सुशील भाटी
Statue of Pratap Rao Gujar |
इस ऐतिहासिक लेख का उदेशय शिवाजी के प्रधान
सेनापति (सरे नौबत) प्रताप राव गूजर का हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना में योगदान पर
प्रकाश डालना है।
मध्यकालीन भारत की बात है
जब मुगल बादशाह औरंगजेब की धार्मिक असहिष्णुता की नीति के कारण भारत देश की समस्त गैर
सुन्नी मुसलमान जनता विशेषकर हिन्दू जनता त्रस्त थी। औरंगजेब ने जजिया कर, इस्लामिक
राज्य में रहने वाले गैर मुसलमानों से लिया जाने वाला भेदभावपूर्ण कर, फिर से हिन्दू
जनता पर लगा दिया था। नए हिन्दू मन्दिरों के निर्माण और पुराने मन्दिरों की जीर्णोद्धार
पर भी रोक लगा दी थी। औरंगजेब ने राजपूती राज्यों जोधपुर और मेवाड़ के अन्दरूनी मामलों
में दखल देकर मुगल साम्राज्य में मिलाने का प्रयत्न किया। कश्मीर और अन्य क्षेत्रों
में बलात् धर्म परिवर्तन कराकर हिन्दुओं को मुसलमान बनाया गया। इन परिस्थितियों में
भारतीय जनमानस अपने आपको अपमानित, असहाय और हतोत्साहित अनुभव करने लगा। भारत की समस्त जनता,
विशेषकर प्राचीन क्षत्रिय
जातियो और कबीलों, जिनमें राजपूत, गूजर, जाट और अहीर प्रमुख थे, ने जगह-जगह संघर्ष प्रारम्भ कर दिये। महाराष्ट्र के मध्यकालीन
सन्तों- नामदेव, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ एवं समर्थ गुरू रामदास ने मराठी समाज के सामने उंच-नीच के भेदभाव रहित समाज
का प्रारूप रखा, फलस्वरूप महाराष्ट्र में अभूतपूर्व सामाजिक एकता का विकास हुआ। इस पृष्ठ भूमि में
मुगलों के विरूद्ध अनेक विद्रोह हुए, लेकिन भारतीयों के जिस संघर्ष ने स्वतंत्रता संग्राम
का रूप धारण कर लिया, वह था शिवाजी राजे के नेतृत्व में मराठों के द्वारा स्वराज्य की स्थापना के लिये
संघर्ष। स्वराज्य निर्माण वास्तव में एक राज्य निर्माण से अधिक के भारतीयों के खोये
पौरूष का पुर्ननिर्माण था। स्वराज्य निर्माण के लिए संघर्ष एक प्रकार से भारतीयों के
अस्तित्व और स्वाभिमान का सवाल था।
अस्मिता के इस महासंग्राम
में शिवाजी के अनेक सहयोगी और साथी थे, जिनमे एक विशिस्ष्ट स्थान है उनकी अश्व सेना के प्रधान
सेनापति (सरे नौबत) प्रताप राव गूजर का। प्रताप राव गूजर का, शिवाजी के उत्कर्ष और स्वराज्य
स्थापना में, अति महत्वपूर्ण योगदान इसी तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि शिवाजी के सन् 1674 में राज्यारोहण ठीक पहले
के आठ वर्ष (चिटनिस के अनुसार 12 वर्ष) प्रताप राव गूजर ही
शिवाजी के प्रधान सेनापति थे। प्रताप राव ने सरे नौबत के रूप में एक विशाल,
सुव्यवस्थित और कार्यकुशल
सेना का निर्माण किया। यह अश्व सेना पहाड़ी क्षेत्रो के तंग रास्तों पर दौड़ने और पलटकर
तीव्रगति से शत्रु सेना पर आक्रमण करने के लिए अभ्यस्थ थी, यह पल भर में बिखरकर पहाड़ी रास्तों
में गायब हो जाती थी, दूसरे ही पल अचानक प्रकट होकर शत्रु को घेर लेती थी। प्रताप राव वास्तव में एक
योग्य सामरिक योजनाकार और निपुण सेनानायक था। वह मुगलों और बीजापुरी सुल्तानों के विरूद्ध
अनेक महत्वपूर्ण और निर्णायक युद्ध की जीत का नायक रहा। सिंहगढ़, सल्हेरी और उमरानी के युद्ध
में उसकी बहादुरी और रणकौशल देखते ही बनता था। प्रताप राव के हैरत अंगेज जंगी कारनामों
की मुगल और दख्खन के दरबारों में चर्चा थी।
प्रताप राव का वास्तविक नाम कुड़तो जी गूजर था, प्रताप राव की उपाधि उसे शिवाजी ने सरेनौबत (प्रधान सेनापति) का पद प्रदान करते
समय दी थी। प्रताप का अर्थ होता है- वीर। एक अन्य मत के अनुसार यह उपाधि शिवाजी ने
उसे मिर्जा राजा जय सिंह के विरूद्ध युद्ध में दिखाई गई वीरता के कारण सम्मान में दी
थी। प्रताप राव गूजर ने अपने सैनिक जीवन का प्रारम्भ शिवाजी की फौज में एक मामूली गुप्तचर
के रूप में किया था। एक बार शिवाजी वेश बदल कर सीमा पार करने लगे, तो प्रताप राव ने उन्हें
ललकार कर रोक लिया, शिवाजी ने उसकी परीक्षा लेने के लिए भांति-भांति के प्रलोभन दिये, परन्तु प्रताप राव टस से
मस नहीं हुआ। शिवाजी प्रताप राव की ईमानदारी, और कर्तव्य परायणता से बेहद प्रसन्न
हुए। अपने गुणों और शौर्य सेवाओं के फलस्वरूप सफलता की सीढ़ी चढ़ता गया शीघ्र ही राजगढ़
छावनी का सूबेदार बन गया।
इस बीच औरंगजेब ने जुलाई
1659 में शाइस्तां खां को मुगल
साम्राज्य के दख्खन प्रान्त का सूबेदार नियुक्त किया, तब तक मराठों का मुगलों से कोई टकराव
नहीं था, वे
बीजापुर सल्तनत के विरूद्ध अपना सफल अभियान चला रहे थे। औरंगजेब शिवाजी के उत्कर्ष
को उदयीमान मराठा राज्य के रूप में देख रहा था। उसने शाइस्ता खाँ को आदेश दिया कि वह
मराठों से उन क्षेत्रों को छीन ले जो उन्होंने बीजापुर से जीते हैं। आज्ञा पाकर शाईस्ता
खां ने भारी लाव-लश्कर लेकर पूना को जीत लिया और वहां शिवाजी के लिए निर्मित प्रसिद्ध
लाल महल में अपना शिविर डाल दिया। उसने चक्कन का घेरा डाल कर उसे भी जीत लिया,
1661 में कल्याण और भिवाड़ी को
भी उसने जीत लिया।
प्रतिक्रिया स्वरूप शिवाजी
ने पेशवा मोरो पन्त और प्रताप राव को अपने प्रदेश वापस जीतने की आज्ञा दी, मोरोपन्त ने कल्याण और भिवाड़ी
के अतिरिक्त जुन्नार पर भी हमला किया। रेरी बखर व चिटनिस के वर्णन के अनुसार प्रताप
राव गूजर ने मुगल क्षेत्रों में एक सफल अभियान किया। वह अपनी घुड़सवार सेना के साथ मुगलों
के अन्दरूनी क्षेत्रों में घुस गया। मुगलों का समर्थन करने वाले गांव, कस्बों और शहरों को बर्बाद
करते हुए वह गोदावरी तट तक पहुंच गया। प्रताप राव ने बालाघाट, परांडे, हवेली, गुलबर्गा, अब्स और उदगीर को अपना निशाना
बनाया और वहां से युद्ध हर्जाना वसूल किया और अन्त में वह दख्खन में मुगलों की राजधानी
औरंगाबाद पर चढ़ आया। महाकूब सिंह, औरंगाबाद में औरंगजेब का संरक्षक सेनापति था। वह दस हजार सैनिकों
के साथ प्रताव राव का सामना करने के लिए आगे बढ़ा। अहमदनगर के निकट दोनों सेनाओं का
आमना-सामना हो गया। मुगल सेना बुरी तरह परास्त हुई। प्रताप राव ने मुगल सेनापति को
युद्ध में हराकर उसका वध कर दिया। इस सैनिक अभियान से प्राप्त बेशुमार धन-दौलत लेकर
प्रताप राव वापस घर लौट आया, प्रताप राव के इस सैन्य अभियान से शाइस्ता खां की मुहिम को एक
बड़ा धक्का लगा। उत्साहित होकर मराठों ने अब सीधे शाईस्ता खां पर हमला करने का निर्णय
लिया।
मराठे, शिवाजी के नेतृत्व,
में एक छद्म बारात
का आयोजन कर उसके शिविर में घुस गये और शाइस्ता खां पर हमला कर दिया। शाइस्ता खां किसी
प्रकार अपनी जान बचाने में सफल रहा परन्तु इस संघर्ष में शिवाजी की तलवार के वार से
उसके हाथ की तीन ऊँगली कट गयी। इस घटना के परिणाम स्वरूप एक मुगल सेना अगली सुबह सिंहगढ़
पहुंच गयी। मराठों ने मुगल सेना को सिंहगढ़ के किले के नजदीक आने का अवसर प्रदान किया।
जैसे ही मुगल सेना तापों की हद में आ गयी, मराठों ने जोरदार बमबारी शुरू कर दी। उसी समय प्रताप
राव अपनी घुड़सवार सेना लेकर सिंहगढ़ पहुंच गया और मुगल सेना पर भूखे सिंह के समान टूट
पड़ा, पल भर
में ही मराठा घुड़सवारों ने सैकड़ों मुगल सैनिक काट डाले, मुगल घुड़सवारों में भगदड़ मच गयी,
प्रताप राव गूजर ने
अपनी सेना लेकर उनका पीछा किया। इस प्रकार मुगल घुड़सवार सेना मराठों की घुड़सवार सेना
के आगे-आगे हो ली। यह पहली बार हुआ था कि मुगलों की घुड़सवार सेना का मराठा घुड़सवार
सेना ने पीछा किया हो। सिंहगढ़ की लड़ाई में प्रताप राव गूजर ने जिस बहादुरी और रणकौशल
का परिचय दिया, शिवाजी उससे बहुत प्रसन्न हुए। अपनी इस शानदार सफलता से उत्साहित प्रताव राव ने
मुगलों की बहुत सी छोटी सैन्य टुकड़ियों को काट डाला और मुगलों को अपनी सीमा चौकियों
को मजबूत करने के लिए बाध्य कर दिया।
शाइस्ता खां इस हार और अपमान
से बहुत शर्मिन्दा हुआ। उसकी सेना का मनोबल गिर गया। उनके दिल में मराठों का भय घर
कर गया, शाइस्ता
खां की इस मुहिम की विफलता से मुगलों की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गयी और उनका दख्खन का सूबा खतरे में पड़ गया। दख्खन में तनाव इस कदर बढ़ गया कि लगने लगा कि अब औरंगजेब
स्वयं दख्खन कूच करेगा परन्तु कश्मीर और पश्चिमी प्रान्त में विद्रोह हो जाने के कारण
वह ऐसा न कर सका। फिर भी उसने शाइस्ता खां को दख्खन से हटा कर उसकी जगह शहजादा मुअज्जम
को दख्खन का सूबेदार बना दिया।
मराठों ने पूरी तरह मुगल विरोधी नीति अपना ली और
1664 ई० में मुगल राज्य के एक
महत्वपूर्ण आर्थिक स्रोत, प्रसिद्ध बन्दरगाह और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के केन्द्र,
सूरत शहर को लूट लिया।
इस तीव्रगति के आक्रमण में शिवाजी के साथ प्रताप राव गूजर और मोरो पन्त पिंगले और चार
हजार मावल सैनिक थे। सूरत की लूट से मराठों को एक करोड़ रूपये प्राप्त हुए जिसके प्रयोग
से मराठा राज्य को प्रशासनिक और सैनिक सुदृढ़ता प्राप्त हुई। सूरत की लूट औरंगजेब सहन
नहीं कर सका। इधर मराठों ने मक्का जाते हुए हज यात्रियों के एक जहाज पर हमला कर दिया।
इस घटना ने आग में घी का काम किया और औरंगजेब गुस्से से आग-बबूला हो उठा। उसने तुरन्त
मिर्जा राजा जय सिंह और दिलेर खां के नेतृत्व में विशाल सेना मराठों का दमन करने के
लिए भेज दी। दख्खन पहुंचते ही दिलेर खां ने पुरन्दर का घेरा डाल दिया, जय सिंह ने सिंहगढ़ को घेर
लिया और अपनी कुछ टुकड़ियों को राजगढ़ और लोहागढ़ के विरूद्ध भेज दिया। जय सिंह जानता
था कि मराठों को जीतना आसान नहीं है, अत: वह पूर्ण तैयारी के साथ आया था। उसके साथ 80000 चुने हुए योद्धा थे। स्थित
की गम्भीरता को देखते हुए शिवाजी ने पहली बार रायगढ़ में एक युद्ध परिषद् की बैठक बुलायी। संकट के इन क्षणों में प्रताप राव गूजर ने शिवाजी का भरपूर साथ दिया था। उसने एक
हद तक मुगल सेना की रसद पानी रोकने में सफलता प्राप्त की और उसने बहुत सी मुगल टुकड़ियों
को पूरी तरह समाप्त कर दिया। वह लगातार मुगल सेना की हलचल की खबर शिवाजी को देता रहा।
संकट की इस घड़ी में प्रताप राव के संघर्ष से प्रसन्न होकर ही शिवाजी ने उसे सरे नौबत
का पद और प्रताप राव की उपाधि प्रदान किया।
शिवाजी युद्ध
की स्थिति का जायजा लेकर, इस नतीजे पर पहुंचे कि जय सिंह को आमने-सामने की लड़ाई में हराना
सम्भव नहीं है। अत: उन्होंने प्रताप राव गूजर को जय सिंह का वध करने का कार्य सौंपा।
एक योजना के अन्तर्गत प्रताप राव जय सिंह के साथ मिल गये और एक रात मौका पाकर उन्होंने
जय सिंह को उसके शिविर में मारने का एक जोरदार प्रयास किया परन्तु अंगरक्षकों के चौकन्ना
होने के कारण जय सिंह बच गया। प्रताप राव गूजर शत्रुओं के हाथ नहीं पड़ा और वह शत्रु
शिविर से जान बचाकर निकलने में सफल रहा। प्रताप राव का यह दुस्साहिक प्रयास भी स्वराज्य
के काम न आ सका। जय सिंह से संधि की बातचीत शुरू कर दी गयी। जिसके परिणामस्वरूप 1665 में पुरन्दर की संधि हुई।
सन्धि के अन्र्तगत शिवाजी को 23 महत्वपूर्ण दुर्ग मुगलों को सौंपने पड़े। बीजापुर के कुछ क्षेत्रों
पर शिवाजी का अधिकार स्वीकार कर लिया गया। शिवाजी के पुत्र संभाजी को मुगल सेना में
पांच हजारी मनसब प्रदान किया गया। शिवाजी ने बीजापुर के विरूद्ध मुगलों का साथ देने
का वचन दिया।
परन्तु बीजापुर के विरूद्ध
मुगल-मराठा संयुक्त अभियान सफल न हो सका। इस अभियान के असफल होने से मुगल दरबार में
जय सिंह की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुंचा। अत: उसने औरंगजेब को अपना महत्व दर्शाने
के लिए शिवाजी को उससे मिलाने के लिए आगरा भेजा। मुगल दरबार में उचित सम्मान न मिलने
से शिवाजी रूष्ट हो गये और तत्काल मुगल दरबार छोड़ कर चले गये। औरंगजेब ने क्रुद्ध होकर
उन्हें गिरफ्तार करा लिया। एक वर्ष तक शिवाजी आगरा में कैद रहे फिर एक दिन मुगल सैनिकों
को चकमा देकर वह कैद से निकल गये और सितम्बर 1666 में रायगढ़ पहुंच गये। जब तक शिवाजी कैद में रहे स्वराज्य की
रक्षा का भार पेशवा और प्रधान सेनापति प्रताप राव गूजर के जिम्मे रहा। शिवाजी की अनुपस्थिति
में दोनों ने पूरी राजभक्ति और निष्ठा से स्वराज्य की रक्षा की।
आगरा से वापस आने के बाद शिवाजी तीन वर्ष तक चुप रहे। उन्होंने मुगलों से संधि
कर ली। जिसके द्वारा पुरन्दर की संधि को पुन: मान्यता दे दी गयी और संभा जी को पांच
हजारी मनसब प्रदान कर दिया गया। संभाजी अपने अपने पांच हजार घुड़सवारों के साथ दख्खन की मुगल राजधानी औरंगाबाद में रहने लगे। परन्तु कम उम्र होने के कारण इस सैन्य टुकड़ी
का भार प्रताप राव गूजर को सौंप कर वापस चले आये। मुगल-मराठा शान्ति अधिक समय तक कायम
न रह सकी। औरंगजेब को शक था कि शहजादा मुअज्जम शिवाजी से मिला हुआ है। उसने शहजादे
को औरंगाबाद में मौजूदा प्रताप राव गूजर को गिरफ्तार कर उसकी सेना को नष्ट करने का
हुक्म दिया। परन्तु सम्राट के हुक्म के पहुचने से पहले ही प्रताप राव गूजर अपने पांच
हजार घुड़सवारों को लेकर औरंगाबाद से सुरक्षित निकल आया।
मराठों ने मुगल प्रदेशों पर चढ़ाई कर दी।
उन्होंने पुरन्दर की संधि के द्वारा मुगलों को सौंपे गये अनेक किले फिर से जीत लिये।
1670 में सिंहगढ़ और पुरन्दर सहित
अनेक महत्वपूर्ण किले वापस ले लिये गये। 13 अक्टूबर 1670 को मराठों ने सूरत पर से हमला बोलकर उसे फिर लूट लिया। तीन
दिन के इस अभियान में मराठों के हाथ 66 लाख रूपये लगे। वापसी में शिवाजी जब वणी-दिंडोरी के समीप पहुंचे
तो उनका सामना दाऊद खान के नेतृत्व वाली मुगल सेना से हुआ। ऐसे में खजाने को बचाना
एक मुश्किल काम था। शिवाजी ने अपनी सेना को चार भागों में बांट दिया। उन्होंने प्रताप
राव के नेतृत्व वाली टुकड़ी को खजाने को सुरक्षित कोकण ले जाने की जिम्मेदारी सौंपी
और स्वयं दाऊद खान से मुकाबले के लिए तैयार हो गये। मराठों ने इस युद्ध में मुगलों
को बुरी तरह पराजित कर दिया। दूसरी और प्रताप राव खजाने को सुरक्षित निकाल ले गया।
सूरत से लौटकर प्रताव राव
गूजर ने खानदेश और बरार पर हमला कर दिया। प्रताप राव ने मुगल क्षेत्र के कुंरिजा नामक
नगर सहित बहुत से नगरों, कस्बों और ग्रामों को बर्बाद कर दिया। प्रताप राव गूजर के इस
युद्ध अभियान का स्मरणीय तथ्य यह है कि वह रास्ते में पड़ने वाले ग्रामों के मुखियाओं
से, शिवाजी
को सालाना ‘चौथ’ नामक
कर देने का लिखित वायदा लेने में सफल रहा। चौथ नामक कर मराठे शत्रु क्षेत्र की जनता
को अपने हमले से होने वाली हानि से बचाने के बदले में लेते थे। इस प्रकार हम वह तारीख
निश्चित कर सकते हैं जब पहली बार मराठों ने मुगल क्षेत्रों से चौथ वसूली की। यह घटना
राजनैतिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण थी। इससे महाराष्ट्र में मराठों की प्रतिष्ठा में
बहुत वृद्धि हुई। यह घटना इस बात का प्रतीक थी कि महाराष्ट्र मराठों का है मुगलों का
नहीं।
अंतत: मुगल सम्राट ने गुजरात
के सूबेदार बहादुर खान और दिलेर खान को दक्षिण का भार सौंपा। इन दोनों ने साल्हेर के
किले का घेरा डाल दिया। और कुछ टुकड़ियों को वहीं छोड़कर दोनों ने पूना और सूपा पर धावा
बोल दिया। साल्हेर का दुर्ग सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण था। अत: शिवाजी इसे
हर हाल में बचाने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे। शिवाजी सेना लेकर साल्हेर के निकट पहुंच गये।
इस बात की सूचना मिलते ही दिलेर खां पूना से साल्हेर की ओर दौड़ पड़ा और उसने शिवाजी द्वारा
भेजे गये दो हजार मराठा घुड़सवारों को एक युद्ध में परास्त कर काट डाला। मराठों की स्थिति
बहुत बुरी तरह बिगड़ गयी। शिवाजी ने मोरोपन्त पिंगले और प्रताप राव गूजर को बीस-बीस
हजार घुड़सवारों के साथ साल्हेर पहुंचने का हुक्म दिया। मराठों की इन गतिविधियों को देखते
हुए बहादुर खां ने इखलास खां के नेतृत्व में अपनी सेना के मुख्य भाग को प्रताप राव
गूजर के विरूद्ध भेज दिया। युद्ध शुरू होने के कुछ समय पश्चात् ही प्रताप राव ने अपनी
सेना को वापिसी का हुक्म दे दिया। मराठे तेजी के साथ पहाड़ी दर्रो और रास्तों से गायब
होने लगे। उत्साही मुगल उनके पीछे भागे। पीछा करते हुए मुगल सेना बिखर गयी अब प्रताप
राव ने तेजी से घूमकर मराठों को संगठित किया और दुगने वेग से हमला बोल दिया। मुगल सेना
प्रताप राव के इस जंगी दांव से भौचक्की रह गयी। मुगल भ्रमित और भयभीत हो गये और उनमें
भगदड़ मच गयी। इखलास खां ने मुगल सेना को फिर से संगठित करने की कोशिश की, कुछ नई मुगल टुकड़ी भी आ गयी, घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया तभी
मोरो पन्त भी अपनी सेना लेकर पहुंच गये। मराठों ने मुगलों को बुरी तरह घेर कर मार लगाई।
मराठों ने मुगल सेना बुरी तरह रौंद डाली। कहते हैं कि मुगलों के सबसे बहादुर पांच हजार
सैनिक मारे गये, जिनमं बाइस प्रमुख सेनापति थे। बहुत से प्रमुख मुगल यौद्धा घायल हुए और कुछ पकड़
लिये गये।
साल्हेर के युद्ध में मराठों
की सफलता अपने आप में एक पूर्ण विजय थी और इसका सर्वोच्च नायक था प्रताप राव गूजर।
सलहेरी के युद्ध में मराठों को 125 हाथी, 700 ऊट, 6 हजार घोड़े, असंख्य पशु और बहुत सारा धन सोना, चांदी, आभूषण और युद्ध सामग्री प्राप्त हुई। साल्हेर की विजय मराठों की अब तक की सबसे बड़ी जीत थी। आमने-सामने की लड़ाई में मराठों
की मुगलों के विरूद्ध यह पहली महत्वपूर्ण जीत थी। इसी जीत ने मराठा शौर्य की प्रतिष्ठा
को चार चांद लगा दिया। इस युद्ध के पश्चात् दक्षिण में मराठों का खौफ बैठ गया। युद्ध
का सबसे पहला असर यह हुआ कि मुगलों ने साल्हेर का घेरा उठा लिया और औरंगाबाद लौट गये।
1672 के अन्त में मराठों और बीजापुर
में पुन: सम्बन्ध विच्छेद हो गये। अपने दक्षिणी क्षेत्रों की रक्षा की दृष्टि से मराठों
ने पन्हाला को बीजापुर से छीन लिया। सुल्तान ने पन्हाला वापिस पाने के लिये बहलोल खान
उर्फ अब्दुल करीम के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी। बहलोल खान ने पन्हाला का
घेरा डाल दिया। शिवाजी ने प्रताप राव गूजर को पन्हाला को मुक्त कराने के लिये भेजा।
प्रताप राव गूजर ने पन्हाला को मुक्त कराने के लिये एक अद्भुत युक्ति से काम लिया।
प्रताप राव गूजर ने पन्हाला कूच करने के स्थान पर आदिलशाही राजधानी बीजापुर पर जोरदार
हमला बोल दिया और उसके आसपास के क्षेत्रों को बुरी तरह उजाड़ दिया। उस समय बीजापुर की
रक्षा के लिए वहां कोई सेना नहीं थी अत: बहलोल खान पन्हाला का घेरा उठाकर बीजापुर की
रक्षा के लिए भागा। लेकिन प्रताप राव ने उसे बीच रास्ते में उमरानी के समीप जा घेरा।
बहलोल खान की सेना की रसद रोक कर प्रताप राव ने उसे अपने जाल में फंसा लिया और उसकी
बहुत सी अग्रिम सैन्य टुकड़ियों का पूरी तरह सफाया कर दिया। बहलोल खान ने हार मानकर
शरण मांगी। प्रताप राव ने संधि की आसान शर्तो पर उसे जाने दिया। प्रताप राव पन्हाला
को मुक्त कराकर ही संतुष्ट था परन्तु शिवाजी
ने शत्रु पर दिखाई गई उदारता पर अपनी नाखुशी प्रकट की। शिवाजी गलत नहीं थे,
यह बहुत जल्दी ही सिद्ध
हो गया। क्योंकि जैसे ही प्रतापराव बरार पर आक्रमण करने के लिये दूर निकल गया,
बहलोल खान पुन: अपनी
सेना को संगठित कर पन्हाला की तरफ चल दिया। प्रताप राव खबर मिलते ही वापस लौटा और नैसरी
के पास दोनों का आमना-सामना हो गया। प्रताप राव के पास मात्र 1200 सैनिक थे जबकि बहलोल खान
की सेना में 15000 सैनिक
थे। स्थिति को भांपते हुए शेष मराठा सेना खामोश रही, परन्तु अहसान फरामोश और कायर बहलोल
खान को देखकर प्रताप राव अपने आवेग पर काबू न रख सका और वह बहलोल खान पर टूट पड़ा। मात्र
6 सैनिकों ने प्रताप राव का
अनुसरण किया, वे बहुत साहस और वीरता से लड़े परन्तु शत्रु की विशाल सेना के मुकाबले लड़ते हुए
सात वीर क्या कर सकते थे। अंतत: वे सभी वीरगति को प्राप्त हो गये। प्रताप राव की मृत्यु
का सबसे अधिक दु:ख शिवाजी को हुआ। शिवाजी ने महसूस किया कि उन्होंने अपने बहादुर और
वि’वसनीय सेनापति
को खो दिया। प्रताप राव के परिवार से सदा के लिये नाता बनाए रखने के लिए उन्होंने अपने
पुत्र राजाराम का विवाह उसकी पुत्री के साथ कर दिया।
प्रताप राव गूजर और उसके
छह साथियों के बलिदान की यह घटना मराठा इतिहास की सबसे वीरतापूर्ण घटनाओं में से एक
है। प्रतापराव और उसके साथियों इस दुस्साहिक बलिदान पर प्रसिद्ध कवि कुसुमग राज ने
‘वेडात मराठे वीर दौडले सात'नामक कविता लिखी है जिसे प्रसिद्ध पा’र्व गायिका लता मंगेश्वर ने गाया है। प्रताप राव गूजर
के बलिदान स्थल नैसरी, कोल्हापुर, महाराष्ट्र में उनकी याद में एक स्मारक भी बना हुआ है।
प्रताप राव गूजर एक योग्य,
वीर, साहसी, चतुर, देशभक्त, राजभक्त, स्वामीभक्त और कर्तव्यपरायण
सेनानायक था। सरेनौबत के तौर पर उसमें एक योग्य संगठनकर्ता के गुण दिखलाई पड़ते हैं।
शिवाजी के मुगल कैद में रहने के समय जिस प्रकार उसने स्वराज्य को संरक्षण प्रदान किया,
वह उसकी हिन्दवी स्वराज्य
के प्रति गहरी निष्ठा का अनुपम उदाहरण है। एक सेनानायक के तौर पर वह अहमदनगर,
सिंहगढ़, सलहेरी और उमरानी के युद्धों
का नायक था। प्रताप राव के नेतृत्व में ही मराठों ने मुगल घुड़सवार सेना को सिंहगढ़ के
युद्ध में परास्त कर पहली बार पीछा किया था। प्रताप राव गूजर ही वह मराठा सेनापति था
जिसने 1670 में मुगल क्षेत्रों से पहली
बार स्वराज्य के लिय चौथ हासिल की थी। शिवाजी के कार्यकाल की सबसे भीषण और आमने-सामने
की लड़ाई में मुगलों को सलहेरी के युद्ध में बुरी तरह परास्त करने का श्रेय भी प्रताप
राव गूजर को ही प्राप्त है। हिन्दी स्वराज्य की खातिर उसने अपने प्राणों की बाजी लगाकर
मुगल सेनापति जय सिंह को उसी के शिविर में हमला कर मारने का प्रयास किया। प्रताप राव
गूजर अपनी अंतिम सांस तक हिन्दवी स्वराज्य के लिए संघर्षरत रहा और शिवाजी के राज्याभिषेक जून
1674 से कुछ माह पूर्व 1674 में, नैसरी के युद्ध में शहीद हो गया। इतिहासकार आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार यह घटना 5 मार्च 1674 तथा अन्य कुछ इतिहासकारों के अनुसार 24 फरवरी 1674 की हैं| प्रताप राव गूजर जैसे वीर, साहसी और देशभक्त बिरले ही होते हैं। वास्तव में वह उस
तत्व का बना था जिससे शहीद बनते हैं। हिन्दवी स्वराज्य की राह में उसका बलिदान स्मरणीय
तथ्य है।
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