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Monday, March 19, 2018

“मेरे इतिहास लेखन का एक लक्ष्य उनके सिर लगवाना हैं जिनके सिर तोड़ दिए गए हैं|”


डॉ सुशील भाटी


2016 IGD के अवसर पर जावली में मैंने कहा था कि “मेरे इतिहास लेखन का एक लक्ष्य उनके सिर लगवाना हैं जिनके सिर तोड़ दिए गए हैं|” साथियो इतिहास अधिकतर सभ्रांत और अभिजात्य मानसिकता से लिखा जाता हैं| इस कारण से वर्तमान में गैर-अभिजात वर्ग में गिने वाले जाट, अहीर, गुर्जर, लोध, कुर्मी, जाटव, भील, मुंडा संथाल, मेव, मीणा लुहार, बढई आदि भारत की लगभग पांच हज़ार जातियों और कबीलों को भारतीय इतिहास में उचित स्थान नहीं मिल पाया हैं| नस्लीय तथा जातिगत पूर्वाग्रह से ग्रस्त अभिजात्य मानसिकता की वज़ह से, बहुधा इनकी ऐतिहासिक उपलब्धियों की उपेक्षा की गई हैं, या फिर इनके इतिहास को तोड मरोड़ कर अभिजात्य जातियों का इतिहास बना दिया गया हैं| गुर्जर शब्द स्थान वाचक हैं या कबीले का नाम? इस प्रश्न को खड़ा करके, गुर्जरों को उनके इतिहास से वंचित करने के प्रयासों से सभी परिचित हैं| वर्तमान इतिहास लेखन की इस परिपाटी से गैर-अभिजात्य कबीलों और जातियों का  इतिहास और उनकी पहचान मिटती जा रही हैं|

इस सब के बावजूद, समाज में अपनी सम्मान जनक पहचान पाने के लिए आतुर, ये गैर-अभिजात्य कबीले और जातियां अपना सही इतिहास लिखने के स्थान पर, अपने को मिथकीय पात्रो से जोड़कर देखने का औचित्यहीन प्रयास कर रहे हैं|


कुषाण/कसाना वंश के कनिष्क महान (78-101 ई.) और उसके पिता विम कडफिस भारत के मात्र ऐसे सम्राट हैं, जिनकी समकालीन मूर्तिया, हमें उनकी राजधानी मथुरा से, प्राप्त हुई हैं| लेकिन सभी मूर्तिया सिरविहीन हैं| हमारे पूर्वजों की ये सिरविहीन मूर्तिया हमारे मिटे हुए इतिहास और पहचान का प्रतीक हैं|


अपने ब्लॉग जनइतिहास पर, “गैर अभिजात्य कबीलों और जातियों के इतिहास लेखन” के माध्यम से, मैंने अपने पूर्वजों के चेहरों को पहचाने का प्रयास किया हैं| गुर्जरों के पूर्वज कनिष्क और और उसके वंश पर भी अनेक लेख इस ब्लॉग पर है| सम्राट कनिष्क का ‘राज्य रोहण दिवस’ ‘22 मार्च: अन्तराष्ट्रीय गुर्जर दिवस’ अपने पूर्वजों के इतिहास से जुड़ने और अपनी पहचान को पुनः कायम करने का एक साधन हैं|


भाई नरेन्दर कसाना (ग्राफ़िक डिज़ाइनर) साधुवाद के पात्र हैं, जिन्होने मेरे आग्रह पर सम्राट कनिष्क का ऐतिहासिक लक्षणों से युक्त एक सुंदर चित्र हमारे बीच रखा| ‘गुर्जर सम्राट कनिष्क महान ट्रस्ट’ और उससे जुड़े भाई संजू वीर गुर्जर, भाई अमित वीर कपासिया गुर्जर आदि भी साधुवाद के पात्र जिन्होने सम्राट कनिष्क की मूर्ति स्थापित करने के ऐतिहासिक कार्य का बीड़ा उठाया हैं| सम्राट कनिष्क के चित्र और मूर्ति का निर्माण हमारी प्रतीकात्मक विजय का उद्घोष हैं|


अन्य सन्दर्भ

1.सुशील भाटी, गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिधांत, जनइतिहास ब्लॉग, 2016
2.सुशील भाटी, प्राचीन भारत के इतिहास में नस्लीय पूर्वग्रह, जनइतिहास ब्लॉग. 2013
3.सुशील भाटी, भारतीय इतिहास लेखन में सभ्रांतवादी दृष्टिकोण , जनइतिहास ब्लॉग. 2014 
4.सुशील भाटी, भारत में जनइतिहास लेखन की चुनौती, जनइतिहास ब्लॉग. 2014 




Monday, March 5, 2018

जम्बूदीप का सम्राट कनिष्क कोशानो


डॉ सुशील भाटी

Key words- Kanishka, Koshano, Jambudweep, Bharata, Gurjara, Varaha

कनिष्क कोशानो (कुषाण) वंश का महानतम सम्राट था| कनिष्क महान एक बहुत विशाल साम्राज्य का स्वामी थाउसका साम्राज्य मध्य एशिया स्थित काला सागर से लेकर पूर्व में उडीसा तक तथा उत्तर में चीनी तुर्केस्तान से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक फैला हुआ थाउसके साम्राज्य में वर्तमान उत्तर भारतपाकिस्तानअफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान का  हिस्सातजाकिस्तान का हिस्सा और चीन के यारकंदकाशगर और खोतान के इलाके थे| कनिष्क भारतीय इतिहास का एक मात्र सम्राट हैं जिसका राज्य दक्षिणी एशिया के बाहर मध्य एशिया और चीन के हिस्सों को समाये थावह इस साम्राज्य पर चार राजधानियो से शासन करता थापुरुषपुर (आधुनिक पेशावर) उसकी मुख्य राजधानी थीमथुरातक्षशिला और कपिशा (बेग्राम) उसकी अन्य राजधानिया थीकनिष्क कोशानो का साम्राज्य (78-101 ई.) समकालीन विश्व के चार महानतम एवं विशालतम साम्राज्यों में से एक था| यूरोप का रोमन साम्राज्य, ईरान का सासानी साम्राज्य तथा चीन का साम्राज्य अन्य तीन साम्राज्य थे|

कोशानो साम्राज्य का उद्गम स्थल बैक्ट्रिया (वाहलिक, बल्ख) माना जाता हैं| प्रो. बैल्ली के अनुसार प्राचीन खोटानी ग्रन्थ में बाह्लक राज्य के शासक चन्द्र कनिष्क का उल्लेख किया गया हैं| खोटानी ग्रन्थ में लिखा हैं कि बाह्लक राज्य स्थित तोखारिस्तान के राजसी परिवार में एक बहादुर, प्रतिभाशाली और बुद्धिमान ‘चन्द्र कनिष्क’ नामक जम्बूदीप का सम्राट हुआ| फाहियान (399-412 ई.) के अनुसार कनिष्क द्वारा निर्मित स्तूप जम्बूदीप का सबसे बड़ा स्तूप था| चीनी तीर्थ यात्री हेन सांग (629-645 ई.) ने भी कनिष्क का जंबूदीप का सम्राट कहा गया हैं|

वस्तुतः जम्बूदीप प्राचीन ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन ग्रंथो में वर्णित एक वृहत्तर भोगोलिक- सांस्कृतिक इकाई हैं तथा भारत जम्बूदीप में समाहित माना जाता रहा हैं| प्राचीन भारतीय समस्त जम्बूदीप के साथ एक भोगोलिक एवं सांस्कृतिक एकता मानते थे| आज भी हवन यज्ञ से पहले ब्राह्मण पुरोहित यजमान से संकल्प कराते समय ‘जम्बूद्वीपे भरत खण्डे भारत वर्षे’ का उच्चारण करते हैं| अतः स्पष्ट हैं कि जम्बूदीप भारतीयों के लिए उनकी पहचान का मसला हैं तथा भारतीय जम्बूदीप से अपने को पहचानते रहे है| प्राचीन ग्रंथो के अनुसार जम्बूदीप के मध्य में सुमेरु पर्वत हैं जोकि इलावृत वर्ष के मध्य में स्थित हैं| इलावृत के दक्षिण में कैलाश पर्वत के पास भारत वर्ष, उत्तर में रम्यक वर्ष, हिरण्यमय वर्ष तथा उत्तर कुरु वर्ष, पश्चिम में केतुमाल तथा पूर्व में हरि वर्ष हैं| भद्राश्व वर्ष और किम्पुरुष वर्ष अन्य वर्ष हैं| यह स्पष्ट हैं कि कनिष्क के साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले मध्य एशिया के तत्कालीन बैक्ट्रिया (वाहलिक, बल्ख) क्षेत्र, यारकंद, खोटन एवं कश्गर क्षेत्र, आधुनिक अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और उत्तर भारत के क्षेत्र जम्बूदीप को समाये थे| कुषाणों के इतिहास के लिहाज़ से यह बात अति महतवपूर्ण हैं कि इतिहासकार जम्बूदीप स्थित ‘उत्तर कुरु वर्ष’ की पहचान तारीम घाटी क्षेत्र से करते हैं, जहाँ से यूची कुषाणों की आरंभिक उपस्थिति और इतिहास की जानकारी हमें प्राप्त होती हैं| अतः कुषाण आरम्भ से ही जम्बूदीप के निवासी थे| इसी कारण से कुषाणों को हमेशा भारतीय समाज का हिस्सा माना गया तथा प्राचीन भारतीय ग्रंथो में कुषाण और हूणों को (व्रात्य) क्षत्रिय कहा गया हैं|

प्राचीन भारतीय ग्रंथो के अनुसार उत्तर कुरु वर्ष (यूची कुषाणों के आदि क्षेत्र) में वराह की पूजा होती थी| यह उल्लेखनीय हैं कि गुर्जर प्रतिहार शासक (725-1018 ई.) भी वराह के उपासक थे तथा  कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की गई हैं|

सन्दर्भ

1ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
2. के. सी.ओझादी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डियाइलाहाबाद, 1968 
3. डी. आर. भण्डारकरफारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख)इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्डX L 1911
4. ए. एम. टी. जैक्सनभिनमाल (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896
5. विन्सेंट ए. स्मिथदी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडियाचोथा संस्करणदिल्ली,
6. जे.एम. कैम्पबैलदी गूजर (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2, बोम्बे, 1899
7.बी. एन. पुरी. हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहारनई दिल्ली, 1986
8. सुशील भाटी, गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिधांत, जनइतिहास ब्लॉग, 2016 
9. सुशील भाटी, मिहिर उपासक वराह पर्याय हूण, जनइतिहास ब्लॉग, 2013 



Wednesday, January 24, 2018

मंडोर के प्रतिहारो की वंशावली

डॉ सुशील भाटी



          लक्ष्मण
          :
           : 
                                       हरिचन्द्र उर्फ़ रोहिल्लाधि (विप्र ) + भद्रा (क्षत्रिय पत्नी)
                                                     |                           
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|                          |                          |                           |  
भोग भट                  कक्क                     रज्जिल                        दद्द
                                                     |
                                                   नर भट
                                                     |
                                                   नाग भट
                                                     |
                                         ...............................................
                                         |                          |
                                        तात                       भोज
                                         |
                                      यशोवर्धन
                                         |
                                       चंदुक
                                         |
                                       सीलुक
                                         |
                                        झोट
                                         |                                                        
                                     भिल्लादित्य
                                         |
                              पद्मिनी + कक्क + दुर्लभा देवी     
                                    |        |
                                   बौक      कक्कुक
                                ( 837  ई.)    (861 ई.)   
                  
बौक के जोधपुर अभिलेख (837 ई.)  तथा कक्कुक के घटियाला अभिलेख (861ई.) से हमें मंडोर के प्रतिहारो का इतिहास पता चलता हैं| बौक के जोधपुर अभिलेख में मंडोर के प्रतिहार वंश के संस्थापक हरिचन्द्र को विप्र कहा गया हैं| विप्र का अर्थ ज्ञानी होता हैं| दोनों ही अभिलेखों में हरिचन्द्र की जाति और वर्ण के विषय में स्पष्ट सूचना नहीं दी गई हैं| हरिचन्द्र की दो पत्नी बताई गई हैं, एक ब्राह्मण और दूसरी क्षत्रिय पत्नी भद्रा| जोधपुर अभिलेख के अनुसार क्षत्रिय पत्नी भद्रा के वंशजो ने मंडोर राज्य की स्थापना की थी| जोधपुर अभिलेख में मंडोर के प्रतिहार राजा बौक ने दावा किया हैं कि रामभद्र (रामायण के राम) के भाई लक्ष्मण उनके वंश के आदि पूर्वज हैं| अपने वंश के नाम प्रतिहार को भी उन्होंने लक्ष्मण से सम्बंधित किया हैं|

हरिचन्द्र को वेद और शास्त्र अर्थ जानने में पारंगत बताया गया है| कक्कुक के घटियाला अभिलेख के अनुसार वह प्रतिहार वंश का गुरु था|  जोधपुर अभिलेख में भी उसे प्रजापति के समान गुरु बताया गया हैं| प्रजापति सृष्टी के संस्थापक (पिता) और गुरु दोनों हैं, अतः वेद शास्त्र अर्थ में पारंगत विद्वान (विप्र) हरिचन्द्र मंडोर के प्रतिहार वंश का संस्थापक और गुरु था|

हेन सांग (629-645 ई.) के अनुसार सातवी शताब्दी में दक्षिणी गुजरात में भड़ोच राज्य भी विधमान था| भड़ोच राज्य के शासको के कई ताम्र पत्र प्राप्त हुए हैं, जिनसे इनकी वंशावली और इतिहास का पता चलता हैं| इन शासको ने स्वयं को गुर्जर राजाओ के वंश का माना हैं| मंडोर के प्रतिहारो और उनके समकालीन भड़ोच के गुर्जरों की वंशावली के तुलान्तामक अध्ययन से पता चलता हैं कि इन वंशो के नामो में कुछ समानताए हैं| भड़ोच के ‘गुर्जर नृपति वंश’ के संस्थापक का नाम तथा मंडोर के प्रतिहार वंश के संस्थापक हरिचन्द्र के चौथे पुत्र का नाम एक ही हैं- दद्द| कुछ इतिहासकार इन दोनों के एक ही व्यक्ति मानते हैं|  दोनों वंशो के शासको के नामो में एक और समानता ‘भट’ प्रत्यय की हैं| भट का अर्थ योद्धा होता हैं| मंडोर के प्रतिहारो में भोग भट, नर भट और नाग भट हैं तो भड़ोच के गुर्जर वंश में जय भट नाम के ही कई शासक हैं| दोनों वंशो के शासको के नामो की समानताओ के आधार पर इतिहासकार भड़ोच के गुर्जर वंश को मंडोर के प्रतिहारो की शाखा मानते हैं| किन्तु इसमें आपत्ति यह हैं कि भड़ोच के गुर्जर अपने अभिलेखों में महाभारत के पात्र ‘भारत प्रसिद्ध कर्ण’ को अपना पूर्वज मानते हैं नाकि मंडोर के प्रतिहारो की तरह रामायण के पात्र लक्ष्मण को|

मंडोर के प्रतिहारो और उनके समकालीन उज्जैन-कन्नौज के प्रतिहारो की वंशावली के तुलनात्मक अध्ययन से भी उनके मध्य कुछ समानताए दिखाई पड़ती हैं| दोनों अपना आदि पूर्वज रामायण के पात्र लक्ष्मण को मानते हैं| दोनों ही वंशो में नाग भट और भोज नाम मिलते हैं| किन्तु मंडोर राज्य के प्रतिहार वंश का संस्थापक हरिचन्द्र हैं, तो मिहिर भोज (836-885 ई.) के ग्वालियर अभिलेख के अनुसार उज्जैन-कन्नौज के प्रतिहार वंश के गुर्जर साम्राज्य का संस्थापक नाग भट प्रथम हैं| दोनों प्रतिहार वंशो की वंशावली भी पूर्ण रूप से अलग हैं|

निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता हैं की तीनो वंश मूल रूप से एक ही जाति-कबीले से सम्बंधित प्रतीत होते हैं| परन्तु वे भिन्न परिवार थे| तत्कालीन समाज में अपने परिवार-कुल की स्वीकार्यता को बढाने के लिए लोकप्रिय महाकाव्यों के पात्रो से स्वयं को जोड़ना स्वाभाविक प्रक्रिया हैं| अपने वंश के शासको का वेद-शास्त्र अर्थ में पारंगत होने की बात भी इसी सन्दर्भ में कही गई प्रतीत होती हैं|

सन्दर्भ

1. भगवत शरण उपाध्यायभारतीय संस्कृति के स्त्रोतनई दिल्ली, 1991, 
2. रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिकाखंड-मेरठ, 2006
3. ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
4. के. सी.ओझादी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डियाइलाहाबाद, 1968  
5. डी. आर. भण्डारकरफारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख)इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्डX L 1911
6. ए. एम. टी. जैक्सनभिनमाल (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896
7. विन्सेंट ए. स्मिथदी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडियाचोथा संस्करणदिल्ली,
8. जे.एमकैम्पबैलदी गूजर (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2बोम्बे, 1899
9.के. सी. ओझा, ओझा निबंध संग्रह, भाग-1 उदयपुर, 1954
10.बी. एन. पुरी. हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहार, नई दिल्ली, 1986
11. डी. आर. भण्डारकरगुर्जर (लेख)जे.बी.बी.आर.एस. खंड 21, 1903
12 परमेश्वरी लाल गुप्त, कोइन्स. नई दिल्ली, 1969
13. आर. सी मजुमदार, प्राचीन भारत
14. रमाशंकर त्रिपाठी, हिस्ट्री ऑफ ऐन्शीएन्ट  इंडिया, दिल्ली, 1987

Wednesday, January 17, 2018

The Royal Insgnia of Kanishka


Dr Sushil Bhati

Key words- Shiva, Durga, Nana, Pashupatastra, Brahmshira, Brahmastra, Nandipada, Kanishka, Four pronged Tamga

The royal insignia found on Kanishka’S coin is also known as Kanishka’s Tamga.  Kanishka’s tamga have curved bottom with four prongs at the top. Due to its four prongs it may be  called Chaturshool or Quadrant. The Royal Insignia of Koshano (Kushana) king Kanishka symbolizes both the King and the dynasty. It was also used as the royal seal. The symbol was first used by Vima Kadphises, the father of Kanishka, as a royal insignia on his coin. Vima Kadphises was the worshipper of Shiva and he took the title of Maheshwar i.e. the devotee of Mahesh (Shiva).
The Royal Insignia of Kanishka

Shaivite Symbols were also used earlier as Tamga. Nandipada Tamga, symbol representing the foot mark of Ox Nandi, the vehicle of lord Shiva was used earlier as tamga in North-Western India. Koshano kings, specially, Vima Kadphises had a shaivite leaning. Thus, according to some historians the four pronged tamga of Kanishka is a compound of the foot print of Nandi, vehicle of Shiva and Shiva’s war weapon Trishula (trident). But then the question arises why instead of three there are four prongs in Kanishka’s tamga?

Beside Trishul, Shiva possesses a powerful four pronged weapon, known in puranic literature as Pashupatastra, with which he killed the daityas and with which he will destroy the universe at the end of the yuga. Pashupatastra is a kind of Brahmashira astra. Brahmashira astra, in turn, is a kind of Brahmastra. All the Brahmastra are very powerful and destructive weapons said to be made by Brahma. Brahmashira is four time powerful than simple Brahmastra. Brahmashira Astra would manifest with four heads of Brahma at its tip. Apparently Brahmashira astra was a four pronged arrow. It can be launched in four manners- with a thought, a glance, a word or a bow.  So it suggests that four prongs in Kaniska’s tamga represent the four prong of Shiva’s weapon Pashupatastra.
Kanishka's coin with Shiva and four pronged tamga

We also have other example of Pashupatastra being as a motif in piece of art. A seal depicting two armed goddess, with legend Durggaha in Gupta script, has been discovered from Rajghat, Varanasi. The goddess is shown with a wreath in left and four pronged object in right hand. Four pronged object in right hand of Godess Durga represent the Pashupatastra (Brahmashirsha Astra) as Pashupatastra also belongs to the Durga, the destructive manifestation of Parvati, the wife of Shiva.  As the Shiva and Durga are spouses to each other, it is some time better to see their concerned religious beliefs together as a whole. Koshano kings with a shaivite leaning played an important role in development of Durga worship cult. Thus, depiction of Pashupatiastra of Shiva-Durga on their coin is quite natural.  According to the Rabatak inscription Nana (Durga) was most revered deity of Kanishka. AS the four pronged Pashupatastra also belongs to Shiva’s wife Durga there is high probability that four pronged Tamga represent the Pashupatastara.

A small female figure with lion at her feet is found from a devkula, dedicated to Vima Kadphises, at Mat in Mathura. According to V S Aggarwal the statue is supposed to be that of Goddess Durga. B N Mukherjee considers it to be the statue of Bactrian goddess Nana, introduced by Koshano kings in India. In Rabatak inscription it has been said that Kanishka got the kingship with the grace of goddess Nana and other deities. In fact, Nana and Durga are supposed to be one and the same deity. Nana and Durga have common attributes. Both are war goddess and depicted as sitting on the Lion on the coins and other sources. Nana is depicted as sitting on lion on koshano king Huviska’s coin. A goddess with legend Ommo (Uma,Shiva’s wife) is shown with Oesho (Shiva) on Koshano coins. Similarly on some other Koshano coins the name of the goddess with Shiva is given as Nana. Hence Nana is identical with Uma. As Durga is another name of Uma, Nana and Durga are identified as one and the same deity. The name of Nana survives in deity that of Naina Devi whose famous shrine is at Bilaspur in Himachal Pradesh. Naina devi temple is considered to be a seat of Durga.  It is interesting to note that it is believed that idol (pindi) of Naina Devi was discovered by a member of Gujar tribe. The Gujars are identified by Alexander Cunningham as historical Koshanos (Kushanas), who introduced the goddess Nana in India. In this way name of Koshanos (Kushanas) is still connected with deity Nana.

The name of Kanak Durga temle of Vijaywada, Andra Pradesh and the story related to its establishment also associate the name of Kanishka with the Pashupatastra, in some way.  According to Kiratarjuniya, written by Bharvi in sixth century A D, a combat between Shiva and Arjuna was fought at the Indrakeeladri hills in present Vijaywada of Andhra Pradesh. Shiva got pleased with the bravery of Arjuna and gave him Pashupatastra, (Brahmashirsha Astra) the four pronged arrow. Beside Shiva, Pashupatastra belonged to the Durga, the destructive manifestation of his wife Parvati. Arjuna also worshipped Durga at the same place and got her blessings too for his success in upcoming war with Kauravas. He built there a temple of the goddess Durga, now known as Kanak Durga. Kanishka is called Kanak (kanik) by Al-biruni (973-1048 A. D.) in his book Tahqiqe Hind. Thus, the name of the Kanaka Durga temple suggests its connection with Kanishka. According to Chinese pilgrim Wang Hsuan-tse, who visited India in seventh century, Kanishka invaded the Satvahana king of modern Maharastra and Andhra Pradesh. So it is possible that Kanishka visited the place and renovated the Durga temle at Indrakeeladri hill. The fact that Durga temple said to be built by Mahabharta hero Arjuna came to be known with the name of Kanishka seems interesting. It equates the name of kanishka with that of Arjuna, the receiver of Pashupatastra (Brahmashira astra), the four pronged arrow, from Shiva.

As per the discussion above, in my view, Kaniska’s royal insignia is compound of four pronged Pashupatastra and foot print of Nandi.

References –

1.     Bhaskar Chattopadhyay, The Age Of The Kushanas- A Numismatic Study, Calcutta, 1967
2.     Bharat Bhushan, Shiva-The Amazing Archer, Lonavala, 2011
3.     Sree Padma, Vicissitudes of the Godess: Reconstruction of the Gramadevata , 2013
4.     John M Rosenfield, The Dynastic Arts Of Kushans
5.     J A B, van Buitenen (Editor), The Mahabharata, Vol. I , Chicago, 1973
6.     Maggi Lidchi-Grassi, The Great Golden Sacrifice Of The Mahabharata, NOIDA, 2011
7.     B N Mukherjee, Nana on Lion: A Study In Kushana Numismatic arts, Asiatic Society, 1969
8.     Umakant P Shah, Jaina-Rupa-Mandana (Jaina Iconography), New Delhi, 1987
9.     Chidatman Swami, The Sacred Scriptures of India, Vol. IV, New Delhi,2009,
10.    Gregor Maehle, Ashtanga Yoga: Mythology, Anatomy and Practice, California, 2009

Thursday, January 11, 2018

कनिष्क एवं कश्मीर


डॉ सुशील भाटी

Keywords- Kashmir, Kanishka, Lohkot, Laur, Rajasthan, Bhinmal, Gujar,

हेन सांग के अनुसार कनिष्क गंधार का शासक था तथा उसकी राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) थी| उसके अनुसार कश्मीर कनिष्क के साम्राज्य (78-101 ई.) का अंग था| कनिष्क ने कश्मीर स्थित कुंडलवन में एक बौद्ध संगति का आयोज़न किया, जिसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी| इस संगति में बौद्ध धर्म हीनयान और महायान सम्रदाय में विभाजित हो गया|

कल्हण कृत राज तरंगिणी के अनुसार कनिष्क ने कश्मीर पर शासन किया तथा वह कनिष्क पुर नामक नगर बसाया था| अब यह स्थान बारामुला जिले में स्थित कनिसपुर के नाम से जाना जाता हैं|

कुछ इतिहासकारों के अनुसार कश्मीर के साथ कनिष्क का गहरा सम्बन्ध था| कोशानो (कुषाण) साम्राज्य की बागडोर अपने हाथो में लेने से पहले कनिष्क कश्मीर में शासन करता था|

कैम्पबेल के अनुसार दक्षिण राजस्थान में यह परंपरा हैं कि लोह्कोट के राजा कनकसेन   (कनिष्क) ने उस क्षेत्र को जीता था| उसके अनुसार यह लोह्कोट कश्मीर में स्थित एक प्रसिद्ध किला था| लोह्कोट अब लोहरिन के नाम से जाना जाता हैं तथा कश्मीर के पुंछ क्षेत्र में पड़ता हैं| ए. एम. टी. जैक्सन ने बॉम्बे गजेटियर’ में भीनमाल का इतिहास विस्तार से लिखा हैंजिसमे उन्होंने भीनमाल में प्रचलित ऐसी अनेक लोक परम्पराओ और मिथको का वर्णन किया है जिनसे भीनमाल को आबाद करने मेंकुषाण सम्राट कनिष्क की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका का पता चलता हैं| उसके अनुसार भीनमाल में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण कश्मीर के राजा कनक (कनिष्क) ने कराया था। कनिष्क ने वहाँ करडा’ नामक झील का निर्माण भी कराया था। भीनमाल से सात कोस पूर्व में कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है। ऐसी मान्यता हैं कि भीनमाल के देवड़ा गोत्र के लोगश्रीमाली ब्राहमण तथा भीनमाल से जाकर गुजरात में बसे, ओसवाल बनिए राजा कनक (सम्राट कनिष्क) के साथ ही काश्मीर से भीनमाल आए थे। ए. एम. टी. जैक्सन श्रीमाली ब्राह्मण और ओसवाल बनियों की उत्पत्ति गुर्जरों से मानते हैं| केम्पबेल के अनुसार मारवाड के लौर गुर्जरों में मान्यता हैं कि वो राजा कनक (कनिष्क कुषाण) के साथ लोह्कोट से आये थे तथा लोह्कोट से आने के कारण लौर कहलाये

अतः काल क्रम में कनिष्क को कश्मीर के शासक के रूप में जाना-पहचाना गया हैं तथा इस बात के प्रमाणिक संकेत मिलते हैं कि राजस्थान और गुजरात के गुर्जर तथा गुर्जर मूल के कुछ समुदाय कोशानो (कुषाण) सम्राट कनिष्क के साथ इन क्षेत्रो में बसे थे|  

सन्दर्भ

1ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
2. के. सी.ओझादी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डियाइलाहाबाद, 1968 
3. डी. आर. भण्डारकरफारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख)इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्डX L 1911
4. ए. एम. टी. जैक्सनभिनमाल (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896
5. विन्सेंट ए. स्मिथदी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडियाचोथा संस्करणदिल्ली,
6. जे.एम. कैम्पबैलदी गूजर (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2, बोम्बे, 1899

7.बी. एन. पुरी. हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहारनई दिल्ली, 1986