डॉ.सुशील भाटी
पूर्व मध्यकाल में प्रतिहारो की अनेक
शाखाए थी जिन्होंने पश्चिमी उत्तर भारत में अनेक क्षेत्रो में शासन किया| इतिहासकारों का एक वर्ग जिनमे ए. एम. टी. जैक्सन, जेम्स केम्पबेल, वी. ए. स्मिथ, विलयम क्रुक, डी
.आर. भंडारकार, रमाशंकर त्रिपाठी, आर. सी मजूमदार और बी एन पुरी आदि सम्मिलित हैं
प्रतिहारो को गुर्जर (आधुनिक गूजर) मूल का मानते हैं| वही इतिहासकारों का अन्य वर्ग इस मत को नहीं
मानता| प्रस्तुत लेख में पूर्व मध्यकाल के प्रतिहार शासको के गुर्जर सम्बंध को
समझने का प्रयास किया गया हैं|
मंडोर के प्रतिहार- बौक
के जोधपुर अभिलेख (837 ई.) तथा कक्कुक के घटियाला अभिलेख (861ई.) से हमें मंडोर के प्रतिहारो का इतिहास पता
चलता हैं| बौक के
जोधपुर अभिलेख में मंडोर के प्रतिहार वंश के संस्थापक हरिचन्द्र को विप्र कहा गया
हैं| विप्र
का अर्थ ज्ञानी होता हैं| दोनों ही अभिलेखों में हरिचन्द्र की जाति और वर्ण के विषय में स्पष्ट
सूचना नहीं दी गई हैं| हरिचन्द्र की दो पत्नी बताई गई हैं, एक ब्राह्मण और दूसरी क्षत्रिय पत्नी भद्रा| जोधपुर अभिलेख के अनुसार क्षत्रिय
पत्नी भद्रा के वंशजो ने मंडोर राज्य की स्थापना की थी| जोधपुर अभिलेख में मंडोर के प्रतिहार राजा बौक ने
दावा किया हैं कि रामभद्र (रामायण के राम) के भाई लक्ष्मण उनके वंश के आदि पूर्वज
हैं| अपने
वंश के नाम प्रतिहार को भी उन्होंने लक्ष्मण से सम्बंधित किया हैं|
हरिचन्द्र को वेद और शास्त्र अर्थ
जानने में पारंगत बताया गया है| कक्कुक के घटियाला अभिलेख के अनुसार वह प्रतिहार वंश का गुरु था| जोधपुर अभिलेख में भी उसे प्रजापति
के समान गुरु बताया गया हैं| प्रजापति सृष्टी के संस्थापक (पिता) और गुरु दोनों हैं, अतः वेद शास्त्र अर्थ में पारंगत
विद्वान (विप्र) हरिचन्द्र मंडोर के प्रतिहार वंश का संस्थापक और गुरु था|
जोधपुर और घटियाला अभिलेख के आधार पर
कुछ विद्वानों ने हरिचन्द्र को ब्राह्मण बताया हैं, किन्तु उक्त अभिलेखों में उसे
विप्र अर्थात ज्ञानी कहा गया हैं ब्राह्मण नहीं| दूसरे लक्ष्मण को अपना पूर्वज कहा
गया हैं, जोकि रामायण महाकाव्य के ‘क्षत्रिय कुल में ज़न्मे’ एक पात्र हैं| अतः
स्पष्ट हैं कि मंडोर के प्रतिहार स्वयं को क्षत्रिय मानते थे| क्षत्रिय वर्ण में
अनेक कुल और जाति हैं|
बौक के जोधपुर अभिलेख में मंडोर के
प्रतिहार वंश के संस्थापक का शासक हरिचन्द्र उर्फ़ ‘रोहिल्लाद्धि’ था तथा एक अन्य
शासक नर भट का उपनाम “पेल्लापेल्ली” था|
‘रोहिल्लाद्धि’ और “पेल्लापेल्ली” अनजानी भाषा के नाम हैं| सम्भव हैं ये
उनकी मूल भाषा के नाम थे| ‘कन्नौज के प्रतिहार’ भी लक्ष्मण को अपना पूर्वज मानते
थे, उन्हें अनेक समकालीन स्त्रोतों में गुर्जर बताया गया हैं| अतः संभव हैं कि
मंडोर के प्रतिहार भी गुर्जर थे तथा ‘रोहिल्लाद्धि’ और “पेल्लापेल्ली” उनकी भाषा
गुर्जरी अपभ्रंश के शब्द थे|
भड़ोच के गुर्जर- हेन
सांग (629-645 ई.) के
अनुसार सातवी शताब्दी में दक्षिणी गुजरात में भड़ोच राज्य भी विधमान था| | इस राज्य का केन्द्र नर्मदा और माही
नदी के बीच स्थित आधुनिक भडोच जिला था, हालाकि अपने उत्कर्ष काल में यह राज्य उत्तर में
खेडा जिले तक तथा दक्षिण में ताप्ती नदी तक फैला था| भडोच के गुर्जरों के विषय में हमें दक्षिणी
गुजरात से प्राप्त नौ तत्कालीन ताम्रपत्रों से चलता हैं| इन ताम्रपत्रो में उन्होंने खुद को गुर्जर नृपति
वंश का होना बताया हैं| चालुक्य वंश, रघुवंश की तरह यहाँ गुर्जर शब्द कुल अथवा जाति के लिए
प्रयुक्त हुआ हैं| अतः गुर्जर शब्द शासको के वंश अथवा जाति के लिए प्रयुक्त हो रहा
था|
मंडोर के प्रतिहारो और उनके समकालीन भड़ोच के गुर्जरों की वंशावली के तुलान्तामक अध्ययन से पता चलता हैं कि इन वंशो के नामो में कुछ समानताए हैं| भड़ोच के ‘गुर्जर नृपति वंश’ के संस्थापक का नाम तथा मंडोर के प्रतिहार वंश के संस्थापक हरिचन्द्र के चौथे पुत्र का नाम एक ही हैं- दद्द| कुछ इतिहासकार इन दोनों के एक ही व्यक्ति मानते हैं| दोनों वंशो के शासको के नामो में एक और समानता ‘भट’ प्रत्यय की हैं| भट का अर्थ योद्धा होता हैं| मंडोर के प्रतिहारो में भोग भट, नर भट और नाग भट हैं तो भड़ोच के गुर्जर वंश में जय भट नाम के ही कई शासक हैं| दोनों वंशो के शासको के नामो की समानताओ के आधार पर इतिहासकार भड़ोच के गुर्जर वंश को मंडोर के प्रतिहारो की शाखा मानते हैं| किन्तु इसमें आपत्ति यह हैं कि भड़ोच के गुर्जर अपने अभिलेखों में महाभारत के पात्र ‘भारत प्रसिद्ध कर्ण’ को अपना पूर्वज मानते हैं नाकि मंडोर के प्रतिहारो की तरह रामायण के पात्र लक्ष्मण को|
उज्जैन-कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार- मंडोर
के प्रतिहारो और उनके समकालीन उज्जैन-कन्नौज के प्रतिहारो की वंशावली के तुलनात्मक
अध्ययन से भी उनके मध्य कुछ समानताए दिखाई पड़ती हैं| दोनों अपना आदि पूर्वज रामायण के पात्र लक्ष्मण
को मानते हैं| दोनों
ही वंशो में नाग भट और भोज नाम मिलते हैं| किन्तु मंडोर राज्य के प्रतिहार वंश का संस्थापक
हरिचन्द्र हैं, तो
मिहिर भोज (836-885 ई.) के ग्वालियर अभिलेख के अनुसार उज्जैन-कन्नौज के प्रतिहार वंश के
गुर्जर साम्राज्य का संस्थापक नाग भट प्रथम हैं| दोनों प्रतिहार वंशो की वंशावली भी पूर्ण रूप से
अलग हैं|
कन्नड़ कवि पम्प ने अपनी पुस्तक ‘पम्प
भारत’ प्रतिहार शासक महीपाल को ‘गुज्जरराज’ कहा हैं| यहाँ भी गुर्जर शब्द
जाति के लिए प्रयुक्त हुआ हैं, स्थान के लिए नहीं क्योकि गुर्जरत्रा महीपाल के साम्राज्य
का एक छोटा सा हिस्सा मात्र था, अतः समूचे उत्तर भारत में फैले उसके विशाल
साम्राज्य का संज्ञान ना लेकर कन्नड़ कवि क्यों उसे मात्र गुर्जरत्रा प्रान्त के
नाम से पहचानेगा और केवल वही का शासक बतायेगा| यदि यहाँ गुज्जर देशवाचक शब्द हैं
तो विस्तृत साम्राज्य के शासक को गुज्जर-राज की उपाधि देना तर्क संगत नहीं हैं|
अतः गुज्जर शब्द यहाँ प्रतिहार शासक महीपाल की जाति का सूचक हैं|
राष्ट्रकूट शासक इंद्र III के 915 ई.
के बेगुमरा प्लेट अभिलेख में कृष्ण II के ‘गर्जद गुर्जर’ के साथ युद्ध का
उल्लेख हैं| इतिहासकार ने ‘गर्जद गुर्जर’ प्रतिहार शासक महीपाल के रूप में की हैं|
अरब लेखक अबू ज़ैद और अल मसूदी के
अनुसार उत्तर भारत में अरबो का संघर्ष ‘जुज्र’ (गुर्जर) शासको से हुआ|
इतिहासकारों के अनुसार जुज्र गूजर शब्द का अरबी रूपांतरण हैं| अरब यात्री सुलेमान (851 ई.), इब्न खुरदादबेह (Ibn Khurdadaba), अबू ज़ैद (916 ई.) और अल मसूदी (943ई.) ने
गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य को जुर्ज़ अथवा जुज्र (गूजर) कहा हैं| अबू ज़ैद कहता हैं कि कन्नौज एक बड़ा क्षेत्र हैं
और जुज्र के साम्राज्य का निर्माण करता हैं| उस समय कन्नौज प्रतिहार साम्राज्य
की राजधानी थी, अतः यह साम्राज्य जुज्र अर्थात गूजर कहलाता था| सुलेमान के अनुसार बलहर (राष्ट्रकूट
राजा) जुज्र (गूजर) राजा के साथ युद्धरत रहता था| अल मसूदी कहता हैं कन्नौज के राजा की
चार सेनाये हैं जिसमे दक्षिण की सेना हमेशा मनकीर (मान्यखेट) के राजा बलहर (राष्ट्रकूट)
के साथ लडती हैं| वह यह भी बताता हैं कि राष्ट्रकूटो का क्षेत्र कोंकण जुज्र के राज्य के
दक्षिण में सटा हुआ हैं| इस प्रकार यह भी स्पष्ट होता हैं कि
राष्ट्रकूटो के अभिलेखों में जिन गुर्जर राजाओ का उल्लेख किया गया हैं वो कन्नौज
के गुर्जर प्रतिहार हैं|
अल इदरीसी (1154 ई,) के अनुसार के अनुसार प्रतिहार शासको उपाधि ‘गुर्जर’
थी तथा उनके साम्राज्य का नाम भी ‘गुर्जर’ था| गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य उत्तर भारत में
विस्तृत था|
राजोर गढ़ के गुर्जर प्रतिहार- मथनदेव
के 960 ई. के ‘राजोर
अभिलेख’ के
चौथी पंक्ति में उसे ‘गुर्जर प्रतिहारानवय’ कहा गया हैं| इसी अभिलेख की
बारहवी पंक्ति में गुर्ज्जर जाति के किसानो का स्पष्ट उल्लेख हैं| बारहवी पंक्ति
में “गुर्जरों द्वारा जोते जाने वाले सभी पडोसी खेतो के साथ” शब्दों में स्पष्ट
रूप से गुर्जर जाति का उल्लेख हैं अतः इतिहासकारों के बड़े वर्ग का कहना हैं कि
चौथी पंक्ति में भी गुर्जर शब्द जाति के लिए प्रयुक्त हुआ हैं न की किसी स्थान या
भोगोलिक इकाई के लिए नहीं| इस कारण से इतिहासकारो ने ‘गुर्जर प्रतिहारानवय’ का
अर्थ गुर्जर जाति का प्रतिहार वंश बताया हैं| मथनदेव गुर्जर जाति के
प्रतिहार वंश का हैं| इस अभिलेख से इतिहासकार इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रतिहार
गुर्जर जाति का एक वंश था, अतः कन्नौज के प्रतिहार भी गुर्जर जाति के थे|
बूढी चंदेरी के प्रतिहार- दसवी
शताब्दी के अंत में ‘कड़वाहा अभिलेख’ में बूढी चंदेरी के प्रतिहार शासक हरिराज को ‘गरजने वाले गुर्जरों
का भीषण बादल’ कहा गया हैं तथा उसका गोत्र प्रतिहार बताया गया हैं|
उज्जैन क्षेत्र में गुर्जरों में आज
भी ‘पडियार’ गोत्र मिलता हैं| जोधपुर क्षेत्र में भी गुर्जरों में ‘पडियार’
गोत्र हैं|
निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता हैं
की पांचो वंश मूल रूप से एक ही जाति-कबीले गुर्जर से सम्बंधित प्रतीत होते हैं| परन्तु वे भिन्न परिवार थे| तत्कालीन समाज में अपने परिवार-कुल
की स्वीकार्यता को बढाने के लिए लोकप्रिय महाकाव्यों के पात्रो से स्वयं को जोड़ना
स्वाभाविक प्रक्रिया हैं| अपने वंश के शासको का वेद-शास्त्र अर्थ में पारंगत होने की बात भी इसी
सन्दर्भ में कही गई प्रतीत होती हैं|
सन्दर्भ
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