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Monday, November 26, 2012

गुर्जरों में देव उठान और देव उठान मंगल गीत (Dev Uthan)

डा.सुशील भाटी                        
Kanishka The Great


देव उठान का त्यौहार गुर्जर और जाटो में विशेष रूप से मनाया जाता हैं| यू तो हिंदू शास्त्रों के अनुसार हिन्दुओ द्वारा यह त्यौहार विष्णु भगवान के योग निद्रा से जागने के उपलक्ष्य में मनाया जाता हैं परन्तु इस अवसर पर गुर्जर परिवारों में गाये जाने वाला मंगल गीत अपने पूर्वजो को संबोधित जान पड़ता हैं| गुर्जर अपने पूर्वजों को देव कहते हैं और उनकी पूजा भी करते हैं| यह परम्परा इन्हें अपने पूर्वज सम्राट कनिष्क कुषाण/कसाना (78-101 ई.)से विरासत में मिली हैं| कुषाण अपने को देवपुत्र कहते थे| कनिष्क ने अपने पूर्वजो के मंदिर बनवाकर उसमे उनकी मूर्तिया भी लगवाई थी| इन मंदिरों को देवकुल कहा जाता था| एक देवकुल के भग्नावेश मथुरा में भी मिले हैं|गूजरों और जाटो के घरों और खेतों में आज भी छोटे-छोटे मंदिर होते हैं जिनमे पूर्वजो  का वास माना जाता हैं और इन्हें देवता कहा जाता हैं, अन्य हिंदू अपने पूर्वजों को पितृ कहते हैं|घर के वो पुरुष पूर्वज जो अविवाहित या बिना पुत्र के मर जाते हैं, उन देवो को अधिक पूजा जाता हैं| भारत  में मान्यता हैं कि यदि पितृ/देवता रूठ जाये तो पुत्र प्राप्ति नहीं होती| पुत्र प्राप्ति के लिए घर के देवताओ को मनाया जाता हैं| देव उठान पूजन के अवसर पर गए जाने वाली मंगल गीत में जाहर (भगवान जाहर वीर गोगा जी) और नारायण का भी जिक्र हैं, परन्तु यह स्पष्ट नहीं हैं कि गीत में वर्णित नारायण भगवान विष्णु हैं या फिर राजस्थान में गुर्जरों के लोक देवता भगवान देव नारायण या कोई अन्य| लेकिन इस मंगल गीत में परिवार में पुत्रो की महत्ता को दर्शाया गया हैं और देवताओ से उनकी प्राप्ति की कामना की गयी हैं| पूजा के लिए बनाये गए देवताओं के चित्र के सामने पुरुष सदस्यों के पैरों के निशान बना कर उनके उपस्थिति चिन्हित की जाती हैं| इस चित्र में एक नहीं कई देवता दिखलाई पड़ते हैं, अतः गुर्जरों के लिए यह सिर्फ किसी एक देवता को नहीं बल्कि अनेक पूर्वजो को पूजने और जगाने का त्यौहार हैं| गीत के अंत में जयकारा भी कुल-गोत्र के देवताओ के नाम का लगाया जाता हैं, जैसे- जागो रे भाटियो के देव या जागो रे बैंसलो के देव, किसी नाम विशेष के देवता का नहीं| यह भी संभव हैं की भारत में प्रचलित देव उठान का त्यौहार गुर्जरों की जनजातीय परंपरा के सार्वभौमिकरण का परिणाम हो| कम से कम गुर्जरों में यह शास्त्रीय हिंदू परंपरा और गुर्जरों की अपनी जनजातीय परंपरा का सम्मिश्रण तो हैं ही| आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं देव उठान मंगल गीत-

देव उठान गीत

उठो देव बैठो देव
देव उठेंगे कार्तिक में.....
कार्तिक में...... कार्तिक में
सोये हैं आषाढ़ में

नई टोकरी नई कपास
जा रे मूसे जाहर जा.....
जाहर जा.....जाहर जा 
जाहर जाके डाभ कटा
डाभ कटा कै खाट बुना.....
खाट बुना........खाट बुना
खाट बुना कै दामन दो
दामन दीजो गोरी गाय
गोरी गाय……कपिला गाय
जाके पुण्य सदा फल होय

गलगलिया के पेरे पाँव
पेरे पाँव……पिरोथे पाँव
राज़ करे अजय की माँ..... विजय की माँ
राज करे संजय की माँ...... जीतेंद्र की माँ
राज करे मिहिर की माँ

औरें धौरे धरे मंजीरा
ये रे माया तेरे बीरा
ये रे अनीता तेरे बीरा
ये रे कविता तेरे बीरा

औरें धौरे धरे चपेटा
ये हैं नांगणन तेरे बेटा
औरें कौरें धरे चपेटा
यह हैं बैस्लन तेरे बेटा
औरें कौरें धरे चपेटा
यह हैं कसानी तेरे बेटा

नारायण बैठा ओटा
नो मन लीक लंगोटा
जितने जंगल हीसा-रौडे
उतने या घर बर्द-किरोडे
जितने अम्बर तारैयां 
उतनी या घर गावानियां
जितने जंगल झाऊ-झूड
उतने या घर जन्में पूत

जागो...........रे......भाटियो के देव........


(स्त्रोत- जैसा मेरी माँ ने मुझे बताया) 

                                           [Dr.Sushil Bhati]      

Monday, November 5, 2012

1857 की जनक्रान्ति के जनक धन सिंह कोतवाल (Dhan Singh Kotwal)

डा. सुशील भाटी

इतिहास की पुस्तकें कहती हैं कि 1857 की क्रान्ति का प्रारम्भ '10 मई 1857' की संध्या को मेरठ में हुआ। हम तार्किक आधार पर कह सकते हैं कि जब 1857 की क्रान्ति का आरम्भ '10 मई 1857' को 'मेरठ' से माना जाता है, तो क्रान्ति की शुरूआत करने का श्रेय भी उसी व्यक्ति को दिया जा सकता है जिसने 10 मई 1857 के दिन मेरठ में घटित क्रान्तिकारी घटना में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो।

ऐसी सक्रिय क्रान्तिकारी भूमिका अमर शहीद धन सिंह कोतवाल ने 10 मई 1857 के दिन मेरठ में निभाई थी। 10 मई 1857 को मेरठ में विद्रोही सैनिकों और पुलिस फोर्स ने अंग्रेजों के विरूद्ध साझा मोर्चा गठित कर क्रान्तिकारी घटनाओं को अंजाम दिया।1 सैनिकों के विद्रोह की खबर फैलते ही मेरठ की शहरी जनता और आस-पास के गांव विशेषकर पांचली, घाट, नंगला, गगोल इत्यादि के हजारों ग्रामीण मेरठ की सदर कोतवाली क्षेत्र में जमा हो गए। इसी कोतवाली में धन सिंह कोतवाल (प्रभारी) के पद पर कार्यरत थे।2 मेरठ की पुलिस बागी हो चुकी थी। धन सिंह कोतवाल क्रान्तिकारी भीड़ (सैनिक, मेरठ के शहरी, पुलिस और किसान) में एक प्राकृतिक नेता के रूप में उभरे। उनका आकर्षक व्यक्तित्व, उनका स्थानीय होना, (वह मेरठ के निकट स्थित गांव पांचली के रहने वाले थे), पुलिस में उच्च पद पर होना और स्थानीय क्रान्तिकारियों का उनको विश्वास  प्राप्त होना कुछ ऐसे कारक थे जिन्होंने धन सिंह को 10 मई 1857 के दिन मेरठ की क्रान्तिकारी जनता के नेता के रूप में उभरने में मदद की। उन्होंने क्रान्तिकारी भीड़ का नेतृत्व किया और रात दो बजे मेरठ जेल पर हमला कर दिया। जेल तोड़कर 839  कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी।3 जेल से छुड़ाए कैदी भी क्रान्ति में शामिल हो गए। उससे पहले पुलिस फोर्स के नेतृत्व में क्रान्तिकारी भीड़ ने पूरे सदर बाजार और कैंट क्षेत्र में क्रान्तिकारी घटनाओं को अंजाम दिया। रात में ही विद्रोही सैनिक दिल्ली कूच कर गए और विद्रोह मेरठ के देहात में फैल गया।

मंगल पाण्डे 8 अप्रैल, 1857 को बैरकपुर, बंगाल में शहीद हो गए थे। मंगल पाण्डे ने चर्बी वाले कारतूसों के विरोध में अपने एक अफसर को 29 मार्च, 1857 को बैरकपुर छावनी, बंगाल में गोली से उड़ा दिया था। जिसके पश्चात उन्हें गिरफ्तार कर बैरकपुर (बंगाल) में 8 अप्रैल को फासी दे दी गई थी। 10 मई, 1857 को मेरठ में हुए जनक्रान्ति के विस्फोट से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है।

क्रान्ति के दमन के पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने 10 मई, 1857 को मेरठ मे हुई क्रान्तिकारी घटनाओं में पुलिस की भूमिका की जांच के लिए मेजर विलियम्स की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई।4 मेजर विलियम्स ने उस दिन की घटनाओं का भिन्न-भिन्न गवाहियों के आधार पर गहन विवेचन किया तथा इस सम्बन्ध में एक स्मरण-पत्र तैयार किया, जिसके अनुसार उन्होंने मेरठ में जनता की क्रान्तिकारी गतिविधियों के विस्फोट के लिए धन सिंह कोतवाल को मुख्य रूप से दोषी ठहराया, उसका मानना था कि यदि धन सिंह कोतवाल ने अपने कर्तव्य का निर्वाह ठीक प्रकार से किया होता तो संभवतः मेरठ में जनता को भड़कने से रोका जा सकता था।5 धन सिंह कोतवाल को पुलिस नियंत्रण के छिन्न-भिन्न हो जाने के लिए दोषी पाया गया। क्रान्तिकारी घटनाओं से दमित लोगों ने अपनी गवाहियों में सीधे आरोप लगाते हुए कहा कि धन सिंह कोतवाल क्योंकि स्वयं गूजर है इसलिए उसने क्रान्तिकारियों, जिनमें गूजर बहुसंख्या में थे, को नहीं रोका। उन्होंने धन सिंह पर क्रान्तिकारियों को खुला संरक्षण देने का आरोप भी लगाया।6 एक गवाही के अनुसार क्रान्तिकरियों ने कहा कि धन सिंह कोतवाल ने उन्हें स्वयं आस-पास के गांव से बुलाया है।7

यदि मेजर विलियम्स द्वारा ली गई गवाहियों का स्वयं विवेचन किया जाये तो पता चलता है कि 10 मई, 1857 को मेरठ में क्रांति का विस्फोट काई स्वतः विस्फोट नहीं वरन् एक पूर्व योजना के तहत एक निश्चित कार्यवाही थी, जो परिस्थितिवश समय पूर्व ही घटित हो गई। नवम्बर 1858 में मेरठ के कमिश्नर  एफ0 विलियम द्वारा इसी सिलसिले से एक रिपोर्ट नोर्थ - वैस्टर्न प्रान्त (आधुनिक उत्तर प्रदेश) सरकार के सचिव को भेजी गई। रिपोर्ट के अनुसार मेरठ की सैनिक छावनी में ”चर्बी वाले कारतूस और हड्डियों के चूर्ण वाले आटे की बात“ बड़ी सावधानी पूर्वक फैलाई गई थी। रिपोर्ट में अयोध्या से आये एक साधु की संदिग्ध भूमिका की ओर भी इशारा किया गया था।8 विद्रोही सैनिक, मेरठ शहर की पुलिस, तथा जनता और आस-पास के गांव के ग्रामीण इस साधु के सम्पर्क में थे। मेरठ के आर्य समाजी, इतिहासज्ञ एवं स्वतन्त्रता सेनानी आचार्य दीपांकर के अनुसार यह साधु स्वयं दयानन्द जी थे और वही मेरठ में 10 मई, 1857 की घटनाओं के सूत्रधार थे। मेजर विलियम्स को दो गयी गवाही के अनुसार कोतवाल स्वयं इस साधु से उसके सूरजकुण्ड स्थित ठिकाने पर मिले थे।9 हो सकता है ऊपरी तौर पर यह कोतवाल की सरकारी भेंट हो, परन्तु दोनों के आपस में सम्पर्क होने की बात से इंकार नहीं किया जा सकता। वास्तव में कोतवाल सहित पूरी पुलिस फोर्स इस योजना में साधु (सम्भवतः स्वामी दयानन्द) के साथ देशव्यापी क्रान्तिकारी योजना में शामिल हो चुकी थी। 10 मई को जैसा कि इस रिपोर्ट में बताया गया कि सभी सैनिकों ने एक साथ मेरठ में सभी स्थानों पर विद्रोह कर दिया। ठीक उसी समय सदर बाजार की भीड़, जो पहले से ही हथियारों से लैस होकर इस घटना के लिए तैयार थी, ने भी अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियां शुरू कर दीं। धन सिंह कोतवाल ने योजना के अनुसार बड़ी चतुराई से ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार पुलिस कर्मियों को कोतवाली के भीतर चले जाने और वहीं रहने का आदेश दिया।10 आदेश का पालन करते हुए अंगे्रजों के वफादार पिट्ठू पुलिसकर्मी क्रान्ति के दौरान कोतवाली में ही बैठे रहे। इस प्रकार अंग्रेजों के वफादारों की तरफ से क्रान्तिकारियों को रोकने का प्रयास नहीं हो सका, दूसरी तरफ उसने क्रान्तिकारी योजना से सहमत सिपाहियों को क्रान्ति में अग्रणी भूमिका निभाने का गुप्त आदेश दिया, फलस्वरूप उस दिन कई जगह पुलिस वालों को क्रान्तिकारियों की भीड़ का नेतृत्व करते देखा गया।11 धन सिंह कोतवाल अपने गांव पांचली और आस-पास के क्रान्तिकारी गूजर बाहुल्य गांव घाट, नंगला, गगोल आदि की जनता के सम्पर्क में थे, धन सिंह कोतवाल का संदेश मिलते ही हजारों की संख्या में गूजर क्रान्तिकारी रात में मेरठ पहुंच गये। मेरठ के आस-पास के गांवों में प्रचलित किवंदन्ती के अनुसार इस क्रान्तिकारी भीड़ ने धन सिंह कोतवाल के नेतृत्व में देर रात दो बजे जेल तोड़कर 839 कैदियों को छुड़ा लिया12 और जेल को आग लगा दी। मेरठ शहर और कैंट में जो कुछ भी अंग्रेजों से सम्बन्धित था उसे यह क्रान्तिकारियों की भीड़ पहले ही नष्ट कर चुकी थी।

उपरोक्त वर्णन और विवेचना के आधार पर हम निःसन्देह कह सकते हैं कि धन सिंह कोतवाल ने 10 मई, 1857 के दिन मेरठ में मुख्य भूमिका का निर्वाह करते हुए क्रान्तिकारियों को नेतृत्व प्रदान किया था।
1857 की क्रान्ति की औपनिवेशिक व्याख्या, (ब्रिटिश साम्राज्यवादी इतिहासकारों की व्याख्या), के अनुसार 1857 का गदर मात्र एक सैनिक विद्रोह था जिसका कारण मात्र सैनिक असंतोष था। इन इतिहासकारों का मानना है कि सैनिक विद्रोहियों को कहीं भी जनप्रिय समर्थन प्राप्त नहीं था। ऐसा कहकर वह यह जताना चाहते हैं कि ब्रिटिश  शासन निर्दोष था और आम जनता उससे सन्तुष्ट थी। अंग्रेज इतिहासकारों, जिनमें जौन लोरेंस  और सीले प्रमुख हैं ने भी 1857 के गदर को मात्र एक सैनिक विद्रोह माना है, इनका निष्कर्ष है कि 1857 के विद्रोह को कही भी जनप्रिय समर्थन प्राप्त नहीं था, इसलिए इसे स्वतन्त्रता संग्राम नहीं कहा जा सकता। राष्ट्रवादी इतिहासकार वी0 डी0 सावरकर और सब-आल्टरन इतिहासकार रंजीत गुहा ने 1857 की क्रान्ति की साम्राज्यवादी व्याख्या का खंडन करते हुए उन क्रान्तिकारी घटनाओं का वर्णन किया है, जिनमें कि जनता ने क्रान्ति में व्यापक स्तर पर भाग लिया था, इन घटनाओं का वर्णन मेरठ में जनता की सहभागिता से ही शुरू हो जाता है। समस्त पश्चिम उत्तर प्रदेश  के बन्जारो, रांघड़ों और गूजर किसानों ने 1857 की क्रान्ति में व्यापक स्तर पर भाग लिया। पूर्वी उत्तर प्रदेश  में ताल्लुकदारों ने अग्रणी भूमिका निभाई। बुनकरों और कारीगरों ने अनेक स्थानों पर क्रान्ति में भाग लिया। 1857 की क्रान्ति के व्यापक आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक कारण थे और विद्रोही जनता के हर वर्ग से आये थे, ऐसा अब आधुनिक इतिहासकार सिद्ध कर चुके हैं। अतः 1857 का गदर मात्र एक सैनिक विद्रोह नहीं वरन् जनसहभागिता से पूर्ण एक राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम था। परन्तु 1857 में जनसहभागिता की शुरूआत कहाँ और किसके नेतृत्व में हुई ? इस जनसहभागिता की शुरूआत के स्थान और इसमें सहभागिता प्रदर्शित वाले लोगों को ही 1857 की क्रान्ति का जनक कहा जा सकता है। क्योंकि 1857 की क्रान्ति में जनता की सहभागिता की शुरूआत धन सिंह कोतवाल के नेतृत्व में मेरठ की जनता ने की थी। अतः ये ही 1857 की क्रान्ति के जनक कहे जा सकते हैं।

10, मई 1857 को मेरठ में जो महत्वपूर्ण भूमिका धन सिंह और उनके अपने ग्राम पांचली के भाई बन्धुओं ने निभाई उसकी पृष्ठभूमि में अंग्रेजों के जुल्म की दास्तान छुपी हुई है। ब्रिटिश साम्राज्य की औपनिवेशिक  अर्थव्यवस्था की कृषि नीति का मुख्य उद्देश्य सिर्फ अधिक से अधिक लगान वसूलना था। पश्चिमी  उत्तर प्रदेश में अंग्रेजों ने महलवाड़ी व्यवस्था लागू की थी, जिसके तहत समस्त ग्राम से इकट्ठा लगान तय किया जाता था और मुखिया अथवा लम्बरदार लगान वसूलकर सरकार को देता था। लगान की दरें बहुत ऊंची थी, और उसे बड़ी कठोरता से वसूला जाता था। कर न दे पाने पर किसानों को तरह-तरह से बेइज्जत करना, कोड़े मारना और उन्हें जमीनों से बेदखल करना एक आम बात थी, किसानों की हालत बद से बदतर हो गई थी। धन सिंह कोतवाल भी एक किसान परिवार से सम्बन्धित थे। किसानों के इन हालातों से वे बहुत दुखी थे। धन सिंह के पिता पांचली ग्राम के मुखिया थे, अतः अंग्रेज पांचली के उन ग्रामीणों को जो किसी कारणवश लगान नहीं दे पाते थे, उन्हें धन सिंह के अहाते में कठोर सजा दिया करते थे, बचपन से ही इन घटनाओं को देखकर धन सिंह के मन में आक्रोष जन्म लेने लगा।13 ग्रामीणों के दिलो दिमाग में ब्रिटिष विरोध लावे की तरह धधक रहा था।
1857 की क्रान्ति में धन सिंह और उनके ग्राम पांचली की भूमिका का विवेचन करते हुए हम यह नहीं भूल सकते कि धन सिंह गूजर जाति में जन्में थे, उनका गांव गूजर बहुल था। 1707 ई0 में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात गूजरों ने पश्चिम उत्तर प्रदेश में अपनी राजनैतिक ताकत काफी बढ़ा ली थी।14 लढ़ौरा, मुण्डलाना, टिमली, परीक्षितगढ़, दादरी, समथर-लौहा गढ़, कुंजा बहादुरपुर इत्यादि रियासतें कायम कर वे पश्चिमी  उत्तर प्रदेश में एक गूजर राज्य बनाने के सपने देखने लगे थे।15 1803 में अंग्रेजों द्वारा दोआबा पर अधिकार करने के वाद गूजरों की शक्ति क्षीण हो गई थी, गूजर मन ही मन अपनी राजनैतिक शक्ति को पुनः पाने के लिये आतुर थे, इस दषा में प्रयास करते हुए गूजरों ने सर्वप्रथम 1824 में कुंजा बहादुरपुर के ताल्लुकदार विजय सिंह और कल्याण सिंह उर्फ कलवा गूजर के नेतृत्व में सहारनपुर में जोरदार विद्रोह किये।16 पश्चिमी  उत्तर प्रदेष के गूजरों ने इस विद्रोह में प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया परन्तु यह प्रयास सफल नहीं हो सका। 1857 के सैनिक विद्रोह ने उन्हें एक और अवसर प्रदान कर दिया। समस्त पश्चिमी उत्तर प्रदेष में देहरादून से लेकिन दिल्ली तक, मुरादाबाद, बिजनौर, आगरा, झांसी तक। पंजाब, राजस्थान से लेकर महाराष्ट्र तक के गूजर इस स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े। हजारों की संख्या में गूजर शहीद हुए और लाखों गूजरों को ब्रिटेन के दूसरे उपनिवेषों में कृषि मजदूर के रूप में निर्वासित कर दिया। इस प्रकार धन सिंह और पांचली, घाट, नंगला और गगोल ग्रामों के गूजरों का संघर्ष गूजरों के देशव्यापी ब्रिटिष विरोध का हिस्सा था। यह तो बस एक शुरूआत थी।

1857 की क्रान्ति के कुछ समय पूर्व की एक घटना ने भी धन सिंह और ग्रामवासियों को अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए प्रेरित किया। पांचली और उसके निकट के ग्रामों में प्रचलित किंवदन्ती के अनुसार घटना इस प्रकार है, ”अप्रैल का महीना था। किसान अपनी फसलों को उठाने में लगे हुए थे। एक दिन करीब 10 11 बजे के आस-पास बजे दो अंग्रेज तथा एक मेम पांचली खुर्द के आमों के बाग में थोड़ा आराम करने के लिए रूके। इसी बाग के समीप पांचली गांव के तीन किसान जिनके नाम मंगत सिंह, नरपत सिंह और झज्जड़ सिंह (अथवा भज्जड़ सिंह) थे, कृषि कार्यो में लगे थे। अंग्रेजों ने इन किसानों से पानी पिलाने का आग्रह किया। अज्ञात कारणों से इन किसानों और अंग्रेजों में संघर्ष हो गया। इन किसानों ने अंग्रेजों का वीरतापूर्वक सामना कर एक अंग्रेज और मेम को पकड़ दिया। एक अंग्रेज भागने में सफल रहा। पकड़े गए अंग्रेज सिपाही को इन्होंने हाथ-पैर बांधकर गर्म रेत में डाल दिया और मेम से बलपूर्वक दायं हंकवाई। दो घंटे बाद भागा हुआ सिपाही एक अंग्रेज अधिकारी और 25-30 सिपाहियों के साथ वापस लौटा। तब तक किसान अंग्रेज सैनिकों से छीने हुए हथियारों, जिनमें एक सोने की मूठ वाली तलवार भी थी, को लेकर भाग चुके थे। अंग्रेजों की दण्ड नीति बहुत कठोर थी, इस घटना की जांच करने और दोषियों को गिरफ्तार कर अंग्रेजों को सौंपने की जिम्मेदारी धन सिंह के पिता, जो कि गांव के मुखिया थे, को सौंपी गई। ऐलान किया गया कि यदि मुखिया ने तीनों बागियों को पकड़कर अंग्रेजों को नहीं सौपा तो सजा गांव वालों और मुखिया को भुगतनी पड़ेगी। बहुत से ग्रामवासी भयवश  गाँव से पलायन कर गए। अन्ततः नरपत सिंह और झज्जड़ सिंह ने तो समर्पण कर दिया किन्तु मंगत सिंह फरार ही रहे। दोनों किसानों को 30-30 कोड़े और जमीन से बेदखली की सजा दी गई। फरार मंगत सिंह के परिवार के तीन सदस्यों के गांव के समीप ही फांसी पर लटका दिया गया। धन सिंह के पिता को मंगत सिंह को न ढूंढ पाने के कारण छः माह के कठोर कारावास की सजा दी गई। इस घटना ने धन सिंह सहित पांचली के बच्चे-बच्चे को विद्रोही बना दिया।17 जैसे ही 10 मई को मेरठ में सैनिक बगावत हुई धन सिंह और ने क्रान्ति में सहभागिता की शुरूआत कर इतिहास रच दिया।

क्रान्ति मे अग्रणी भूमिका निभाने की सजा पांचली व अन्य ग्रामों के किसानों को मिली। मेरठ गजेटियर केवर्णन के अनुसार 4 जुलाई, 1857 को प्रातः चार बजे पांचली पर एक अंग्रेज रिसाले ने तोपों से हमला किया। रिसाले में 56 घुड़सवार, 38 पैदल सिपाही और 10 तोपची थे। पूरे ग्राम को तोप से उड़ा दिया गया। सैकड़ों किसान मारे गए, जो बच गए उनमें से 46 लोग कैद कर लिए गए और इनमें से 40 को बाद में फांसी की सजा दे दी गई।18 आचार्य दीपांकर द्वारा रचित पुस्तक स्वाधीनता आन्दोलन और मेरठ के अनुसार पांचली के 80 लोगों को फांसी की सजा दी गई थी। पूरे गांव को लगभग नष्ट ही कर दिया गया। ग्राम गगोल के भी 9 लोगों को दशहरे के दिन फाँसी की सजा दी गई और पूरे ग्राम को नष्ट कर दिया। आज भी इस ग्राम में दश्हरा नहीं मनाया जाता।

संदर्भ एवं टिप्पणी

1. मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर, गवर्नमेन्ट प्रेस, 1963 पृष्ठ संख्या 52
2. वही
3. पांचली, घाट, गगोल आदि ग्रामों में प्रचलित किवदन्ती, बिन्दु क्रमांक 191, नैरेटिव ऑफ इवेन्टस अटैन्डिग द आऊट ब्रैक ऑफ डिस्टरबैन्सिस एण्ड दे रेस्टोरेशन ऑफ औथरिटी इन डिस्ट्रिक्ट मेरठ 1857-58, नवम्बर 406, दिनांक 15 नवम्बर 1858, फ्राम एफ0 विलयम्बस म्.59 सैकेट्री टू गवर्नमेंट नार्थ-वैस्टर्न प्राविन्स, इलाहाबाद, राष्ट्रीय अभिलेखागार, दिल्ली।
आचार्य दीपांकर, स्वाधीनता संग्राम और मेरठ, 1993 पृष्ठ संख्या 143
4. वही, नैरेटिव इन डिस्ट्रिक्ट मेरठ।
5. मैमोरेन्डम ऑन द म्यूंटनी एण्ड आऊटब्रेक ऐट मेरठ इन मई 1857, बाई मेजर विलयम्स, कमिश्नर  ऑफ द मिलेट्री पुलिस, नार्थ-वेस्टर्न प्राविन्सिस, इलाहाबाद, 15 नवम्बर 1858; जे0ए0बी0 पामर, म्यूटनी आऊटब्रेक एट मेरठ, पृष्ठ संख्या 90-91।
6. डेपाजिशन नम्बर 54, 56, 59 एवं 60, आफ डेपाजिशन टेकन एट मेरठ बाई जी0 डबल्यू0 विलयम्बस, वही म्यूटनी नैरेटिव इन डिस्ट्रिक्ट मेरठ।
7. वही, डेपाजिशन नम्बर 66
8. वही, बिन्दु क्रमांक 152, म्यूटनी नैरेटिव इन मेरठ डिस्ट्रिक्ट।
9. वहीं, डेपाजिशन नम्बर 8
10. वही, सौन्ता सिंह की गवाही।
11. वही, डेपाजिशन संख्या 22, 23, 24, 25 एवं 26।
12. वही, बिन्दु क्रमांक 191, नैरेटिव इन मेरठ डिस्ट्रिक्ट; पांचली, नंगला, घाट, गगोल आदि ग्रामों में प्रचलित किंवदन्ती।
13. वही किंवदन्ती।
14. नेविल, सहारनपुर ए गजेटेयर, 1857 की घटना से सम्बंधित पृष्ठ।
15. मेरठ के मजिस्ट्रेट डनलप द्वारा मेजर जनरल हैविट कमिश्नर मेरठ को 28 जून 1857 को लिखा पत्र, एस0ए0ए0 रिजवी, फ्रीडम स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश्, खण्ड टए लखनऊ, 1960 पृष्ठ संख्या 107-110।
16. नेविल, वही; एच0जी0 वाटसन, देहरादून गजेटेयर के सम्बन्धित पृष्ठ।
17. वही, किंवदन्ती यह किवदन्ती पांचली ग्राम के खजान सिंह, उम्र 90 वर्ष के साक्षात्कार पर आधारित है।
18. बिन्दु क्रमांक 265, 266, 267, वही, नैरटिव इन डिस्ट्रिक्ट मेरठ।
                                                   
संदर्भ ग्रन्थ

1. आचार्य दीपांकर, स्वाधीनता संग्राम और मेरठ, जनमत प्रकाषन, मेरठ 1993
2. मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर, गवर्नमेनट प्रैस, इलाहाबाद, 1963
3. मयराष्ट्र मानस, मेरठ।
4. रमेश चन्द्र मजूमदार, द सिपोय म्यूटनी एण्ड रिवोल्ट ऑफ 1857
5. एस0 बी0 चैधरी, सिविल रिबैलयन इन इण्डियन म्यूटनीज 1857-59
6. एस0 एन0-सेन, 1857
7. पी0सी0 जोशी रिबैलयन 1857।
8. एरिक स्ट्रोक्स, द पीजेण्ट एण्ड द राज।
9. जे0ए0बी0 पामर, द म्यूटनी आउटब्रेक एट मेरठ
                                                                                                                           ( Dr. Sushil Bhati )



शिलालेख- 1857 की जनक्रांति के जनक धन सिंह कोतवाल का इतिहास







Monday, October 29, 2012

क्रान्तिवीर नरपत सिंह एवं अकलपुरा का बलिदान ( Akalpura Ka Balidan )

डा . सुशील भाटी

18 मई 1857 को बडौत में क्रान्तिकारियों से घमासान लडाई के बाद अंग्रेजो ने सरधना की तरफ रूख किया। यहाँ अकलपुरा गांव के जमीदार नरपत सिंह की अगुआई में आस-पास के लोगो ने क्रान्ति का झण्डा बुलन्द कर रखा था। 10 मई को नरपत सिंह के नेतृत्व में अकलपुरा के राजपूतों और आसपास के रांघडो ने सरधना तहसील पर हमला कर दिया। लेकिन नरपत सिंह के एक रिश्तेदार जमीदार ने तहसील पर होने वाले हमले की जानकारी तहसीलदार को पहले ही दे दी थी। तहसीलदार ने खजाने के रक्षकों को सावधान कर दिया। तहसील के हाते में हुई इस लडाई में 15 क्रान्तिकारी शहीद हो गए। परन्तु क्रान्तिकारियों ने सरधने के बाजार के अंग्रेज परस्त व्यापारियों को लूट लिया और उन पर दैनिक जुर्माना लगा दिया। क्रान्तिकारियों हमले से भयभीत सरधना चर्च की नन और अन्य यूरोपियन मि0 मूर के नेतृत्व में मेरठ भाग आये।

खाकी रिसाला, जब 21 जुलाई 1857 को सरधना पहुँचा तो उन्होंने देखा कि बेगम समरू का महल और विशाल चर्च अक्षुण खडे है। खाकी रिसाले ने बेगम समरू के महल में डेरा डाल दिया। अंग्रेज कलैक्टर डनलप ने आस-पास के गाँवो में हरकारे भेजकर लगान जमा करने के लिए कहा। जब अंग्रेजो का एजेण्ट अकलपुरा पहुँचा तो नरपत सिंह ने विद्रोही सुर मे उसे धमकाते हुए कहा कि जिला अधिकारी या तहसीलदार कौन होते है उनसे लगान मांगने वाले? यदि फिर कभी यहाँ आया तो जान से मार देगें! नरपत सिंह का जवाब जानकर अंग्रेज आग बबूला हो गए और उन्हौनें तुरन्त अकलपुरा पर चढ़ाई कर दी।

22 जुलाई को खाकी रिसाला अकलपुरा पहुँच गया और  गांव  को चारो तरफ से घेर लिया।क्रांतिकारी  भी तैयार थे। रात में ही औरतों और बच्चों को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया गया था। अंग्रेजो की गोली का जवाब गोली से दिया गया। क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजो को  गांव  में घुसने नहीं दिया। इस पर अंग्रेजो ने तोपो से गोलाबारी की और गांव में घुसने में कामयाब हो गए। क्रान्तिकारी नरपत सिंह के घर के आस-पास मोर्चा जमाए हुये थे। परन्तु आधुनिक हथियारों के सामने वे टिक न सकें। गांव  मे जो भी आदमी मिला अंग्रेजो ने उसे गोली से उडा दिया। सैकडो क्रान्तिकारी शहीद हो गए।

उनके शव जहाँ-तहाँ पडे थे उनमे से एक सुन्दर और सुडोल शव नरपत सिंह का भी था।

 संदर्भ

1.  डनलप, सर्विस एण्ड एडवैन्चर ऑफ खाकी रिसाला इन इण्डिया इन 1857-58।
2.  नैरेटिव ऑफ  इवैनटस अटैन्डिग दि आउटब्रेक ऑफ डिस्टरबैन्सिस एण्ड रैस्टोरशन ऑफ  ऑथोरिटी  इन दि डिस्ट्रिक्ट ऑफ  मेरठ इन 1857-58।
3. एरिक स्ट्रोक, पीजेन्ट आम्र्ड।
4.  एस0 ए0 ए0 रिजवी, फीड स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश खण्ड-5
5. ई0 बी0 जोशी, मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर।
                                                                                                  ( Dr. Sushil Bhati )

मेरठ के क्रान्तिकारियों का सरताज राव कदम सिंह ( Rao Kadam Singh )

 डा. सुशील भाटी

1857 ई0 के स्वतंत्रता संग्राम मे राव कदम सिंह मेरठ के पूर्वी क्षेत्र में क्रान्तिकारियों का नेता था। उसके साथ दस हजार क्रान्तिकारी थे, जो कि प्रमुख रूप से मवाना, हिस्तानपुर और बहसूमा क्षेत्र के थे। ये क्रान्तिकारी कफन के प्रतीक के तौर पर सिर पर सफेद पगड़ी बांध कर चलते थे।

मेरठ के तत्कालीन कलक्टर आर0 एच0 डनलप द्वारा मेजर जनरल हैविट को 28 जून 1857 को लिखे पत्र से पता चलता है कि क्रान्तिकारियों ने पूरे जिले में खुलकर विद्रोह कर दिया और परीक्षतगढ़ के राव कदम सिंह को पूर्वी परगने का राजा घोषित कर दिया। राव कदम सिंह और दलेल सिंह के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने परीक्षतगढ़ की पुलिस पर हमला बोल दिया और उसे मेरठ तक खदेड दिया। उसके बाद, अंग्रेजो से सम्भावित युद्व की तैयारी में परीक्षतगढ़ के किले पर तीन तोपे चढ़ा दी। ये तोपे तब से किले में ही दबी पडी थी जब सन् 1803 में अंग्रेजो ने दोआब में अपनी सत्ता जमाई थी। इसके बाद हिम्मतपुर ओर बुकलाना के क्रान्तिकारियों ने राव कदम सिंह के नेतृत्व में गठित क्रान्तिकारी सरकार की स्थापना के लिए अंग्रेज परस्त गाॅवों पर हमला बोल दिया और बहुत से गद्दारों को मौत के घाट उतार दिया। क्रान्तिकारियों ने इन गांव से जबरन लगान वसूला।

राव कदम सिंह बहसूमा परीक्षतगढ़ रियासत के अंतिम राजा नैन सिंह के भाई का पौत्र था। राजा नैन सिंह के समय रियासत में 349 गांव थे और इसका क्षेत्रफल लगभग 800 वर्ग मील था। 1818 में नैन सिंह के मृत्यू के बाद अंग्रेजो ने रियासत पर कब्जा कर लिया था। इस क्षेत्र के लोग पुनः अपना राज चाहते थे, इसलिए क्रान्तिकारियों ने कदम सिंह को अपना राजा घोषित कर दिया।

10 मई 1857 को मेरठ में हुए सैनिक विद्रोह की खबर फैलते ही मेरठ के पूर्वी क्षेत्र में क्रान्तिकारियों ने राव कदम सिंह के निर्देश पर सभी सड़के रोक दी और अंग्रेजों के यातायात और संचार को ठप कर दिया। मार्ग से निकलने वाले सभी यूरोपियनो  को लूट लिया। मवाना-हस्तिनापुर के क्रान्तिकारियों ने राव कदम सिंह के भाई दलेल सिंह, पिर्थी सिंह और देवी सिंह के नेतृत्व में बिजनौर के विद्रोहियों के साथ साझा मोर्चा गठित किया और बिजनौर के मण्डावर, दारानगर और धनौरा क्षेत्र में धावे मारकर वहाँ अंग्रेजी राज को हिला दिया। इनकी अगली योजना मण्डावर के क्रान्तिकारियों के साथ बिजनौर पर हमला करने की थी। मेरठ और बिजनौर दोनो ओर के घाटो, विशेषकर दारानगर और रावली घाट, पर राव कदमसिंह का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। ऐसा प्रतीत होता है कि कदम सिंह विद्रोही हो चुकी बरेली बिग्रेड के नेता बख्त खान के सम्पर्क में था क्योकि उसके समर्थकों ने ही बरेली बिग्रेड को गंगा पर करने के लिए नावे उपलब्ध कराई थी। इससे पहले अंग्रेजो ने बरेली के विद्रोहियों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए गढ़मुक्तेश्वर के नावो के पुल को तोड दिया था।

27 जून 1857 को बरेली बिग्रेड का बिना अंग्रेजी विरोध के गंगा पार कर दिल्ली चले जाना खुले विद्रोह का संकेत था। जहाँ बुलन्दशहर मे विद्रोहियों का नेता वलीदाद खान वहाँ का स्वामी बन बैठा, वही मेरठ में क्रान्तिकारियों ने कदम सिंह को राजा घोषित किया और खुलकर विद्रोह कर दिया। 28 जून 1857 को मेजर नरल हैविट को लिखे पत्र में कलक्टर डनलप ने मेरठ के हालातो पर चर्चा करते हुये लिखा कि यदि हमने शत्रुओ को सजा देने और अपने दोस्तों की मदद करने के लिए जोरदार कदम नहीं उठाए तो जनता हमारा पूरी तरह साथ छोड़ देगी और आज का सैनिक और जनता का विद्रोह कल व्यापक क्रान्ति में परिवर्तित हो जायेगा।

मेरठ के क्रान्तिकारी हालातो पर काबू पाने के लिए अंग्रेजो ने मेजर विलयम्स के नेतृत्व में खाकी रिसाले का गठन किया। जिसने 4 जुलाई 1857 को पहला हमला पांचली गांव पर किया। इस घटना के बाद राव कदम सिंह ने परीक्षतगढ़ छोड दिया और बहसूमा में मोर्चा लगाया, जहाँ गंगा खादर से उन्होने अंग्रेजो के खिलाफ लडाई जारी रखी।

18 सितम्बर को  राव कदम सिंह के समर्थक क्रान्तिकारियों ने मवाना पर हमला बोल दिया और तहसील को घेर लिया। खाकी रिसाले के वहाँ पहुचने के कारण क्रान्तिकारियों को पीछे हटना पडा। 20 सितम्बर को अंग्रेजो ने दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। हालातों को देखते हुये राव कदम सिंह एवं दलेल सिंह अपने हजारो समर्थको के साथ गंगा के पार बिजनौर चले गए जहाँ नवाब महमूद खान के नेतृत्व में अभी भी क्रान्तिकारी सरकार चल रही थी। थाना भवन के काजी इनायत अली और दिल्ली से तीन मुगल शहजादे भी भाग कर बिजनौर पहुँच गए।

राव कदम सिंह आदि के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने बिजनौर से नदी पार कर कई अभियान किये। उन्होने रंजीतपुर मे हमला बोलकर अंग्रेजो के घोडे छीन लिये। 5 जनवरी 1858 को नदी पार कर मीरापुर मुज़फ्फरनगर मे पुलिस थाने को आग लगा दी। इसके बाद हरिद्वार क्षेत्र में मायापुर गंगा नहर चौकी पर हमला बोल दिया। कनखल में अंग्रेजो के बंगले जला दिये। इन अभियानों से उत्साहित होकर नवाब महमूद खान ने कदम सिंह एवं दलेल सिंह आदि के साथ मेरठ पर आक्रमण करने की योजना बनाई परन्तु उससे पहले ही 28 अप्रैल 1858 को बिजनौर में क्रान्तिकारियों की हार हो गई और अंग्रेजो ने नवाब को रामपुर के पास से गिरफ्तार कर लिया। उसके बाद बरेली मे मे भी क्रान्तिकारी हार गए। कदम सिंह एवं दलेल सिंह का उसके बाद क्या हुआ कुछ पता नही चलता।

                                                                        संदर्भ

1. डनलप, सर्विस एण्ड एडवैन्चर ऑफ खाकी रिसाला इन इण्डिया इन 1857-58।
2. नैरेटिव ऑफ इवैनटस अटैन्डिग दि आउटब्रेक ऑफ डिस्टरबैन्सिस एण्ड रैस्टोरशन ऑफ अथारिटी इन               दि डिस्ट्रिक्ट ऑफ मेरठ इन 1857-58।
3. एरिक स्ट्रोक, पीजेन्ट आम्र्ड।
4. एस0 ए0 ए0 रिजवी, फीड स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश खण्ड-5
5. ई0 बी0 जोशी, मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर।
( Dr. Sushil Bhati )

अमर क्रान्तिकारी बाबा शाहमल सिंह ( Baba Shahmal Singh)

 डा सुशील भाटी 

Baba Shahmal Singh

सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में 4 जुलाई को पांचली और 9 जुलाई को सीकरी में हुई शहादत के बाद, मेरठ के आसपास माहौल कुछ शान्त हुआ, तो अंग्रेजों पश्चिम की ओर मुडे जिससे कि वे दिल्ली की फील्ड फोर्स के साथ अपने संचार को सुरक्षित कर सकें। बागपत में यमुना पर बना नावों का पुल इस मायने में बहुत महत्वपूर्ण था। बाबा शाहमल मेरठ के पश्चिमी क्षेत्र बागपत . बडौत में क्रान्तिकारियांे के सर्वमान्य नेता थे, उनके निर्देश पर 3 हजार गूजरों ने 21 जून 1857 को बागपत के यमुना पुल को तोड दिया। जींद का राजा जो कि अंग्रेजों का सहयोगी था, उसके सैनिकों ने फिर से इस पुल का निर्माण किया परन्तु 27 जून को दिल्ली से आये विद्रोही सैनिकों और गूजरों नेे इसे फिर तोड दिया। इस प्रकार मेरठ और दिल्ली के बीच अंग्रेजों का सम्पर्क भंग हो गया था।    

 बाबा शाहमल बिजरोल गांव का मावी जाट जंमीदार था। इससे पहले भी वह बेगम समरू के समय किसानो के हको के लिये बगावत कर चुका था। मेरठ में सैनिक विद्रोह के तुरन्त बाद बागपत.बडौत क्षेत्र के लोगों ने बाबा शाहमल को क्रान्ति का नेता चुन लिया। 10 मई की रात में ही मेरठ जेल से छूटे हूए लोग, बाबा शाहमल के गांव पहुच गये 11 मई को निबाली गांव में चौधरी गुलाब सिंह के घेर में एक पंचायत हुई। जिसमें बाबा शाहमल के अतिरिक्त बाघू के अचल सिंह और निबाली के माधू सिंह प्रमुख रूप से उपस्थित थे। इस पंचायत में सिसाना, बाघू, बली, खट्टादृडोला, टीकरी, सिंगावली, सैढभर, बालैनी, बूढ सैनी आदि गांवों के किसानों की उत्साही भीड इक्कठी हो गई। पंचायत में धाट पांचली से आये विद्राही भी थे। इस पंचायत में बाबा शाहमल को क्रान्तिकारियों ने अपना सर्वमान्य नेता चुना और उनके एक इशारे पर जान की बाजी लडा देने का आश्वासन दिया।     

अगले ही दिन बाबा शाहमल ने बंजारों के एक कारवां पर हमला कर 500 खच्चरो पर लदा सामान अपने कब्जे में ले लिया। उसके तुरन्त बाद बडौत तहसील पर घावा बोल इसे नेस्तनाबूत कर दिया और बाजार को लूट लिया। इस धावे में अहैडा गांव के क्रान्तिकारी शाहमल सिंह के साथ थे। इस घटना के बाद बाबा शाहमल को मुगल बादशाह ने बागपत बडौत परगने को सूबेदार बना दिया। मई जून के महीने में बावली आदि गांवों के जाट भी उसके साथ जुड गये। मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर के अनुसार मीतल के नेतृत्व में 800 गूजरों ने बागपत पर हमला कर दिया। बागपत के लोगों ने आरम्भ में प्रतिरोघ किया और मीतल घायल हो गया। अततः जबरदस्त संघर्ष के बाद बागपत के लोगों ने बाबा शाहमल की सत्ता को स्वीकार कर लिया।     

बागपत बडौत क्षेत्र में दिन पर दिन फैलते विद्रोह ने अंग्रेजों की चिन्ता बढ दी। बागपत में नावों का पुंल टूटने के अतिरिक्त एक बात जिसने अंग्रेजो  की मुश्किलों को सबसे ज्यादा बढा दिया वह यह थी कि बागपत बडौत क्षेत्र से लगातार, अनाज आदि रसद इक्कठा करके दिल्ली के विद्रोहियो को भेजी जा रही थी। इस रसद की आपूर्ति के बिना दिल्ली के विद्रोही क्रान्तिकारी अधिक दिन तक नही टिक सकते थे।     

इस स्थिति में अंग्रेज और अधिक दिन तक बाबा शाहमल की तरफ से बेपरवाह नहीं रह सकते थे। 16 जुलाई को खाकी रिसाले ने डनलप के नेतृत्व में बागपत क्षेत्र के लिये मार्च किया। रिसाले में लगभग 200 सिपाही थे, जिसमे 2 तोप, 8 गोलन्दाज, 40 राइफल धारी, 50 घुडसवार, 27 नजीब एव अन्य सिपाही थे। जब रिसाला हिन्डन के पास पहुचा तो उन्हे पता चला कि शाहमल सिंह अपने 3000 साथियों के साथ बासौद गांव मे है और अंग्रेजों के सहयोगी गांव डोला पर कल सुबह हमला करने वाले हैं। अंग्रेज 17 जुलाई की भौर में बासौद पहुॅच गये। लेकिन तब तक बाबा शाहमल अपने साथियों के साथ जा चुके थे। अंग्रेजों को बासौद में 8000 मन गेहूंदृदाल आदि मिला जो दिल्ली क विद्रोहियों को भेजा जाने वाले था। अंग्रेजों को गांव में जो भी मिला उसे गोली मार दी या फिर तलवार से काट दिया और गांव को आग के हवाले कर दिया। मुस्लिम गांव बासौद में लगभग 150 व्यक्ति शहीद हुए।


 18 जुलाई की सुबह खाकी रिसाला डौला से पूर्वी यमुना नहर के किनारे किनारे बडौत की तरफ चल दिया। यह रास्ता जाटों की सलकलैन गौत्र के चौरासी गांवों की तरफ जाता है, इसे लोग चैरासी देस कहते है। डनलप कुछ सहयोगियों के साथ बर्का गांव में पहुचा, तो लोगों ने उन्हे चेेताया कि जितनी तेज भाग सकते हो भाग कर अपनी जान बचा लो क्योंकि शाहमल सिंह ने अपने साथ चैरासी देस को खडा कर लिया है। तभी शाहमल सिंह का भतीजा भगत सिंह उर्फ भगता अपने साथियों के साथ वहाँ पहुच गया और उसके साथ एक छोटे से मुकाबले में डनलप की जान पर बन आई और वह अपनी जान बचाने के लिए बडौत की तरफ भाग लिया। भगता ने उसका बडौत तक पीछा किया। अंगे्रजो ने देखा कि पूरा क्षेत्र उनके खिलाफ खडा हो गया है। चारों तरफ ढोल नगाडे बज रहे थे और हथियारबन्द लोगों के झुण्ड के झुण्ड बडौत की तरफ बढ रहे थे।        

बडौत में क्रान्तिकारियों ने एक बाग में मोर्चा लगा रखा था, करीब 3500 क्रान्तिकारी बाबा शाहमल के साथ वहां अंग्रेजों से भिडने को तैयार थे। भारतीय बहादुरी से लडे परन्तु भारतीयों की देशी बंदूकें अंग्रेजी राइफलांे और तोपों का मुकाबला न कर सकी। भारतीय जान हथेली पर लेकर लडे पर विजय आघुनिक हथियारों की हुई। इस लडाई में करीब 200 भारतीय शहीद हुए। जिनमें बाबा शाहमल भी थे, जिन्हे एक अंग्रेज मि. तोन्नाकी ने दो भारतीय सिपाहियों की मदद से मारा था।     
अंग्रेजों ने बाबा शाहमल का सिर काट कर एक लम्बे भाले पर लटका दिया। बाबा का सिर जहाँ अंग्रेजों के लिए विजयी चिन्ह था, वहीं भारतीयों के लिए वह क्रान्तिकारी ललकार और सम्मान का प्रतीक था। इसलिए उन्होनें इसे वापिस पाने के लिए अंग्रेजो का हिंडन तक पीछा किया।     
बाबा शाहमल शहीद हो गये किन्तु क्रान्ति जिंदा रही, एक महीने बाद उनके पोते लिज्जामल के नेतृत्व में बागपतदृबडौत क्षेत्र में फिर से विद्रोह हो गया।........................................

 सन्दर्भ-

1. गौतम भद्रा, फोर रिबेल्स ऑफ  एट्टनी फिफटी सेवन ;लेख, सब - आल्टरन स्टडीज, खण्ड.4सम्पादक. रणजीत गुहा
2. डनलप, सर्विस एण्ड एडवैन्चर ऑफ खाकी रिसाला इन इण्डिया इन 1857.58
3. नैरेटिव ऑफ इवैन्ट्स अटैन्डिंग दि आउटब्रेक ऑफ डिस्टरबैन्सिस एण्ड रेस्टोरेषन आॅफ अथारिटी इन दि डिस्ट्रिक्ट ऑफ मरेठ इन 1857.58
4. एरिक स्ट्रोक, पीजेन्ट आम्र्ड
5. एस0 ए0 ए0 रिजवी, फ्रीडम स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश खण्ड.5।6. ई0 बी0 जोशी, मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर

   
                                                                                                                                  ( Dr. Sushil Bhati )

Sunday, October 28, 2012

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत- राजा विजय सिंह एवं कलवा गूजर

 डा. सुशील भाटी 

1757 ई0 में प्लासी के युद्व के फलस्वरूप भारत में अग्रेंजी राज्य की स्थापना के साथ ही भारत में उसका विरोध प्रारम्भ हो गया, और 1857 की क्रान्ति तक भारत में अनेक संघर्ष हुए, जैसे सन् 1818 में खानदेश के भीलों और राजस्थान के मेरो ने संघर्ष किया।  सन् 1824 में वर्मा युद्व में अंग्रेजो की असफलता और उसके साथ ही बैरकपुर छावनी में 42-नैटिव इन्फैन्ट्री द्वारा किये गये विद्रोह में उत्साहित होकर भारतीयों ने एकसाथ सहारनपुर-हरिद्वार क्षेत्र, रोहतक और गुजरात में कोली बाहुल्य क्षेत्र में जनविद्रेाह कर स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रयास किये। तीनो स्थानों पर भारतीयों ने जमकर अंग्रेजी राज्य से टक्कर ली और अपने परम्परागत सामती वर्ग के नेतृत्व में अंग्रेजी राज्य को उखाड-फेकने का प्रयास किया। जिस प्रकार सन् 1857 में क्रान्ति सैनिक विद्रोह से शुरू हुई थी और बाद में जन विद्रोह  में परिवर्तित हो गयी थी। इसी प्रकार का एक घटना क्रम सन् 1824 में घटित हुआ। कुछ इतिहासकारों ने इन घटनाओं के साम्य के आधार पर सन 1824 की क्रान्ति को सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का अग्रगामी और पुर्वाभ्यास भी कहा है।  सन् 1824 में सहारपुर-हरिद्वार क्षेत्र मे स्वतन्त्रता-संग्राम की ज्वाला उपरोक्त अन्य स्थानों की तुलना में अधिक तीव्र थी। 

आधुनिक हरिद्वार जनपद में रूडकी शहर के पूर्व में लंढौरा नाम का एक कस्बा है यह कस्बा सन् 1947 तक पंवार वंश के राजाओं की राजधानी रहा है। अपने चरमोत्कर्ष में लंढौरा रियासत में 804 गाँव थे और यहां के शासको का प्रभाव समूचे पश्चिम उत्तर प्रदेश में था। हरियाणा के करनाल क्षेत्र और गढ़वाल में भी इस वंश के शासकों का व्यापक प्रभाव था। सन् 1803 में अंग्रेजो ने ग्वालियर के सिन्धियाओं को परास्त कर समस्त उत्तर प्रदेश को उनसे युद्व हजीने के रूप में प्राप्त कर लिया। अब इस क्षेत्र में विधमान पंवार वंश की लंढौरा, नागर वंश की बहसूमा (मेरठ), भाटी वंश की दादरी (गौतम बुद्व नगर), जाटो की कुचेसर (गढ क्षेत्र) इत्यादि सभी ताकतवर रियासते अंग्रेजो की आँखों में कांटे की तरह चुभले लगी। सन् 1813 में लंढौरा के राजा रामदयाल सिंह की मृत्यू हो गयी। उनके उत्तराधिकारी के प्रश्न पर राज परिवार में गहरे मतभेद उत्पन्न हो गये। स्थिति का लाभ उठाते हुये अंग्रेजी सरकार ने रिायसत कोभिन्न दावेदारों में बांट दिया और रियासत के बडे हिस्से को अपने राज्य में मिला लिया। लंढौरा रियासत का ही ताल्लुका था, कुंजा-बहादरपुर, जोकि सहारनपुर-रूडकी मार्ग पर भगवानपुर के निकट स्थित है, इस ताल्लुके मे 44 गाँव थे सन् 1819 में विजय सिंह यहां के ताल्लुकेदार बने। विजय सिंह लंढौरा राज परिवार के निकट सम्बन्धी थे। विजय सिंह के मन में अंग्रेजो की साम्राज्यवादी नीतियों के विरूद्व भयंकर आक्रोश था। वह लंढौरा रियासत के विभाजन को कभी भी मन से स्वीकार न कर सके थे। 

दूसरी ओर इस क्षेत्र में शासन के वित्तीय कुप्रबन्ध और कई वर्षों के अनवरत सूखे ने स्थिति को किसानों के लिए अति विषम बना दिया, बढते राजस्व और अंग्रेजों के अत्याचार ने उन्हें विद्रोह करने के लिए मजबूर कर दिया। क्षेत्र के किसान अंग्रेजों की शोषणकारी कठोर राजस्व नीति से त्रस्त थे और संघर्ष करने के लिए तैयार थे। किसानों के बीच में बहुत से क्रान्तिकारी संगठन जन्म ले चुके थे। जो ब्रिटिश शासन के विरूद्व कार्यरत थे। ये संगठन सैन्य पद्वति पर आधारित फौजी दस्तों के समान थे, इनके सदसय भालों और तलवारों से सुसज्जित रहते थे, तथा आवश्यकता पडने पर किसी भी छोटी-मोटी सेना का मुकाबला कर सकते थे। अत्याचारी विदेशी शासन अपने विरूद्व उठ खडे होने वाले इन सैनिक ढंग के क्रान्तिकारी संगठनों को डकैतो का गिरोह कहते थे। लेकिन अंग्रेजी राज्य से त्रस्त जनता का भरपूर समर्थन इन संगठनों केा प्राप्त होता रहा। इन संगठनों में एक क्रान्तिकारी संगठन का प्रमुख नेता कल्याण सिंह उर्फ कलुआ गुर्जर था। यह संगठन देहरादून क्षेत्र में सक्रिय था, और यहां उसने अंग्रेजी राज्य की चूले हिला रखी थी दूसरे संगठन के प्रमुख कुवर गुर्जर और भूरे गुर्जर थें। यह संगठन सहारनपुर क्षेत्र में सक्रिय था और अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बना हुआ था।  सहारनपुर-हरिद्वार-देहरादून क्षेत्र इस प्रकार से बारूद का ढेर बन चुका था। जहां कभी भी ब्रिटिश विरोधी विस्फोट हो सकता था। 

कुंजा-बहादरपुर के ताल्लुकेदार विजय सिंह स्थिति पर नजर रखे हुए थें। विजय सिंह के अपनी तरफ से पहल कर पश्चिम उत्तर प्रदेश के सभी अंग्रेज विरोधी जमीदारों, ताल्लुकेदारों, मुखियाओं, क्रान्तिकारी संगठनों से सम्पर्क स्थापित किया और एक सशस्त्र क्रान्ति के माध्यम से अंग्रेजों को खदेड देने की योजना उनके समक्ष रखी।  विजय सिंह के आवहान पर ब्रिटिश किसानों की एक आम सभा भगवानपुर जिला-सहारनपुर में बुलायी गयी। सभा में सहारनपुर हरिद्वार, देहरादून-मुरादाबाद, मेरठ और यमुना पार हरियाणा के किसानों ने भाग लिया। सभा में उपस्थित सभी किसानों ने हर्षोउल्लास से विजय सिंह की क्रान्तिकारी योजना को स्वीकारकर लिया। सभा ने विजय सिंह को भावी मुक्ति संग्राम का नेतृत्व सभालने का आग्रह किया, जिसे उन्हौने सहर्ष स्वीकार कर लिया। समाज के मुखियाओं ने विजय सिंह को भावी स्वतन्तत्रा संग्राम में पूरी सहायता प्रदान करने का आश्वासन दिया। कल्याण सिंह उर्फ कलुआ गुर्जर ने भी विजय सिंह का नेतृत्व स्वीकार कर लिया। अब विजय सिंह अंग्रेजों से दो-दो हाथ करने के लिए किसी अच्छे अवसर की ताक में थे। सन् 1824 में बर्मा के युद्व में अंग्रेजो की हार के समाचार ने स्वतन्त्रता प्रेमी विजय सिंह के मन में उत्साह पैदा कर दिया। तभी बैरकपुर में भारतीय सेना ने अंग्रेजी सरकार के विरूद्व विद्रोह कर दिया। समय को अपने अनुकूल समझ विजयसिंह की योजनानुसार क्षेत्री किसानों ने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। 

स्वतन्त्रता संग्राम के आरम्भिक दौर में कल्याण सिंह अपने सैन्य दस्ते के साथ शिवालिक की पहाडियों में सक्रिय रहा और देहरादून क्षेत्र में उसने अच्छा प्रभाव स्थापित कर लिया। नवादा गाँव के शेखजमां और सैयाजमां अंग्रेजो के खास मुखबिर थे, और क्रान्तिकारियों की गतिविधियों की गुप्त सूचना अंग्रेजो को देते रहते थे। कल्याणसिंह ने नवादा गाँव पर आक्रमण कर इन गददारों को उचित दण्ड प्रदान किया, और उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली। नवादा ग्राम की इसघटना से सहायक मजिस्ट्रेट शोर के लिये चेतावनी का कार्य किया और उसे अंग्रेजी राज्य के विरूद्व एक पूर्ण सशस्त्र क्रान्ति के लक्षण दिखाई पडने लगें। 30 मई 1824 को कल्याण सिंह ने रायपुर ग्राम पर आक्रमण कर दिया और रायपुर में अंग्रेज परस्त गददारों को गिरफ्तार कर देहरादून ले गया तथा देहरादून के जिला मुख्यालय के निकट उन्हें कडी सजा दी। कल्याण सिंह के इस चुनौती पूर्ण व्यवहार से सहायक मजिस्ट्रेट शोर बुरी तरह बौखला गया स्थिति की गम्भीरता को देखते हुये उसने सिरमोर बटालियन बुला ली। कल्याण सिंह के फौजी दस्ते की ताकत सिरमौर बटालियन से काफी कम थी अतः कल्याण सिंह ने देहरादून  क्षेत्र छोड दिया, और उसके स्थान पर सहारनपुर, ज्वालापुर और करतापुर को अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। 7 सितम्बर सन 1824 को करतापुर पुलिस चैकी को नष्ट कर हथियार जब्त कर लियो। पांच दिन पश्चात उसने भगवानपुर पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। सहारनपुर के ज्वाइन्ट मजिस्ट्रेट ग्रिन्डल ने घटना की जांच के आदेश कर दिये। जांच में क्रान्तिकारी गतिविधियों के कुंजा के किले से संचालित होने का तथ्य प्रकाश में आया। अब ग्रिन्डल ने विजय सिंह के नाम सम्मन जारी कर दिया, जिस पर विजयसिंह ने ध्यान नहीं दिया और निर्णायक युद्व की तैयारी आरम्भ कर दी।

 एक अक्टूबर सन् 1824 को आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित 200 पुलिस रक्षकों की कडी सुरक्षा में सरकारी खजाना ज्वालापुर से सहारनपुर जा रहा था। कल्याण सिंह के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने काला हाथा नामक स्थान पर इस पुलिस दल पर हमला कर दिया। युद्व में अंग्रेजी पुलिस बुरी तरह परास्त हुई और खजाना छोड कर भाग गयी।  अब विजय सिंह और कल्याण सिंह ने एक स्वदेशी राज्य की घोषणा कर दी और अपने नये राज्य को स्थिर करने के लिए अनेक फरमान जारी किये। रायपुर सहित बहुत से गाँवो ने राजस्व देना स्वीकार कर लिया चारो ओर आजादी की हवा चलने लगी और अंग्रेजी राज्य इस क्षेत्र से सिमटता प्रतीत होने लगा। कल्याण सिंह ने स्वतन्त्रता संग्राम को नवीन शक्ति प्रदान करने के उददेश्य से सहारनपुर जेल में बन्द स्वतन्त्रता सेनानियों को जेल तोडकर मुक्त करने की योजना बनायी। उसने सहारनपुर शहर पर भी हमला कर उसे अंग्रेजी राज से आजाद कराने का फैसला किया।

 क्रान्तिकारियों की इस कार्य योजना से अंग्रेजी प्रशासन चिन्तित हो उठा, और बाहर से भारी सेना बुला ली गयी। कैप्टन यंग को ब्रिटिश सेना की कमान सौपी गयी। अंग्रेजी सेना शीघ्र ही कुंजा के निकट सिकन्दरपुर पहुँच गयी। राजा विजय सिंह ने किले के भीतर और कल्याण सिंह ने किले के बाहर मोर्चा सम्भाला। किले में भारतीयों के पास दो तोपे थी। कैप्टन यंग के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना जिसमें मुख्यतः गोरखे थे, कुंजा के काफी निकट आ चुकी थी। 03 अक्टूबर को ब्रिटिश सेना ने अचानक हमला कर स्वतन्तत्रा सेनानियों को चैका दिया। भारतीयों ने स्थिति पर नियन्त्रण पाते हुए जमीन पर लेटकर मोर्चा सम्भाल लिये और जवाबी कार्यवाही शुरू कर दी। भयंकर युद्व छिड गया, दुर्भाग्यवंश इस संघर्ष में लडने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों का सबसे बहादुर योदा कल्याण सिंह अंग्रेजों के इस पहले ही हमले मे शहीद हो गया पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुंजा में लडे जा रहे स्वतन्त्रता संग्राम का समाचार जंगल की आग के समान तीव्र गति से फैल गया, मेरठ की बहसूमा और दादरी रियासत के राजा भी अपनी सेनाओं के साथ गुप्त रूप से कुंजा के लिए कूच कर गये। बागपत और मुंजफ्फरनगर के आस-पास बसे चैहान गोत्र के कल्सियान किसान भी भारी मात्रा में इस स्वतन्त्रता संग्राम में राजा विजययसिंह की मदद के लिये निकल पडे। अंग्रेजो को जब इस हलचल का पता लगा तो उनके पैरों के नीचे की जमीन निकल गयी। उन्हौनें बडी चालाकी से कार्य किया और कल्याण सिंह के मारे जाने का समाचार पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैला दिया। साथ ही कुंजा के किले के पतन और स्वतन्त्रता सैनानियों की हार की झूठी अफवाह भी उडा दी। अंग्रेजों की चाल सफल रही। अफवाहों से प्रभावित होकर अन्य क्षेत्रों से आने वाले स्वतन्त्रता सेनानी हतोत्साहित हो गये, और निराश होकर अपने क्षेत्रों को लौट गये। अंग्रेजों ने एक रैम को सुधार कर तोप का काम लिया। और बमबारी प्रारम्भ कर दी। अंग्रेजो ने तोप से किले को उडाने का प्रयास किया। किले की दीवार कच्ची मिटटी की बनी थी जिस पर तोप के गोले विशेष प्रभाव न डाल सकें। परन्तु अन्त में तोप से किले के दरवाजे को तोड दिया गया। अब अंग्रेजों की गोरखा सेना किले में घुसने में सफल हो गयी। दोनो ओर से भीषण युद्व हुआ। सहायक मजिस्ट्रेट मि0 शोर युद्व में बुरी तरह से घायल हो गया। परन्तु विजय श्री अन्ततः अंग्रेजों को प्राप्त हुई। राजा विजय सिंह बहादुरी से लडते हुए शहीद हो गये।

 भारतीयों की हार की वजह मुख्यतः आधुनिक हथियारों की कमी थी, वे अधिकांशतः तलवार, भाले बन्दूकों जैसे हथियारों से लडे। जबकि ब्रिटिश सेना के पास उस समय की आधुनिक रायफल (303 बोर) और कारबाइने थी। इस पर भी भारतीय बडी बहादुरी से लडे, और उन्हौनें आखिरी सांस तक अंग्रेजो का मुकाबला किया। ब्रिटिश सरकार के आकडों के अनुसार 152 स्वतन्त्रता सेनानी शहीद हुए, 129 जख्मी हुए और 40 गिरफ्तार किये गये। लेकिन वास्तविकता में शहीदों की संख्या काफी अधिक थी। भारतीय क्रान्तिकारियों की शहादत से भी अंग्रेजी सेना का दिल नहीं भरा। ओर युद्व के बाद उन्हौने कंुजा के किले की दिवारों को भी गिरा दिया। ब्रिटिश सेना विजय उत्सव मनाती हुई देहरादून पहुँची, वह अपने साथ क्रान्तिकारियों की दो तोपें, कल्याण सिंह काा सिंर ओर विजय सिंह का वक्षस्थल भी ले गयें। ये तोपे देहरादून के परेडस्थल पर रख दी गयी। भारतीयों को आंतकित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने राजा विजय सिंह का वक्षस्थल और कल्याणसिंह का सिर एक लोहे के पिजरे में रखकर देहरादून जेल के फाटक पर लटका दिया। कल्याण सिंह के युद्व की प्रारम्भिक अवस्था में ही शहादत के कारण क्रान्ति अपने शैशव काल में ही समाप्त हो गयी। कैप्टन यंग ने कुंजा के युद्व के बाद स्वीकार किया था कि यदि इस विद्रोह को तीव्र गति से न दबवाया गया होता, तो दो दिन के समय में ही इस युद्व को हजारों अन्य लोगों का समर्थन प्राप्त हो जाता। और यह विद्रोह समस्त पश्चिम उत्तर प्रदेश में फैल जाता। 
                                        
                                                                                                                                                                                          ( Dr. Sushil Bhati )

गगोल का बलिदान ( Gagol Ka Balidan )

डॉ. सुशील भाटी

10 मई 1857 को मेरठ में क्रान्ति के विस्फोट के बाद मेरठ के आस-पास स्थित गांवों ने अंग्रेजी राज की धज्जिया उड़ा दी। अंग्रेजों ने सबसे पहले उन गांवों को सजा देने पर विचार किया जिन्होंने 10 मई की रात को मेरठ में क्रान्ति में बढ़ चढ़कर भाग लिया था और उसके बाद मेरठ के बाहर जाने वाले आगरा, दिल्ली आदि मार्गो को पूरी तरह से रेाक दिया था। जिसकी वजह से मेरठ का सम्पर्क अन्य केन्द्रों से कट गया था। इस क्रम में सबसे पहले 24 मई को इख्तयारपुर पर और उसके तुरन्त बाद 3 जून को लिसाड़ी, नूर नगर और गगोल गांव पर अंग्रेजों ने हमला किया। ये तीनों गांव मेरठ के दक्षिण में स्थित 3 से 6 मील की दूरी पर स्थित थे। लिसारी और नूरनगर तो अब मेरठ महानगर का हिस्सा बन गए हैं। गगोल प्राचीन काल में श्रषि विष्वामित्र की तप स्थली रहा है और इसका पौराणिक महत्व है।  नूरनगर, लिसाड़ी और गगोल के किसान उन क्रान्तिवीरों में से थे जो 10 मई 1857 की रात को घाट, पांचली, नंगला आदि के किसानों के साथ धनसिंह कोतवाल के बुलावे पर मेरठ पहुँचे थे। अंग्रेजी दस्तावेजों से यह साबित हो गया है कि धनसिंह कोतवाल के इशारे पर ही सदर कोतवाली की पुलिस और इन किसनों ने क्रान्तिकारी घटनाओं का अंजाम दिया था। इन किसानों ने कैण्ट और सदर में भारी तबाही मचाने के बाद रात 2 बजे मेरठ की नई जेल तोड़ कर 839 कैदियों को रिहा कर दिया। 10 मई 1857 को सैनिक विद्रोह के साथ-2 हुए इस आम जनता के विद्रोह से अंग्रेज ऐसे हतप्रभ रह गए कि उन्होंने अपने आप को मेरठ स्थित दमदमें में बन्द कर लिया। वह यह तक न जान सके विद्रोही सैनिक किस ओर गए हैं ?  

इस घटना के बाद नूरनगर, लिसाड़ी, और गगोल के क्रान्तिकारियों बुलन्दशहर आगरा रोड़ को रोक दिया और डाक व्यवस्था भंग कर दी। आगरा उस समय उत्तरपश्चिम प्रांत की राजधानी थी। अंग्रेज आगरा से सम्पर्क टूट जाने से बहुत परेषान हुए। गगोल आदि गाँवों के इन क्रान्तिकारियों का नेतृत्व गगोल के झण्डा सिंह उर्फ झण्डू दादा कर रहे थे। उनके नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने बिजली बम्बे के पास अंगे्रजी सेना के एक कैम्प को ध्वस्त कर दिया था। 

आखिरकार 3 जून को अंग्रेजो ने नूरनगर लिसाड़ी और गगोल पर हमला बोला। अंग्रेजी सेना के पास काराबाइने थी और उसका नेतृत्व टर्नबुल कर रहा था। मेरठ शहर के कोतवाल बिशन सिंह, जो कि रेवाड़ी के क्रान्तिकारी नेता राजा तुलाराव का भाई था, को अंग्रेजी सेना को गाईड का काम करना था। परन्तु वह भी क्रान्ति के प्रभाव में आ चुका था। उसने गगोल पर होने वाले हमले की खबर वहां पहुँचा दी और जानबूझ कर अंग्रेजी सेना के पास देर से पहुँचा। इसका नतीजा भारतीयों के हक में रहा, जब यह सेना गगोल पहुँची तो सभी ग्रामीण वहाँ से भाग चुके थे। अंग्रेजो ने पूरे गाँव को आग लगा दी। बिशन सिंह भी सजा से बचने के लिए नारनौल, हरियाणा भाग गए जहाँ वे अग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गए।

कुछ दिन बाद अंग्रेजों ने फिर से गगोल पर हमला किया और बगावत करने के आरोप में 9 लोग रामसहाय, घसीटा सिंह, रम्मन सिंह, हरजस सिंह, हिम्मत सिंह, कढेरा सिंह, शिब्बा सिंह बैरम और दरबा सिंह को गिरफ्तार कर लिया। इन क्रान्तिवीरों पर राजद्रोह का मुकदमा चला और दषहरे के दिन इन 9 क्रान्तिकारियों को चैराहे पर फांसी से लटका दिया गया। तब से लेकर आज तक गगोल गांव में लोग दशहरा नहीं मनाते हैं। इन शहीदों की याद में गांववासियों ने, 1857 की क्रान्ति के गवाह के रूप में आज भी उपस्थित प्राचीन पीपल के पेड़ के नीचे, एक देवस्थान बना रखा है। जहाँ दशहरे के दिन अपने बलिदानी पूर्वजों को श्रद्धापूर्वक याद करते हैं। सरकार आज भी इस ओर से उदासीन है गगोल में न कोई सरकारी स्मारक है न ही कोई ऐसा सरकारी महाविद्यालय, अस्पताल आदि हैं जो इन शहीदों को समर्पित हो।

 संदर्भ

1. डनलप, सर्विस एण्ड एडवैन्चर आफ खाकी रिसाला इन इण्डिया इन 1857-58।
2. नैरेटिव आफ इवैनटस अटैन्डिग दि आउटब्रेक आफ डिस्टरबैन्सिस एण्ड रैस्टोरेशन आफ अथारिटी इन दि डिस्ट्रिक्ट आफ मेरठ इन 1857-58
3. एरिक स्ट्रोक, पीजेन्ट आम्र्ड।
4. एस0 ए0 ए0 रिजवी, फीड स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश  खण्ड-5
5. ई0 बी0 जोशी, मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर।
6. आचार्य दीपांकर, स्वाधीनता संग्राम और मेरठ, जनमत प्रकाशन, मेरठ 1993 
                                                                                                             ( Dr. Sushil Bhati )

सीकरी की शहादत (Sikri Ki Shahdat)

डा. सुशील भाटी

मेरठ से 13 मील दूर, दिल्ली जाने वाले राज मार्ग पर मोदीनगर से सटा हुआ एक गुमनाम गाँव है-सीकरी खुर्द। 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में इस गाँव ने एक अत्यन्त सक्रिय भूमिका अदा की थी1। 10 मई 1857 को देशी सैनिक ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार के विरूद्ध संघर्ष की शुरूआत कर दिल्ली कूच कर गये थे। जब मेरठ के क्रान्तिकारी सैनिक मौहिउद्दीनपुर होते हुए बेगमाबाद (वर्तमान मोदीनगर) पहुंचे तो सीकरी खुर्द के लोगों ने इनका भारी स्वागत-सत्कार किया। इस गाँव के करीब 750 नौजवान की टोली में शामिल हो गये और दिल्ली रवाना हो गये। अगले ही दिन इस जत्थे की दिल्ली के तत्कालीन खूनी दरवाजे पर अंग्रेजी फौज से मुठभेड़ हो गई जिसमें अनेक नौजवान क्रान्तिकारी शहीद हो गए।2

1857 के इस स्वतन्त्रता समर के प्रति अपने उत्साह और समर्पण के कारण सीकरी खुर्द क्रान्तिकारियों का एक महत्वपूर्ण ठिकाना बन गया। गाँव के बीचो-बीच स्थित एक किलेनुमा मिट्टी की दोमंजिला हवेली को क्रान्तिकारियों ने तहसील का स्वरूप प्रदान किया। यह हवेली सिब्बा गुर्जर की थी जो सम्भवतः क्रान्तिकारियों का नेता था। आसपास के अनेक गाँवों के क्रान्तिकारी सीकरी खुर्द में इकट्ठा होने लगे। मेरठ के कुछ क्रान्तिकारी सैनिक भी इनके साथ थे। इस कारण यह दोमंजिला हवेली क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बन गयी।

उस समय सीकरी खुर्द, लालकुर्ती मेरठ में रहने वाले बूचड़वालों की जमींदारी में आता था। लालकुर्ती के जमींदार ने स्वयं जाकर सिब्बा मुकद्दम से बातचीत की। उसने सिब्बा को, अंग्रेजों के पक्ष में करने के लिए, लालच देते हुए कहा कि "मुकद्दम जितने इलाके की ओर तुम उँगली उठाओगे, मैं वो तुम्हे दे दूँगा तथा जो जमीन तुम्हारे पास है उसका लगान भी माफ कर दिया जायेगा"। लेकिन सिब्बा ने जमींदार की बात नहीं मानी।3 अब सीकरी खुर्द के गुर्जर खुलेआम अंग्रेजों के विरूद्ध हो गये।

क्रान्तिकारियों ने आसपास के क्षेत्रों में राजस्व वसूल कर क्रान्तिकारी सरकार के प्रमुख, सम्राट बहादुरशाह जफर को भेजने का निश्चय किया। व्यवस्था को लागू करने के लिए सीकरी के क्रान्तिकारियों ने अंग्रेज परस्त ग्राम काजिमपुर पर हमला बोल 7 गद्दारों को मौत के घाट उतार दिया।4 अंग्रेज परस्तों को सबक सिखाने का सिलसिला यहीं समाप्त नहीं हुआ। सीकरी खुर्द में स्थित इन क्रान्तिकारियों ने बेगमाबाद (वर्तमान मोदीनगर) और आसपास के अंग्रेज समर्थक गद्दारों पर बड़े हमले की योजना बनाई। बेगमाबाद कस्बा सीकरी खुर्द से मात्र दो मील दूर था। वहाँ अंग्रेजों की एक पुलिस चौकी थी, जिस कारण सीकरी खुर्द में बना क्रान्तिकारियों का ठिकाना सुरक्षित नहीं था। इस बीच बेगमाबाद के अंग्रेज परस्तों ने गाजियबााद और दिल्ली के बीच हिण्डन नदी के पुल को तोड़ने का प्रयास किया। वास्तव में वो दिल्ली की क्रान्तिकारी सरकार और पश्चिम उत्तर प्रदेश में उसके नुमाईन्दे बुलन्दशहर के बागी नवाब वलिदाद खान के बीच के सम्पर्क माध्यम, इस पुल को समाप्त करना चाहते थे। जिससे कि वलिदाद खान को सहायता हीन कर हराया जा सके।5 इस घटना ने सीकरी खुर्द में स्थित क्रान्तिकारियों की क्रोधाग्नि में घी का काम किया और उन्होंने 8 जुलाई सन् 1857 को बेगमाबाद पर हमला कर दिया। सबसे पहले बेगमाबाद में स्थित पुलिस चौकी को नेस्तनाबूत कर अंग्रेज परस्त पुलिस को मार भगाया। इस हमले की सूचना प्राप्त होते ही आसपास के क्षेत्र में स्थित अंग्रेज समर्थक काफी बड़ी संख्या में बेगमाबाद में एकत्रित हो गये।6 प्रतिक्रिया स्वरूप सीकरी खुर्द, नंगला, दौसा, डीलना, चुडि़याला और अन्य गाँवों के, गुर्जर क्रान्तिकारी इनसे भी बड़ी संख्या में इकट्ठा हो गए। आमने सामने की इस लड़ाई में क्रान्तिकारियों ने सैकड़ों गद्दारों को मार डाला,7 चन्द गद्दार बड़ी मुश्किल से जान बचाकर भाग सके। क्रान्तिकारियों ने इन अंग्रेज परस्तों का धनमाल जब्त कर कस्बे को आग लगा दी।

बेगमाबाद की इस घटना की खबर जैसे ही मेरठ स्थित अंग्रेज अधिकारियों को मिली, तो उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी। अंग्रेजी खाकी रिसाले ने रात को दो बजे ही घटना स्थल के लिए कूच कर दिया। मेरठ का कलेक्टर डनलप स्वयं रिसाले की कमान संभाले  हुए था, उसके अतिरिक्त मेजर विलियम, कैप्टन डीवायली एवं कैप्टन तिरहट रिसाले के साथ थे। खाकी रिसाला अत्याधुनिक हथियारों - मस्कटों, कारबाईनों और तोपों से लैस था। भौर में जब रिसाला बेगमाबाद पहुँचा तो बूंदा-बांदी होने लगी, जो पूरे दिन चलती रही। बाजार में आग अभी भी सुलग रही थी, अंग्रेजी पुलिस चौकी और डाक बंगला वीरान पड़े थे। उनकी दीवारें आग से काली पड़ चुकी थी और फर्श जगह-जगह से खुदा पड़ा था। कस्बे से भागे हुए कुछ लोग यहाँ-वहाँ भटक रहे थे।8

अपने समर्थकों की ऐसी दुर्गति देख अंग्रेज अधिकारी अवाक रह गये। यहाँ एक पल भी बिना रूके, खाकी रिसाले को ले, सीधे सीकरी खुर्द पहुँच गये और चुपचाप पूरे गाँव का घेरा डाल दिया। अंग्रेजों के अचानक आने की खबर से क्रान्तिकारी हैरान रह गये परन्तु शीघ्र ही वो तलवार और भाले लेकर गाँव की सीमा पर इकट्ठा हो गये। भारतीयों ने अंग्रेजों को ललकार कर उन पर हमला बोल दिया। खाकी रिसाले ने कारबाईनों से गोलियाँ बरसा दी, जिस पर क्रान्तिकारियों ने पीछे हटकर आड़ में मोर्चा सम्भाल लिया। क्रान्तिकारियों के पास एक पुरानी तोप थी जो बारिश के कारण समय पर दगा दे गयी, वही अंग्रेजी तोपखाने ने कहर बरपा दिया 9 और अंग्रेज क्रान्तिकारियों की प्रथम रक्षा पंक्ति को भेदने में में कामयाब हो गये। गाँव की सीमा पर ही 30 क्रान्तिकारी शहीद हो गये।10

अन्ततः क्रान्तिकारियों ने सीकरी खुर्द के बीचोबीच स्थित किलेनुमा दोमजिला हवेली में मोर्चा लगा लिया। क्रान्तिकारियों ने यहाँ अपने शौर्य का ऐसा प्रदर्शन किया कि अंग्रेजों को भी उनके साहस और बलिदान का लोहा मानना पड़ा। कैप्टल डीवयली के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना की टुकड़ी ने हवेली के मुख्य दरवाजे को तोप से उड़ाने का प्रयास किया। क्रान्तिकारियों के जवाबी हमले में कैप्टन डीवायली की गर्दन में गोली लग गयी और वह बुरी तरह जख्मी हो गया।11 इस बीच कैप्टन तिरहट के नेतृत्व वाली सैनिक टुकड़ी हवेली की दीवार से चढ़कर छत पर पहुँचने में कामयाब हो गयी। हवेली की छत पर पहुँच कर इस अंग्रेज टुकड़ी में नीचे आंगन में मोर्चा ले रहे क्रान्तिकारियों पर गोलियों की बरसात कर दी। तब तक हवेली का मुख्य द्वारा भी टूट गया, भारतीय क्रान्तिकारी बीच में फंस कर रह गये। हवेली के प्रांगण में 70 क्रान्तिकारी लड़ते-लड़ते शहीद हो गये।12
इनके अतिरिक्त गाँव के घरों और गलियों में अंग्रेजों से लड़ते हुए 70 लोग और शहीद हो गये। अंग्रेजों ने अशक्त बू़ढ़ों और औरतों को भी नहीं छोड़ा। कहते हैं कि सीकरी खुर्द स्थित महामाया देवी के मंदिर के निकट एक तहखाने में गाँव के अनेक वृद्ध एवं बच्चे छिपे हुए थे तथा गाँव के पास एक खेत में सूखी पुराल व लकडि़यों में गाँव की महिलाएँ छिपी हुई थीं। जब खाकी रिसाला सीकरी खुर्द से वापिस जाने ही वाला था कि तभी किसी गद्दार ने यह बात अंग्रेज अफसरों को बता दी। अंग्रेजों ने तहखाने से निकाल कर 30 व्यक्तियों को गोली मार दी और बाकी लोगों को मन्दिर के पास खड़े वट वृक्ष पर फांसी पर लटका दिया।13 गाँव की स्त्रियों ने अपने सतीत्व को बचाने के लिए खेत के पुराल में आग लगा कर जौहर कर लिया। आज भी इस खेत को सतियों का खेत कहते हैं।14

मेरठ के तत्कालीन कमिश्नर एफ0 विलियमस् की शासन को भेजी रिपोर्ट के अनुसार गुर्जर बाहुल्य गाँव सीकरी खुर्द का संघर्ष पूरे पाँच घंटे चला और इसमें 170 क्रान्तिकारी शहीद हुए।15 ग्राम में स्थित महामाया देवी का मन्दिर, वहाँ खड़ा वट वृक्ष और सतियों का खेत आज भी सीकरी के शहीदों की कथा की गवाही दे रहे हैं। परन्तु इस शहीदी गाथा को कहने वाला कोई सरकारी या गैर-सरकारी स्मारक वहाँ नहीं हैं।

 सन्दर्भ

1. गौतम भद्रा, फोर रिबेल्स ऑफ ऐट्टीन फिफ्टी सैवन (शोध पत्र), सब आल्ट्रन स्टडीज, खण्ड प्ट सम्पादक रणजीत गुहा, पृष्ठ 239
2. उमेश त्यागी, 1857 की महाक्रान्ति में गाजियाबाद जनपद (शोध पत्र), दी जर्नल  ऑफ  मेरठ यूनिवर्सिटी हिस्ट्री अलएमनी, खण्ड टप्प्ए मेरठ 2006, पृष्ठ 308-309
3. विधनेष कुमार मुदित कुमार, 1857 का विप्लव, मेरठ, 2007 पृष्ठ संख्या 110
4. डनलप, सर्विस एण्ड ऐडवेनचर आॅफ खाकी रिसाला इन इण्डिया 1857-58, पृष्ठ संख्या 71
5. वही, उमेश त्यागी, पृष्ठ संख्या 309
6. वही, डनलप, पृष्ठ संख्या 71
7. (क) वही, उमेश त्यागी, पृष्ठ संख्या 309,
(ख) ई0 बी0 जोशी, मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर, पृष्ठ संख्या 4
(ग) वही, डनलप, पृष्ठ संख्या 71-72
8. वही, डनलप, पृष्ठ संख्या 72-73
9. वही, डनलप, पृष्ठ संख्या 73-74
10. एफ विलयम्स (कमिश्नर), नैरेटिव आॅफ इवेंटस अटैण्डिंग दी आउटब्रेक आफ डिस्टर बैंसिस एण्ड दी रिस्टोरेशन आॅफ अथारिटी इन दी डिस्ट्रिक्ट मेरठ इन 1857, 58 (म्यूटिनी नैरेटिव), पृष्ठ संख्या 263
11. (क) वही, डनलप, पृष्ठ 74
(ख) वही, एफ विलयम्स, पृष्ठ 264
12. वही, एफ विलयम्स पृष्ठ 264
13. वही, उमेश त्यागी, पृष्ठ 309
14. शिवकुमार गोयल, ऐसे शुरू हुई मेरठ से क्रान्ति (लेख), दैनिक प्रभात, दिनांक 10 मई 2007, मेरठ।
15. वही, एफ विलयम्स, पृष्ठ 264                                           
                                                                                                                                ( Dr. Sushil Bhati )



बिजौलिया के गाँधी - विजय सिंह पथिक (Vijay Singh Pathik)

 डा. सुशील भाटी 

Vijay Singh Pathik


विजय सिंह पथिक का जन्म 27 फरवरी 1882 को बुलन्दशहर जिले के ग्राम गुठावली कलां में हुआ था। उनके दादा इन्द्र सिंह बुलन्दशहर स्थित मालागढ़ रियासत के दीवान (प्रधानमंत्री) थे। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में पथिक के दादा अंग्रेजों से लड़ते हुये वीरगति को प्राप्त हुये। उनके पिता को भी क्रान्ति में भाग लेने के आरोप में सरकार ने गिरफ्तार किया था। पथिक जी पर अपने परिवार की क्रान्तिकारी और देशभक्ति से परिपूर्ण पृष्ठभूमि का बहुत गहरा असर पड़ा। 

युवावस्था में पथिक जी का सम्पर्क रास बिहारी और सचिन सान्याल आदि क्रान्तिकारियों से हुआ। 1912 में ब्रिटिश सरकार ने भारत की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली लाने का निर्णय किया। इस अवसर पर भारत के गवर्नर जनरल लार्ड हाडिंग ने दिल्ली प्रवेश करने के लिए एक शानदार जुलूस का आयोजन किया। गवर्नर जनरल लार्ड हाडिंग ने दिल्ली प्रवेश के समय विजय सिंह पथिक ने अन्य क्रान्तिकारियों के साथ जुलूस पर बम फेंक कर लार्ड हार्डिग को मारने की कोशिश की। रास बिहारी बोस, जोरावर सिंह, प्रताप सिंह, पथिक जी व अन्य सभी सम्बन्धित क्रान्तिकारी अंग्रेजो के हाथ नहीं आये और वे फरार हो गए।

सन् 1915 मंें रास बिहारी बोस के नेतृत्व में लाहौर में क्रान्तिकारियों ने निर्णय लिया कि 21 फरवरी को देश के विभिन्न स्थानों 1857 की क्रान्ति की तर्ज पर सशस्त्र विद्रोह किया जाए। भारतीय इतिहास में इसे गदर आन्दोलन कहते है। योजना यह थी कि एक तरफ तो भारतीय ब्रिटिश सेना को विद्रोह के लिए उकसाय जाये दूसरी तरफ देशी राजाओं और उनकी सेनाओं का विद्रोह में सहयोग प्राप्त किया जाए। राजस्थान में इस क्रान्ति को संचालित करने का दायित्व विजय सिंह पथिक को सौंपा गया। उस समय पथिक जी फिरोजपुर षडयंत्र केस में फरार थे और खरवा (राजस्थान) में गोपाल सिंह के पास रह रहे थे। दोनो ने मिलकर दो हजार युवकों का दल तैयार किया और तीस हजार से अधिक बन्दूकें एकत्र की। दुर्भाग्य से अंग्रेजी सरकार पर क्रान्तिकारियों की देशव्यापी योजना का भेद खुल गया। देश भर में क्रान्तिकारयों को समय से पूर्व पकड़ लिया गया। पथिक जी और गोपाल सिंह ने गोला बारूद्व भूमिगत कर दिया और सैनिकों को बिखेर दिया गया। कुछ ही दिनों बाद अजमेर के अंग्रेज कमिश्नर ने पांच सौ सैनिकों के साथ पथिक जी और गोपाल सिंह को खरवा के जंगलों से गिरफ्तार कर लिया और टाडगढ़ के किले में नजरबंद कर दिया गया। उन्हीं दिनों लाहौर षडयंत्र केस में पथिक जी का नाम उभरा और उन्हें लाहौर ले जाने के आदेश हुए। किसी तरह यह खबर पथिक जी को मिल गई और वो टाडगढ़ के किले से फरार हो गए।

गिरफ्तारी से बचने के लिए पथिक जी ने अपना वेश राजस्थानी राजपूतों जैसा बना लिया और चित्तौडगढ़ क्षेत्र में रहने लगे। बिजौलिया से आये एक साधु सीताराम दास पथिक जी से बहुत प्रभावित हुए और उन्होनें पथिक जी को बिजौलिया आन्दोलन का नेतृत्व सम्भालने को आमत्रिंत किया। बिजौलिया उदयपुर रियासत में एक ठिकाना था। जहाॅ किसानों से भारी मात्रा में लाग बाग वसूली जाती थी और किसानों की दशा अति शोचनीय थी। पथिक जी 1916 में बिजौलिया पहुच गए और उन्हौनें आन्दोलन की कमान अपने हाथों में सम्भाल ली। माणिक्य लाल वर्मा ने पथिक जी से प्रभावित होकर बिजौलिया ठिकाने की सेवा से त्यागपत्र दे दिया और आन्दोलन में कूद पडें। 1916 में विजय सिंह पथिक ने बिजौलिया किसान पंचायत नाम से एक किसान संगठन का गठन किया। प्रत्येक गाॅव में किसान पंचायत की शाखाएॅ खोली गई। किसानों की मुख्य मांगे भूमि कर, अधिभारों एवं बेगार से सम्बन्धित थी। किसानों से 84 प्रकार के कर वसूले जाते थे। इसके अतिरिक्त युद्व कोष कर भी एक अहम मुददा था, एक अन्य मुददा साहूकारों से सम्बन्धित था जो कि जमीदारों के सहयोग और संरक्षण से किसानों को निरन्तर लूट रहे थे। पंचायत ने भूमि कर न देने का निर्णय लिया गया। किसान वास्तव में 1917 की रूसी क्रान्ति की सफलता से उत्साहित थे, पथिक जी ने उनके बीच रूस में श्रमिकों और किसानों का शासन स्थापित होने के समाचार को खूब प्रचारित किया था। विजय सिंह पथिक ने कानपुर से प्रकाशित गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा सम्पादित पत्र प्रताप के माध्यम से बिजौलिया के किसान आन्दोलन को समूचे देश में चर्चा का विषय बना दिया। 

सन् 1919 में अमृतसर कांग्रेस में पथिक जी के प्रयत्न से लोकमान्य तिलक ने बिजौलिया सम्बन्धी प्रस्ताव रखा। पथिक जी ने बम्बई जाकर किसानों की करूण गाथा गांधी जी को सुनाई। गांधी जी ने वचन दिया कि यदि मेवाड़ सरकार ने न्याय नहीं किया तो वह स्वयं बिजौलिया सत्याग्रह का संचालन करेगें। महात्मा गांधी ने किसानों की शिकायत दूर करने के लिए एक पत्र महाराणा को लिखा, पर कोई हल नहीं निकला। पथिक जी बम्बई यात्रा के समय, गांधी जी की पहल पर, यह निश्चय किया गया कि वर्धा से ‘‘राजस्थान केसरी’’ नामक पत्र निकाला जाए। पत्र सारे देश में लोकप्रिय हो गया, परन्तु पथिक जी का जमनालाल बजाज की विचारधारा से मेल नहीं खाया और वे वर्धा छोड़कर अजमेर चले गए।

सन् 1920 में पथिक जी के प्रयत्नों से अजमेर में ‘‘राजस्थान सेवा संघ’’ की स्थापना हुई। शीघ्र ही इस संस्था की शाखाएॅ पूरे प्रदेश में खुल गई। इस संस्था ने राजस्थान में कई जन आन्दोलनों का संचालन किया। अजमेर से ही पथिक जी ने एक नया पत्र ‘‘नवीन राजस्थान’’ प्रकाशित किया। सन् 1920 में पथिक जी अपने साथियों के साथ नागपुर अधिवेशन में शामिल हुए और बिजौलिया के किसानों की दुर्दशा और देशी राजाओं की निरंकुशता को दर्शाती हुई एक प्रदर्शनी का आयोजन किया। गांधी जी पथिक जी के बिजौलिया आन्दोलन से बहुत प्रभावित हुए, परन्तु गांधी जी का रूख देशी राजाओं और सामन्तों के प्रति नरम ही बना रहा। कांग्रेस और गांधी जी यह समझने में असफल रहें कि सामन्तवाद साम्राज्यवाद का ही एक स्तम्भ है और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विनाश के लिए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के साथ-साथ सामन्तवाद विरोधी संघर्ष आवश्यक है। गांधी जी ने अहमदाबाद अधिवेशन में बिजौलिया के किसानों को हिजरत (क्षेत्र छोड़ देने) की सलाह दी। पथिक जी ने इसे अपनाने से यह कहकर इनकार कर दिया कि यह तो केवल हिजड़ो के लिए ही उचित है, पुरूषों के लिए नहीं।  

सन् 1921 के आते-आते पथिक जी ने राजस्थान सेवा संघ के माध्यम से बेगू, पारसोली, भिन्डर, बासी और उदयपुर में शक्तिशाली आन्दोलन किए। बिजौलिया आन्दोलन अन्य क्षेत्र के किसानों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गया था। ऐसा लगने लगा मानो राजस्थान में किसान आन्दोलन की लहर चल पडी है। इससे ब्रिटिश सरकार डर गई। इस आन्दोलन में उसे बोल्शेविक आन्दोलन की प्रतिछाया दिखाई देने लगी। दूसरी ओर कांग्रेस के असहयोग आन्दोलन शुरू करने से भी सरकार को स्थिति और बिगड़ने की भी आशंका होने लगी। अंतत सरकार ने राजस्थान के ए0 जी0 जी0 हालैण्ड को बिजौलिया किसान पंचायत बोर्ड और राजस्थान सेवा संघ से बातचीत करने के लिए नियुक्त किया। शीघ्र ही दोनो पक्षों में समझौता हो गया। किसानों की अनेक मांगे मान ली गई। चैरासी में से पैंतीस लागतें माफ कर दी गई। जुल्मी कारिन्दे बर्खास्त कर दिए गए। किसानों की अपूर्व विजय हुई। 

इस बीच में बेगू में आन्दोलन तीव्र हो गया। मेवाड सरकार ने पथिक जी को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें पांच वर्ष की सजा सुना दी गई। लम्बे अरसे की केद के बाद पथिक जी अप्रैल 1927 को रिहा किए गए।

पथिक जी जीवनपर्यन्त निःस्वार्थ भाव से देश सेवार में जुटे रहें। भारत माता का यह महान सपूत 28 मई, 1954 में चिर निद्रा में सो गया। पथिक जी की देशभक्ति निःस्वार्थ थी और जब वह मरे उनके पास सम्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं था, जबकि तत्कालीन सरकार के कई मंत्री उनके राजनैतिक शिष्य थे। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री श्री शिवचरण माधुर ने पथिक जी का वर्णन राजस्थान की जागृति के अग्रदूत महान क्रान्तिकारी के रूप में किया। पथिक जी के नेतृत्व में संचालित हुए बिजौलिया आन्दोलन को इतिहासकार देश का पहला किसान सत्याग्रह मानते है।   

                                                                                                                                                                                                                                                                                                          ( Dr. Sushil Bhati )      

Thursday, October 25, 2012

शिव भक्त सम्राट मिहिरकुल हूण ( Emperor Mihirkula Huna )

डा. सुशील भाटी 

पांचवी शताब्दी के मध्य में, ४५० इसवी के लगभग, हूण गांधार इलाके  के शासक  थे, जब उन्होंने वहा से सारे सिन्धु घाटी प्रदेश को जीत लिया| कुछ समय बाद ही उन्होंने मारवाड और पश्चिमी राजस्थान के इलाके भी जीत लिए| ४९५ इसवी के लगभग हूणों ने तोरमाण के नेतृत्व में गुप्तो से पूर्वी मालवा छीन लिया| एरण, सागर जिले में वराह मूर्ति पर मिले तोरमाण के अभिलेख से इस बात की पुष्टि होती हैं| जैन ग्रन्थ कुवलयमाल के अनुसार तोरमाण चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित पवैय्या  नगरी से भारत पर शासन करता था| यह पवैय्या नगरी ग्वालियर के पास स्थित थी

तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का राजा बना| मिहिरकुल तोरमाण के सभी विजय अभियानों हमेशा उसके साथ रहता था|  उसके शासन काल के पंद्रहवे वर्ष का एक अभिलेख ग्वालियर एक सूर्य मंदिर से प्राप्त हुआ हैं| इस प्रकार हूणों ने मालवा इलाके  में अपनी स्थति मज़बूत कर ली थी| उसने उत्तर भारत की विजय को पूर्ण किया और गुप्तो सी भी नजराना वसूल किया| मिहिरकुल ने पंजाब स्थित स्यालकोट को अपनी राजधानी बनायामिहिकुल हूण एक कट्टर शैव था|  उसने अपने शासन काल में हजारों शिव मंदिर बनवाये| मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु (शिव) के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सर नहीं झुकाया था| मिहिरकुल ने ग्वालियर अभिलेख में भी अपने को शिव भक्त कहा हैं| मिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं जिसका अर्थ हैं- जय नंदी| वृष शिव कि सवारी हैं जिसका मिथकीय नाम नंदी हैं|

कास्मोस इन्दिकप्लेस्तेस नामक एक यूनानी ने मिहिरकुल के समय भारत की यात्रा की थी, उसने क्रिस्टचिँन टोपोग्राफीनामक अपने ग्रन्थ में लिखा हैं की हूण भारत के उत्तरी पहाड़ी इलाको में रहते हैं, उनका राजा मिहिरकुल एक विशाल घुड़सवार सेना और कम से कम दो हज़ार हाथियों के साथ चलता हैं, वह भारत का स्वामी हैं मिहिरकुल के लगभग सौ वर्ष बाद चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री हेन् सांग ६२९ इसवी में भारत आया , वह अपने ग्रन्थ सी-यू-कीमें लिखता हैं की सैंकडो वर्ष पहले  मिहिरकुल नाम का राजा हुआ करता था जो स्यालकोट से भारत पर  राज  करता था | वह  कहता हैं कि मिहिरकुल नैसर्गिक रूप से प्रतिभाशाली और बहादुर था|

हेन् सांग बताता हैं कि मिहिरकुल ने भारत में बौद्ध धर्म को बहुत भारी नुकसान पहुँचाया| वह कहता हैं कि एक बार मिहिरकुल ने बौद्ध भिक्षुओं से  बौद्ध धर्म के बारे में जानने कि इच्छा व्यक्त की| परन्तु बौद्ध भिक्षुओं ने उसका अपमान किया, उन्होंने उसके पास, किसी वरिष्ठ बौद्ध भिक्षु को भेजने की जगह एक सेवक को बौद्ध गुरु के रूप में  भेज दिया| मिहिरकुल को जब इस बात का पता चला तो वह गुस्से में आग-बबूला हो गया और उसने बौद्ध धर्म के विनाश कि राजाज्ञा जारी कर दी| उसने उत्तर भारत के  सभी बौद्ध बौद्ध मठो को तुडवा दिया और भिक्षुओं का कत्ले-आम करा दिया| हेन् सांग कि अनुसार मिहिरकुल ने उत्तर भारत से बौधों का नामो-निशान मिटा दिया|

गांधार क्षेत्र में मिहिरकुल के भाई के विद्रोह के कारण, उत्तर भारत का साम्राज्य उसके हाथ से निकल कर, उसके विद्रोही भाई के हाथ में चला गया| किन्तु वह शीघ्र ही कश्मीर का राजा बन बैठा| कल्हण ने बारहवी शताब्दी में राजतरंगिणीनामक ग्रन्थ में कश्मीर का इतिहास लिखा हैं| उसने मिहिरकुल का, एक शक्तिशाली विजेता के रूप में ,चित्रण किया हैं| वह कहता हैं कि मिहिरकुल काल का दूसरा नाम था, वह पहाड से गिरते है हुए हाथी कि चिंघाड से आनंदित होता था| उसके अनुसार मिहिरकुल ने हिमालय से लेकर लंका तक के इलाके जीत लिए थे| उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक  नगर बसाया| कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ने कश्मीर में श्रीनगर के पास मिहिरेशवर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया था| उसने गांधार इलाके में ब्राह्मणों को १००० अग्रहार (ग्राम) दान में दिए थे| कल्हण मिहिरकुल हूण को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं|

मिहिरकुल ही नहीं वरन सभी हूण शिव भक्त थे| हनोल ,जौनसार बावर, उत्तराखंड में स्थित महासु देवता (महादेव) का मंदिर हूण स्थापत्य शैली का शानदार नमूना हैं, कहा जाता हैं कि इसे हूण भट ने बनवाया था| यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि भट का अर्थ योद्धा होता हैं |

हाडा लोगों के आधिपत्य के कारण ही कोटा-बूंदी इलाका हाडौती कहलाता हैं राजस्थान का यह हाडौती सम्भाग कभी हूण प्रदेश कहलाता था| आज भी इस इलाके में हूणों गोत्र के गुर्जरों  के अनेक गांव हैं| यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध इतिहासकार वी. ए. स्मिथ, विलियम क्रुक आदि ने गुर्जरों को श्वेत हूणों से सम्बंधित माना हैं| इतिहासकार कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों की उत्त्पत्ति श्वेत हूणों की खज़र शाखा से मानते हैं | बूंदी इलाके  में रामेश्वर महादेव, भीमलत और झर महादेव हूणों के बनवाये प्रसिद्ध शिव मंदिर हैं| बिजोलिया, चित्तोरगढ़ के समीप स्थित मैनाल कभी हूण राजा अन्गत्सी की राजधानी थी, जहा हूणों ने तिलस्वा महादेव का मंदिर बनवाया था| यह मंदिर आज भी पर्यटकों और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता हैं| कर्नल टाड़ के अनुसार बडोली, कोटा में स्थित सुप्रसिद्ध शिव मंदिर पंवार/परमार वंश के हूणराज ने बनवाया था|

इस प्रकार हम देखते हैं की हूण और उनका नेता मिहिरकुल भारत में बौद्ध धर्म के अवसान और शैव धर्म के विकास से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं| शिवरात्रि के दिन शिव भक्त सम्राट मिहिर कुल  को भी याद किया जाना चाहिये|

  सन्दर्भ ग्रन्थ

1.  K C Ojha, History of foreign rule in Ancient India,  Allahbad, 1968.
2. Prameswarilal Gupta, Coins, New Delhi, 1969.
3. R C Majumdar, Ancient Iindia.
4. Rama Shankar Tripathi, History of Ancient India, Delhi, 1987.
5. Atreyi Biswas, The Political History of Hunas in India, Munshiram Manoharlal Publishers, 1973.
6. Upendera Thakur, The Hunas in India.
7. Tod, Annals and Antiquities of Rajasthan, vol.2
8. J M Campbell, The Gujar, Gazeteer of Bombay Presidency, vol.9, part.2, 1896
9. D R Bhandarkarkar Gurjaras, J B B R A S, Vol.21, 1903
10. Tod, Annals and Antiquities of Rajasthan, edit. William Crooke, Vol.1, Introduction
11. P C Bagchi, India and Central Asia, Calcutta, 1965
12. V A Smith, Earley History of India
                                                                                                      (Dr. Sushil Bhati)