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Monday, December 4, 2017

गुर्जर प्रतीक चिन्ह - कनिष्क का शाही निशान

The Royal Insignia of Kanishka

डॉ सुशील भाटी

Key words- Shiva, Durga, Pashupatastra, Brahmashira astra, Brahmastra, Nandipada, Kanishka, Four pronged tamga

The Royal Insignia of Kanishka
सम्राट कनिष्क के सिक्को पर पाए जाने वाले शाही निशान को कनिष्क का तमगा भी कहते है| कनिष्क के तमगे में ऊपर की तरफ चार नुकीले काटे के आकार की रेखाए हैं तथा नीचे एक खुला हुआ गोला हैं इसलिए इसे चार शूल वाला ‘चतुर्शूल तमगा” भी कहते हैं| कनिष्क का ‘चतुर्शूल तमगा” सम्राट और उसके वंश / ‘कबीले’ का प्रतीक हैं| इसे राजकार्य में शाही मोहर के रूप में भी प्रयोग किया जाता था| कनिष्क के पिता विम कडफिस ने सबसे पहले ‘चतुर्शूल तमगाअपने सिक्को पर शाही निशान के रूप में प्रयोग किया था| विम कडफिस शिव का उपासक था तथा उसने माहेश्वर की उपाधि धारण की थी| माहेश्वर का अर्थ हैं- शिव भक्त


शिव (ओशो) तथा चतुर्शूल तमगे को दर्शाता कनिष्क का सिक्का 

शैव चिन्ह पूर्व में भी तमगे के रूप में प्रयोग हो रहे थे|  नंदी बैल के पैर का निशान वाला ‘नन्दीपद तमगा’ शासको द्वारापूर्व में भी सिक्को पर प्रयोग किया गया था| इसलिए कुछ इतिहासकारों का मानना हैं कि चतुर्शूल तमगा शिव की सवारी ‘नंदी बैल के पैर के निशान’ और शिव के हथियार ‘त्रिशूल’ का ‘मिश्रण’ हैं| अतः विम कड्फिस और कनिष्क का तमगा एक शैव चिन्ह हैं|  तमगे का नीचे वाला भाग नंदीपद जैसा हैं, परन्तु इसमें त्रिशूल के तीन शूलो के स्थान पर चार शूल हैं?

त्रिशूल के अतिरिक्त, शिव के पास चार शूल वाला एक और परम शक्तिशाली अस्त्र हैं, जिसे पौराणिक साहित्य में पाशुपतास्त्र कहा गया हैं| मान्यता हैं कि शिव पाशुपतास्त्र से दैत्यों का संहार करते हैं तथा युग के अंत में इससे सृष्टी का विनाश करेंगे| पाशुपतास्त्र एक प्रकार का ब्रह्मशिर अस्त्र हैं| वस्तुतः ब्रह्मशिर अस्त्र एक प्रकार का ब्रह्मास्त्र हैं| सभी ब्रह्मास्त्र ब्रह्मा द्वारा निर्मित अति शक्तिशाली और संहारक अस्त्र हैं| हैं| ब्रह्मशिर अस्त्र साधारण ब्रह्मास्त्र से चार गुना शक्तिशाली हैं| साधारण ब्रह्मास्त्र की तुलना आधुनिक परमाणु बम तथा ब्रह्मशिर अस्त्र की तुलना हाइड्रोजन बम से की जा सकती हैं| ब्रह्मशिर अस्त्र के सिरे पर ब्रह्मा के चार मुख दिखाई पड़ते हैं, अतः दिखने में यह एक चतुर्शूल भाला अथवा एक तीर हैं| इसे चार प्रकार से चलाया जा सकता हैं- संकल्प से , दृष्टी से , वाणी से और कमान से| शिव के पाशुपतास्त्र (ब्रह्मशिर) में चार शूल हैं, अतः विम कड्फिस और कनिष्क के तमगे के चार शूल इसका प्रतिनिधित्व करते हैं|

कनिष्क के तमगे में चतुर्शूल पाशुपतास्त्र (ब्रह्मशिर) का प्रतिनिधित्व करता हैं, क्योकि प्राचीन भारत में पाशुपतास्त्र (ब्रह्मशिर) के अंकन का अन्य उदहारण भी हैं|  राजघाट, वाराणसी से एक मोहर प्राप्त हुई हैं, जिस पर दो हाथ वाली एक देवी तथा गुप्त लिपि में दुर्ग्गाह उत्कीर्ण हैं, देवी के उलटे हाथ में माला तथा तथा सीधे हाथ में एक चार शूल वाली वस्तु हैं| चार शूल वाली यह वस्तु पाशुपतास्त्र (ब्रह्मशिर अस्त्र) हैं, क्योकि पाशुपतास्त्र शिव की पत्नी दुर्गा का भी अस्त्र हैं| दुर्गा ‘नाना’ के रूप में कुषाणों की अधिष्ठात्री देवी हैं| रबाटक अभिलेख के अनुसार नाना (दुर्गा) कनिष्क की सबसे सम्मानीय देवी थी तथा नाना (दुर्गा) के आशीर्वाद से ही उसे राज्य की प्राप्ति हुई थी| अतः खास तौर से दुर्गा के हाथ में ‘पाशुपतास्त्र’ (ब्रह्मशिर) के अंकन से यह बात और भी अधिक प्रबल हो जाती हैं कि कनिष्क के तमगे में उत्कीर्ण चार शूल पाशुपतास्त्र का ही प्रतिनिधत्व करते हैं| नाना देवी का नाम आज भी नैना देवी (दुर्गा) के नाम में प्रतिष्ठित हैं| इनका मंदिर बिलासपुर, हिमांचल प्रदेश में स्थित हैं| यह मान्यता हैं कि नैना देवी की मूर्ती (पिंडी) की खोज एक गूजर ने की थी| ए. कनिंघम ने गूजरों की पहचान ऐतिहासिक कोशानो (कुषाणों) के रूप में की हैं| अतः कुषाणों का नाम आज भी नाना (दुर्गा) से जुड़ा हुआ हैं|

आंध्र प्रदेश के विजयवाडा स्थित ‘कनक दुर्गा’ मंदिर का नाम और इसकी स्थपना की कथा भी कनिष्क का नाम दुर्गा पूजा मत तथा शिव-दुर्गा के पाशुपतास्त्र से जोड़ते हैं| छठी शताब्दी में भारवि द्वारा लिखित ‘किरातार्जुनीयम्’ के अनुसार शिव और अर्जुन के बीच एक युद्ध आंध्र प्रदेश के विजयवाडा स्थित इन्द्र्कीलाद्री पर्वत पर हुआ था| युद्ध के पश्चात, शिव ने अर्जुन की वीरता से प्रसन्न होकर, उसे पाशुपतास्त्र (ब्रह्मशिर अस्त्र, चार शूल वाला तीर) प्रदान किया| शिव के अतिरिक्त पाशुपतास्त्र शिव की पत्नी दुर्गा का अस्त्र हैं| अतः अर्जुन ने इसी स्थान पर दुर्गा की उपासना की तथा भविष्य में कौरवो से होने वाले युद्ध में विजय प्रप्ति के लिए उनका आशीर्वाद प्राप्त किया| अर्जुन इस स्थान पर दुर्गा मंदिर का निर्माण कराया, जो अब कनक दुर्गा के नाम से जाना जाता हैं| अल बिरूनी (975-1048 ई.) ने अपनी पुस्तक तह्कीके हिन्द में कनिष्क को कनक (कनिक) लिखा हैं| अतः कनक दुर्गा मंदिर का नाम इसके कनिष्क से सम्बंधित होने का संकेत करता हैं| सातवी शताब्दी में हिंदुस्तान आने वाले चीनी तीर्थयात्री वांग हसूँ-त्से (Wang Hsuan-tse) के अनुसार कनिष्क ने महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के सातवाहन शासक पर आक्रमण भी किया था| अतः संभव हैं कनिष्क विजयवाडा आया हो तथा उसने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया हो| अतः यह तथ्य कि अर्जुन के द्वारा बनवाया गया दुर्गा मंदिर कनिष्क के नाम से जाना जाता हैं, कनिष्क के नाम को दुर्गा पूजा मत के विकास और पाशुपतास्त्र (ब्रह्मशिर अस्त्र, चार शूल वाला तीर) के प्राप्तकर्ता अर्जुन के नाम से समीकृत एवं सम्बंधित करता हैं|

शिव और दुर्गा पति-पत्नी हैं, इसलिए उनसे सम्बंधित धार्मिक विश्वासों को कई बार संयुक्त रूप से देखा जाना अधिक उचित हैं| शैव मत की तरफ झुकाव रखने वाले कोशानो सम्राटो की दुर्गा पूजा मत के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका थी| अतः कोशानो सम्राटो के सिक्को पर शिव-दुर्गा के पाशुपतास्त्र का अंकन एक स्वाभविक प्रक्रिया हैं| निष्कर्षतः  कनिष्क का शाही निशान ‘चतुर्शूल तमगा’ शिव-दुर्गा के पाशुपतास्त्र तथा नंदी के के पैर के निशान का मिश्रण हैं|

सन्दर्भ ग्रन्थ -

1.      भास्कर चट्टोपाध्याय, दी ऐज ऑफ़ कुशान्स- ए न्यूमिसमैटिक स्टडी, कलकत्ता, 1967
2.      भारत भूषण, दी अमेजिंग आर्चर, लोनावाला, 2011
3.      श्री पद्म, विसिस्सीटयूड्स ऑफ़ दी गॉडेस: रीकंस्ट्रक्शन ऑफ़ दी ग्रामदेवता, 2013
4.      जॉन एम, रोजेनफील्ड, दी डायनेस्टिक आर्ट्स ऑफ़ कुशान्स
5.      जे. ए. बी. वैन ब्युइतेनेन (संपादक), दी महाभारत, खंड I, शिकागो, 1973
6.       मैग्गी लिड्ची-ग्रैस्सी, दी ग्रेट गोल्डन सैक्रिफाइस ऑफ़ दी महाभारत, नोइडा, 2011
7.      बी. एन. मुख़र्जी, नाना ऑन लायन: ए न्यूमिसमैटिक स्टडी, एशियाटिक सोसाइटी, 1969
8.      उमाकांत पी. शाह, जैन-रूप-मंडन (जैन इकोनोग्राफी), नई दिल्ली, 1987
9.       चिदत्मन (स्वामी), दी रिलीजियस स्क्रिपचर ऑफ़ इंडिया, खंड I, 2009





Thursday, October 19, 2017

दीपावली/अन्नकूट - नव वर्ष का शुभारम्भ

डॉ सुशील भाटी

गुजरात में दीपावली, कार्तिक की अमावस्या, विक्रमी संवत का अंतिम दिन होता हैं तथा दीपावली से अगला दिन, कार्तिक की शुक्ल पक्ष प्रतिपदा, विक्रमी संवत का पहला दिन होता हैं| इस प्रकार गुजरात में दीपावली से अगले दिन नव वर्ष ‘नूतन वर्ष’ बेस्टू वर्ष’ के रूप में मनाया जाता हैं हैं, इसे विक्रमी नवसंवत्सर भी कहते हैं| गुजरात के लोग इस दिन लक्ष्मी पूजन करते हैं तथा नव वर्ष दिवस को ‘अन्नकूट’ के नामक त्यौहार के रूप में मनाते हैं| गुजरात ही नहीं उत्तर भारत के अन्य राज्यों के व्यापारी समुदाय भी कार्तिक की शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को नव वित्तीय वर्ष के रूप में मानते हैं और इस दिन से अपने व्यापारिक खातो को बंद कर नए खातो की शुरुआत करते हैं| परम्परागत रूप से भारत में दीपावली की व्यापारी बनिया समुदाय के त्यौहार के रूप में मान्यता रही हैं| इस प्रकार दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी पूजन कर व्यापारी समुदाय नव का शुभारम्भ करता हैं, यह परम्परा गुजरात में अधिक स्पष्ट और बलवान हैं|

वैसे उत्तर भारत में दीपावली से अगले दिन, कार्तिक की शुक्ल पक्ष प्रतिपदा, को गोवर्धन पूजा का त्यौहार धूम-धाम से मनाया जाता हैं परन्तु उसमे नव वर्ष दिवस जैसा कुछ नहीं होता|

गुजरात तथा उत्तर भारत के परम्परागत व्यापारी समुदाय के इस नव वर्ष दिवस की जानकारी इस मायने में भी महत्वपूर्ण हैं कि शेष उत्तर भारत में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा नहीं बल्कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को विक्रमी संवत का नव वर्ष दिवस होता हैं|

सन्दर्भ- 

भोजराज दिवेदी, रिलीजियस बेसिस ऑफ़ हिन्दू बिलीफ्स,

http://hindupad.com/gujarati-new-year-nutan-varsh-bestu-varsh-in-gujarat/

Tuesday, September 5, 2017

गुर्जर इतिहास चेतना के सूत्र

डॉ सुशील भाटी

प्राचीन गुर्जर इतिहास को समझने के लिए तीन बिन्दु हैं - कुषाण साम्राज्य (50- 250ई.), हूण साम्राज्य (490-542 ई.) तथा गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य (725-1018 ई.)| प्राचीन भारत में गुर्जरों के पूर्वजों द्वारा स्थापित किये गए इन साम्राज्यों के क्रमश सम्राट कनिष्क (78-101 ई.), सम्राट मिहिरकुल (502-542 ई.) और सम्राट मिहिर भोज (836-886 ई.) प्रतिनिधि आइकोन हैं| 

गुर्जर समाज में इतिहास चेतना उत्पन्न करने हेतु “सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क” की जयंती ‘सूर्य षष्ठी’ छठ पूजा के दिन वर्षो से मनाई जाती रही हैं| भारत में सूर्य पूजा का प्रचलन अति प्राचीन काल से ही हैपरन्तु ईसा की प्रथम शताब्दी में, कुषाण कबीलों ने इसे विशेष रूप से लोकप्रिय बनाया। कुषाण मुख्य रूप से मिहिर ‘सूर्य’ के उपासक थे। सूर्य का एक पर्यायवाची ‘मिहिर’ हैजिसका अर्थ हैवह जो धरती को जल से सींचता हैसमुद्रों से आर्द्रता खींचकर बादल बनाता है। सम्राट कनिष्क की मिहिर ‘सूर्य’ के प्रति आस्था को प्रकट करने वाले अनेक पुरातात्विक प्रमाण हैं| कुषाण सम्राट कनिष्क ने अपने सिक्कों पर मीरों ‘मिहिर’ देवता  का नाम और चित्र अंकित कराया था|  सम्राट कनिष्क के सिक्के में मिहिर ‘सूर्य’ बायीं और खड़े हैं। भारत में सिक्कों पर सूर्य का अंकन किसी शासक द्वारा पहली बार हुआ था। पेशावर के पास ‘शाह जी की ढेरी’ नामक स्थान पर एक बक्सा प्राप्त हुआ इस पर कनिष्क के साथ सूर्य एवं चन्द्र के चित्र का अंकन हुआ है। मथुरा के सग्रहांलय में लाल पत्थर की अनेक सूर्य प्रतिमांए रखी हैजो कुषाण काल की है। इनमें भगवान सूर्य को चार घोड़ों के रथ में बैठे दिखाया गया है। वे कुर्सी पर बैठने की मुद्रा में पैर लटकाये हुये है। उनका शरीर ‘औदिच्यवेश’ अर्थात् पगड़ी लम्बा कोट और सलवार से ढका है और वे ऊंचे जूते पहने हैं। उनकी वेशभूषा बहुत कुछमथुरा से ही प्राप्त  कनिष्क की सिरविहीन प्रतिमा जैसी है। भारत में ये सूर्य की सबसे प्राचीन मूर्तियां है| भारत में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना मुल्तान में हुई थी, जिसे कुषाणों ने बसाया था। इतिहासकार डी. आर. भण्डारकर के अनुसार कनिष्क के शासन काल  में ही सूर्य एवं अग्नि के पुरोहित मग ब्राह्मणों ने  भारत में प्रवेश किया। उसके बाद ही उन्होंने कासाप्पुर ‘मुल्तान’ में पहली सूर्य प्रतिमा की स्थापना की। ए. एम. टी. जैक्सन के अनुसार  मारवाड़ क्षेत्र स्थित भीनमाल में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण काश्मीर के राजा कनक ‘सम्राट कनिष्क’ ने कराया था। सातवी शताब्दी में यही भीनमाल आधुनिक राजस्थान में विस्तृत ‘गुर्जर देश’ की राजधानी बना।  कनिष्क मिहिर और अतर ‘अग्नि’ के अतरिक्त कार्तिकेय, शिव तथा बुद्ध आदि भारतीय देवताओ का उपासक था| कनिष्क ने भारत में कार्तिकेय की पूजा को विशेष बढ़ावा दिया। कनिष्क के बेटे हुविष्क का चित्रण उसके सिक्को पर महासेन 'कार्तिकेय' के रूप में किया गया हैं| आधुनिक पंचाग में सूर्य षष्ठी एवं कार्तिकेय जयन्ती एक ही दिन पड़ती है|  कोई चीज है प्रकृति में जिसने इन्हें एक साथ जोड़ा है-वह है सम्राट कनिष्क की आस्था। ‘सूर्य षष्ठी’ के दिन सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क को भी याद किया जाना चाहिये और उन्हें भी श्रद्धांजलि दी जानी चाहिये।  

इसी क्रम में“शिव भक्त सम्राट मिहिरकुल हूण” की जयंती ‘सावन की शिव रात्रि’ पर मनाई जाती हैं| मिहिकुल हूण एक कट्टर शैव था|  मिहिरकुल को ग्वालियर अभिलेख में भी शिव भक्त कहा गया हैंमिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं जिसका अर्थ हैं- जय नंदी| वृष शिव कि सवारी हैं जिसका नाम नंदी हैं| उसने अपने शासन काल में अनेक शिव मंदिर बनवायेमंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु ‘शिव’ के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सर नहीं झुकाया थाकल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक  नगर बसाया तथा श्रीनगर के पास मिहिरेशवर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया थाउसने गांधार इलाके में ब्राह्मणों को 1000 ग्राम दान में दिए थेकल्हण मिहिरकुल हूण को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं| मिहिरकुल ही नहीं वरन सभी हूण शिव भक्त थेहनोल ,जौनसार – बावरउत्तराखंड में स्थित महासु देवता “महादेव” का मंदिर हूण स्थापत्य शैली का शानदार नमूना हैंकहा जाता हैं कि इसे हूण भट ने बनवाया थायहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि भट का अर्थ योद्धा होता हैं | तोरमाण और मिहिरकुल के ‘अलखान हूण परिवार ’ के पतन के बाद हूणों के इतिहास के प्रमाण राजस्थान के हाडौती और मेवाड़ के पहाड़ी इलाको से प्राप्त होते हैं| पूर्व मध्य काल में कोटा-बूंदी का क्षेत्र हूण प्रदेश कहलाता था| ऐतिहासिक हूणों के प्रतिनिधि के तौर पर वर्तमान में इस क्षेत्र में हूण गुर्जर काफी संख्या में पाए जाते हैं| बूंदी इलाके में रामेश्वर महादेव,  भीमलत और झर महादेव हूणों के बनवाये प्रसिद्ध शिव मंदिर हैं बिजोलियाचित्तोरगढ़ के समीप स्थित मैनाल कभी हूण राजा अन्गत्सी की राजधानी थीजहा हूणों ने तिलस्वा महादेव का मंदिर बनवाया थाचंबल के निकट स्थित भैंसोरगढ़ से तीन मील की दूरी पर बाडोली का प्रसिद्ध प्राचीन शिव मंदिर हैं| मंदिर के आगे एक मंडप हैं जिसे लोग ‘हूण की चौरी’ कहते हैं| कर्नल टाड़ के अनुसार बडोली में स्थित सुप्रसिद्ध  शिव मंदिर के हूणराज ने बनवाया था|

भादो के शुक्ल पक्ष की तीज को वराह जयंती होती हैं| गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज की उपाधि आदि वराहथी, जोकि उसके सिक्को पर उत्कीर्ण थी|| अतः इस दिन सम्राट मिहिर भोज को भी याद किया जाता हैं|आदि वराहआदित्य वराह का संक्षिप्त रूप हैं| आदित्य सूर्य का पर्यायवाची हैं| इस प्रकार आदि वराह सूर्य से संबंधित देवता हैं| वराह देवता इस मायने में भी सूर्य से सम्बंधित हैं कि वे भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं, जोकि वेदों में सौर देवता के रूप में प्रतिष्ठित हैं| विष्णु भगवान को सूर्य नारायण भी कहते हैंआदि वराह के अतिरिक्त वराह और सूर्य शब्दों की संयुक्तता कुछ प्राचीन स्थानो और ऐतिहासिक व्यक्तियों के नामो में भी दिखाई देती हैं, जैसे- उत्तर प्रदेश के बहराइच नगर का नाम वराह और आदित्य शब्दों से वराह+आदित्य= वराहदिच्च/ वराहइच्/ बहराइच होकर बना हैं| कश्मीर में बारामूला नगर हैं, जिसका नाम वराह+मूल = वराहमूल शब्द का अपभ्रंश हैं| आदित्य की भाति मूलशब्द भी सूर्य का पर्यायवाची हैं| प्राचीन मुल्तान नगर का नाम भी मूलस्थान शब्द का परिवर्तित रूप हैं| भारतीय नक्षत्र विज्ञानी वराहमिहिर (505-587 ई.) के नाम में तो दोनों शब्द एक दम साफ़ तौर पर देखे जा सकते हैं क्योकि मिहिर का अर्थ भी सूर्य हैंमिहिर और आदि वराह दोनों ही गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज की उपाधि हैं| अतः "मिहिर भोज स्मृति दिवस" को मिहिरोत्सवके रूप में भी मना सकते हैं|

मिहिर शब्द का गुर्जरों के इतिहास के साथ गहरा सम्बंध हैं| हालाकि गुर्जर चौधरी, पधान ‘प्रधान’, आदि उपाधि धारण करते हैं, किन्तु ‘मिहिर’ गुर्जरों की विशेष उपाधि हैं| राजस्थान के अजमेर क्षेत्र और पंजाब में गुर्जर मिहिर उपाधि धारण करते हैं| मिहिर ‘सूर्य’ को कहते हैं| भारत में सर्व प्रथम सम्राट कनिष्क कोशानो ने ‘मिहिर’ देवता का चित्र और नाम अपने सिक्को पर उत्कीर्ण करवाया था| कनिष्क ‘मिहिर’ सूर्य का उपासक था| उपाधि के रूप में सम्राट मिहिर कुल हूण ने इसे धारण किया था| मिहिर कुल का वास्तविक नाम गुल था तथा मिहिर उसकी उपाधि थी| मिहिर गुल को ही मिहिर कुल लिखा गया हैं| कैम्पबैल आदि इतिहासकारों के अनुसार हूणों को मिहिर भी कहते थे| गुर्जर प्रतिहार सम्राट भोज महान ने भी मिहिर कुल की भाति मिहिर उपाधि धारण की थी| इसीलिए इतिहासकार इन्हें मिहिर भोज भी कहते हैं| संभवतः “गुर्जर प्रतिहारो की हूण विरासत” रही हैं| मिहिर उपाधि की परंपरा गुर्जरों की ऐतिहासिक विरासत को सजोये और संरक्षित रखे हुए हैं|

मशहूर पुरात्वेत्ता एलेग्जेंडर कनिंघम इतिहास प्रसिद्ध कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की हैं| उनके अनुसार गुर्जरों का कसाना गोत्र कुषाणों का वर्तमान प्रतिनिधि हैं| उसकी बात का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि गुर्जरों का कसाना गोत्र क्षेत्र विस्तार एवं संख्याबल की दृष्टि से सबसे बड़ा है। कसाना गौत्र अफगानिस्तान से महाराष्ट्र तक फैला है और भारत में केवल गुर्जर जाति में मिलता है। ऐतिहासिक तौर पर कनिष्क द्वारा स्थापित कुषाण साम्राज्य गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हैं, क्योकि यह मध्य और दक्षिण एशिया के उन सभी देशो में फैला हुआ था, ज़हाँ आज गुर्जर निवास करते हैं| कुषाण साम्राज्य के अतरिक्त गुर्जरों से सम्बंधित कोई अन्य साम्राज्य नहीं हैं, जोकि पूरे दक्षिणी एशिया में फैले गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए अधिक उपयुक्त हो| यहाँ तक की मिहिर भोज द्वारा स्थापित प्रतिहार साम्राज्य केवल उत्तर भारत तक सीमित था, तथा पश्चिमिओत्तर में करनाल इसकी बाहरी सीमा थी| कनिष्क के साम्राज्य का एक अंतराष्ट्रीय महत्व हैं, दुनिया भर के इतिहासकार इसमें अकादमिक रूचि रखते हैं| सम्राट कनिष्क कोशानो 78 ई. में राजसिंघासन पर बैठा| अपने राज्य रोहण को यादगार बनाने के लिए उसने इस अवसर पर एक नवीन संवत चलाया, जिसे शक संवत कहते हैं| शक संवत भारत का राष्ट्रीय संवत हैं| “भारतीय राष्ट्रीय संवत- शक संवत” 22 मार्च को शुरू होता हैं| इस प्रकार 22 मार्च सम्राट कनिष्क के राज्य रोहण की वर्षगाठ हैं| दक्षिणी एशिया विशेष रूप से गुर्जरों के प्राचीन इतिहास में यह एक मात्र तिथि हैं जिसे अंतराष्ट्रीय रूप से प्रचलित जूलियन कलेंडर के अनुसार निश्चित किया जा सकता हैं| सम्राट कनिष्क के राज्य रोहण की वर्षगाठ के अवसर पर वर्ष 2013 से मनाया जाने वाला  “22 मार्च- इंटरनेशनल गुर्जर डे” आज देश-विदेश में बसे गुर्जरो के बीच एकता और भाईचारे से परिपूर्ण उत्सव का रूप ले चुका हैं|

गुर्जर चिन्ह (Gujjar Logo) - सम्राट कनिष्क के सिक्के पर उत्कीर्ण पाया जाने वाला ‘राजसी चिन्ह’ जिसे ‘कनिष्क का तमगा’ भी कहते हैं, आज गुर्जर समुदाय की पहचान बन कर उनके वाहनों, स्मृति चिन्हों, घरो और उनके कपड़ो तक पर अपना स्थान ले चुका हैं| सम्राट कनिष्क का राजसी चिन्ह गुर्जर कौम की एकता, उसके गौरवशाली इतिहास और विरासत के प्रतीक के रूप में उभरा हैं| कनिष्क के तमगे में ऊपर की तरफ चार नुकीले काटे के आकार की रेखाए हैं तथा नीचे एक खुला हुआ गोला हैं| कुषाण सम्राट शिव के उपासक थे| कनिष्क के अनेक सिक्को पर शिव मृगछाल, त्रिशूल, डमरू और कमण्डल के साथ उत्कीर्ण हैं|  कनिष्क का राजसी निशान “शिव के त्रिशूल” और उनकी की सवारी “नंदी बैल के पैर के निशान” का समन्वित रूप हैं| सबसे पहले इस राज चिन्ह को कनिष्क के पिता सम्राट विम कड्फिस ने अपने सिक्को पर उत्कीर्ण कराया था| विम कड्फिस शिव का परम भक्त था तथा उसने माहेश्वर की उपाधि धारण की थी| उसने अपने सिक्को पर शिव और नंदी दोनों को उत्कीर्ण कराया था| यह राजसी चिन्ह कुषाण राजवंश और राजा दोनों का प्रतीक था तथा राजकार्य में मोहर के रूप में प्रयोग किया जाता था|

सन्दर्भ:

1. भगवत शरण उपाध्यायभारतीय संस्कृति के स्त्रोतनई दिल्ली, 1991,
2. रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिकाखंड-1 मेरठ, 2006
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6. ए. एम. टी. जैक्सनभिनमाल (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896
7. विन्सेंट ए. स्मिथदी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडियाचोथा संस्करणदिल्ली,
8. जे.एम. कैम्पबैलदी गूजर (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2, बोम्बे, 1899
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10.बी. एन. पुरी. हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहारनई दिल्ली, 1986
11. डी. आर. भण्डारकरगुर्जर (लेख)जे.बी.बी.आर.एस. खंड 21, 1903
12 परमेश्वरी लाल गुप्तकोइन्स. नई दिल्ली, 1969
13. आर. सी मजुमदारप्राचीन भारत
14. रमाशंकर त्रिपाठीहिस्ट्री ऑफ ऐन्शीएन्ट इंडियादिल्ली, 1987
15. राम शरण शर्माइंडियन फ्यूडलिज्मदिल्ली, 1980
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19. स्टडीज़ इन इंडो-एशियन कल्चरखंड 1, इंटरनेशनल एकेडमी ऑफ इंडियन कल्चर, 1972,
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21. जी. ए. ग्रीयरसनलिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडियाखंड IX  भाग IV, कलकत्ता, 1916
22. के. एम. मुंशीदी ग्लोरी देट वाज़ गुर्जर देशबोम्बे, 1954 
23. भास्कर चट्टोपाध्याय, दी ऐज ऑफ़ दी कुशान्स, कलकत्ता, 1967


Thursday, June 29, 2017

भारत में हूण पहचान की निरंतरता : हूण गुर्जरों के गाँवो का सर्वेक्षण

डा. सुशील भाटी

बुहलर, होर्नले, वी. ए. स्मिथविलियम क्रुक आदि इतिहासकारो ने गुर्जरों को श्वेत हूणों से सम्बंधित माना हैं कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों की उत्पत्ति श्वेत हूणों की खज़र शाखा से बताते हैं| भारत में आज भी ‘हूण’ गुर्जरों का एक प्रमुख गोत्र हैं जिसकी आबादी अनेक प्रदेशो में हैं|

छठी शताब्दी के उतरार्ध में हूण साम्राज्य के पतन के बाद हूण गुर्जरों की उपस्थिति नवी-दसवी शताब्दी में पंजाब में प्रमाणित होती हैं| हूण सम्राट तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरकुल (502-542) ई. के सिक्को पर उनके कुल का नाम ‘अलखान’ अंकित हैं| राजतरंगिणी के अनुसार पंजाब के शासक ‘अलखान’ गुर्जर का युद्ध कश्मीर के राजा शंकर वर्मन (883- 902 ई.) के साथ हुआ था| इतिहासकार हरमट के अनुसार हूणों के सिक्को पर बाख्त्री भाषा में उत्कीर्ण ‘अलखान’ वही नाम हैं जोकि कल्हण की राजतरंगिणी में उल्लेखित गुर्जर राजा का हैं| इतिहासकार अलार्म के अनुसार ‘अलखान’ हूण शासको की क्लेन / कुल का नाम हैं| इतिहासकार बिवर के अनुसार मिहिरकुल का उतराधिकारी ‘अलखान’ था| अतः भारत में हूण साम्राज्य के पतन के बाद भी पंजाब में तोरमाण और मिहिरकुल के परिवार की शक्ति अक्षुण बनी रही तथा नवी शताब्दी में पंजाब पर शासन करने वाला अलखान गुर्जर उनके ‘अलखान’ परिवार का वारिस था| 

वर्तमान में उत्तराखंड राज्य के हरिद्वार जिले में लक्सर कस्बे के पास हूण गोत्र का “चौगामा” यानि चार गाँव का समूह हैं| कुआँ खेडा, मखयाली, रहीमपुर और भुर्ना गाँव इस ‘हूण’ चौगामे का हिस्सा हैं| इनके अतिरिक्त मंगलोर के पास बिझोली गाँव में हूण गुर्जर हैं| वास्तविकता में कुआ खेडा गाँव के एक हूण परिवार के पूर्वज बिझोली से आकर बसे थे| बिझोली गाँव में आज भी इस परिवार की पुश्तैनी ‘सती देवी’ के मंदिर हैं| कुआ खेडा का दूसरा परिवार कनखल स्थित प्राचीन मायापुरी नगरी से आया हैं| मायापुरी में भी इनके पूज्य सती मंदिर हैं| इनके अतिरिक्त उत्तराखंड के हरिद्वार जिले मे ही झबरेडा के पास हूण गुर्जरों का एक बड़ा गाँव हैं, जिसका नाम ‘लाठ्हरदेवा हूण’ हैं|

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में सरसावा रेलवे स्टेशन के पास ‘अलीपुर-काजीपुर’ हूण गुर्जरों के गाँव हैं| मुज़फ्फरनगर जिले में पुरकाजी के पास शकरपुर और भदोलीगाँव  में हूण गोत्र के गुर्जर हैं|

उत्तर प्रदेश के हापुड़ और मेरठ जिले में हूण गोत्र के गुर्जरों का बारहा हैं| बारहा  का अर्थ हैं-12 गाँव की खाप या समूह| गोहरा, मुदाफरा, औरंगाबाद, मुक्तेसरा, माधोपुर, पीरनगर, दतियाना, सालारपुर, सुकलमपुरा, मडैय्या, अट्टा और नवल इस ‘हूण खाप’ के गाँव हैं| इसमें पहले 11 गाँव हापुड़ जिले में तथा बारहवा गाँव नवल मेरठ जिले में हैं| मेरठ में शाहजहाँपुर के पास सदुल्लाह्पुर गाँव में भी हूण गुर्जरों के परिवार रहते हैं|  

आगरा जिले में भी हूण गुर्जरों के गाँव हैं|

राजस्थान  में हूण गुर्जर मुख्य रूप से अलवर, भरतपुर, दौसा, अजमेर, सवाई माधोपुर, टोंक, बूंदी, कोटा, चित्तोडगढ और भीलवाड़ा जिले में पाए जाते हैं|  पूर्व मध्य काल में कोटा, बूंदी आदि जिलो का हाड़ोती क्षेत्र हूण प्रदेश कहलाता था| 

अलवर जिले में हूण गुर्जरों के सात गाँव में हूण गुर्जर निवास करते हैं| अलवर जिले की तहसील लक्ष्मण गढ़ में बांदका हूण गुर्जरों का प्रमुख गाँव हैं| भरतपुर जिले में डीग के पास ‘महमदपुर’ हूण गुर्जरों का गाँव हैं| इसी के पास ‘अधावाली’ गाँव में भी हूण गुर्जरों के कुछ परिवार निवास करते हैं| भरतपुर जिले के बसावर क्षेत्र में ‘इटामदा’ और ‘महतोली’ हूण गुर्जरों के गाँव हैं| दौसा जिले में सिकंदरा के पास ‘पीपलकी’ हूण गुर्जरों का प्रसिद्ध गाँव हैं, जोकि अपनी बहादुरी के लिए जाना जाता हैं| अजमेर जिले में ‘नारेली’, ‘लवेरा’, ‘बासेली’, घोड़दा और ‘भेरूखेड़ा’ हूण गुर्जरों के मुख्य गाँव हैं| टोंक जिले में सरोली, ‘गांवडी’, ‘कल्याणपुर’, ‘बसनपुरा’, ‘चान्दली माता’ और ‘रंगविलास’ ग्रामो में हूण गुर्जरों का निवास हैं| गांवडी गाँव में हूण गुर्जरों का पूज्य एक सती मंदिर भी हैं| कहते हैं कि गांवडी में पहले तंवर गुर्जर रहते थे| इन्होने अपनी एक बेटी का विवाह भीलवाड़ा जिले के टीकर गाँव के हूण गुर्जर के साथ कर दिया| किसी कारण वश दोनों परिवारों में संघर्ष हो गया| जिसमे तंवर परिवार के दामाद की मृत्यु हो गई और उसकी पत्नी सती हो गई| बाद में हूण गुर्जर गाँव में आबाद हो गए और उन्होंने अपनी पूर्वजा की याद में सती मंदिर का निर्माण करवाया| हिण्डोली और बूंदी के कुछ हूण परिवार गांवडी से ही प्रव्रजन कर वहां बसे हैं|

कोटा-बूंदी का क्षेत्र पूर्व मध्य काल में हूण प्रदेश के नाम से जाना जाता था| बूंदी इलाके  में रामेश्वर महादेवभीमलत और झर महादेव हूणों के बनवाये प्रसिद्ध शिव मंदिर हैंबिजोलियाचित्तोरगढ़ के समीप स्थित ‘मैनाल’ कभी हूण राजा अन्गत्सी की राजधानी थीजहा हूणों ने तिलस्वा महादेव का मंदिर बनवाया थायह मंदिर आज भी पर्यटकों और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता हैंकर्नल टाड़ के अनुसार बडोलीकोटा में स्थित सुप्रसिद्ध शिव मंदिर हूणराज ने बनवाया था| आज भी इस इलाके में हूणों गोत्र के गुर्जरों  के अनेक गांव हैं बूंदी शहर के बालचंद पाड़ा मोहल्ले में भी हूण गुर्जरों की पुरानी आबादी हैं| बूंदी जिले में राणीपुरा, नरसिंहपुरा, रामपुरा, झरबालापुरा, सुसाडिया, नीम का खेडा, झाल jआदि हूण गुर्जरों के प्रसिद्ध गाँव हैं| हिण्डोली में नेहडी, सहसपुरिया, टरडक्या, टहला, सलावलिया और खंडिरिया हूण गुर्जरों के गाँव हैं| सती माँ का एक मंदिर ग्राम मांगटला, जिला भीलवाडा में हैं जोकि खंडिरिया, झाल, बूंदी शहर के बालचंद पाड़ा तथा नेहडी के कुछ हूण परिवार की कुल देवी हैं| नेहडी के अधिकांश हूण परिवारो की कुल देवी, सती माँ का मंदिर बूंदी जिले के खेरखटा ग्राम में हैं| कोटा जिले में ‘रोजड़ी’, राजपुरा और पीताम्बपुरा हूण गुर्जरों के मुख्य गाँव हैं|

चित्तोडगढ जिले की बेगू तहसील में ‘पारसोली’ हूण गुर्जरों का प्रमुख गाँव हैं| भीलवाड़ा जिले की जहाजपुर तहसील में टिटोडा. बरोदा,  मोतीपुरा मोहनपुरा और गांगीथला तथा शाहपुरा तहसील में ‘बच्छ खेड़ा’ हूण गुर्जरों के गाँव हैं|  भीलवाड़ा की केकड़ी तहसील में गणेशपुरा गाँव में हूण गुर्जर निवास करते हैं|

छठी शताब्दी के पूर्वार्ध में मध्य प्रदेश के  ग्वालियर क्षेत्र में हूणों का आधिपत्य था| हूण सम्राट मिहिरकुल के शासन काल के पंद्रहवे वर्ष का एक अभिलेख ग्वालियर के पास से एक सूर्य मंदिर से प्राप्त हुआ हैंग्वालियर जिले की डबरा तहसील में भारस हूण गुर्जरों का प्रमुख गाँव हैं| आज भी चंबल संभाग ग्वालियर तथा इसके समीपवर्ती जिलो के गुर्जर बाहुल्य अनेक गाँवो में हूण गुर्जरों की बिखरी  आबादी हैं| ग्वालियर की डबरा तहसील में भारस हूण गुर्जरों का मुख्य गाँव हैं| भरास के पास ही चपराना गुर्जरों का बडेरा गाँव हैं| दोनों गोंवो के लोग पग-पलटा भाई माने जाते हैं तथा आपस में शादी नहीं करते| मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले में नरवर के पास डोंगरी, और टिकटोली हूण गुर्जरों का प्रसिद्ध गाँव हैं| डोंगरी नल-दमयंती के पौराणिक आख्यान के पात्र मनसुख गुर्जर का गाँव माना जाता हैं| मनसुख हूण गोत्र का गुर्जर था तथा राजा नल का दोस्त था| मनसुख गुर्जर ने संकट के समय राजा नल का साथ निभाया था| आम समाज आज भी मनसुख गुर्जर को एक आदर्श दोस्त के रूप में देखता हैं| डोंगरी में एक किले के भग्नावेश भी हैं जोकि मनसुख गुर्जर का किला माना जाता हैं| भारत के प्रथम हूण सम्राट तोरमाण का अभिलेख मध्य प्रदेश के सागर जिले स्थित एरण स्थान से प्राप्त हुआ हैं| मध्य प्रदेश में हूण गुर्जर भोपाल तक पाए जाते हैं|

महाराष्ट्र के दोड़े गुर्जरों में हूण गोत्र हैं| खानदेश गजेटियर के अनुसार दोड़े गुर्जरों के 41 कुल हैं| इनमे से एक अखिलगढ़ के हूण हैं|

सन्दर्भ

1वी. ए. स्मिथ, “दी गुर्जर्स ऑफ़ राजपूताना एंड कन्नौज, जर्नल ऑफ़ दी रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड, 1909, प. 53-75 
2. विलियम क्रुक,” इंट्रोडक्शन”, अनाल्स एंड एंटीक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, खंड I, ( संपा.) कर्नल टॉड
3. ए. आर. रुडोल्फ होर्नले, “सम प्रोब्लम्स ऑफ़ ऐन्शिएन्ट इंडियन हिस्ट्री, संख्या III. दी गुर्जर क्लैन्स”, जे.आर.ए.एस., 1905, प. 1- 32
4. सुशील भाटी, “शिव भक्त सम्राट मिहिरकुल हूण”, आस्पेक्ट ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री, समादक- एन आर. फारुकी तथा एस. जेड. एच. जाफरी, नई दिल्ली, 2013, प. 715-717
5. एम. ए स्टीन (अनु.), राजतरंगिणी, खंड II प. 464
6. जे.एम. कैम्पबैलदी गूजर”बोम्बे गजेटियर, खण्ड IX, भाग 2, 1901, प. 501
7. ए. कुर्बनोव, दी हेप्थालाइटस: आरकिओलोजिकल एंड हिस्टोरिकल एनालिसिस ( पी.एच.डी थीसिस) बर्लिन 2010, प. 100n
8.वी. ए. स्मिथ, “व्हाइट हूण कोइन ऑफ़ व्याघ्रमुख ऑफ़ दी चप (गुर्जर) डायनेस्टी ऑफ़ भीनमाल”, जर्नल ऑफ़ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड, 1907, प 923-928
9. बी. एन. पुरी, हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहारनई दिल्ली, 1986, प. 12-13
10. डी. आर. भण्डारकरफारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन”, इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्डX L, 1911,प
11. खानदेश डिस्ट्रिक्ट गजेटियर

Friday, June 2, 2017

Gurjara Khaps of Rajasthan


Dr Sushil Bhati

In Rajasthan Gurjaras use words ‘Nakh’ for clan and ‘Ghaad’ for khap respectively. 
  
Here Gurjaras are divided in two endogamous multi-clan groups – Laur and Khari. Laur Gurjaras claim their origin from Lava, the son of Rama. While Khari  Gurjaras claim Kush, the another son of Rama as their progenitor.

There is a Multi-clan khap of Khari Gurjar known as “Chaurasi” with Gangapur city as it’s headquarter. Chaurasi means the Khap of eighty four villages. Khari Gurjara “Chaurasi” khap, covers the villages of Bayana, Bharatpur, Swai Madhopur, Karauli, Jaipur and Udaipur districts.

Khatana clan of Gurjaras in karauli has a khap (Barah) of 12 villages. Village Kaimri and Tesh Gaon are the headqurters of the Khap. Sooda Baba is regarded as the ancestor of the Khap. There is proverb regarding the khap headquarter- 

 “ Ghane Khatane kaimri  Tongad Bhandarez
Mare Haten Na Bainsle Kachhawahe Amer”

Bainsla clan of Gurjaras in Karauli district has a Khap (Barah) of 12 villages. Village Gudla Pahari is headquarter of the Khap. Bainslas immigrated to this area from village Kanaawar of Bayana.

Bidarwas clan of Gurjara has a khap of 12 villages in Karauli district . Toka Bindpura village is the headquarters of the khap.

Mawai clan in Karauli-Bayana area has khap of 12 villages with village Tali Kot as it’s headquarter.

Mawai Clan of Gurjaras also has another khap in Bayana area. The khap has 12 Villages and Rarouda is it’s headquarter.  

Kasana clan of Gurjaras in Sikandara area of Dausa district has khap of 12 villages.

Kasanas’ another khap has 12 Villages in Kotpootli area of Jaipur .

Biggest Kasana Khap in Rajasthan is in Dholpur area which consists of a group of 28 villages. Originally they may have been twenty four which grew into twenty eight with a span of time.

Rawat clan of Gurjaras in Kotpootli area of Jaipura has a khap of 12 Villages.

Poswal khap of Gurjaras in Swai Madhopur district has 12 villages. Village Kochar ka Dera is the headquarters of the khap.

Ghuraiyya clan of Gurjaras has a khap of 28 villages in Dholpur district. Originally they may have been twenty four which grew into twenty eight over a span of time. Village Bichhiya Maroli is the headquarters of the khap. It is believed that Ghuraiyyas came here from Ghuraiyya Basai village of Madhya Pradesh.

Tanwar clan of Gurjaras has a khap of 12 villages which lies in the basin of Gambhir river. The khap is situated in Bayana area with village Maroli as it’s headquarter. The Tanwar Gurjaras are believed to have come here from Delhi. Propbably their headquarter name Maroli is a Corruption of town named Mehrauli in Delhi where Tanwar Gurjaras still have a khap of 12 villages. It is interesting to note that Mehrauli, Delhi was the capital of Tanwar Rulers of Delhi.

Kaanwar Khap of Gurjaras in Bayana area has 12 villages and village Tarsooma and Ghunaini forms its headquarters.

Dhadandiya clan of Gurjaras has a khap of 12 villages in Badnor-Aseend area of  Bhilwara district.

There is a multi-clan Gurjaras khap of 13 villages in Mahaveer ji area. Among 13 villages Panwar clan has 5 villages. Chauhan, Harshana, karhana and Riyana clans also own villages of khap. Village Akbarpur and Naurangabad of the khap lies in vicinity of Mahaveer ji. Dev Narayan temple in Mahveer ji is the meeting place of the khap. 

‘Solanga’ is also a multi clan khap of Gurjaras. Solanga means group of sixteen villages.  Khap lies in Mahuwa area of Dausa district. Fagna, Peelwan, Dayma, Chechi, Awana clans of Gurjaras owns the villages in Solanga Khap. Village Gajipur Khaavda is the headquarters of the Khap.  Dev Narayan Temple in this village is the meeting place of the khap.

Thus, we witness many Barahas i.e. group of twelve villages of a particular Clan of Gurjaras in North Eastern Rajasthan. Alberuni who visited India with Mahmud Ghaznavi in the beginning of eleventh century tells us about a ‘Gujarat’ in the same region with Bazan as its capital. Bazan may be identified with Bayana as sometimes y changes with j as yogi is called jogi in Prakrit or Apabhramsa. In Bayana Gurjaras have 80 villages in region known as  “Nehda” in local idiom.There is also a chaurasi of Khari Gurjaras. 

In South and South Eastern Rajasthan Such Clan ‘Barahas’ are rare. Here we mostly find mix clan Gurjara villages. South Rajasthan was the stronghold of the Gurjaras from about 550 to 1000 A D. Hieung Tsang (629-645 A D) in his book Si Yu ki speaks of Gujar kingdom with Bhinmal in modern South Rajasthan as its Capital. Astronomar Brahmgupta informs us that ruler of Bhinmal Vyaghrmukh belonged to the Chapa (modern Chavda or Chaprana clans) dynasty. Later a Pratihara family ruled the region ‘Gurjarratra’ i.e. Modern South Rajasthan with Mandor as its Capital. The Pratihara family of Mandor was the feudatory of imperial Gurjara Pratiharas of Kannauj and like them claimed their descent from Lakshmana, the brother of Rama. Thus, Mandor Pratiharas may have been the branch of imperial Gurjara Pratihara family of Kannauj. 

Famous historian R S Sharma ascribes the formation of these units of 12 villages or its multiples to the Gurjara Pratihara’s or their feudatories rule in North Western India during the early medieval period. He says what distinguished the Gurjara Pratihara polity from that of contemporary Rastrakutas and Palas was the imposition of clan aristocracies on old, settled villages. He further says that Gujar imposed themselves as dominant clans on settled villages. The tribal practice that spoils should be distributed among the members of the tribe led to the apportionment of villages among the conquering chiefs, some of them received them in units of 84.

It seems quite clear that the ‘Barahas’ were granted by Gurjara Pratiharas to the clan leaders or aristocracies after their victory in north of Ujjain, which was their capital before their rise as a imperial power. It is seen above that in olden days ‘Gurjarratra’ Gurjaras have mix clan villages instead of unit of twelve villages.

References

  1. R S Sharma, Indian Feudalism, AD 300-1200,Delhi, 2006https://books.google.co.in/books?isbn=1403928630
     2. B.N. Puri, History of the Gurjara Pratiharas, Bombay, 1957
    3. V. A. Smith, The Gurjaras of Rajputana and Kanauj, Journal of the Royal Asiatic Society of Great Britain and Ireland, (Jan., 1909), pp.53-75
    4. V A Smith, The Oford History of India, IV Edition, Delhi, 1990
    5. P C Bagchi, India and Central Asia, Calcutta, 1965
    6. Romila Thapar, A History of India, Vol. I., U.K. 1966.
    7. R S Tripathi, History of Kannauj