये आदि गणसंघ अस्तित्व में थे| पाली भाषा में गण का अर्थ कबीला होता हैं| इस प्रकार ये गणसंघ कबीलाई संघ थे, जिनका शासन कबीले के प्रमुख लोगो (गणमान्यो) की आपसी सहमति या बहुमत के आधार पर चलता था| इन्ही गणसंघो में से एक शाक्य था, जिसमे गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था| कौशल नरेश विरुधक जिसकी माँ शाक्य कुल की थी, उसने कपिलवस्तु पर आक्रमण कर उनकी राजनैतिक शक्ति और पहचान को नष्ट कर दिया था|

भारत में लगभग 80 ईसा पूर्व से हमें शक जाति के राजाओ का इतिहास प्राप्त होता हैं, जोकि  भारत के उत्तर पश्चिम क्षेत्रो में चार सो वर्ष तक शक्तिशाली राजनैतिक तत्व के रूप में विधमान रहे, हालाकि शको ने कुषाणों की अधीनता स्वीकार कर ली थी| कनिष्क के रबाटक अभिलेख से ज्ञात होता हैं कि उसके शासन के पहले वर्ष में उज्जैन उसके साम्राज्य का हिस्सा था| उस समय वहां शक शासक चष्टन कनिष्क के क्षत्रप के रूप में तैनात था| कनिष्क कुषाण (कसाना) के सिक्को पर कुषाणों की आर्य नामक भाषा में  गौतम बुद्ध को ϷΑΚΑΜΑΝΟ ΒΟΔΔΟ (Shakamano Boddo, शकमनो बोददो) अंकित किया गया हैं| गौतम बुद्ध के शाक्य कुल से क्या इन शको का कोई सम्बन्ध था अथवा नहीं यह खोजबीन का विषय हैं| कुछ विद्वान जिनमे माइकल वितजेल ततः क्रिस्टोफर एल. बेकविथ मुख्य हैं गौतम बुद्ध के शाक्य कबीले को शक ही मानते हैं| अगर यह सच हैं तो शायद इसी कारण से शको ने अपने शासनकाल में बौद्ध धर्म का काफी समर्थन किया

वर्तमान उत्तर प्रदेश में शाक्य काछी जाति का एक घटक भी  हैं|

बौद्ध पाली  साहित्य में गौतम बुद्ध को खत्तिय बताया गया हैं| ऐसा प्रतीत होता हैं कि उस समय शासक वर्ग के लिए खत्तिय या क्षत्तिय शब्द काफी बड़े भूभाग पर प्रचलित था| बेहिस्तून अभिलेख के अनुसार ईरान के  शासक दारा (522-486) की उपाधी क्षत्तिय क्षत्तियानाम थी| अलग-अलग क्षेत्रो में बोलचाल की भाषा  में  क्ष ध्वनि ख में प्रवर्तित हो जाती हैं, जैसे क्षेत्र का खेत हो जाता हैं| पंजाब  में एक जाति का नाम खत्री हैं जोकि क्षत्री का एक रूप हैं| खत्तिय तथा क्षत्तिय का संस्कृत रूप क्षत्रिय हैं| इस प्रकार संभवतः बेहिस्तून अभिलेख क्षत्रिय शब्द के प्रयोग का प्राचीनतम पुरातात्विक प्रमाण हैं और पाली का खत्तिय शब्द प्राचीनतम साहित्यिक प्रमाण हैं| कनिष्क (78-101 ई,) ने भी रबाटक अभिलेख में अपने साम्राज्य के राजसी वर्ग के लिए क्षत्रिय शब्द प्रयोग किया हैं|

सन्दर्भ-

1. Attwood, Jayarava. (2012). Possible Iranian Origins for the Śākyas and Aspects of Buddhism.. Journal of the Oxford Centre for Buddhist Studies. 3. 47-69. https://www.researchgate.net/publication/280568234_Possible_Iranian_Origins_for_the_Sakyas_and_Aspects_of_Buddhism/link/55ba4cfb08aec0e5f43e995a/download

2.  Some scholars, including Michael  Witzel and Chritopher l Beckwith  suggested that the Shakyas, the clan of the historical Gautam Buddha  were originally Scythian from Central  Asia, and that the Indian ethnonym Śākya has the same origin as “Scythian”, called Sakas in India. This would also explain the strong support of the Sakas for the Buddhist faith in India. https://en.wikipedia.org/wiki/Indo-Scythians

3. https://socrethics.com/Folder2/Hellenism-Buddhism.htm

4. Darius and Xerexs called themselves Kshatiya = Skt. Kshatriya , Pali’s Khattiya.. Chandra Chakraberty, The cultural History of Hindus, Calcutta, p253

5. https://en.wikipedia.org/wiki/Shakya

Thursday, February 11, 2021

­­­­­­­­दनकौर का युद्ध और “बहादुर बे-बदल” चंदू गूजर

डॉ. सुशील भाटी

Key Words- Bharatpur, Jat Kingdom, Gujar General,  Dankour, Jats, Gujars 

चंदू गूजर भरतपुर के जाट राज्य अंतर्गत ­रामगढ़ किले का किलेदार और कोइल क्षेत्र (वर्तमान अलीगढ) का सूबेदार था| जे. एम. सिद्दीकी (1981) ने उसका वास्तविक नाम चंद्रभान बताया हैं जबकि के. आर. कानूनगो (1925) ने उसका वास्तविक नाम चन्दन बताया हैं| इतिहास में चंदू गूजर को उसकी अप्रतिम बहादुरी के लिए जाना जाता हैं| मुगल साम्राज्य और भरतपुर जाट राज्य के बीच 15 सितम्बर 1773 को हुए दनकौर युद्ध में उसके द्वारा प्रदर्शित की गई बहादुरी से प्रभावित होकर मुगलों के इतिहासकार खैर-उद-दीन ने अपने ग्रन्थ इबरतनामा (Ibratnama)  में उसे “बहादुर बे-बदल” कह कर पुकारा हैं| बहादुर बे-बदल का में अर्थ हैं-  बेजोड़ बहादुर अथवा अतुलनीय बहादुर|

उस समय भरतपुर राज्य के शासक राजा नवल सिंह (1771-76ई’) थे| राजा नवल सिंह राजा सूरजमल के ­­­तीसरे पुत्र तथा राजा जवाहर सिंह के भाई और उत्तराधिकारी थे| उस समय दिल्ली के मुग़ल दरबार में मिर्ज़ा नज़फ़ खान का बोलबाला था| वह मुग़ल दरबार में द्वितीय बख्शी के पद पर आसीन था तथा उसे मुग़ल बादशाह ने आमिर उल उमरा का ख़िताब दे रखा था| मिर्ज़ा नज़फ़ ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त कर मुगलों की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया|

आक्रमण को ही रक्षा की श्रेष्ठ नीति मानते हुए राजा नवल सिंह ने मुगलों की राजधानी दिल्ली पर हमला करने का निर्णय किया| नवल सिंह ने दिल्ली को एक साथ तीन तरफ से घेरने की योजना बनाई| उस समय दिल्ली के निकट भरतपुर जाट राज्य के तीन केंद्र थे, दिल्ली के पश्चिम में फर्रुखनगर, दक्षिण-पूर्व में कोइल (अलीगढ) क्षेत्र तथा दक्षिण में बल्लमगढ़| अतः इन तीनो जगहों को सैन्य आधार बना कर दिल्ली पर आक्रमण की योज़ना बनाई गई|  एक सेना को फर्रुखनगर से आक्रमण करना था, दूसरी सेना को अलीगढ से दोआब को तहस-नहस करना था तथा मुख्य सेना को राजा नवल सिंह के नेतृत्व में दक्षिण में बल्लमगढ़ से दिल्ली पर हमला करना था| योज़नानुसार युद्ध बरसात ख़त्म होने के बाद प्रारम्भ करना था तथा पंजाब के सिक्खों को हरयाणा और दोआब में मुगलों के खिलाफ भरतपुर का साथ देना था| इस योज़ना के जवाब में मुगलों के सेनापति मिर्ज़ा नज़फ़ खान ने राजा नवल सिंह का रास्ता रोकने के उद्देश्य से दिल्ली और बल्लमगढ़ के बीच बदरपुर में अपनी सेना के साथ डेरा डाल दिया|

बदरपुर से 6 मील पश्चिम में स्थित मैदानगढ़ी में एक किला था, जो कभी राजा सूरजमल ने बनवया था, यह किला अभी भी जाटो के नियंत्रण में था| इस किले से जाट छापा मारकर मुगलों के मवेशी और घोड़े ले गए| नजफ़ खान ने तुरंत मैदानगढ़ी पर हमला करने का आदेश दे दिया| कई घंटो के घमासान युद्ध के पश्चात मुगलों ने मैदानगढ़ी को जीत लिया|

इस प्रकार बरसात ख़त्म होने से पहले ही मुगलों और भरतपुर जाट राज्य की दुश्मनी बढ़ गई| ये सितम्बर की शुरुआत थी तथा सिक्ख अभी युद्ध के लिए तैय्यार नहीं थे| लेकिन प्रतिशोध की अग्नि में जल रहे राजा नवल सिंह ने मैदानगढ़ी में हुई अपनी हार के बदला लेने के कोई देरी नहीं की|

राजा नवल सिंह ने अपने रिश्तेदार दान साही के नेतृत्व में एक मज़बूत सेना को अतरौली और रामगढ़ भेज दिया, जहाँ दुर्जन सिंह गूजर और चंदू गूजर भरतपुर जाट राज्य के सूबेदार और किलेदार थे| चंदू गूजर, दान साही और दुर्जन सिंह गूजर ने 20,000 सैनिको की एक सेना को संगठित किया और दोआब पर आक्रमण कर दिया| इन्होने सिकन्द्राबाद को जीत लिया और दिल्ली तक के परगनों पर अधिकार कर लिया| अपने आदेश का उल्लघन करने वाले मुग़ल कर्मचारियों को फांसी पर लटका दिया| दूसरी तरफ फर्रुखनगर से शंकर जाट के नेतृत्व में भरतपुर की सेना ने दिल्ली के पश्चिम में घमासान मचा दिया और गढ़ी हरसरू (Garhi Harsaru) का घेरा डाल दिया| मुगलों की स्थिति की गम्भीर हो गई, बादशाह को बंगाल के सूबेदार से मदद मागनी पड़ी|

राजा नवल सिंह का सेना के साथ बल्लमगढ़ में मोजूद होने के कारण मिर्ज़ा नजफ़ खान बदरपुर में ही बना रहा, उसने नियाज़ बेग खान और ताज मौहम्मद खान बलोच के नेतृत्व में पांच हज़ार घुड़सवार चंदू गूजर, दान साही, और दुर्जन सिंह गूजर से मुकाबला करने के लिए भेज दिए| मुग़ल बादशाह ने भी लाल पठानों की एक सेना और तोपखाने की टुकडिया भरतपुर जाट राज्य के इन यौधाओ के विरुद्ध भेज दी| भरतपुर की सेना ने पीछे हटकर दनकौर में मोर्चा लगाया और चंदू गूजर के नेतृत्व में 15 सितम्बर 1773 को शाही मुग़ल सेना से एक भीषण  युद्ध लड़ा| दनकौर के इस भीषण युद्ध में चंदू गूजर भरतपुर जाट राज्य का प्रधान सेनापति था| उसने सेना का नेतृत्व करते हुए मुग़ल सेना के तोपखाना पर निर्भीकतापूर्वक जबरदस्त हमला बोल दिया|  इस हमले में चंदू गूजर की निर्भीकता ने मुग़ल के पुराने अनुभवी और रणकुशल सेनानियों को भी हैरत में डाल दिया| बहादुर गूजर सरदार चंदू ने पूरे वेग से दुश्मन के तोपखाने पर आक्रमण कर दिया, उसके सैनिक उसकी इस वीरता से प्रभावित होकर उत्तेजना और जीवन्तता से भर उठे और उसके पीछे-पीछे दुश्मन सेना पर टूट पड़े| चंदू गूजर के इस अंदाज़ से भयभीत मुग़ल बरकंदाजो ने गोलियों और और तोपचियों ने गोलों की बरसात कर दी| चंदू गूजर घायल हो गया और उसका आक्रमण छिन्न-भिन्न होने लगा परन्तु घायल होने के बावजूद वो अपने बहादुर सैनिको के साथ बरसती गोलियों में तोपो के गरजते गोलों का सामना करते हुए लगातार आगे बढ़ता गया| अपने घायल नेता के नेतृत्व में भरतपुर के सैनिक आगे बढ़ते गए और खपते गए, मात्र कुछ सैनिक ही मुग़ल सेना तक पहुँच सके| घायल चंदू गूजर और उसके उसके सैनिक तब तक नहीं रुके जब तक दुश्मन की संगीनों से मार कर गिरा नहीं दिए गए| के. आर. कानूनगो ने अपनी पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ़ जाट्स” में दनकौर के युद्ध में चंदू गूजर के साहस और बहादुरी का वर्णन इस प्रकार किया हैं-

Chandu  Gujar, who was the commander-in-chief of the Jat army, led the Van and attacked the sepoy regiments and the artillery of the Mughals With an intrepidity which astonished even the veteran Mughal cavaliers, the valiant Gujar  chief charged the enemy’s artillery at full gallop, animating his brave followers. But the volleys of musketry and artillery fearfully shattered the attacking column; only a small body of troopers headed by their wounded leader succeeded in penetrating the lines of the sepoys and fell there pierced by bayonets after performing prodigies of valour. The battle raged furiously for two or three hours ; it was an awul struggle of native valour of man against science and discipline.

चंदू गूजर के मारे जाने के बाद अतरौली के सूबेदार राव दुर्जन सिंह गूजर ने भी अपनी घुड़सवार सेना के साथ मुगलों को मुकाबला किया, परन्तु सफल नहीं हो सका| दान साही भी युद्ध में घायल हो गया और दो दिन बाद उसकी भी मृत्यु हो गई|

भरतपुर जाट राज्य के प्रधान सेनापति चंदू गूजर और उसके सैनिक दनकोर के युद्ध में खेत रहे परन्तु दुश्मन भी उनकी बे-मिसाल बहादुरी देखकर दंग रह गया, वह भी उनकी दिलेरी की प्रशंषा किये बिना नहीं रह सका| खैर-उद-दीन ने इबरतनामा पुस्तक में दनकौर के युद्ध का वर्णन करते हुए चंदू गूजर की वीरता की प्रशंषा की हैं, उसने उसे “बहादुर बे-बदल” अर्थात बेजोड़ यौद्धा अतुलनीय वीर कहा हैं| के. आर. कानूनगो ने अपनी पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ़ जाट्स” में  लिखते हैं कि

He Calls Chandu Gujar “Bahadur Be-Badal” [Unequalled in Bravery], and says that he was killed within the ranks of sepoys pierced by their bayonets [Ibratnama, MS., p 214]”

दनकौर युद्ध में चंदू गूजर का वीरगति को प्राप्त होना भरतपुर राज्य के लिए एक बड़ा झटका था, इसके परिणाम स्वरूप पडला मुग़ल सेनापति मिर्ज़ा नजफ़ खान के पक्ष में झुक गया, राजा नवल सिंह ने बल्लमगढ़ से डेरा उठा लिया और भरतपुर के तरफ लौट गए|   

सन्दर्भ ग्रन्थ -

1. Kalika-Ranjan Qanungo, History Of The Jats, Vol. I, M C Sarkar & Sons, Calcutta, 1925, p 250-57

2. Jadunath Sarkar, Fall Of The Mughal Empire, Vol. III, M C Sarkar & Sons, Calcutta, 1952, p 66-67

3. Uma Shankar Pandey, European Adventurers in Northern India 1750-1803, Taylor & Francis, 2019, P

4. J. M. Siddiqi, Aligarh District: A Historical Survey, from Ancient Times to 1803 A.D.. India: Munshiram Manoharlal, 1981,

5. Persian Records of Maratha History, 1952, p 73

6. D. H. Kolff,  Grass in Their Mouths: The Upper Doab of India Under the Company's Magna Charta, 1793-1830. Netherlands: Brill, 2010, p 149