Search This Blog

Wednesday, May 22, 2024

दिल्ली की 9 गर्दी

डॉ सुशील भाटी

1707 में बादशाह औरंगजेब के मृत्यु के बाद मुग़ल साम्राज्य का पतन बहुत तेज़ी के साथ हुआ| 1739 में ईरान के शासक नादिर शाह के आक्रमण के समक्ष मुग़ल शक्ति बिखर कर रह गई| पूरी दुनिया में मुग़ल साम्राज्य का खोखलापन उजागर हो गया| दक्कन में मराठा शक्तिशाली हो गए थे| दिल्ली के निकट जाट, गूजर और रोहिल्ला पठानो की शक्ति पनपने लगी थी| मुग़ल दरबारी और तुर्क सैनिक भी बादशाह को आँख दिखाने लगे| 1739 से 1761 तक मुग़ल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली 9 गर्दियो का शिकार बनी| 9 गर्दियो का तात्पर्य 9 लूटमार के सिलसिलो से हैं, जोकि  9 भिन्न शासको अथवा जाति समूहों के द्वारा संचालित किए गए| नादिर शाह ने दो बार, अहमद शाह अब्दाली ने चार बार, भरतपुर के जाट राजा सूरज मल ने एक बार, मेरठ क्षेत्र के राव जीत सिंह गूजर ने एक बार,  रोहतक के बहादुर खान बलूच ने एक बार, रोहिल्ला सरदार नजीब खान ने आठ बार, मराठो ने आठ बार, खुद मुग़ल अधिकारियो और शाही सेना के तुर्क सैनिको ने भी दिल्ली को लूटा| दिल्ली के ऊपर बीती प्रमुख गर्दियाँ निम्नवत हैं-

1. नादिर गर्दी- ईरान के शासक नादिर शाह ने मार्च 1739 में दिल्ली पर आक्रमण किया और मार्च से मई 1739 तक दिल्ली को जमकर लूटा| करनाल युद्ध के बाद नादिर शाह 50 लाख रूपए लेकर वापस अपने देश जाने को तैयार हो गया था, किन्तु अवध का नवाब सादात खान उससे मिलने पहुँच गया और उसने उसे दिल्ली चलने और लूटने के लिए यह कहकर उकसाया कि वहाँ से उसे 50 करोड़ रूपए का धन प्राप्त होगा| 7 मार्च को नादिर शाह दिल्ली पहुँच गया| नादिर शाह ने 11 मई 1739 में दिल्ली में कत्लेआम कराया था, जिसमे बीस हज़ार से अधिक लोग एक दिन में क़त्ल किए गए थे|  एक अनुमान के अनुसार वह दिल्ली से 70-80 करोड़ रूपये कीमत की सोना चांदी धन संपत्ति को लूटकर अपने देश ले गया, जिसमे मुगलों का मयूर सिंघासन और कोहिनूर हीरा भी शामिल थे|

2. शाह गर्दी- अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह अब्दाली ने जनवरी 1757 से 1761 तक भारत पर कई बार आक्रमण किए और 4 बार दिल्ली को लूटा| रोहिल्ला सरदार नजीब खान उर्फ़ नाजीबुदौल्लाह अहमद शाह अब्दाली का समर्थक था| दिल्ली और दिल्ली में मुग़ल दरबार की राजनीति पर पर नियंत्रण साधने के लिए नजीबुदौल्लाह ने अहमद शाह अब्दाली से मदद की गुहार की थी| दक्कन के मराठे, भरतपुर के जाट, सभी दिल्ली को नियंत्रित करना चाहते थे| नजीबुदौल्लाह दिल्ली के पूर्व में स्थित ऊपरी दोआब  और गंगा पार रूहेलखंड में सक्रिय था| वह गंगा पार का रोहिल्ला पठान था, उसका लक्ष्य दिल्ली था, इसलिए वह जाटो और मराठो के साथ संघर्ष में आ गया था| उनसे अपना हिसाब-किताब चुकता करने के लिए उसने अपने स्वदेश अफगानिस्तान से सजातीय पठान शासक अहमद शाह अब्दाली को आमंत्रित किया था| 

3. जाट गर्दी- मुग़ल बादशाह अहमद शाह और उसके वजीर सफ़दर जंग के बीच मार्च -नवम्बर 1739 में गृह युद्ध चला| मराठो और रोहिल्लो ने बादशाह का पक्ष लिया, वही भरतपुर के जाटो ने सफदरजंग का साथ दिया| सफदरजंग के उकसावे पर 9 मई 1753 को भरतपुर के राजा सूरजमल के नेतृत्त्व में जाटो ने पुरानी दिल्ली पर हमला लूट लिया| लूटमार का यह सिलसिला 4 जून 1753 तक चला|

4. गूजर गर्दी- गृह युद्ध के दौरान मीर बख्शी ईमाद उल मुल्क ने सेना की भर्ती की| ईमाद उल मुल्क के आमन्त्रण पर जब नजीब दिल्ली कूच कर रहा था रास्ते में मीरापुर के निकट स्थित कतेव्रह (Katewrah) के नवाब फतेहुल्लाह खान ने नजीब खान से परीक्षतगढ़ के राव जीत सिंह गूजर की दोस्ती करा दी थी| अतः जीत सिंह भी 2 जून 1754 को नजीब खान के साथ 2000 गूजर सैनिको की रेजिमेंट लेकर दिल्ली आ गया| नजीब खान ने जीत सिंह गूजर को मीर बख्शी ईमाद उल मुल्क से मिलवाया| इन सैनिको को दिल्ली में सफ़दर जंग और उसके समर्थको के विरुद्ध तैनात किया| इस कार्यवाही में सफदरजंग के समर्थको के घरो को भी नहीं बख्शा गया और उन्हें जमकर लूटा गया| अगस्त-सितम्बर के माह में सैनिको को तनख्वाह नहीं मिली तब गूजर और रोहिल्ला सैनिको ने दिल्ली को लूट लिया|

5. बलूच गर्दी- अगस्त-सितम्बर के माह में सैनिको को तनख्वाह नहीं मिली तब बहादुर खान बलूच के सैनिको ने दिल्ली में लूटमार कर दी|

6. रोहिल्ला गर्दी- सितम्बर 1753 में नजीब खान के सैनिको के वेतन आदि के 25 लाख रूपए मुग़ल दरबार पर बकाया थे| उसे केवल 4 लाख रूपए का भुगतान किया गया| उसे 15 लाख रूपए का राज़स्व गंगा दोआब में आवंटित कर दिया गया| इस सब के बावजूद 26 नवम्बर 1753 को दिल्ली से लोटते हुए नजीब और उसके सैनिको ने पटपडगंज और शाहदरा को लूट लिया| 11 अगस्त 1757 को नजीब और उसके लोगो ने वजीर ईमाद उल मुल्क के घर को लूटा| नजीब के 20-25 हज़ार सैनिको ने अफ़ग़ान शासक अहमद शाह अब्दाली की सेना के साथ मिलकर दिल्ली को लूटा|

7. मराठा गर्दी- पेशवा बाजीराव ने अप्रैल 1737 में अचानक से दिल्ली में प्रकट हो हमला बोल दिया| मराठा सेनापति खांडेराव नवम्बर- दिसम्बर 1753, रघुनाथ राव जून- दिसम्बर 1754, अंताजी जनवरी 1757 से जनवरी 1758 तक किसी ना किसी कारण से दिल्ली में रहें और उन्होंने दिल्ली को लूटा| कुल मिलाकर मराठो ने दिल्ली को आठ बार लूटा|  

8. मुग़ल गर्दी- मुग़ल वजीर इमाद उल मुल्क ने सैनिक मदद के बदले मराठो को 40 लाख रूपए देने का वादा किया था, शाही खजाने में धन नहीं होने के कारण उसने जून-अक्टूबर 1754 में स्वयं दिल्ली की जनता पर ज़बरदस्ती अतिरिक्त कर आदि लगा कर लूटा|

9. तुर्क गर्दी- तुर्क गर्दी का काल मार्च-जून 1754 तक रहा| तुर्क सैनिको के सिन-दाघ रिसाले को एक साल से वेतन नहीं मिला था, अतः मार्च 1754 में उन्होंने दिल्ली के सुनारों को लूट लिया| इसी प्रकार की लूट की कार्यवाही जून 1754 तक चलती रही|

सही कहा जाता हैं कि वक्त सबसे बलवान होता हैं| कभी मौहम्मद तुग़लक, अलाउद्दीन खिलजी, शाहजहाँ और औरंगजेब जैसे बलशाली और प्रचण्ड तुर्क-मुग़ल शासको की राजधानी रही दिल्ली 1739 से लेकर 1761 तक, 22 साल की अवधि में, अनेक बार लूटी गई| दिल्ली की 9 गर्दियों की कहानी वास्तव में मुगलिया दिल्ली के बेआबरू होने की कहानी हैं| 

 

सन्दर्भ

1.Hari Ram Gupta, Marathas and Panipat, Panjab University, 1961

2. Edwin T Atkinson, Statistical Descriptive and Historical Account of the North-Western Provinces of India, Vol II, Part 1, Allahabad, 1875

3. H M Elliot, Memoirs on the History, Folk-lores and Distribution of the Races of North-Western Provinces of India, London

4. Uday Kulkarni, Solstice at Panipat: 14 January 1761

5. Jadunath Sarkar, Fall of the Mughal Empire, Vol. 1, Calcutta, 1932

6. H R Nevil, District Gazetteers of the United Provinces of Agra and Oudh: Meerut, Allahabad, 1904

Thursday, June 22, 2023

राणा अलीहसन चौहान की वंशावली

डॉ. सुशील भाटी

राणा अलीहसन चौहान का जन्म 13 नवम्बर 1922 को कैराना क्षेत्र के मल्हीपुर गाँव में एक मुस्लिम गुर्जर परिवार में हुआ था| राणा अलीहसन चौहान पेशे से इंजीनियर थे, जोकि आज़ादी के बाद पकिस्तान स्थित गूजरांवाला के गाँव कोटशेरा में बस गए| राणा अलीहसन चौहान ने इतिहासकार के रूप में विशेष ख्याति पाई| 1960 में राणा अलीहसन चौहान ने उर्दू भाषा में तारीख़-ए-गुर्जर नामक पुस्तक में गुर्जर जाति का इतिहास लिखा, जिसके पांच खण्ड थे| 1998 में अंग्रेजी भाषा में “ए शोर्ट हिस्ट्री ऑफ़ गुर्जर्स” नामक पुस्तक लिखी, इस पुस्तक की उपयोगिता को देखते हुए इसका भारत में हिंदी अनुवाद श्री ओमप्रकाश गुर्जर (गांधी) आदि द्वारा किया गया| राणा अलीहसन के अनुसार उनका संबंध ऐतिहासिक पृथ्वीराज चौहान के भाई हरिराज चौहान (हर्रा) के परिवार से था| राणा अलीहसन चौहान ने अपनी वंशावली का लेखा-जोखा सुरक्षित रखा था| उनकी वंशावली का अध्ययन भारतीय उपमहाद्वीप में गुर्जर इतिहास और विरासत को समझने में सहायक हैं| उनकी पुस्तक “ए शोर्ट हिस्ट्री ऑफ़ गुर्जर्स” जिसका हिंदी अनुवाद श्री ओमप्रकाश गुर्जर (गांधी) आदि ने किया हैं, के अनुसार उनकी वंशावली निम्नवत हैं|

1. अर्णोराज चौहान

2. सोमेश्वर चौहान

3. हरिराज चौहान (हर्रा)

4. राणा कलसा (कैराना कस्बे के संस्थापक)

5. राणा सहजा

6. राव कुम्भा (8.3.1265 को खन्द्रावली गाँव की स्थापना की)

7. चंद्रपाल

8. राणा श्रीपाल

9. राणा वीर साल (इस्लाम कबूल कर लिया)

10. राणा हरदेवा

11. राणा दलीप

12. राणा कुंवर

13.मल्हा राव (मल्हीपुर गाँव के संस्थापक)

14. सुखराज

15. हरचंदराज

16. खेतराज

17. मनोहराज

18. राणा बारू

19. राणा दरगाही

20. राय दीन

21. चाँद दीन

22. राणा नत्थू

23. राणा नेमत अली

24. राणा जीवन अली

25. राणा गुलाब अली (1857)

26. नादिर अली उर्फ़ न्यादरा

27. लखमीर

28. रहमत अली

29. अलीहसन (जन्म 13.11.1922)

 उपरोक्त वंशावली के अनुसार हरिराज चौहान के पुत्र राणा कलसा ने कैराना बसा कर उसे अपना केंद्र बनाया| कैराना क्षेत्र में चौहान गुर्जरों की कल्शान खाप की चौरासी, यानि चौरासी गाँव हैं| मुग़ल बादशाह अकबर के समय भी कल्शान खाप प्रभावशाली रूप से अस्तित्व में थी| 1578 ई. में अकबर ने दिल्ली सूबे की पांच खाप जिनमे बालियान जाट खाप, कल्शान गूजर खाप, सलकलेन जाट खाप, दहिया जाट खाप तथा गठवाला जाट खाप सम्मिलित थी, के लिए एक फरमान ज़ारी कर उन्हें धार्मिक मामलो और आतंरिक प्रशासनिक मामलो में स्वतंत्रता प्रदान की थी| आज भी कल्शान खाप के चौहान गुर्जर बालियान और सलकलेन जाटो से विशेष भाईचारा मानते हैं| अबुल फज़ल द्वारा लिखित आईन-ए-अकबरी पुस्तक के अनुसार दिल्ली सूबे की सहारनपुर सरकार में कैराना महल के जमींदार गूजर जाति के थे| इसके अतिरिक्त कांधला जोकि दिल्ली सरकार के अंतर्गत था, वहाँ के जमींदार भी गूजर जाति के थे| इस प्रकार हम देखते हैं कि अकबर के शासनकाल में कल्शान चौरासी के क्षेत्र कैराना-कांधला में गूजर जमींदार थे| कैराना में आज भी कल्शान चौपाल हैं, जहाँ खाप की आवश्यक बैठक होती हैं| वर्तमान कैराना निवासी चौधरी रामपाल सिंह कल्शान चौरासी खाप के मुखिया हैं| आप पूर्व सांसद चौधरी हुकुम सिंह के भतीजे हैं| इसी खानदान के कुछ परिवारो ने कुछ पीढ़ी पूर्व इस्लाम धर्म अपना लिया था, उनमे चौधरी अख्तर हसन और चौधरी मुनव्वर हसन भी सांसद रहें हैं|

 उक्त वंशावली के अनुसार 1265 ई. में राणा अलीहसन चौहान के पूर्वज राव कुम्भा ने खंद्रवली ग्राम बसाया, जहाँ हरिराज चौहान की छठी पीढ़ी में जन्मे राणा वीर साल ने इस्लाम कबूल कर लिया| राणा वीर साल की चौथी पीढ़ी के वंशज मल्हा राव ने मल्हीपुर गाँव बसाया| उक्त वंशावली के अनुसार मल्हीपुर गाँव में ही हरिराज चौहान (हर्रा) की सत्ताईस्वी पीढ़ी में राणा अलीहसन चौहान का जन्म हुआ|

राणा वीर साल के अतिरिक्त चौहान गुर्जरों की कल्शान खाप के बहुत से अन्य परिवारों एवं गाँवों ने भी इस्लाम धर्म काबुल कर लिया था| वर्तमान में कल्शान चौरासी में लगभग 35 गाँवो में मुस्लिम गुर्जर निवास करते हैं| कुछ गाँवों में हिन्दू और मुस्लिम गुर्जरों की मिली-जुली आबादी हैं, जिनके पूर्वज एक हैं, सभी कलसा राज चौहान को अपना पुरखा मानते हैं| चौहान गुर्जरों की कल्शान खाप के हिन्दू-मुस्लिम गुर्जर अपनी एकता के लिए प्रसिद्ध हैं|

 सन्दर्भ-

 1. राणा अली हसन चौहान, गुर्जरों का संछिप्त इतिहास (अनुवाद- श्री ओमप्रकाश गुर्जर (गांधी), यमुनानगर, 2001

2. R S Sharma, Indian Feudalism, AD 300-1200

3. Sushil Bhati, Khaps in Upper Doab of Ganga and Yamuna, Janitihas Blog, 2017 https://janitihas.blogspot.com/2017/01/khaps-in-upper-doab-of-ganga-and-yamuna.html

 4. John F Richards, The Mughal Empire, Part 1, Vol. 5, Cambridge University Press, 1995

5. M C Pradhan, The political system of the Jats of Northern India. 1966

6. Abul Fazl Allami, Ain I Akbari, Vol. II (Translation- H S Jarrett), Calcutta, 1981




 

Tuesday, May 9, 2023

1857 के स्वतंत्रता समर में मेरठ जिले का प्रमुख घटनाक्रम

डॉ. सुशील भाटी

10 मई 1857 – जनक्रांति का आरम्भ| महत्वपूर्ण स्थान- काली पलटन (ओघड्नाथ मंदिर), सदर कोतवाली, भामाशाह पार्क (नई जेल)| मेरठ सदर बाज़ार कोतवाली में तैनात, ग्राम पांचली निवासी, कोतवाल धन सिंह गुर्जर ने 10 मई 1857 के दिन इतिहास प्रसिद्ध ब्रिटिश विरोधी जनक्रांति के विस्फोट में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। एक पूर्व योज़ना के तहत, विद्रोही सैनिकों तथा धन सिंह कोतवाल सहित पुलिस फोर्स ने अंग्रेजों के विरूद्ध साझा मोर्चा गठित कर क्रान्तिकारी घटनाओं को अंजाम दिया था। शाम 5 से 6 बजे के बीच, सदर बाज़ार की सशस्त्र भीड़ और सैनिकों ने सभी स्थानों पर एक साथ विद्रोह कर दियाधन सिंह कोतवाल द्वारा निर्देशित पुलिस के नेतृत्व में क्रान्तिकारी भीड़ ने ‘मारो फिरंगी’ का घोष कर सदर बाजार और कैंट क्षेत्र में अंग्रेजो का कत्लेआम कर दिया| धन सिंह कोतवाल के आह्वान पर उनके अपने गाँव पांचली सहित घाट, नंगला, गगोल नूरनगर, लिसाड़ी, चुडियाला, डीलना आदि गाँवो के हजारों लोग सदर कोतवाली क्षेत्र में जमा हो गए| प्रचलित मान्यता के अनुसार इन लोगो ने, धन सिंह कोतवाल के नेतृत्व में, रात दो बजे नई जेल जेल तोड़कर 839 कैदियों क  छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी।

3 जून 1857 – नूरनगर, लिसाड़ी और गगोल का बलिदान| नूरनगर, लिसाड़ी और गगोल के किसान उन क्रान्तिवीरों में से थे जो 10 मई 1857 की रात को घाट, पांचली, नंगला आदि के किसानों के साथ धनसिंह कोतवाल के बुलावे पर मेरठ पहुँचे थे। इस घटना के बाद नूरनगर, लिसाड़ी, और गगोल के क्रान्तिकारियों बुलन्दशहर आगरा रोड़ को रोक दिया और डाक व्यवस्था भंग कर दी। आगरा उस समय उत्तरपश्चिम प्रांत की राजधानी थी। गगोल आदि गाँवों के इन क्रान्तिकारियों का नेतृत्व गगोल के झण्डा सिंह उर्फ झण्डू दादा कर रहे थे। 3 जून 1857 को क्रांति गाँव नूरनगर, लिसाड़ी और गगोल पर अंग्रेजो ने का हमला बोल दिया| इन गाँवो को जला कर राख कर दिया| कुछ दिन बाद अंग्रेजों ने फिर से गगोल पर हमला किया और बगावत करने के आरोप में 9 लोग रामसहाय, घसीटा सिंह, रम्मन सिंह, हरजस सिंह, हिम्मत सिंह, कढेरा सिंह, शिब्बा सिंह बैरम और दरबा सिंह को गिरफ्तार कर लिया। इन क्रान्तिवीरों पर राजद्रोह का मुकदमा चला और दशहरे के दिन इन 9 क्रान्तिकारियों को चैराहे पर फांसी से लटका दिया गया। तब से लेकर आज तक गगोल गांव में लोग दशहरा नहीं मनाते हैं।

27 जून 1857- बरेली ब्रिगेड का गंगा पार कर दिल्ली पहुंचना| प्रमुख स्थल गढ़ मुक्तेश्वर पुल, परीक्षतगढ़| 1857 के स्वतंत्रता संग्राम मे राव कदम सिंह मेरठ के पूर्वी क्षेत्र में क्रान्तिकारियों का नेता था। उसके साथ दस हजार क्रान्तिकारी थे, जो कि प्रमुख रूप से मवाना, हस्तिनापुर और बहसूमा क्षेत्र के थे। ये क्रान्तिकारी कफन के प्रतीक के तौर पर सिर पर सफेद पगड़ी बांध कर चलते थे। मेरठ के तत्कालीन कलक्टर आर0 एच0 डनलप द्वारा मेजर जनरल हैविट को 28 जून 1857 को लिखे पत्र से पता चलता है कि क्रान्तिकारियों ने पूरे जिले में खुलकर विद्रोह कर दिया और परीक्षतगढ़ के राव कदम सिंह को पूर्वी परगने का राजा घोषित कर दिया। मेरठ और बिजनौर दोनो ओर के घाटो, विशेषकर दारानगर और रावली घाट, पर राव कदमसिंह का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। राव कदम सिंह की सहायता से विद्रोही बरेली ब्रिगेड ने गढ़ मुक्तेश्वर से गंगा पार की और दिल्ली पहुँच गई, जिससे दिल्ली में विद्रोहियों की स्थिति काफी मज़बूत हो गई|

4 जुलाई 1857– पांचली का बलिदान| मेरठ के क्रान्तिकारी हालातो पर काबू पाने के लिए अंग्रेजो ने मेजर विलयम्स के नेतृत्व में खाकी रिसाले का गठन किया। जिसने 4 जुलाई 1857 को पहला हमला 10 मई 1857 को जनक्रांति के प्रमुख नायक धन सिंह कोतवाल के गाँव पांचली और अन्य निकटवर्ती विद्रोही ग्राम घाट और नंगला पर किया| मेरठ गजेटियर के अनुसार खाकी रिसाले ने 4 जुलाई, 1857 को प्रातः चार बजे पांचली पर गाँव को चारो तरफ से घेर कर लिया| खाकी रिसाले में 56 घुड़सवार, 38 पैदल सिपाही और 10 तोपची थे। एरिक स्ट्रोक के अनुसार अंग्रेजी सेना में 300 सैनिक थे, जिनमे दो तिहाई यूरोपीय थे| पांचली वासियों के अनुसार उस समय गाँव के दक्षिण में एक चौपाल पर काफी तादात में विद्रोही ठहरे हुए थे| पूरे पांचली गाँव को तोप से उड़ा दिया गया। लगभग 400 लोग मारे गए, जो बच गए उनमें से 46 लोग कैद कर लिए गए और इनमें से 40 को बाद में मिलिट्री कमीशनने फांसी पर लटकवा दिया। आचार्य दीपांकर के अनुसार पांचली के 80 लोगों को फांसी की सजा पर चढ़ाया गया|। पूरे गांव को आग लगा दी गई| पूरा गाँव जल कर नष्ट हो गया।

9 जुलाई 1857- सीकरी का बलिदान| मेरठ से 13 मील दूर, दिल्ली जाने वाले राज मार्ग पर मोदीनगर से सटा हुआ एक गुमनाम गाँव है-सीकरी खुर्द। 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में इस गाँव ने एक अत्यन्त सक्रिय भूमिका अदा की थी| बेगमाबाद कस्बा सीकरी खुर्द से मात्र दो मील दूर था। बेगमाबाद के अंग्रेज परस्तों ने गाजियबााद और दिल्ली के बीच हिण्डन नदी के पुल को तोड़ने का प्रयास किया। वो दिल्ली की क्रान्तिकारी सरकार और बुलन्दशहर के बागी नवाब वलिदाद खान के बीच के सम्पर्क माध्यम, इस पुल को समाप्त करना चाहते थे। इस घटना ने सीकरी खुर्द में स्थित क्रान्तिकारियों की क्रोधाग्नि में घी का काम किया और उन्होंने 8 जुलाई सन् 1857 को बेगमाबाद पर हमला कर दिया। सबसे पहले बेगमाबाद में स्थित पुलिस चौकी को नेस्तनाबूत कर अंग्रेज परस्त पुलिस को मार भगाया। इस हमले की सूचना प्राप्त होते ही आसपास के क्षेत्र में स्थित अंग्रेज समर्थक काफी बड़ी संख्या में बेगमाबाद में एकत्रित हो गये। प्रतिक्रिया स्वरूप सीकरी खुर्द, नंगला, दौसा, डीलना, चुडि़याला और अन्य गाँवों के विद्रोही क्रान्तिकारी बड़ी संख्या में इकट्ठा हो गए। आमने सामने की इस लड़ाई में क्रान्तिकारियों ने सैकड़ों गद्दारों को मार डाला, चन्द गद्दार बड़ी मुश्किल से जान बचाकर भाग सके।

बेगमाबाद की इस घटना की खबर जैसे ही मेरठ स्थित अंग्रेज अधिकारियों को मिली, तो उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी। अंग्रेजी खाकी रिसाले ने रात को दो बजे ही घटना स्थल के लिए कूच कर दिया। अंग्रेजों के अचानक आने की खबर से क्रान्तिकारी हैरान रह गये परन्तु शीघ्र ही वो तलवार और भाले लेकर गाँव की सीमा पर इकट्ठा हो गये। खाकी रिसाले ने कारबाईनों से गोलियाँ बरसा दी| अंग्रेजी तोपखाने ने कहर बरपा दिया| गाँव की सीमा पर ही 30 क्रान्तिकारी शहीद हो गये। अन्ततः क्रान्तिकारियों ने सीकरी खुर्द के बीचोबीच स्थित किलेनुमा दोमजिला हवेली में मोर्चा लगा लिया। कैप्टल डीवयली के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना की टुकड़ी ने हवेली के मुख्य दरवाजे को तोप से उड़ाने का प्रयास किया। क्रान्तिकारियों के जवाबी हमले में कैप्टन डीवायली की गर्दन में गोली लग गयी और वह बुरी तरह जख्मी हो गया। इस बीच कैप्टन तिरहट के नेतृत्व वाली सैनिक टुकड़ी हवेली की दीवार से चढ़कर छत पर पहुँचने में कामयाब हो गयी। हवेली की छत पर पहुँच कर इस अंग्रेज टुकड़ी में नीचे आंगन में मोर्चा ले रहे क्रान्तिकारियों पर गोलियों की बरसात कर दी। तब तक हवेली का मुख्य द्वारा भी टूट गया, भारतीय क्रान्तिकारी बीच में फंस कर रह गये। हवेली के प्रांगण में 70 क्रान्तिकारी लड़ते-लड़ते शहीद हो गये|  उस दिन सीकरी में लगभग 170 भारतीयों इस आमने -सामने के युद्ध में अपने प्राण न्योछावर किए|

17 जुलाई 1857– बासोद का बलिदान| बासौद गांव के लोगों ने आरम्भ से ही क्रन्तिकारी गतिविधियों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था| मेरठ के पश्चिमी भाग में क्रांतिकारियों के नेता बाबा शाहमल उस दिन बासोद ग्राम में ही थे| अंग्रेजी घुड़सवार बासौद को घेरने के लिए बढ़े तो, रिसाले के अग्रिम रक्षकों ने देखा कि बहुत से लोग, जो हाथों में बंदूकें और तलवारें लिए हुए थे, गांव से भागे जा रहे थे। अंग्रेज जब गांव में पहुंचे तो पता चला कि बाबा शाहमल के जासूसों ने उन्हें खाकी रिसाले के आने की खबर दे दी थी और वो रात में ही बड़ौत की तरफ चले गये। अंग्रेजों को वहां आठ मन अनाज और दालों का भण्डार मिला जो कि दिल्ली के क्रांन्तिकारियों को रसद के तौर पर पहुंचाने के लिए इकट्ठा किया गया था। गांव में जो भी आदमी मिला उसे अंग्रजों ने गोली मार दी या फिर तलावार से काट दिया। सभी क्रांन्तिकारियाों को मारने के बाद गांव को आग लगा दी गई । वहां से प्राप्त रसद को भी आग के हवाल कर दिया गया। मेरठ के कलक्टर डनलप के अनुसार बासौद में लगभग 150 लोग मारे गये।

18 जुलाई 1857 बड़ोत का युद्ध| 18 जुलाई की सुबह खाकी रिसाला डौला से पूर्वी यमुना नहर के किनारे किनारे बडौत की तरफ चल दिया। बडौत में क्रान्तिकारियों ने एक बाग में मोर्चा लगा रखा था, करीब 3500 क्रान्तिकारी बाबा शाहमल के साथ वहां अंग्रेजों से भिडने को तैयार थे। भारतीय बहादुरी से लडे परन्तु भारतीयों की देशी बंदूकें अंग्रेजी राइफलो और तोपों का मुकाबला न कर सकी। भारतीय जान हथेली पर लेकर लडे पर विजय आघुनिक हथियारों की हुई। इस लडाई में करीब 200 भारतीय शहीद हुए। जिनमें बाबा शाहमल भी थे, जिन्हे एक अंग्रेज मि. तोन्नाकी ने दो भारतीय सिपाहियों की मदद से मारा था। अंग्रेजों ने बाबा शाहमल का सिर काट कर एक लम्बे भाले पर लटका दिया। बाबा का सिर जहाँ अंग्रेजों के लिए विजयी चिन्ह था, वहीं भारतीयों के लिए वह क्रान्तिकारी ललकार और सम्मान का प्रतीक था। इसलिए उन्होनें इसे वापिस पाने के लिए अंग्रेजो का हिंडन तक पीछा किया।

22 जुलाई 1857- अकलपुरा का बलिदान| खाकी रिसाला, जब 21 जुलाई 1857 को सरधना पहुँच गया खाकी रिसाले ने बेगम समरू के महल में डेरा डाल दिया। 22 जुलाई को खाकी रिसाला अकलपुरा पहुँच गया और  गांव  को चारो तरफ से घेर लिया। क्रांतिकारी  भी तैयार थे। रात में ही औरतों और बच्चों को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया गया था। अंग्रेजो की गोली का जवाब गोली से दिया गया।क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजो को  गांव  में घुसने नहीं दिया। इस पर अंग्रेजो ने तोपो से गोलाबारी की और गांव में घुसने में कामयाब हो गए। क्रान्तिकारी नरपत सिंह के घर के आस-पास मोर्चा जमाए हुये थे। परन्तु आधुनिक हथियारों के सामने वे टिक न सकें। गांव  मे जो भी आदमी मिला अंग्रेजो ने उसे गोली से उडा दिया। सैकडो क्रान्तिकारी शहीद हो गए। उनके शव जहाँ-तहाँ पडे थे उनमे से एक सुन्दर और सुडोल शव क्रांतिकारियों के नेता नरपत सिंह का भी था।

29 जुलाई 1857- गुलावठी का युद्ध| बुलंदशहर में विद्रोहियों के नेता वलीदाद खान अपने साथी दादरी के राजा राव उमराव सिंह के साथ, मेरठ पर आक्रमण करने के लिए, 28 जुलाई को गुलावठी मे दिया था| उनके साथ 400 घुड़सवार, 600 पैदल सिपाही और 1000 विद्रोही गूजर और राजपूत थे| मेरठ से अंग्रेजी सेना भी पहुँच गई जिसमे 50 कारबाईनर, 50 राइफलमैन तथा सैन्य रेजिमेंट का एक हिस्सा भेज दिए गए| 29 जुलाई 1857 को आमने-सामने के लड़ाई में सैंकड़ो भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को वीरगति प्राप्त हुई|

 

 सन्दर्भ-

1. गौतम भद्रा, फोर रिबेल्स ऑफ ऐत्तीन फिफटी सेवन; लेख, सब - आल्टरन स्टडीज, खण्ड.4 सम्पादक. रणजीत गुहा

2. डनलप, सर्विस एण्ड एडवैन्चर ऑफ खाकी रिसाला इन इण्डिया इन 1857.58

3. नैरेटिव ऑफ इवैन्ट्स अटैन्डिंग दि आउटब्रेक ऑफ डिस्टरबैन्सिस एण्ड रेस्टोरेषन आॅफ अथारिटी इन दि डिस्ट्रिक्ट ऑफ मरेठ इन 1857.58

4. एरिक स्ट्रोक, पीजेन्ट आम्र्ड

5. एस0 ए0 ए0 रिजवी, फ्रीडम स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश खण्ड.5

6. ई0 बी0 जोशी, मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर

7. सुशील भाटी, अमर क्रान्तिकारी बाबा शाहमल सिंह, https://janitihas.blogspot.com/2012/10/baba-shahmal-singh.html

8. सुशील भाटी, मेरठ के क्रान्तिकारियों का सरताज राव कदम सिंह https://janitihas.blogspot.com/2012/10/rao-kadam-singh.html

9. सुशील भाटी, गगोल का बलिदान          https://janitihas.blogspot.com/2012/10/blog-post_28.html

10. सुशील भाटी, सीकरी की शहादत                  https://janitihas.blogspot.com/2012/10/blog-post.html

11. सुशील भाटी, क्रान्तिवीर नरपत सिंह एवं अकलपुरा का बलिदान https://janitihas.blogspot.com/2012/10/akalpura-ka-balidan.html

12. सुशील भाटी, 1857 की जनक्रान्ति के जनक धन सिंह कोतवाल https://janitihas.blogspot.com/2012/11/1857-dhan-singh-kotwal.html

13. सुशील भाटी, बासौद की कुर्बानी                   https://janitihas.blogspot.com/2013/03/blog-post.html

 

 

Tuesday, August 23, 2022

पूर्व मध्यकालीन प्रतिहार वंश की शाखाओ का गुर्जर सम्बन्ध

डॉ.सुशील भाटी

पूर्व मध्यकाल में प्रतिहारो की अनेक शाखाए थी जिन्होंने पश्चिमी उत्तर भारत में अनेक क्षेत्रो में शासन किया| इतिहासकारों का एक वर्ग जिनमे ए. एम. टी. जैक्सन, जेम्स केम्पबेल, वी. ए. स्मिथ, विलयम क्रुक, डी .आर. भंडारकार, रमाशंकर त्रिपाठी, आर. सी मजूमदार और बी एन पुरी आदि सम्मिलित हैं प्रतिहारो को गुर्जर (आधुनिक गूजर) मूल का मानते हैं| वही इतिहासकारों का अन्य वर्ग इस मत को नहीं मानता| प्रस्तुत लेख में पूर्व मध्यकाल के प्रतिहार शासको के गुर्जर सम्बंध को समझने का प्रयास किया गया हैं|   

मंडोर के प्रतिहार- बौक के जोधपुर अभिलेख (837 ई.) तथा कक्कुक के घटियाला अभिलेख (861ई.) से हमें मंडोर के प्रतिहारो का इतिहास पता चलता हैं| बौक के जोधपुर अभिलेख में मंडोर के प्रतिहार वंश के संस्थापक हरिचन्द्र को विप्र कहा गया हैं| विप्र का अर्थ ज्ञानी होता हैं| दोनों ही अभिलेखों में हरिचन्द्र की जाति और वर्ण के विषय में स्पष्ट सूचना नहीं दी गई हैं| हरिचन्द्र की दो पत्नी बताई गई हैं, एक ब्राह्मण और दूसरी क्षत्रिय पत्नी भद्रा| जोधपुर अभिलेख के अनुसार क्षत्रिय पत्नी भद्रा के वंशजो ने मंडोर राज्य की स्थापना की थी| जोधपुर अभिलेख में मंडोर के प्रतिहार राजा बौक ने दावा किया हैं कि रामभद्र (रामायण के राम) के भाई लक्ष्मण उनके वंश के आदि पूर्वज हैं| अपने वंश के नाम प्रतिहार को भी उन्होंने लक्ष्मण से सम्बंधित किया हैं|

हरिचन्द्र को वेद और शास्त्र अर्थ जानने में पारंगत बताया गया है| कक्कुक के घटियाला अभिलेख के अनुसार वह प्रतिहार वंश का गुरु था| जोधपुर अभिलेख में भी उसे प्रजापति के समान गुरु बताया गया हैं| प्रजापति सृष्टी के संस्थापक (पिता) और गुरु दोनों हैं, अतः वेद शास्त्र अर्थ में पारंगत विद्वान (विप्र) हरिचन्द्र मंडोर के प्रतिहार वंश का संस्थापक और गुरु था|

जोधपुर और घटियाला अभिलेख के आधार पर कुछ विद्वानों ने हरिचन्द्र को ब्राह्मण बताया हैं, किन्तु उक्त अभिलेखों में उसे विप्र अर्थात ज्ञानी कहा गया हैं ब्राह्मण नहीं| दूसरे लक्ष्मण को अपना पूर्वज कहा गया हैं, जोकि रामायण महाकाव्य के ‘क्षत्रिय कुल में ज़न्मे’ एक पात्र हैं| अतः स्पष्ट हैं कि मंडोर के प्रतिहार स्वयं को क्षत्रिय मानते थे| क्षत्रिय वर्ण में अनेक कुल और जाति हैं|

बौक के जोधपुर अभिलेख में मंडोर के प्रतिहार वंश के संस्थापक का शासक हरिचन्द्र उर्फ़ ‘रोहिल्लाद्धि’ था तथा एक अन्य शासक नर भट का उपनाम “पेल्लापेल्ली” था|  ‘रोहिल्लाद्धि’ और “पेल्लापेल्ली” अनजानी भाषा के नाम हैं| सम्भव हैं ये उनकी मूल भाषा के नाम थे| ‘कन्नौज के प्रतिहार’ भी लक्ष्मण को अपना पूर्वज मानते थे, उन्हें अनेक समकालीन स्त्रोतों में गुर्जर बताया गया हैं| अतः संभव हैं कि मंडोर के प्रतिहार भी गुर्जर थे तथा ‘रोहिल्लाद्धि’ और “पेल्लापेल्ली” उनकी भाषा गुर्जरी अपभ्रंश के शब्द थे|

भड़ोच के गुर्जर- हेन सांग (629-645 ई.) के अनुसार सातवी शताब्दी में दक्षिणी गुजरात में भड़ोच राज्य भी विधमान था| | इस राज्य का केन्द्र नर्मदा और माही नदी के बीच स्थित आधुनिक भडोच जिला था, हालाकि अपने उत्कर्ष काल में यह राज्य उत्तर में खेडा जिले तक तथा दक्षिण में ताप्ती नदी तक फैला था| भडोच के गुर्जरों के विषय में हमें दक्षिणी गुजरात से प्राप्त नौ तत्कालीन ताम्रपत्रों से चलता हैं| इन ताम्रपत्रो में उन्होंने खुद को गुर्जर नृपति वंश का होना बताया हैं| चालुक्य वंश, रघुवंश की तरह यहाँ गुर्जर शब्द कुल अथवा जाति के लिए प्रयुक्त हुआ हैं| अतः गुर्जर शब्द शासको के वंश अथवा जाति के लिए प्रयुक्त हो रहा था|

मंडोर के प्रतिहारो और उनके समकालीन भड़ोच के गुर्जरों की वंशावली के तुलान्तामक अध्ययन से पता चलता हैं कि इन वंशो के नामो में कुछ समानताए हैं| भड़ोच के गुर्जर नृपति वंशके संस्थापक का नाम तथा मंडोर के प्रतिहार वंश के संस्थापक हरिचन्द्र के चौथे पुत्र का नाम एक ही हैं- दद्द| कुछ इतिहासकार इन दोनों के एक ही व्यक्ति मानते हैं| दोनों वंशो के शासको के नामो में एक और समानता भटप्रत्यय की हैं| भट का अर्थ योद्धा होता हैं| मंडोर के प्रतिहारो में भोग भट, नर भट और नाग भट हैं तो भड़ोच के गुर्जर वंश में जय भट नाम के ही कई शासक हैं| दोनों वंशो के शासको के नामो की समानताओ के आधार पर इतिहासकार भड़ोच के गुर्जर वंश को मंडोर के प्रतिहारो की शाखा मानते हैं| किन्तु इसमें आपत्ति यह हैं कि भड़ोच के गुर्जर अपने अभिलेखों में महाभारत के पात्र भारत प्रसिद्ध कर्णको अपना पूर्वज मानते हैं नाकि मंडोर के प्रतिहारो की तरह रामायण के पात्र लक्ष्मण को|

उज्जैन-कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार- मंडोर के प्रतिहारो और उनके समकालीन उज्जैन-कन्नौज के प्रतिहारो की वंशावली के तुलनात्मक अध्ययन से भी उनके मध्य कुछ समानताए दिखाई पड़ती हैं| दोनों अपना आदि पूर्वज रामायण के पात्र लक्ष्मण को मानते हैं| दोनों ही वंशो में नाग भट और भोज नाम मिलते हैं| किन्तु मंडोर राज्य के प्रतिहार वंश का संस्थापक हरिचन्द्र हैं, तो मिहिर भोज (836-885 ई.) के ग्वालियर अभिलेख के अनुसार उज्जैन-कन्नौज के प्रतिहार वंश के गुर्जर साम्राज्य का संस्थापक नाग भट प्रथम हैं| दोनों प्रतिहार वंशो की वंशावली भी पूर्ण रूप से अलग हैं|

कन्नड़ कवि पम्प ने अपनी पुस्तक ‘पम्प भारत’ प्रतिहार शासक महीपाल को ‘गुज्जरराज’ कहा हैं| यहाँ भी गुर्जर शब्द जाति के लिए प्रयुक्त हुआ हैं, स्थान के लिए नहीं क्योकि गुर्जरत्रा महीपाल के साम्राज्य का एक छोटा सा हिस्सा मात्र था, अतः समूचे उत्तर भारत में फैले उसके विशाल साम्राज्य का संज्ञान ना लेकर कन्नड़ कवि क्यों उसे मात्र गुर्जरत्रा प्रान्त के नाम से पहचानेगा और केवल वही का शासक बतायेगा| यदि यहाँ गुज्जर देशवाचक शब्द हैं तो विस्तृत साम्राज्य के शासक को गुज्जर-राज की उपाधि देना तर्क संगत नहीं हैं| अतः गुज्जर शब्द यहाँ प्रतिहार शासक महीपाल की जाति का सूचक हैं|

राष्ट्रकूट शासक इंद्र III के 915 ई. के बेगुमरा प्लेट अभिलेख में कृष्ण II के ‘गर्जद गुर्जर’ के साथ युद्ध का उल्लेख हैं| इतिहासकार ने ‘गर्जद गुर्जर’ प्रतिहार शासक महीपाल के रूप में की हैं|

अरब लेखक अबू ज़ैद और अल मसूदी के अनुसार उत्तर भारत में अरबो का संघर्ष ‘जुज्र’ (गुर्जर) शासको से हुआ| इतिहासकारों के अनुसार जुज्र गूजर शब्द का अरबी रूपांतरण हैं| अरब यात्री सुलेमान (851 ई.), इब्न खुरदादबेह (Ibn Khurdadaba), अबू ज़ैद (916 ई.) और अल मसूदी (943ई.) ने गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य को जुर्ज़ अथवा जुज्र (गूजर) कहा हैं|  अबू ज़ैद कहता हैं कि कन्नौज एक बड़ा क्षेत्र हैं और जुज्र के साम्राज्य का निर्माण करता हैं| उस समय कन्नौज प्रतिहार साम्राज्य की राजधानी थी, अतः यह साम्राज्य जुज्र अर्थात गूजर कहलाता था| सुलेमान के अनुसार बलहर (राष्ट्रकूट राजा) जुज्र (गूजर) राजा के साथ युद्धरत रहता था| अल मसूदी कहता हैं कन्नौज के राजा की चार सेनाये हैं जिसमे दक्षिण की सेना हमेशा मनकीर (मान्यखेट) के राजा बलहर (राष्ट्रकूट) के साथ लडती हैं|  वह यह भी बताता हैं कि राष्ट्रकूटो का क्षेत्र कोंकण जुज्र के राज्य के दक्षिण में  सटा हुआ हैं| इस प्रकार यह भी स्पष्ट होता हैं कि राष्ट्रकूटो के अभिलेखों में जिन गुर्जर राजाओ का उल्लेख किया गया हैं वो कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार हैं|

अल इदरीसी (1154 ई,) के अनुसार के अनुसार प्रतिहार शासको उपाधि ‘गुर्जर’ थी तथा उनके साम्राज्य का नाम भी गुर्जर था| गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य उत्तर भारत में विस्तृत था

राजोर गढ़ के गुर्जर प्रतिहार- मथनदेव के 960 ई. के राजोर अभिलेख के चौथी पंक्ति में उसे ‘गुर्जर प्रतिहारानवय’ कहा गया हैं| इसी अभिलेख की बारहवी पंक्ति में गुर्ज्जर जाति के किसानो का स्पष्ट उल्लेख हैं| बारहवी पंक्ति में “गुर्जरों द्वारा जोते जाने वाले सभी पडोसी खेतो के साथ” शब्दों में स्पष्ट रूप से गुर्जर जाति का उल्लेख हैं अतः इतिहासकारों के बड़े वर्ग का कहना हैं कि चौथी पंक्ति में भी गुर्जर शब्द जाति के लिए प्रयुक्त हुआ हैं न की किसी स्थान या भोगोलिक इकाई के लिए नहीं| इस कारण से इतिहासकारो ने ‘गुर्जर प्रतिहारानवय’ का अर्थ गुर्जर जाति का प्रतिहार वंश बताया हैं| मथनदेव गुर्जर जाति के प्रतिहार वंश का हैं| इस अभिलेख से इतिहासकार इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रतिहार गुर्जर जाति का एक वंश था, अतः कन्नौज के प्रतिहार भी गुर्जर जाति के थे|

बूढी चंदेरी के प्रतिहार- दसवी शताब्दी के अंत में कड़वाहा अभिलेख में बूढी चंदेरी के प्रतिहार शासक हरिराज को ‘गरजने वाले गुर्जरों का भीषण बादल’ कहा गया हैं तथा उसका गोत्र प्रतिहार बताया गया हैं|

उज्जैन क्षेत्र में गुर्जरों में आज भी ‘पडियार’ गोत्र मिलता हैं| जोधपुर क्षेत्र में भी गुर्जरों में ‘पडियार’ गोत्र हैं|

निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता हैं की पांचो वंश मूल रूप से एक ही जाति-कबीले गुर्जर से सम्बंधित प्रतीत होते हैं| परन्तु वे भिन्न परिवार थे| तत्कालीन समाज में अपने परिवार-कुल की स्वीकार्यता को बढाने के लिए लोकप्रिय महाकाव्यों के पात्रो से स्वयं को जोड़ना स्वाभाविक प्रक्रिया हैं| अपने वंश के शासको का वेद-शास्त्र अर्थ में पारंगत होने की बात भी इसी सन्दर्भ में कही गई प्रतीत होती हैं|

सन्दर्भ

1. भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय संस्कृति के स्त्रोत, नई दिल्ली, 1991,
2.
रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिका, खंड-1 मेरठ, 2006
3.
ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
4.
के. सी.ओझा, दी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डिया, इलाहाबाद, 1968
5.
डी. आर. भण्डारकर, फारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख), इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्डX L 1911
6.
ए. एम. टी. जैक्सन, भिनमाल (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896
7.
विन्सेंट ए. स्मिथ, दी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडिया, चोथा संस्करण, दिल्ली,
8.
जे.एम. कैम्पबैल, दी गूजर (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2, बोम्बे, 1899
9.
के. सी. ओझा, ओझा निबंध संग्रह, भाग-1 उदयपुर, 1954
10.
बी. एन. पुरी. हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहार, नई दिल्ली, 1986
11.
डी. आर. भण्डारकर, गुर्जर (लेख), जे.बी.बी.आर.एस. खंड 21, 1903
12
परमेश्वरी लाल गुप्त, कोइन्स. नई दिल्ली, 1969
13.
आर. सी मजुमदार, प्राचीन भारत
14.
रमाशंकर त्रिपाठी, हिस्ट्री ऑफ ऐन्शीएन्ट इंडिया, दिल्ली, 1987

15. सुशील भाटी, मंडोर के प्रतिहार, जनइतिहास ब्लॉग, 2018