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Thursday, November 13, 2025

उत्तराखंड में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में उमराव सिंह गूजर “मानिकपुरी” की भूमिका

 उत्तराखंड में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में उमराव सिंह गूजर “मानिकपुरी” की भूमिका

डॉ सुशील भाटी

पृष्ठभूमि 1857 का विद्रोह, जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है, ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भारतीय सैनिकों और जनता का एक बड़ा विद्रोह था। यह विद्रोह उत्तर भारत में मुख्य रूप से मेरठ, बुलंदशहर, दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, झाँसी और अन्य स्थानों पर केंद्रित था, लेकिन उत्तराखंड जैसे क्षेत्रीय इलाकों में भी इसका प्रभाव पड़ा था। उत्तराखंड, जो उस समय उत्तर पश्चिमी प्रांत (उत्तर प्रदेश का हिस्सा) का भाग था, में भी 1857 के विद्रोह का प्रभाव पड़ा| यहाँ पर भी कुछ महत्वपूर्ण घटनाएँ और संघर्ष हुए थे।

उत्तराखंड का अधिकांश हिस्सा ब्रिटिश शासन के अधीन था। ब्रिटिशों ने 1815 में सुगौली संधि के तहत गढ़वाल और कुमाऊं को नेपाल से छीन लिया और अपने अधीन कर लिया। इस प्रकार वर्तमान गढ़वाल और कुमाऊ 19वीं सदी में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का हिस्सा बन गया। उत्तरखण्ड का वर्तमान हरिद्वार जनपद तब ऊपरी दोआब का हिस्सा था मुग़ल प्रशासन के अंतर्गत दिल्ली सूबे की सहारनपुर सरकार का हिस्सा था| | हरिद्वार-सहारनपुर क्षेत्र में राजा रामदयाल राजनैतिक रूप से सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति थे| मुगल साम्राज्य के अंतर्गत राजा रामदयाल के पास 804 गाँव की मुकरर्दारी रियासत थी | मुगलों के बाद उत्तर भारत में जब मराठो का उत्कर्ष हुआ तब 1803 तक हरिद्वार क्षेत्र मराठो के कब्ज़े में रहा| 1803 में मराठे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से पराजित हो गए| ग्वालियर के सिन्धियाओ के साथ हुई, सुर्जी अर्जुन गाँव की संधि के अंतर्गत हरिद्वार क्षेत्र सहित ऊपरी दोआब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को प्राप्त हो गया था | ऊपरी दोआब के प्रशासनिक पुनर्गठन करते हुए कंपनी ने हरिद्वार को सहारनपुर जिले में सम्मिलित कर दिया था| वाटसन द्वारा लिखित देहरादून डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियरके पृष्ठ 189 के अनुसार 1815 में सुगौली की संधि के बाद, कंपनी प्रशासन ने 1817 से 1825 तक देहरादून को भी सहारनपुर जनपद का हिस्सा बना दिया था|उक्त अवधि में हरिद्वार और देहरादून सहारनपुर के अंतर्गत आते थे|  इस प्रकार 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय उत्तराखण्ड का हरिद्वार जनपद सहारनपुर का हिस्सा था|

उत्तराखंड के निवासी, जो मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर थे, ब्रिटिश शासन की जमींदारी व्यवस्था, लगान और करों के बोझ तले दबे हुए थे। इन कारणों से लोकविरोधी भावना विकसित हो गई थी।

ब्रिटिश शासन ने मिशनरी कार्य के माध्यम से धर्म परिवर्तन और ईसाई धर्म के प्रचार को बढ़ावा दिया, जिससे स्थानीय हिंदू और अन्य धार्मिक समुदायों के बीच असंतोष पैदा हुआ। स्थानीय लोग अपनी सांस्कृतिक पहचान और धार्मिक परंपराओं को बनाए रखने के लिए ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ उठ खड़े हुए थे।

हरिद्वार जनपद में उमराव सिंह गूजर का विद्रोह : 1857 का स्वतंत्रता संग्राम भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। यह विद्रोह केवल सैनिकों द्वारा नहीं, बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ किया गया था। उमराव सिंह मानिकपुर आदमपुर गांव के निवासी थे, यह गाँव मंगलौर के निकट हरिद्वार जनपद में स्थित हैं| |उमराव सिंह गूजर 1857 के विद्रोह के एक प्रमुख स्थानीय नेता थे, जिन्होंने इस विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका संघर्ष ब्रिटिश शासन के खिलाफ था, और उनका नेतृत्व साहस और स्वतंत्रता की भावना का प्रतीक बन गया। उमराव सिंह के पिता फतेह सिंह भी इस विद्रोह में सक्रिय योगदान कर रहें थे|

जैसा कि कहा जा चुका हैं कि गंगा यमुना का समस्त ऊपरी दोआब और गढ़वाल-कुमाऊ के क्षेत्र 1857 के विद्रोह के समय ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के तहत थे। ब्रिटिश शासन के दौरान इन क्षेत्रों में स्थानीय निवासियों, खासकर किसानों और सैनिकों के साथ अत्यधिक शोषण हो रहा था। ब्रिटिश द्वारा लागू किए गए कठोर करों, भूमि करों और सैनिकों की भर्ती के कारण जनता में असंतोष था। उमराव सिंह के ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के राज के विरुद्ध हुए इस विद्रोह को समझने के लिए हमें समकालीन सहारनपुर-हरिद्वार क्षेत्र की भू-राजनैतिक परिस्थिथियो का अवलोकन करना होगा, क्योकि इस विद्रोह का कारण मात्र कृषक असंतोष नहीं था, इस अतिरिक्त क्षेत्रीय रूप से प्रभुत्वशाली गूजर जाति की राजनैतिक महत्वकांक्षा भी थी| 1857 के विद्रोह के समय हरिद्वार क्षेत्र सहारानपुर जनपद में आता था| नेविल द्वारा लिखित सहारनपुर डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर के पृष्ठ संख्या 101 के अनुसार पहले सहारनपुर जिले एक बड़े भाग को गुजरात कहा जाता था, और जिले में गूजर सबसे बड़े भूमिपति थे| वर्तमान हरिद्वार जनपद में स्थित लंढोरा रियासत के राजा भी गूजर थे| वह लिखता हैं कि “ In former days a large part of Saharanpur was commonly known as Gujarat, and at the present time three divisions of the area are generally recognised ..........the central portion (division) Gujarat, comprising the parganas of Gangoh, Rampur and Nakur, as well as the neighbouring tracts of Muzaffarnagar. वेह आगे लिखता हैं कि “The Gujars are the largest proprietors in the district, their holdings including the great Landhaura estate.”  एरिक स्टोक्स द्वारा लिखित पीजेंट आर्म्ड पुस्तक के पृष्ठ संख्य 199 के अनुसार इस गुजरात में मुज़फ्फरनगर जिले के कैराना और झिंझाना परगना सम्मिलित थे| 1813 में लंढोरा के राजा रामदयाल गूजर का निधन हो गया| अंग्रेजो ने राजपरिवार के सदस्यों में विवाद का लाभ उठा कर रियासत को कई ताल्लुको में बाँट दिया, और रियासत का बड़ा भाग अपने पास रख लिया| जिस कारण क्षेत्रीय गूजरों में अंग्रेजी शासन के प्रति एक राजनैतिक असंतोष था| इसी कारण से हरिद्वार क्षेत्र में पूर्व में 1824 में भी ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध विद्रोह हो चुका था| विद्रोह का नेतृत्व कलुआ गूजर और राजा विजय सिंह गूजर ने किया था| राजा विजय सिंह लंढोरा रियासत के कुंजा बहादुरपुर ताल्लुके के ताल्लुकेदार थे| इतिहास में यह विद्रोह गूजर विद्रोह के नाम से जाना जाता हैं| आरम्भ में यह विद्रोह कलुआ गूजर के नेतृत्त्व में उत्तराखण्ड में गढ़वाल और कुमाऊ की तराई में फैला हुआ था परन्तु विद्रोह के अंतिम दौर में कुंजा का किला इसका केंद्र बन गया था| कुंजा गाँव रूडकी के पास हरिद्वार जनपद में ही स्थित हैं| अंग्रेजो ने गोरखों की सिरमोर बटालियन की मदद से इस विद्रोह को कुचल दिया था| कुछ इतिहासकार इस विद्रोह को 1857 के विद्रोह का पूर्वाभ्यास भी कहते हैं| उत्तराखण्ड सरकार ने भी इस विद्रोह के ऐतिहासिक महत्व को समझते हुए हरिद्वार जनपद के कुंजा गाँव में कलुआ गूजर और राजा बिजय सिंह का भव्य स्मारक बनवाया हैं|1857 के विद्रोह में, इस प्रकार क्षेत्रीय गूजर भूमिपतियों ने उमराव सिंह गूजर की अगुआई में पुनः अपनी राजनैतिक सत्ता प्राप्त करने का प्रयास किया| सहारनपुर में बूढा खेडी के फतुआ गूजर ने अपने को राजा घोषित किया था| 

10 मई 1857 को मेरठ में देशी सैनिक और धन सिंह कोतवाल सहित मेरठ की पुलिस ने अंग्रेजो को खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया था| उसके बाद विद्रोह की लहर देशी सैनिको और आम जनता में फैलती चली गई| 1857 के विद्रोह में, हरिद्वार क्षेत्र में मानिकपुर गाँव, ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध गूजर विद्रोह का केंद्र बना गया और उमराव सिंह ने उसका नेतृत्त्व किया| उन्होंने स्थानीय गूजर किसानों को ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुट किया ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेकने का आव्हान किया। उमराव सिंह गूजर ने क्षेत्र को स्वतंत्र करा कर स्वयं को राजा घोषित कर दिया, उन्होंने अपने राज्य को स्थिर करने के लिए राज आज्ञाए जारी करनी आरम्भ कर दी| आजादी के इस संघर्ष में हरिद्वार क्षेत्र में क्षेत्र और देश को आज़ाद करने की भावना से “मारो फिरंगी को” नारा सभी तरफ गूँज रहा था| हर तरफ यही उद्घोष था कि “अंग्रेजो को मालगुजारी मत दो, थाने- तहसील को आग के हवाले कर दो|” “एकजुट होकर अपना राज़ वापिस ले आओ।“ इस बदलते माहौल का व्यापक असर क्षेत्र पर होने लगा| राजा उमराव सिंह का राज्य स्थिर होना लगा और क्षेत्र से उन्हें मालगुजारी-लगान मिलने लगा| इस घटनाक्रम की जानकारी मिलने पर अंग्रेज अधिकारी चकित रह गए| उमराव सिंह ने   युद्ध की रणनीति अपनाई और 22 मई को मंगलौर पर हमला कर दिया उन्होंने सार्वजनिक रूप से ब्रिटिश अधिकारियों को चुनौती देना शुरू किया। एरिक स्ट्रोक्स के अनुसार “gathering of 200 Gujars intent on attacking Manglaur (south of Rurki) on 22 (June) May , and the setting up of Umrao Singh as raja at Manikpur (modern Adampur Manakpur, seven miles west of Rurki), where he became ‘the leader of all the disaffected Goojurs in the Pergunnah.” उन्होंने सहारनपुर के आसपास के क्षेत्रों में ब्रिटिश सेना के आपूर्ति मार्गों को बाधित किया और ब्रिटिश सरकार के बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुँचाया।

ब्रिटिश सेना ने विद्रोहियों के खिलाफ अपनी कार्रवाई तेज की, उमराव सिंह को पकड़ने अथवा मारने के प्रयास बढ़ गए। स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए सहारनपुर का जिला मजिस्ट्रेट स्पेंकी सेना लेकर मंगलोर पहुँच गया| जॉइंट मजिस्ट्रेट राबर्टसन भी अपनी सेना लेकर उससे मंगलौर में आ मिला। 30 मई 1857 को जिले भर की समस्त अंग्रेजी सेना ने मंगलोर को आधार बनाकर मानिकपुर पर हमला कर दिया| उमराव सिंह स्थानीय गुप्तचर व्यवस्था काफी अच्छी थी| सभवतः उसे अंग्रेजो के आक्रमण की पूर्व में ही सूचना मिल गई थी| विद्रोहियों के संख्याबल और संसाधनों के कम होने के कारण, ब्रिटिश शासन ने मानिकपुर में विद्रोह को कुचल दिया। किन्तु अंग्रेज उमराव सिंह को गिरफ्तार नहीं कर सके| परन्तु उनके कई साथी विद्रोहियों को पकड़ लिया गया और उन्हें कठोर दंड दिया गया। अंग्रेजो ने विद्रोह में शामिल होने वालेसभी आस-पास के गांवों को सामूहिक सजा दी। अंग्रेजो ने मानिकपुर और आसपास के कई गांवों को आग में जला कर ख़ाक कर दिया गया| विद्रोही नेताओं को फांसी दी गई। 1981 में प्रकाशित सहारनपुर डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर के पृष्ठ संख्या 64 पर इस ऐतिहासिक घटना का विवरण इस प्रकार दिया गया हैं “ On the 30th of May, Spankie, joined by Robertson and his force, went to Manglaur in order. to make a raid on Manakpur, then held by one Umrao Singh; who had set himself up as raja and was levying contributions from the villagers. The village was taken and burned, but an attempt to capture Umrao Singh failed as he and his -followers succeeded in effecting their escape.

अंग्रेजो ने राजा उमराव सिंह को गिरफ्तार करने की हर संभव कोशिश की मगर कामयाब नहीं हो पाए। जब उन्हें किसी भी प्रकार कामयाबी नहीं मिली तब अंग्रेजों ने एक क्षेत्रीय जमींदार, जो राजा  उमराव सिंह के रिश्तेदार थे, उनकी मदद से उन्हें सहारनपुर के निकट सीडकी गाँव से गिरफ्तार कर लिया और फांसी लगा दी गई|

उमराव सिंह का नाम इतिहास में उतना प्रसिद्ध नहीं है जितना अन्य प्रमुख विद्रोही नेताओं का, लेकिन उनका योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण था। उन्होंने आसपास के इलाकों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक मजबूत प्रतिरोध खड़ा किया, और उनकी भूमिका को याद किया जाना चाहिए। उमराव सिंह का नाम स्थानीय प्रतिरोध का प्रतीक बन गया था| आगामी पीढियां के लिए वो एक प्रेरणा का स्रोत बन गए| उनके संघर्ष ने यह सिद्ध किया कि ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ हर स्तर पर संघर्ष किया जा सकता है, चाहे वह स्थानीय स्तर पर ही क्यों न हो। उनका विद्रोह न केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ था, बल्कि यह उस समय की भारतीय जनता की आज़ादी की आकांक्षाओं का प्रतीक था। हालांकि उनका संघर्ष ब्रिटिश सेना द्वारा दबा दिया गया, लेकिन उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा, क्योंकि उन्होंने स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की भावना को जीवित रखा।

सन्दर्भ –

1. H. G. Watson, Dehradun: A Gazetteer, Allahabad, 1911, p 189

2. H. R. Nevill, Saharanpur: A Gazetteer, Allahabad, 1909

3. Dangli Prasad Varun, Uttar Pradesh District Gazetteer: Saharanpur, Lucknow, 1981

4. सुशील भाटी, 1857 की जनक्रांति के जनक धन सिंह कोतवाल, दी जर्नल ऑफ़ मेरठ यूनिवर्सिटी हिस्ट्री एलुमनाई, खण्ड XII, 2008, पृष्ठ 62-66

5. सुशील भाटी, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत राजा विजय सिंह- कल्याण सिंह, प्रकाशक- अशोक चौधरी, मेरठ, 2002

6. Eric Stroke, Peasant Armed, Oxford, 1986, p 205

7. Ranajit Guha, Elementary Aspects of Peasant Insurgency in Colonial India, 206, 318

 

 

 

 

Thursday, October 2, 2025

परीक्षतगढ़ रियासत का संस्थापक जीत सिंह गूजर

डॉ. सुशील भाटी

 अठारवी शताब्दी के मध्य में वर्तमान मेरठ के पूर्वी क्षेत्र में परीक्षतगढ़ रियासत का उदय हुआ| इस रियासत का संस्थापक जीत सिंह गूजर था| जीत सिंह गूजर को कुछ समकालीन ग्रंथो में जैता गूजर के नाम से भी जाना जाता हैं|

जन्म एवं बाल्यकाल- जीत सिंह गूजर का जन्म ग्राम बम्बावड, वर्तमान जिला गौतम बुद्ध नगर में नांगडी गूजर परिवार में हुआ था| इनके पिता का नाम बले सिंह था| जीत सिंह के पिता अपने बागी तेवरों के कारण मुग़ल प्रशासन से टकराव में आ गए थे| सुरक्षा कारणों से बले सिंह बालक जीत सिंह सहित अपने परिवार को लेकर जाटो के गाँव सैदपुर, बुलंदशहर चले गए| यही जाट परिवार में रहकर जीत सिंह पलकर जवान हुए|1 

वंश परिचय- नांगडी गूजर जाति का एक प्रमुख गोत हैं, गौतम बुद्ध नगर जिले में नांगडी गूजरों की चौरासी थी|  वर्तमान में इस क्षेत्र में नांगडी गूजरों के दो सत्ताईसा / चौबीसी हैं| क्षेत्र के लोगो के अनुसार इस क्षेत्र के नांगडी गूजर यमुना पार कर पश्चिम में फरीदाबाद क्षेत्र में स्थित नीमका-तिंगाँव स्थान से आये थे| इस क्षेत्र में भी नांगडी गूजरों की एक चौबीसी हैं, जिसका मुख्यालय नीमका-तिगांव ही हैं| फरीदाबाद क्षेत्र में गूजरों की एक चौरासी हैं, जिसका मुखिया इसी नांगडी चौबीसी का मुखिया होता हैं|2 बारहा, चौबीसी, चौरासी गुर्जर प्रतीहारो और उनके सामंतो की राजस्व-प्रशासनिक ईकाईयां थी| इतिहासकार आर. एस. शर्मा के अनुसार गुर्जर प्रतीहारो ने अपनी विजयी सेना के सरदारों को उक्त बारहा, चौबीसी, साठा, चौरासी, तीन सौ साठा राजस्व ईकाइयों में विजित क्षेत्रो को आवंटित किया था| उक्त राजस्व इकाईयों पर इन सरदारों ने अपने गोत के बंधुओ को जोकि उनके सैनिक थे, बसा दिया था|3 अतः नांगडी गूजर गुर्जर प्रतीहारो अथवा चौहानों के समय यहाँ बसे| नांगडी सभवतः गुहिल वंश की प्रथम राजधानी नागदा से सबंधित थे| पूर्व-मध्यकाल काल में, नागदा को नागहड़ा के नाम से जाना जाता था| नागहड़ा की स्थापना, 646 ई. में शासन करने वाले सिलादित्य के पिता, नागादित्य ने की थी। नागहडा 948 तक मेवाड़ के गुहिलो की राजधानी रही, उसके बाद आहड़ को राजधानी बनाया गया| 1116 में पुनः नागहडा को गुहिलो ने अपनी राजधानी बनाया, जोकि तेरहवी शताब्दी के आरम्भ में इल्तुतमिश के आक्रमण तक बनी रही| सभवतः नागहडा से निकास होने के कारण इन्हें नागहडी/ नांगड़ी कहा गया, जैसे आहड़ से निकले हुए गुहिल आहड़िया कहलाए| इस बात की सम्भावना इसलिए भी अधिक हैं क्योकि गुहिल गुर्जर प्रतीहारो के सामंत भी थे, जिन्होंने गुर्जर प्रतीहारो के लिए उत्तर में विजय भी प्राप्त कि थी| मेवाड़ क्षेत्र में गुहिल गुर्जर प्रतीहार मिहिर भोज के सामंत थे| गुहिल राजवंश के शासक बालादित्य के चाटसू अभिलेख से ज्ञात होता हैं कि उसके पूर्वज हर्षराज ने उत्तर की विजय के बाद अपने स्वामी भोज को घोड़े भेट कियें| यह बात तो सिद्ध हैं कि गुर्जर प्रतीहारो के सामंत के रूप में जिन गुहिलो ने उत्तर भारत की विजय की उनकी राजधानी नागहडा थी| यह भी उल्लेखनीय हैं कि राष्ट्रकूटो के अभिलेखों से यह साबित होता हैं, कि यह नवी शताब्दी में चित्तोड़ पर गुर्जरों का शासन था| अमोघवर्ष के 866 ई. के नीलगुन्ड अभिलेख के अनुसार उसके पिता गोविन्द ने चित्रकूट (चित्तोड़) के गुर्जरों को पराजित किया था|

मुख्य जीवन वृत्त- जीत सिंह गूजर उपनी स्वयं की राजनैतिक सत्ता स्थापित करना चाहता था|  बड़े होने पर जीत सिंह सैदपुर से अपने गाँव बम्बावड लौट गया और उसने अपनी बगावती गतिविधियाँ आरम्भ कर दी| दिल्ली नज़दीक होने के कारण उसे अधिक सफलता नहीं मिली अतः उसने गंगा के घाटो पर अपना प्रभुत्व ज़माना शुरू कर दिया| उसने गंगा के निकट परीक्षतगढ़ को अपना केंद्र बनाया| वहाँ उसने एक किले का निर्माण कराया|

परीक्षतगढ़ में केन्द्रित राव जीत सिंह गूजर उर्फ़ जैता गूजर एक ऐसा मुक्त सिपहसालार था जिसने मेरठ क्षेत्र के रुहेलखण्ड जाने वाले सभी गंगा घाटो पर राजनैतिक और सैन्य नियंत्रण स्थापित कर लिया था| दादरी क्षेत्र के दरगाही सिंह (भाटी) और कुचेसर के मगनीराम जाट इसके ख़ास सहयोगी थे|  दिल्ली के मुग़ल दरबार को जीत सिंह की सभी गतिविधियों की खबर थी, परन्तु उसके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गई| एक दिन दक्कन के मुग़ल सूबेदार प्रताप सिंह के एक प्रिय साथी को जीत सिंह ने मौत के घाट उतार दिया| प्रताप सिंह मुग़ल बादशाह अहमद शाह (1748-1754) की माँ का चहेता था| प्रताप सिंह एक सेना लेकर गूजरों के दमन के लिए आ धमका| जीत सिंह ने उसे भीषण युद्ध में पराजित कर मार डाला| उसके बाद दिल्ली के कोतवाल करम अली की अगुआई में एक और मुग़ल सेना को जीत सिंह के विरूद्ध भेजा गया, उसका भी वही बुरा हश्र हुआ| इसी प्रकार का हश्र कुछ अन्य मुग़ल अभियानों का हुआ| एच आर नेविल्ल ने मेरठ डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर में पृष्ठ संख्या 96 पर जीत सिंह गूजर के उत्थान और दिल्ली के मुगलों के विरुद्ध उसकी सफलताओ का इस प्रकार बखान किया हैं “The chief Gujars in this  (Meerut) district are those of Parichhatgarh, who sprang into prominence during the troublous times at the end of the 18th century. The founder of the family was one Rao Jit Singh who was a notorious leader of banditti. He held command of all the ghats leading into Rohilkhand and reduced the art of levying blackmail to a science. Although his depredations were well known to the court of Dehli, no notice was taken of his conduct until he happened to kill a follower of one Partab Singh, a subahdar of the Deccan, who was a favourite of the mother of Ahmad Shah. Partab Singh marched with a force to chastise the Gujars, but was defeated and slain. Karam Ali, the Kotwal of Dehli, next tried his hands against Jit Singh but suffered the same fate, as did several others. 4 इन परिस्थितियों में दिल्ली दरबार ने जीत सिंह से सुलह-संधि करना ही उचित समझा|

इस समय मुग़ल बादशाह अहमद शाह और उसके वजीर अवध के नवाब सफदरजंग में तनाव चल रहा था| बादशाह ने सफ़दरजंग को अवध चले जाने को आदेश दिया और उसके स्थान पर इंतजामउददौल्लाह को वजीर और गाजीउद्दीन खान उर्फ़ ईमाद उल मुल्क को मीर बख्शी नियुक्त किया| शीघ्र ही इस तनाव ने गृह युद्ध का रूप ले लिया क्योकि सफदरजंग ने अवध जाने के स्थान पर दिल्ली के बाहर अपनी सेना के साथ डेरा डाल दिया| हालाकि वह दिल्ली पर हमला बोलने में हिचकिचाता रहा| इस गृह युद्ध में मराठो और सिक्खों ने बादशाह अहमद शाह का समर्थन किया तो भरतपुर के जाटो ने सफदरजंग का| 9 मई से लेकर 4 जून तक दोनों पक्षों में झड़पे चलती रही जिसमे सफ़दर जंग और सूरजमल जाट विजयी रहें| सफ़दर जंग के उकसाने पर राजा सूरजमल के नेतृत्त्व में जाटो ने 9 मई से लेकर 4 जून 1853 तक को पुरानी दिल्ली को जमकर लूटा|

इन परिस्थितियों में मीर बख्शी ईमादउलमुल्क ने सेना की भर्ती की| उसने रोहिल्ला पठान सरदार नजीब खान को भी आमंत्रित किया, जोकि 15000 पठान सैनिक लेकर 2 जून 1753 को दिल्ली पहुँच गया| जब नजीब दिल्ली कूच कर रहा था, रास्ते में कतेव्रह (Katewrah) के नवाब फतेहुल्लाह खान ने जीत सिंह गूजर की दोस्ती नजीबुदौल्लाह से करा दी थी|5  अतः जीत सिंह गूजर भी नाजीबुदौल्लाह के साथ 2000 गूजर (हिन्दुस्तानी) सैनिको की ब्रिगेड लेकर दिल्ली आ गया|6  नजीबुदौल्लाह ने जीत सिंह गूजर को मीर बख्शी ईमादउलमुल्क से मिलवाया| अन्य कुछ सैन्य सरदार भी मुग़ल बादशाह के पक्ष में दिल्ली पहुँच गए|

इमादुलमुल्क ने सफ़दर जंग के तुर्क सैनिको को अपनी और मिलाने के लिए लालच भी दिया और उनके घरो पर आक्रामक कार्यवाही कराकर उन पर दवाब भी डाला| इस कार्य में नजीब खान और जीत सिंह गूजर के सैनिको को सफदरजंग के विरुद्ध लगाया गया| इस कार्यवाही में सफदरजंग के समर्थको के घरो को भी नहीं बख्शा गया और उन्हें जमकर लूटा गया| लगभग 23 हज़ार बदख्शी सैनिक पाला बदलकर इमादुल्मुल्क के साथ आ गए|7 इन बदख्शी सैनिको को सिन-दाघ रिसाले का नाम दिया गया| इस प्रकार मुग़ल बादशाह के खेमे में  नजीब खान और जीत सिंह गूजर की उपस्थिति से पलड़ा बादशाह के पक्ष में झुकने लगा|

सफदरजंग का सबसे विश्वसनीय सेनापति राजेंदर गिरी गुसाई था| इमादुल्मुल्क ने मराठो को भी अपनी मदद के लिए बुला लिया था| इमादुल्मुल्क ने अंता जी के नेतृत्त्व वाली मराठा सेना की मदद से राजेन्द्र गुसाई को पराजित कर दिया|

अब नवाब सफ़दरजंग ने राजेंदर गिरी गुसाईं को सहारनपुर सरकार (ऊपरी दोआब) का गवर्नर बनाया| उसने ऊपरी दोआब के सभी ज़मींदारो जिसमे बारहा के सैय्यद, पठान और गूजर सम्मिलित थे, से सख्ती से लगान वसूला| ऊपरी दोआब का नियंत्रण लेने के लिए उसने उसने 15000 सैनिको के साथ मवाना पर हमला कर दिया| खतरे से निबटने के लिए मीर बख्शी इमादुल्मुल्क ने जीत सिंह गूजर को नियुक्त किया| मुज़फ्फरनगर के निकट हुए युद्ध में जीत सिंह गूजर ने राजेंदर गिरी को पराजित कर मार गिराया| हरिराम गुप्ता ने अपनी पुस्तक मराठाज़ एंड पानीपत में पृष्ठ संख्या 310 पर इस निर्णायक युद्ध का वर्णन इस प्रकार किया हैं “Meanwhile Safdar Jang appointed Rajinder Giri Gosain the governor of Saharanpur and sent him to ravage and capture the township of Mawana. As its landlord Ahmad Said Khan was also siding with Najib. Rajinder Girt invested Mawana with 15000 or 16000 soldiers, inflicted a defeat on Saadat Ali Khan and Mohsin Ali Khan and plundered all their baggage. To meet this menace Imad commissioned Jit Singh to proceed against Rajinder Giri. Parvarish Ali Khan and Tahawwar Ali Khan landlords of Barah went out to help Jit Singh. At that time Rajinder Giri was campaigning against Dilawar Ali Khan rais of Jalalabad. An encounter took place between Jit Singh and Rajinder Giri near Muzaffarnagar in which the latter was defeated and killed8 राजेंदर गिरी गुसाईं के मारे जाने से सफदरजंग निराश हो गया और युद्ध के प्रति उदासीन हो गया| उसके इस रवैये को देखते हुए उसके सैनिक पाला बदलने लगे और राजा सूरजमल ने भी मुग़ल बादशाह से सुलह-संधि की बात शुरू कर दी|

बादशाह ने खुश होकर जीत सिंह गूजर को राजा का ख़िताब प्रदान कर दिया| मुग़ल बादशाह अहमद शाह ने जीत सिंह को मेरठ के पूर्वी परगने प्रदान किए| पूर्वी परगने में शोंदत, दयालपुर, शेओपुर, पूठी आदि ग्राम प्रमुख थे| जीत सिंह गूजर के प्रमुख साथियों दरगाही सिंह गूजर को दादरी परगना, कुचेसर के मगनीराम जाट को सियाना, पूठ और फरीदा के परगने प्रदान किए गए, हालाकि ये क्षेत्र पहले ही इनके कब्ज़े में थे| एच आर नेविल्ल द्वारा लिखित मेरठ डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर इस घटना को पृष्ठ संख्या 96 पर इस प्रकार वर्णित करता हैं “Accordingly, the Emperor summoned Jit Singh and other Gujar leaders to Dehli, and gave them authority over the country that they held on condition that they should prevent others from thieving. Thus, Dargahi Singh obtained Dadri and the neighbouring lands; Mangni Ram, the Jat leader of Kuchesar, received Siyana, Puth and Farida; and Jit Singh obtained possession of the eastern parganas of this district.9

1739 से 1761 तक मुग़ल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली 9 गर्दियो का शिकार बनी| 9 गर्दियो का तात्पर्य 9 लूटमार के सिलसिलो से हैं, जोकि 9 भिन्न शासको अथवा जाति समूहों के द्वारा संचालित किए गए| जिसमे एक बार राव जीत सिंह की अगुआई में गूजरों ने दिल्ली को लूटा जिसे गूजर गर्दी का नाम दिया गया| नजीब खान के साथ दिल्ली में मुग़ल सेना के साथ तैनाती के दौरान 1753 के अगस्त-सितम्बर के माह में सैनिको को तनख्वाह नहीं मिली तब गूजर और रोहिल्ला सैनिको ने दिल्ली को लूट लिया था| इसे गूजर गर्दी कहा गया|10

1754 में जीत सिंह गूजर ने जवालापुर के मुस्लिम राजपूतो के विरुद्ध अभियान किया जिन्होने पवित्र स्थल हरद्वार के ब्राह्मणों को आतंकित कर रखा था|11 हरिद्वार क्षेत्र में अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए जीत सिंह अथवा उसके उत्तराधिकारियो ने कनखल में एक गढ़ी का निर्माण किया| जहाँ कालांतर में उसके एक उत्तराधिकारी राजा नैन सिंह ने अपने भाई अजब सिंह को तैनात किया था|

नजीबुदौल्लाह के कठिन समय में जीत सिंह गूजर की मित्रता बहुत काम आई| कुछ समय बाद मराठो का दिल्ली और ऊपरी दोआब में प्रभाव बढ़ा| ऊपरी दोआब में मराठा सरदार गोविन्दपंत बुंदेले सक्रिय था, वह जीत सिंह गूजर और क्षेत्र के अन्य गुर्जर सरदारों के साथ मित्रता नहीं कर सका,12 उसने उनकी उपेक्षा की तथा उनके आय के स्त्रोतों पर रोक लगा दी| उसने जीत सिंह गूजर पर असहनीय भारी नजराना लगा दिया, अतः जीत सिंह गूजर मानसिक रूप से मराठो से अलग हो गया| जीत सिंह गूजर नजीबुदौल्लाह का मित्र और सहयोगी बना रहा| नतीजा यह हुआ कि पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठो को इस क्षेत्र से उपेक्षित सहयोग प्राप्त नहीं हुआ| पानीपत के किसी भी युद्ध में, ऊपरी दोआब यह क्षेत्र सेना के लिए सैनिको के साथ-साथ खाद्यान भी उपलब्ध कराता था| 14 जनवरी 1761 को पानीपत के तीसरी लड़ाई में खाद्यान की कमी मराठो की हार का एक प्रमुख कारण थी|

क्षेत्र विस्तार और प्रभाव क्षेत्र – जीत सिंह की रियासत अथवा मुकर्रदारी में आज के मेरठ एवं हापुड़ जिले का समस्त पूर्वी क्षेत्र आता था| बहसूमा, हस्तिनापुर, मवाना, दादरी (मंडोरा), किला- परीक्षतगढ़  किठोर, गोहरा आलमगीरपुर और गढ़ मुक्तेश्वर क्षेत्र सम्मिलित थे| जीत सिंह रुहेलखण्ड जानेवाले  सभी गंगा घाटो से कर वसूलता था|  जीत सिंह के राज्य क्षेत्र की उत्तरी सीमा पर मीरापुर क्षेत्र उसके मित्र कतेव्रह (Katewrah) के नवाब फतेहुल्लाह खान काबिज़ था| वही दक्षिण में गढ़ मुक्तेश्वर से लगे सियाना, पूठ और फरीदा के परगने उसके प्रिय साथी मगनीराम जाट के पास थे| इस प्रकार रुहेलखण्ड से सटे गंगा क्षेत्र पर जीत सिंह और उसके मित्रो का कब्ज़ा था| जीत सिंह गूजर एक महान सेनापति थे, जिन्होने मुग़ल सत्ता को चुनौती देते हुए अपने पराक्रम के बल पर मुगलों से परीक्षतगढ़ रियासत/ मुकर्र्दारी प्राप्त कर ऊपरी दोआब में अपना एक प्रभाव क्षेत्र स्थापित किया|  जीत सिंह ने किठौर में, को जोकि सरावा का एक टप्पा था, को अलग कर कर दिया|13 किठौर में उन्होंने या उनके उत्तराधिकारी राजा नैन सिंह ने एक गढ़ी का निर्माण भी करवाया था|14 किठौर कस्बे का यह किला किठौर टप्पे का मुख्यालय था|15

निष्कर्ष- इस प्रकार हम देखते हैं कि अठारवी शताब्दी में गंगा यमुना के ऊपरी दोआब में जीत सिंह गूजर एक प्रमुख सैन्य शक्ति के रूप में उभरा| अपने सैन्य पराक्रम, कूटनीति और संगठन शक्ति के आधार पर ऊपरी दोआब में गंगा और यमुना के घाटो पर अपना आधिपत्य जमा लिया| उसने प्रताप सिंह और करम अली के नेतृत्त्व में अपने विरुद्ध भेजी गई शाही मुग़ल सेनाओ को पराजित किया, और दिल्ली दरबार को अपने समक्ष समझोता करने के लिए विवश कर दिया| उसने कुचेसर के मगनी राम जाट और दादरी क्षेत्र दरगाही सिंह भाटी का सहयोग प्राप्त किया| ना केवल उसने अपने लिए बल्कि अपने उक्त दोनों सहयोगियों के लिए भी मुग़ल दरबार से बड़ी रियासते प्राप्त करने में सफलता हासिल की| रोहिल्ला सरदार नजीब खान के सहयोगी के रूप में उसने दिल्ली दरबार की मुगलिया राजनीती और गृहयुद्ध में सफल हस्तक्षेप किया| आवश्यकता पड़ने पर उसने मुग़ल राजधानी दिल्ली को लूटा भी, जिसे इतिहास में गूजर गर्दी कहा गया| राजा के तौर पर उसने अपनी रियासत का पुनर्गठन किया और अनेक किले और गढ़ियो का निर्माण कराया|

उसकी मृत्यु के बाद गुलाब सिंह और फिर नैन सिंह उसके उत्तराधिकारी बने जिन्होंने जीत सिंह के नक़्शे-कदम पर ऊपरी दोआब और दिल्ली की राजनीती में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई| 

सन्दर्भ-

1. दया राम वर्मा, गुर्जर जाति का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास, दिल्ली, 2008, पृष्ठ 395-96  

2. Sushil Bhati, Khaps of Haryana, 2017

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3.  R S Sharma, Indian Feudalism, AD 300-1200, Delhi, 1965, P 88-89

4. H. R. Nevil, Meerut: A Gazetteer, Allahabad, 1904, p 96

5. Hari Ram Gupta, Marathas and Panipat, Panjab University, 1961, p 310

6. Jadunath Sarkar, Fall of the Mughal Empire, Vol. 1, Calcutta, 1932, p 485-86

7. वही

8. Hari Ram Gupta, Marathas and Panipat, Panjab University, 1961, p 310

9. H. R. Nevil, Meerut: A Gazetteer, Allahabad, 1904, p 96

10. Hari Ram Gupta, Marathas and Panipat, Panjab University, 1961, p 331

11. वही, पृष्ठ 310

12. वही पृष्ठ 316-317

13. Edwin T Atkinson, Statistical Descriptive and Historical account o
f the North-Western Provinces of India, Vol II, Part 1, Allahabad, 1875, P 198

14. वही, पृष्ठ 200

15. H. R. Nevil, Meerut: A Gazetteer, Allahabad, 1904, p 256